Monday, 30 September 2024

पित्तस्थान = शिर तस्मात् घृतनस्य, विना यंत्रणा नेत्रतर्पण तथा घृत पिचु @ कनीनक

पित्तस्थान ✅️ (कफस्थान X) = शिर, तस्मात् घृतनस्य✅️ (तैलनस्य X),  विना यंत्रणा नेत्रतर्पण तथा घृत पिचु @ कनीनक

लेखक ✍🏼 : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871


तैलम् घृतम् एव ✅️ च नस्यार्थे नित्याभ्यासेन शस्यते॥३३॥ 

शिरसः श्लेष्म पित्त ✅️ धामत्वात् स्नेहाः स्वस्थस्य नेतरे। 


यह प्रसिद्ध श्लोक सभी को ज्ञात है ही,

किंतु तैल (विशेषतः अणुतैल) का नस्य करने के बाद कितना प्रक्षोभ/irritation होता है, यह कुछ लोगो ने तो निश्चित ही अनुभव किया होगा या पेशंट को प्रक्षोभ होते हुए देखा/ सुना होगा.


यदि तैल की बजाय, नस्य के लिये तप्तांबु प्रविलायित (हॉट वॉटर बाथ लिक्विफाईड) घृत का प्रयोग करेंगे, तो ऐसा प्रक्षोभ न होते हुए , अत्यंत लाभदायक परिणाम प्राप्त होते है ... की उपरोक्त श्लोक का रूपांतरण आगे लिखे हुए श्लोक मे करना योग्य है , ऐसा आपका भी मत होगा


*घृतम्* एव च नस्यार्थे नित्याभ्यासेन शस्यते॥ 

शिरसः *पित्त* धामत्वात् स्नेहाः स्वस्थस्य नेतरे। 


शिरस् यह कफ स्थान न होकर, मुख्यतः पित्त का (तथा वात का उपस्थान या शिरस् यह कफ का गौण) स्थान है


तस्मात नित्य अभ्यास की दृष्टी से नस्य में घृत का हि प्रयोग करे ✅️ ... न की तैल का!

केवल नित्य अभ्यास हि नही,

अपितु *अनेक शिरोविकारों के लिए "घृतनस्य" हि उचित औषध है*


उपरोक्त विधान मे दो (2) मुख्य बाते है ...

A)

शिर कफ का स्थान न होकर, पित्त का स्थान है. पित्तवात का स्थान है अग्नि वायु का स्थान है. 

रूपांतरण (tranform) और स्थानांतरण(transport) का स्थान है 

सत्त्व तथा रजो गुणों का स्थान है ...

न कि श्लेष्मा की तरह जल पृथ्वी क्लेद स्थैर्य गौरव स्निग्धता गतिहीनता एवं तमोगुण इनका!


B)

घृत अग्निशामक पित्तशामक है, दाह शामक है निर्वापक शीत है स्निग्ध है, शीतस्निग्ध ऐसे धातुक्षय को भरने वाले, बृंहणकारी, संतर्पणकारक ...घृत का नस्य हि सर्वाधिक उपयोगी है 


शमनं नीलिकाव्यङ्गकेशदोषाक्षिराजिषु॥

ये 👆🏼शमन नस्य के इंडिकेशन्स है, जो सभी के सभी प्रायः पित्त जन्य है ... इसलिये शमन नस्य में क्षीर = दुग्ध का भी प्रयोग किया गया है


शमनं योजयेत्पूर्वैः क्षीरेण सलिलेन वा


शिरःशूल शिरोदाह नेत्रदाह कर्णनाद ऐसे वातपित्त प्रधान लक्षण/ अवस्था मे क्षीर का नस्य शीघ्रही उपशमकारक होता है


1.

शिर कफ का स्थान नही है, 

इसीलिए शिर के उपर उष्णोदक का निषेध है 

शिर तो पित्त का अग्नि का विशेष स्थान है, इसी कारण से वहां पर उष्णोदक का निषेध है 

अगर वह कफ का स्थान होता, 

तो उष्णोदक वहां पर उचित होता


2.

शिरो रोग की संप्राप्ती मे चरक ने वातादयों के साथ *रक्त का भी प्रकोप होता है या दूषण होता है*, ऐसे लिखा है, इससे स्पष्ट है की रक्त अर्थात पित्त अर्थात अग्नि का हि स्थान शिर है, न कि मुख्य रूप से, कफ का


3.

पंचमहाभूतो मे आकाश तो विभु है, इस कारण से महाभूतों के जो दो(2) ग्रुप बनते है, उसमे पहला भौमापम् अर्थात भूमि जल इनका है ... तो दूसरा अर्थात अग्नि वायु इनका है, 

पहला बृंहण, दूसरा लंघन 

पहला संतर्पण, दूसरा अपतर्पण 

पहला वृद्धि, दुसरा क्षय का कारण है 

इसी को दर्शाते हुए वाग्भट सूत्र 9 मे, जहां पर पंच महाभूतों का वर्णन विस्तार से आया है ,

वहां 

अधोगामि च भूयिष्ठं भूमितोयगुणाधिकम्॥

इसका स्पष्ट अर्थ ये है कि, भूमि और जल से बनने वाला भाव पदार्थ अर्थात कफ दोष यह अधोगामी है. इस कारण से वह शरीर के उत्तमांग मे, सर्वोच्च भाग मे टॉप लेव्हल मे अर्थात शिरमे मुख्य स्थान प्राप्त नहीं कर सकता है 

या शिर कफ का स्थान है, ऐसा कहना यह महाभूत सिद्धांत के विरुद्ध या शास्त्र विरुद्ध आगम विरुद्ध है.


वैसे भी अधोगामी होने के कारण, भूमि जल प्रधान होने के कारण ही, कफ प्रधान जो शारीर भाव है, जैसे पुरीष मूत्र गर्भ शुक्र (और कुछ प्रमाण में रज) ये सारे अधोगामी है और इसी कारण से शरीर के अधोभाग मे नाभि के नीचे उपस्थित, शरीर का सर्वाधिक गौरव युक्त पुष्ट मांसल अवयव सक्थि नितंब पिंडिका ये भी शरीर के अधो भाग मे ही उपस्थित है. इस कारण से कफ का शरीर मे स्थान, यह नाभि/हृदय के ऊपर, ऐसा न कहते हुए, या शिर है ... ऐसा न कहते हुए ... नाभि के नीचे ही कफ का स्थान है ऐसा कहना अत्यंत उचित है.


5.

शिर व उर , ये तो पित्त और वात के हि स्थान है ! शिर व उर , ये कफ के स्थान है हि नही


6.

उर तो निश्चित रूप से वात का हि स्थान है ...

यद्यपि कफ का प्रमुख स्थान उर "बताया" गया है, किंतु उर मे, आज की दृष्टि से देखा जाये तो जीवन के आरंभ से जीवन के अंतिम क्षण तक, प्रति क्षण अखंड एक स्पंदन एक आवागमन एक अत्यंत तीव्र विक्षेप सामर्थ्य की गतियुक्त घटनाये निरंतर चलती रहती है, इसलिये यह प्राण का, यह श्वास का, रक्तविक्षेपण का अर्थात यह वात का स्थान है! 


7.

वैसे देखा जाये तो वात के "कथित (so called, hypothetical)" पाच प्रकारो मे से प्राण उदान और व्यान इनका स्थान भी उर हि है ... इसलिये दोष और उनके मुख्य स्थान तथा उपस्थान इनका पुनर्विचार, पुनः प्रस्थापन पुनर्वितरण, यह शास्त्र की आधुनिकीकरण की दृष्टि से या *"आधुनिक आयुर्वेद की प्रस्थापना"* की दृष्टि से आवश्यक है 


8.

अगर नाभि के उर्ध्व या हृदय के उर्ध्व ; इन की बातों को थोडा बाजू को रख के, केवल शिर की हि बात करे, तो शिर तो वात का भी स्थान है, क्योंकि अगर शिर में देखा जाये तो कई सारे रिक्त जगह अवकाश vaccuoles दिखाई देते है, इससे यह सुनिश्चित होता है, कि यह आकाश वायु प्रधान अवयव है.


9.

संहितोक्त श्लोक का भी पुनर्विचार करना आवश्यक आहे


शिरःस्कन्धोरुपृष्ठस्य कट्याः सक्थ्नोश्च गौरवम्।


इन अवयव में स्थित मांस, "यथा पूर्व गुरु" है, ऐसा इस श्लोक मे उल्लेख है.


इस श्लोक के अनुसार ...

तुलना मे, शिरस् स्थित मांस सर्वाधिक गुरु तथा सक्थि स्थित मांस सर्वाधिक लघु है, ऐसा इनके मांस के विषय मे उल्लेखित है, चरक एवं वाग्भट में


किंतु अगर ठीक से देखा जाये, तो सर्वाधिक मांस यह सक्थि मे ही होता है और जैसे जैसे कटी पृष्ठ उर स्कंध इस दिशा मे आते जायेंगे , वैसे मांस लघु होता चला जाता है , क्योंकि वहां के मसल की साईज/thickness (और उसमे होने वाली वसा = fat lipids cholesterol?) इनका प्रमाण कम होते जाता है.


शिर मे तो मांस है हि नही , अगर मन्या गल ग्रीवा गर्दन यहां का भाग छोड दिया जाय , तो उर्वरित शिर मे तो केवल अस्थिकंकाल या अस्थियों से बनने वाले सायनस= रिक्त जगह= अवकाश हि है, तो वहां के मांस की लघुता सर्वाधिक है. सक्थि की तुलना मे तो शिरो मांस लघुतम है और शिर की तुलना मे सक्थि मांस यह सर्वाधिक गुरु है ... *यह प्रॅक्टिकली देखा जा सकता है

और जो लोग मांस नित्य रूप से खाते है , उनको भी इस प्रकार का अनुभव = प्रचिती आती है


10.

कर्ण यह तो आकाश महाभूत का हि अवयव है 


वाचा कर्मेंद्रिय अग्नि से है और वाणी वायु से ही आती है 


नेत्र यह अवयव तो स्पष्ट रूप से अग्नि का ही है 


11.

और मनुष्य जीवन का 90% जो नॉलेज है, वो जिन इंद्रियों से इनपुट के रूप मे शरीर मे आता है, उनका ॲनालिसिस = उनका रूपांतरण transformation = *पचन* और उनका बुद्धी स्मृती अनुभव के रूप मे मनुष्य के जीवन मे चिरकाल तक दीर्घकाल तक या अंतकाल तक निर्धारण संगोपन संरक्षण, यह करना ये जो रूपांतरण=पचन की बात है... इन्फॉर्मेशन टू नॉलेज ट्रान्सफॉर्मेशन की बात है, ये जहाँ पर निरंतर रूप से चल रहा है , वह स्थान अग्नि का / पित्त का है , इसमे कोई संदेह नही होना चाहिए .


12.

पित्त अत्यंत बढ जाये तो होने वाला शिरःशूल विशेषतः शंख प्रदेश का शूल, यह भी शिर के पित्त स्थान होने की पुष्टी करता है. 


13.

अनेक लोगों को अम्लपित्त होने पर या मायग्रेन के समय जो शंख प्रदेश मे शूल होता है, वह पित्त की छर्दि होने के बाद उपशम प्राप्त होता है


14.

क्रोध के कारण या धूपके कारण अर्थात उष्णता के कारण पित्त की जो वृद्धी होती है, तो जो शूल होता है, वो प्रायः शिर मे हि होता है या स्पंदन रूप शूल होता है, वो भी शिर में ही होता है 


15.

सुश्रुत ने नही अपितु, चरकने शिरो रोग के कारण बताते समय तीनो दोषों के साथ *रक्त भी दूषित होता है* ऐसा उल्लेख किया. रक्त अर्थात पित्त अर्थात अग्नि. अर्थात यह विधान भी शिर पित्त का ही स्थान है, इसका समर्थन करता है 


16.

ब्लड प्रेशर अत्यधिक होने पर होने वाला शूल और ब्लड प्रेशर अतिशय कम होने के पश्चात् होने वाला भ्रम तथा तिमिर दर्शन यह लक्षण भी शिर मे ही होते है, इससे ये अधोरेखित होता है कि शिर यह पित्त का ही स्थान है , न कि कफ का 


17.

अगर शिर यह कफ का स्थान होता तो जैसे उष्ण द्रव्य के नस्य के पश्चात कफ का शमन होने से शिरमे सुख संवेदना होना, संभव होता. किंतु तैलके नस्य के पश्चात् अत्यंत क्षोभ संरंभ होता है ,

यह , शिर में कफ नही, अपितु पित्त का हि प्राधान्य है, शिर पित्त का हि स्थान है, इसका द्योतक है , इसमे कोई संदेह नही होना चाहिए .


18.

वैसे तो मै, आज जिसे ब्रेन कहते है या शास्त्र मे जिसे मस्तुलुंग कहा गया है, इसे मैं स्वयं मज्जा नहीं समझता, क्यों की मज्जा तो अस्थि के अंतर्गत होती है = it is intra bone = in side of bone cavity जैसे की हम टीबिया, अल्ना फिमर इनके अंतः प्रदेश मे cavity मे मज्जा होती है. जो आज का ब्रेन है या जिसे शास्त्र मे मस्तुलुंग कहा गया है ये अनेक अस्थियों के अंतराल मे है तो ये इंटरबोन है, इंट्रा बोन नही है. Brain is situated in interbone cavity ... cavity made up by many/ different bones. It is not intra bone = it is NOT inside the cavity of a single bone. इसलिये शिरःस्थ मस्तुलुंग अर्थात ब्रेन को मज्जा कहना, उतना शास्त्रीय दृष्ट्या, योग्य नही है, किंतु "बहुमत को एक क्षण के लिए मान लिया जाये" तो भी अगर ब्रेन यह मज्जा है, तो मज्जा यह पित्तधरा कला का ही स्थान होता है, यह भी शास्त्र मे संदर्भ उल्लेखित है


19.

इस कारण से रुक्ष वात और रुक्ष पित्त , वायु और अग्नि हे दोनो महाभूत रूक्ष है , इस कारण से शिर को कफ का स्थान कहने की बजाय, शिर को वायु अग्नि का या विशेष रूप से ज्ञान के रूपांतरण की प्रक्रिया, जन्म से मरण तक चलती रहती है, इस कारण से पित्त का प्रमुख स्थान कहकर , शिर मे "नित्य अभ्यास" के रूप में तैल का नही , अपितु *घृत का हि प्रयोग होना चाहिए* 


20.

घृत अग्निशामक पित्तशामक है, दाह शामक है निर्वापक शीत है स्निग्ध है ... इस कारण से आज जो आत्यंतिक बौद्धिक वैचारिक भावनिक इस प्रकार का दबाव स्ट्रेस तनाव स्ट्रेस उद्वेग इरिटेशन संरंभ मनुष्य के जीवन मे आ रहा है, इसमे क्षोभकारक उष्ण तीक्ष्ण तैल का नस्य के रूप मे उपयोग करना, यह अनुचित है.

उसके बजाय, आज संक्षोभ को नष्ट करने वाला निर्वापण करने वाला शांती देने वाला शीतस्निग्ध ऐसे धातुक्षय को भरने वाले बृंहण करने वाले संतर्पण करने वाले ... निरंतर गती + रूपांतरण/ भावांतरण ट्रान्सफॉर्मेशन पचन, जहां पर चल रहा है, निरंतर जहां पर अग्नि वायु / वात पित्त इनका व्यापार चल रहा है, उनके द्वारा शरीर की हानी न हो, इसलिये वहां पर घृत नस्य ही सर्वाधिक उपयोगी है 


21.

शिर अगर कफ का स्थान है, तो कफ तो तमोगुण प्रधान है. इस कारण से कफ का स्थान होने से शिरमे ज्ञान निर्मिती ज्ञानग्रहण ज्ञानसंग्रह संभव ही नही होता! इसी कारण से, यस्मात् शिरमे इतना सारा जीवनभर का ज्ञानग्रहण एवं संग्रहण होता रहता है , तो वहां पर सत्वगुण और रजो गुण है, न कि तमो गुण!! और ना हि शिर यह तमो गुण प्रधान कफ का स्थान है!!!


22.

इसलिये सत्वगुण रजोगुण युक्त, विशेष रूप से अग्नि तथा वायु का, शिरस् मुख्य स्थान है और इनके प्रसादन के लिए, शमन के लिए , संक्षोभनाशन के लिये घृत नस्य हि प्रशस्त है, न कि तैल का नस्य !!!


23.

घृतनस्य की मात्रा कितनी होनी चाहिये ?

बिंदु क्या है ?

मर्श की मात्रा क्या है, इस पर शास्त्र मे बहुत वाद है. 


24.

किंतु प्रॅक्टिकली जो हम 1998 से कर रहे है, उसमे एक ड्रॉपर पूर्णरूप से भरकर जो 0.5ml अर्थात दृश्यमान 14/15 बिंदू उसमे होते है, इतना लिक्विफाईड ही अर्थात प्रविलायित घृत छोडना चाहिए, रात्री मे सोते समय! 


25.

और नस्य करते समय श्वास नाक से जोर से अंदर लेना खींचना चाहिये अर्थात नासा से हि श्वास अंदर लेना चाहिए और मुखसे ही श्वास बाहर छोडना चाहिए उच्छ्वास बाहर छोडना चाहिए अर्थात वनवे श्वास लेना चाहिए ऐसा 100 बार करने से प्रविलायित घृत जो नासा पुटों में डाला है, यह स्थपनी मर्म तक जाता है और वैसा अनुभव पेशंट स्वयं फील कर सकता है 


26.

तीन या चार दिन के बाद हि, इसके अपेक्षित परिणाम दिखाई देने लगते है.

पहले 3 दिन कभी नासा स्थित कफ संचय/उपलेप के कारण नाक मे डाला हुआ घृत गले मे उतरता है. जिस पर उष्णोदक या उष्ण चाय का पान करना उपयोगी है. और यह घृत अन्नस्वरूप होने कारण उसको निगलेंगे तो भी कोई हानी नही होती है ...


27.

नेत्रतर्पण यह, बिना माषपाली बिना गाॅगल बिना यंत्रणा without instrument संभव है

तथा

आशुकृच्चिरकारित्वं गुणोत्कर्षापकृष्टता॥३४॥ 

मर्शे च प्रतिमर्शे च विशेषो न भवेद्यदि। 

को मर्शं सपरीहारं सापदं च भजेत्ततः॥३५॥ 

अच्छपानविचाराख्यौ कुटीवातातपस्थिती। 

अन्वासमात्राबस्ती च तद्वदेव विनिर्दिशेत्॥


इस शॉर्टकट /स्मॉलर व्हर्जन के श्लोक के रूप मे और एक इसमे एक्सटेंशन इस दृष्टी से ...

नेत्रतर्पण या नेत्रबस्ति का लघुरूप = शॉर्टकट = स्मॉलर वर्जन के अर्थ मे *नेत्रपिचु = घृतार्पण* यह विधी वैद्य को क्लिनिक मे तथा पेशंट को अपने घर मे स्वयं ही करना अत्यंत सरल व सुकर है.

घृतपिचु@कनीनक यह विधि अत्यंत लाभदायक / परिणामकारक है


इन दो 👆🏼विधियों पर, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda, अगले लेख में सविस्तर स्पष्टीकरण प्रस्तुत करेंगे

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वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

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Saturday, 28 September 2024

हमको (मन की शक्ती X) *मन से मुक्ति* देना

हमको मन की शक्ती *मन से मुक्ति* देना 

लेखक✍️🏼 : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871


अणुत्वमथ चैकत्वं द्वौ गुणौ मनसः स्मृतौ ॥


सर्वं द्रव्यं पाञ्चभौतिकमस्मिन्नर्थे 


मन एक द्रव्य है और 

आयुर्वेद मे सभी द्रव्य पांचभौतिक होते है 

तो मन भी पांचभौतिक होना चाहिये 

उसका स्पष्ट उल्लेख की, मन कौन से महाभूत प्राधान्य से बनता है, 

ऐसे कही पर लिखा नही है


भौतिकानि चेन्द्रियाण्यायुर्वेदे वर्ण्यन्ते


सभी इंद्रिय भी महाभूतजन्य ही है,

ऐसा भी इंद्रिय के लिए स्पष्ट संदर्भ है 

मन एक इंद्रिय है तो 

फिर से मन महाभूतजन्य होना चाहिये 

पर स्पष्ट संदर्भ नाही


जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः

तस्य त्रिंशत्तमो भागः परमाणुः स कथ्यते ॥ (1/30)

शार्ङ्गधर 👆🏼

तस्य षष्ठतमो भागः परमाणुः स कथ्यते (1/6)

पाठभेद👆🏼

तस्य षष्टितमो भागः परमाणुः स कथ्यते (1/60)

पाठभेद 

👆🏼

त्रसरेणुर्बुधैः प्रोक्तस्त्रिंशता परमाणुभिः (30)

त्रसरेणुस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते ॥

शार्ङ्गधर 


मन कौन से महाभूत अधिक्य से होता है यह संदर्भ उपलब्ध नही है 

तथापि उसको यदि महाभूतजन्य मान ही लिया जाये, तो ऐसा कह सकते है की महाभूतजन्य औषध और महाभूतजन्य आहार, ये मन तक पहुंचते है 


तभी औषध और आहार का मन पर हितकर अहितकर या वृद्धिक्षयात्मक परिणाम संभव है और फिर मन के रोगों का निदान महाभूतजन्य और मन का औषध भी महाभूतजन्य यह सैद्धांतिक स्तर पर स्वीकार्य होगा


यदि मन महाभूतजन्य है तो भी वह आकाश महाभूत प्रधान नही हो सकता क्यूकी आकाश तो विभू है और मन तो अणु है, तो यह सुसंगत नही होगा


आकाश का एक गुण सूक्ष्म है तो कुछ लोगों के मत से अणु का अर्थ सूक्ष्म लेना चाहिए किंतु अणु यह परादि गुणो मे आनेवाला परिमाण इस गुण का एक प्रकार है 

और सूक्ष्म यह एक स्वतंत्र गुर्वादी मे उल्लेखित गुण है

 इसलिये ये परस्पर पर्याय नही हो सकते 

मूलतः आकाश महाभूत प्रधान द्रव्यों को सूक्ष्म गुण है, ऐसा कहना ही शास्त्रीय दृष्ट्या अनुचित है. जो सूक्ष्म है वो विभू नही हो सकता, जो विभू है वह सूक्ष्म नही हो सकता, क्यूकी सूक्ष्म का विपरीत गुण स्थूल है, जिसे कुछ परिमाण मूर्तीमंतत्व होता है और विभु तो स्थूल से भी अधिक सर्वव्यापी इस प्रकार का द्रव्य होता है, इसलिये सूक्ष्म नही हो सकता और सूक्ष्म विभू नही हो सकता

दुसरा मन चंचल है गतियुक्त है अर्थात उसे चल गुण है. चल यह गतीवाचक शब्द घनपदार्थों के स्थानांतरण के लिए (डिस्प्लेसमेंट ऑफ सॉलिड आयटम्स) उपयोगी होता है यदी वह पदार्थ द्रव है तो उसके गती को स्थानांतरण को सरळ यह संज्ञा होती है इसलिये अगर मन चंचल है चल है तो वो घनपदार्थ स्वरूप होना चाहिये अर्थात मूर्तिमंत होना चाहिये अर्थात परिमाणवंत होना चाहिये और ऐसा है इसलिये उसको अनु यह परिमाण दिया है ऐसा शास्त्रीय संज्ञा और संदर्भ के अनुसार स्वीकार्य होना ही चाहिये


तो मन के परमाणु होने चाहिये, क्योंकि वैशेषिक दर्शन के अनुसार चार महा भूतों के परमाणु होते है और वैसे भी स्वयं चरकाचार्य ने मन का परिमाण, मन का मान, मन का एक गुण, अणु इस रूप मे मन होता है, यह स्पष्ट रूप से लिख दिया है.


आयुर्वेद , वैशेषिक दर्शन को मानता है.

इस कारण से अणु का अर्थ , हमे वैशेषिक दर्शन से प्राप्त होना स्वीकार करना योग्य होगा 


इस संदर्भ के अनुसार, मानवीय नेत्र को, किसी भी अन्य उपकरण के बिना, जो सबसे लघु आकार का सूक्ष्म कण दिखाई दे सकता है ... (द लीस्ट व्हिजिबल पार्टिकल the visible particle) उसको शार्ङ्गधर संहिता मे , वंशी या ध्वंशी ऐसा नाम है (चरक कल्प स्थान बारा मे है). 

इसका पर्याय नाम त्रसरेणु है,

एक त्रसरेणु जो है, यह तीन द्व्यणुकों से बनता है और एक द्व्यणुक यह दो अणुओंसे बनता है 


इसका अर्थ यह होता है कि,

मनुष्य के सामान्य नेत्र/दृष्टी से,

किसी भी अन्य उपकरण (इन्स्ट्रुमेंट) अर्थात चष्मा मायक्रोस्कोप इनकी सहाय्यता के बिना,

जो सूक्ष्मतम दृश्य कण देख सकती है ...

उसका छठा भाग (1/6) , अणु कहा जाता है ...

इसमे दो पाठ भेद है षष्ठतमो की जगह ...

शार्ङ्गधर मे त्रिंशत्तमो (1/30) तींसवा भाग) 

और किसी अन्य पाठभेद मे षष्टीतमो (बलदेव उपाध्याय : भारतीय तत्त्वज्ञान) अर्थात साठवा भाग (1/60) ...


तो इसका अर्थ यह हुआ की अगर हाय पॉवर मायक्रोस्कोप का उपयोग किया जाये, तो सामान्य नेत्र से दृश्यमान सबसे सूक्ष्म कणका यदि साठवा , 30 वा या छठा भाग , हम निश्चित रूप से आज देख सकते है ... अर्थात जो मन कभी अति+इंद्रिय था (अर्थात जिस मन का कभी रस टेस्ट गंध स्मेल शब्द साऊंड स्पर्श टच और सबसे महत्वपूर्ण रूप आकार रंग वर्ण शेप साइज कलर यह इंद्रिय ग्राह्य नही था) ... वह मन, अगर उसका प्रमाण अणु है , तो मायक्रोस्कोप के द्वारा वह दिखना हि चाहिए आज के काल मे !!!


चलो यह मान्य नही है, ऐसा होता है, तो 

अगर सामान्य नेत्र से, किसी उपकरण के बिना, दिखाई देने वाला सूक्ष्म तम कण उसका अगर छठा, 30 वा या साठवा भाग ... अणु है तो ...

अगर छ 6, तीस 30 या साठ 60 व्यक्ती एक साथ आ जाये , तो उस समय हमे उन सबका मिलके, मन सामान्य नेत्र से दृश्यमान होना ही चाहिये !!!

होता है या नही होता है ? आप सभी जानते है !!!


तो , मन नही होता है ...

मन नाम का द्रव्य अस्तित्व मे ही नही होता है !!!


मन तक आयुर्वेद पहुंचता है की नही ?

मन आयुर्वेद का विषय है की नही? 

मन आयुर्वेद का अधिकरण है की नही? 

मन पर आहार का सु/दुष्परिणाम होता है की नही? 

मन की औषध से चिकित्सा होती है की नही? 

इन सभी प्रश्नों का उत्तर तो निश्चित रूप से , "नही , नही, नही", यही है ...!!!


श्रीमद्भगवद् गीता में आहार का त्रिविध गुणों के अनुसार वर्णन उपलब्ध है ... तो लोग कहते है कि ये सात्त्विक राजस आहार का वर्णन है ... किंतु ठीक से पढेंगे तो श्लोक का अंतिम शब्द है सात्विकप्रियाः राजसप्रियाः ... तो आहार सात्विक नही है , आहार राजस नही है, ये "सात्विक राजस लोगो को किस प्रकार का आहार प्रिय है, उस आहार का वर्णन" है! तो संस्कृत भाषा को ठीक से पढ़े. संदर्भ को तोड मरोडकर अपनी सुविधा के लिए उपयोग ना करे


उसके आगे जाकर, 

अगर इस मन का प्रमाण अणु है 

और वह सामान्य नेत्र से दिखने वाले सूक्ष्मतम कणका छठा, 30 वा साठवा भाग है और तब भी, फिर भी वह मन मायक्रोस्कोप से नही दिखाई देता है ...

तो मन नाम का द्रव्य अस्तित्व मे ही नही होता है 


बहुत सारे लोगो ने, बहुत सारे संदर्भ में, बहुत सारे ग्रंथो मे, बहुत दीर्घकाल से किसी चीज का अस्तित्व है ... ऐसा कहा गया है , *"इसलिये"* वह अस्तित्व मे होता है, ऐसे नही होता है.


कभी तो अज्ञान के तिमिर से बाहर आईये ...

और , मन का अपने बुद्धी से वमन करके उसको फ्लश कीजिए

मन और आयुर्वेद इस विषय पर प्रकाशित यह व्हिडिओ अवश्य देखे 👇🏼

https://youtu.be/aV3t6yyrgi0?si=8O2qsyKpxw77NOcI






✍️🏼

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

एमडी आयुर्वेद एम ए संस्कृत

आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक 


9422016871


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Friday, 27 September 2024

सितोपलादी आणि खोकला आणि खरा आयुर्वेद

 सितोपलादी आणि खोकला आणि आयुर्वेद याविषयी काही चर्चा गेले काही दिवस सोशल मीडिया वरती सुरू आहे 


लेखक✍️🏼 : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871


अमुक रोग अमुक औषध असं समीकरण वैद्यकशास्त्रात प्रायः नसतं 


तसं असतं तर सरकारने मेडिकल कॉलेज व हॉस्पिटल चालवण्याऐवजी ,

*अमुक रोग = अमुक औषध* असे सगळीकडे बोर्ड लावले असते ...

आणि लोकांसाठीही ते सोपं झालं असतं.


पण तसं ज्या अर्थी असं होत नाही, त्याअर्थी रोग आणि औषध असं समीकरण नसतं, हे सहजपणे पटू शकेल!


 सितोपलादी चूर्ण हे मागील दोन पिढ्यांना खोकल्याचे आयुर्वेदिक औषध असे माहित आहे. 


दुर्दैवाने आयुर्वेदाच्या बाबतीत तोडगा टोटका आजीबाईचा बटवा घरगुती औषध देशी औषध गावठी औषध झाडपाल्याचे औषध; असं बरंचसं अवमूल्यन झालेलं आहे. घर की मुर्गी दाल बराबर ! पिकतं तिथं विकत नाही


आयुर्वेदशास्त्र इतकं स्वस्त आणि सोपं नक्कीच नाही.


 सितोपलादी या चूर्ण मध्ये पाच औषधे आहेत.


त्यातील सगळ्यात मोठा वाटा सितोपला म्हणजे खडीसाखर = शर्करा याचा आहे 


त्याच्या निम्म्याने यात एक वंशलोचन नावाचे औषध आहे की जे निसर्गात बांबूच्या पोकळीमध्ये साठलेले घट्ट खडे या स्वरूपात असते. 


जसे पित्ताशयात खडे होतात त्याला आज आपण गॉल स्टोन असे म्हणतो , त्याला संस्कृत मध्ये "गोरोचन" अशी संज्ञा आहे, त्याच पद्धतीने बांबूच्या आतील पोकळ भागात पूर्वी असलेला द्रव पदार्थ शुष्क होऊन काही पांढरे खडे तयार होतात, त्याला "वंश रोचन" असा मूळ शब्द आहे ... वंश म्हणजे बांबू , रोचन याचा अर्थ गोरोचनाप्रमाणे होणारा खडा ...

पण संस्कृत मध्ये र आणि ल हे अनेकदा एकमेकांच्या जागी येतात, त्यामुळे वंश रोचनचं नंतर "वंश लोचन" असे झाले !


आजच्या परिस्थितीत सितोपला ही नैसर्गिक स्वरूपात म्हणजे पूर्वी आयुर्वेद शास्त्रात किंवा भारतीय समाजात ज्या पद्धतीने प्राप्त होत होती, तशी आता मिळत नाही.


 जी काही सितोपला खडीसाखर या नावाने मिळते, ती कृत्रिम असते किंवा बऱ्याचदा ती केमिकल युक्त, आपण रोज खातो तीच साखर असते.


जेव्हा एखाद्या गोष्टीचे व्यक्तिगत स्तराऐवजी, सार्वजनिक स्तरावर , मोठ्या प्रमाणावर , उद्योग या अर्थी उत्पादन होते , मास प्रोडक्शन होते , तेव्हा साहजिकच त्यातील गुणवत्ता क्वालिटी दर्जा हा कॉम्प्रोमाइज होतो , ॲड्जस्ट होतो ... बऱ्याचदा तो उणा होतो कमी होतो... 


तीच बाब वंशलोचन याबाबत होते.

आज नैसर्गिक खरे वंशलोचन सहसा मिळतच नाही.

त्यामुळे आर्टिफिशियल कृत्रिम केमिकल स्वरूपातील वंशरोचन वापरले जाते. 


आता सितोपलादी चूर्णातील जे सर्वात मुख्य मोठ्या प्रमाणातील दोन घटक जे नैसर्गिक नसून, आता केमिकल स्वरूपातच त्यात मिसळले जातात ...

त्या औषधाला आपण स्वीकारावे का ??

ते खोकल्यासाठीचे औषध म्हणून डोळे झाकून विश्वासाने अंधविश्वासाने श्रद्धेने भक्तीने घ्यावे का , हा जाणत्या सुज्ञ माणसाने बुद्धी शाबूत ठेवून विचार करून निर्णय घेण्याचा भाग आहे. 


या चूर्णा मध्ये वरील प्रमाणे सितोपला आणि वंशलोचन यांच्या बरोबरच पिंपळी वेलची=वेलदोडा व दालचिनी हे 3 घटक असतात. हे क्रमशः वंशलोचनच्या निम्मी पिंपळी , पिंपळीच्या निम्मी दालचिनी आणि दालचिनीच्या निम्मी वेलची असे असतात.


यापैकी पिंपळी ही पूर्णतः शुष्क स्वरूपात मिळेल आणि त्याचे चूर्ण वापरले असेल अशी शक्यता अनेक वेळेला कमी असते.


तीच बाब दालचिनी या सुगंधी औषधाची असते. दालचिनी तीन प्रकारचे मिळते, त्यातील आयुर्वेदात ग्राह्य दालचिनी आता एकतर उपलब्ध नाही किंवा अत्यंत महाग असल्याने ती औषधात वापरणे परवडत नाही 


आणि शेवटची वेलची ...


ही तीनही सुगंधी औषधे असल्यामुळे त्यातील उडनशील तैल = वोलेटाइल ऑइल काढून घेतलेले आहे आणि मग उरलेला कचरा स्वरूपातील कच्चामाल औषधात वापरला आहे अशी शक्यता काही वेळेला असते.


या लोकप्रिय चूर्णातील पाच औषधी घटकांची ही दुरवस्था / दुर्दशा असेल तर ...

आपण अशा औषधांना स्वतःच्या मनाने घेऊच नये, हे न सांगताही समजणे इतपत आपण निश्चितपणे शहाणे असतो.


त्यामुळे सांगो वांगी व्हाट्सअप फेसबुक युट्युब इन्स्टा यावर येणारे मेसेज याद्वारे ,

"अमुक साठी तमुक औषध" अशा दिशाभुलीला भ्रांतीला गोंधळाला आपण बळी पडू नये , हे चांगले!!! 


 मुळातच खोकला कफामुळे होत असेल, चिकट बडके पडत असतील तर एवढी साखर ज्या चूर्णात आहे , असे औषध आपण घेणे योग्य आहे का?


 निश्चितच नाही !!!


घसा लाल होऊन, घसा उष्णतेने पित्ताने सोलवटून निघून कोरडा ठसका येत असेल, तर ज्या औषधांमध्ये पिंपळी दालचिनी वेलची अशी तीक्ष्ण उष्ण मसालेदार औषध आहेत , असे औषध त्या खोकल्यासाठी घेणं योग्य आहे का ???


निश्चितच नाही !!!


आणि जर मुळात कोरडा खोकला ढास लागलेली असेल तर, ज्या औषधांमध्ये पिंपळी, वेलची, दालचिनी वंशलोचन अशी चारही औषधं अत्यंत उष्ण आणि रूक्ष=कोरडी आहेत , असे औषध घेणे , योग्य आहे का????


निश्चितच नाही!!!


मुळातच आईस्क्रीम सारखी गोड आणि चिकट गोष्ट खाल्ली, तरी सुद्धा पाणी प्यायची इच्छा होते... 


तर ज्या सितोपलादि चूर्णा मध्ये सर्वाधिक वाटा साखरेचा आहे , 16 पट साखर ज्याच्या मध्ये आहे, अशा साखरेने बुजबुजलेल्या औषधाला , अशा स्थितीत घेणे योग्य आहे का ???


निश्चितच नाही!!!


असा सारासार विचार = सदसद्विवेक बुद्धी जागृत ठेवून विचार केला असता ,

आपण आपल्या आजारासाठी ,

सेल्फ मेडिकेशन न करता = स्वतःच्या बुद्धीने औषध न घेता ...

योग्य त्या तज्ञ अनुभवी यशस्वी डॉक्टर कडे / वैद्याकडे जाणे , हेच उचित आहे


आपल्याला होत असलेल्या लक्षणांनुसार आजारानुसार आपल्या विश्वासाचा जवळचा फॅमिली डॉक्टर आधी गाठावा 


अगदी आयुर्वेदाचेच औषध घ्यायचे असेल तर आपल्या जवळचा विश्वासाचा इतरांनी खात्री दिलेला *"आयुर्वेदिक औषधांचीच प्रॅक्टिस करणारा वैद्य शोधावा"* 


आयुर्वेदिक वैद्य म्हणजे जो कुठल्याही प्रकारचे रसशास्त्रीय कल्प = रसकल्प म्हणजे हेवी मेटल म्हणजे केमिकल म्हणजे पारा गंधक सोनं चांदी तांबं हरताळ मोरचूद आर्सेनिक असली विषारी औषधे वापरत नाही. उलट जो , आपण रोज पोळी भाजी वरण भात खातो, त्याप्रमाणे अत्यंत सुरक्षित असलेली, प्रायः वनस्पतीजन्य औषधेच वापरतो, तो जाणावा!!!


आयुर्वेदातही काही खनिज आणि प्राणिज औषधे आहेत, परंतु त्यांचे प्रमाण अत्यल्प आणि नगण्य आहे!


अशी प्राणिज आणि खनिज औषधे न वापरताही, केवळ वनस्पतीजन्य औषधे वापरून "सुरक्षित प्रॅक्टिस करता येते".


माझ्या (अन्नदाता असलेल्या सेवेची पुण्यकारक संधी देण्यासाठी आलेल्या भगवंत स्वरूप) पेशंटला दोन दिवस उशिरा बरं वाटलं तरी चालेल , पण त्याच्या पोटात मी अनावश्यक आणि असुरक्षित , विश्वासार्ह नसलेली ... केमिकल हेवी मेटल पारा गंधक सोनं चांदी तांबे हरताळ मोरचूद आर्सेनिक असली विषारी औषधे घालणार नाही , असं ज्या वैद्याचं निश्चितपणे ठरवून केलेले निर्धारात्मक निश्चयात्मक आचरण वागणूक आहे, त्याच्याकडूनच आयुर्वेद औषध घेणं , हे आपल्या स्वतःच्या शरीर व यकृत किडनी हृदय यांच्या सुरक्षिततेसाठी आवश्यक असतं.


म्हणूनच नुसतं कुठेतरी काहीतरी वाचून ,

कुठलीतरी झाडपाल्याचे औषध देणाऱ्या माणसाकडून "आयुर्वेदाच्या नावाखाली काहीही खाणं" हा स्वतःच्या पायावर धोंडा पाडून घेणे आणि मूर्खपणा करणे आहे ... याची जाणीव असू द्यावी


वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे


आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक 


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धातुपाचक : अंधानुकरण और गतानुगतिकता

 


उपरोक्त चित्र अंधानुकरण और गतानुगतिकता का है, यह तो सब समझ ही पाते है... किंतु

धातुपाचक होते ही नही है ... यह अनेको बार ससंदर्भ सतर्क स्पष्ट करने के बाद भी, विषमज्वर कषाय पंचक को धातुपाचक समझकर व्यवहार करने की भ्रांती नष्ट नही होती है.


अगर हम औषधों को केवल "बेचने" के साथ हि, औषध "सोचने" पर काम करेंगे तो ... linking ourself with scientific thinking, will be surely possible


लेखक ✍🏼 : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871


कषायाः शमयन्त्याशु पञ्च पञ्चविधान् *क्रमात्* (~ज्वरान्~) ।

सन्ततं सततान्येद्युस्तृतीयकचतुर्थकान् ॥

चरक👆🏼


पञ्चैते सन्ततादीनां पञ्चानां शमना *क्रमात्* (~मताः।~)

वाग्भट 👆🏼


मूल श्लोक/ चरण लिखते समय "क्रमात्" यह शब्द लिखकर, स्पष्ट रूप से, "अमुक कषाय ... अमुक विषमज्वर के लिए" ऐसा लिख सकते थे, लेकिन ऐसे हुआ नही है 


और तो और ज्वर चिकित्सा वर्णन का क्रम भंग इन श्लोकविन्यास मे हुआ है इसको पुन्हा एक बार सुसंगत सविस्तर संदर्भ और सतर्क प्रस्तुत करते है 


ये मै नही कहता, किताबों में लिखा है, यारो ...


चरकोक्त विषमज्वर कषाय पंचक का किसी भी धातू के साथ निश्चित संबंध नही है, यह हमने विगत दो लेखों मे स्पष्ट कर दिया है ... *चरक संहिता के ही संदर्भों के अनुसार!* 


चरक के विषमज्वर यह धातु मे दोष का प्राबल्य इस संकल्पना पर आधारित है.


इस कारण से संततादी पाच ज्वरों का निश्चित धातु अधिष्ठान वहां पर निर्धारित हि नही है


चरक की निम्नोक्त पंक्तिया देखेंगे, तो ये पता चलता है कि कौन सा भी विषमज्वर, किसी भी धातु मे आश्रित होकर निर्माण हो सकता है.


रक्तधात्वाश्रयः प्रायो दोषः सततकं ज्वरम् 


रक्त = सतत ✅️


अन्येद्युष्कं ज्वरं दोषो रुद्ध्वा मेदोवहाः सिराः ॥


अन्येद्युष्क = मेदस् 🤔 मांस x


दोषोऽस्थिमज्जगः कुर्यात्तृतीयकचतुर्थकौ 


तृतीयक = अस्थिमज्जा 🤔 मेदस् x


अन्येद्युष्कं ज्वरं कुर्यादपि संश्रित्य शोणितम् ॥


अन्येद्युष्क = रक्त 🙃😇🤔 मांस x


मांसस्रोतांस्यनुगतो जनयेत्तु तृतीयकम् ।


तृतीयक = मांस 🤔 मेदस x


संश्रितो मेदसो मार्गं दोषश्चापि चतुर्थकम् 


चतुर्थक = मेदस् 🤔 अस्थिमज्जा x


और तो और चरक संहिता मे हि,


संततज्वर केवल रसधात्वाश्रित न होकर, 


(संतत = रस ❌️)


संतत द्वादशाश्रयी ज्वर है 


संतत = 12 = 7 धातू + 2 मल + 3 दोष


द्वादशाश्रयी का अर्थ केवल रसके साथ नही, अपितु द्वादश = 7 धातू 2 मल 3 दोषों के साथ जुडा है , ऐसे लेना चाहिए 


यथा धातूंस्तथा मूत्रं पुरीषं चानिलादयः ॥


द्वादशैते समुद्दिष्टाः सन्ततस्याश्रयास्तदा ।


द्वादशेति सप्त धातवस्त्रयो दोषा मूत्रं पुरीषं च।


उपरोक्त संदर्भ से यह पता चलता है की 5 विषमज्वरों का क्रमशः 5 धातुओं से "निश्चित संबंध" चरक संहिता मे उल्लेखित हि नहीं है. तो फिर अमुक धातू के लिए, अमुक धातू पाचक काढा ऐसे हो हि नही सकता, शास्त्रीय दृष्टी से शास्त्रीय संदर्भ के अनुसार तो! 


जो आज का व्यवहार चल रहा है , यह केवल एक कही सुनी, प्रस्थापित, रूढीजन्य, व्यावसायिक बात है और और इस विषमज्वर का, धातुपाचक का एवं शरीरस्थ धातूओं का कोई भी परस्पर निश्चित शास्त्रीय संबंध कुछ भी नही है


इस कारण से जो आज प्रस्थापित लोकप्रिय , 


*किंतु अशास्त्रीय* एवं _मात्र रूढीजन्य_ धातुपाचक(?) व्यवहार मे उपयोग मे लाये जाते है, उन धातुपाचकों का वस्तुतः शास्त्रीय रूप मे, उस उस धातु से कुछ भी निश्चित संबंध है ही नही ... 


अगर हम औषधों को केवल "बेचने" के साथ हि, औषध "सोचने" पर काम करेंगे तो ... linking ourself with scientific thinking, will be surely possible


विषमज्वर कषाय पंचक को धातुपचक कहकर व्यवहार करना, अत्यंत अशास्त्रीय अनार्ष प्रक्षिप्त असत्य असिद्ध है, यह फिरसे सविस्तर ससंदर्भ सतर्क सुसंगत रूप मे प्रस्तुत करते है. कृपया म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा लिखे जाने वाले इस प्रस्तावित proposed लेख की प्रतीक्षा करे. आपके संयम के लिए हार्दिक धन्यवाद


लेखक ✍🏼 : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871

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Tuesday, 24 September 2024

सुश्रुतोक्त विषमज्वर कषायपंचक (धातुपाचक X) और पंच कफस्थान : सुनिश्चित संबंध

सुश्रुतोक्त विषमज्वर कषायपंचक धातुपाचक और पंच कफस्थान : सुनिश्चित संबंध

लेखक : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871

कुछ ना कुछ तो रोज "बेचते" ही है 

चलो आज साथ में साथ मिलकर कुछ "सोचते" भी है


विषमज्वरों का संबंध धातुओं से न होकर,

पंच कफस्थानों के साथ हि सुनिश्चित है ✅️


ये मै नही कहता, किताबों में लिखा है, यारो ...


चरकोक्त विषमज्वर कषाय पंचक का किसी भी धातू के साथ निश्चित संबंध नही है, यह हमने विगत दो लेखों मे स्पष्ट कर दिया है ... *चरक संहिता के ही संदर्भों के अनुसार!

चरक के विषमज्वर यह धातु मे दोष का प्राबल्य इस संकल्पना पर आधारित है.


इस कारण से संततादी पाच ज्वरों का निश्चित धातु अधिष्ठान वहां पर निर्धारित हि नही है

चरक की निम्नोक्त पंक्तिया देखेंगे, तो ये पता चलता है कि कौन सा भी विषमज्वर, किसी भी धातु मे आश्रित होकर निर्माण हो सकता है.

रक्तधात्वाश्रयः प्रायो दोषः सततकं ज्वरम् 

रक्त = सतत ✅️

अन्येद्युष्कं ज्वरं दोषो रुद्ध्वा मेदोवहाः सिराः ॥

अन्येद्युष्क = मेदस् 🤔 मांस

दोषोऽस्थिमज्जगः कुर्यात्तृतीयकचतुर्थकौ 

तृतीयक = अस्थिमज्जा 🤔 मेदस् 

अन्येद्युष्कं ज्वरं कुर्यादपि संश्रित्य शोणितम् ॥

अन्येद्युष्क = रक्त 🙃😇🤔 मांस

मांसस्रोतांस्यनुगतो जनयेत्तु तृतीयकम् ।

तृतीयक = मांस 🤔 मेदस

संश्रितो मेदसो मार्गं दोषश्चापि चतुर्थकम् 

चतुर्थक = मेदस् 🤔 अस्थिमज्जा 

और तो और चरक संहिता मे हि,

संततज्वर केवल रसधात्वाश्रित न होकर

(संतत = रस ❌️)

संतत द्वादशाश्रयी ज्वर है 

संतत = 12 = 7 धातू + 2 मल + 3 दोष

द्वादशाश्रयी का अर्थ केवल रसके साथ नही, अपितु द्वादश = 7 धातू 2 मल 3 दोषों के साथ जुडा है , ऐसे लेना चाहिए 

यथा धातूंस्तथा मूत्रं पुरीषं चानिलादयः ॥

द्वादशैते समुद्दिष्टाः सन्ततस्याश्रयास्तदा ।

द्वादशेति सप्त धातवस्त्रयो दोषा मूत्रं पुरीषं च।

उपरोक्त संदर्भ से यह पता चलता है की 5 विषमज्वरों का क्रमशः 5 धातुओं से "निश्चित संबंध" चरक संहिता मे उल्लेखित हि नहीं है. तो फिर अमुक धातू के लिए, अमुक धातू पाचक काढा ऐसे हो हि नही सकता, शास्त्रीय दृष्टी से शास्त्रीय संदर्भ के अनुसार तो! 

जो आज का व्यवहार चल रहा है , यह केवल एक कही सुनी, प्रस्थापित, रूढीजन्य, व्यावसायिक बात है और और इस विषमज्वर का, धातुपाचक का एवं शरीरस्थ धातूओं का कोई भी परस्पर निश्चित शास्त्रीय संबंध कुछ भी नही है

इस कारण से जो आज प्रस्थापित लोकप्रिय , 

*किंतु अशास्त्रीय* एवं _मात्र रूढीजन्य_ धातुपाचक(?) व्यवहार मे उपयोग मे लाये जाते है, उन धातुपाचकों का वस्तुतः शास्त्रीय रूप मे, उस उस धातु से कुछ भी निश्चित संबंध है ही नही ... 

✅️✅️✅️✅️✅️

किंतु सुश्रुत मे विषमज्वरो का संबंध धातु से जोडते हुये, पंच कफस्थानों से निश्चित रूप से जोडा है.

✅️✅️✅️✅️✅️

वह चरकोक्त विषमज्वर <~> धातु संबंध की तरह, अनिश्चित संदेहास्पद भ्रांतीजनक भ्रमकारक नही है. 

अपितु अमुक विषमज्वर का अमुक कफ स्थान से *सुनिश्चित निर्धारित संबंध* सुश्रुत संहिता मे प्रतिपादित और प्रस्थापित है ✅️✍️🏼👌🏼

इस कारण से विषमज्वरों के लिये सुश्रुत ने ,

पांच (5) द्रव्य के, 

तीन चार पाच (3,4,5) इस प्रकार से ... योग सुझाये है, जिनका परिचय वैद्यों के विचार के लिए तथा पेशंट पर उपयोग के लिए प्रस्तुत कर रहे है. 

जिन्हें इस विषय मे विश्वास जिज्ञासा उत्सुकता कुतूहल रुची स्वारस्य और ...

स्वयं कुछ यथार्थ तथ्य सत्य इन पर आधारित शास्त्रीय औषध योजना प्रामाणिक रूप मे करके देखने का साहस और इच्छा है वे इस उपक्रम मे सहभाग ले, ऐसा विनम्र आवाहन है 

सुश्रुत संहिता मे 

सतत रक्त X आमाशय 

अन्येद्युष्क मांस X उरस्

तृतीयक मेदस् X कंठ 

चतुर्थक अस्थिमज्जा X शिरस्

प्रलेपक (चरक मे उल्लेखित ही नही है) संधि 

और 

संतत रस X सभी 5 श्लेष्म स्थान 

से संबंधित है ...

तो बजाय धातु के, जिन्हें विकारों का निदान/निर्धारण, आशय के नुसार, स्थान के अनुसार करना संभव है ... उनके लिये इन स्थानों के, इन आशयों से संबंधित विकारों के लिए ...

निम्न पाच (5) कषाय सप्तधा बलाधान टॅबलेट के रूप मे प्रस्तुत तथा उपयोग के लिए उपलब्ध किये गये है


आमाशय : पटोलकटुकामुस्ता


उरस् : कटुकामुस्ताप्राणदा (प्राणदा = हरीतकी)


कण्ठ : मुस्ताप्राणदामधुक (मधुक = यष्टी)


शिरस् : पटोलकटुकामुस्ताप्राणदा


संधि : कटुकामुस्ताप्राणदामधुक


सर्व (5) कफ स्थान : पटोलकटुकामुस्ताप्राणदामधुक


यह प्राथमिक स्वरूप का विचार वैद्यों के परिचय मात्र के लिए प्रस्तुत किया है 


वैसे तो सुश्रुतोक्त पाच द्रव्यों के, 

तीन चार पाच के संयोग से, 

16 योग बनते है ... 

ऐसे डह्लण टीकामे सविस्तर प्रस्तुत किया हुआ है , 

जिन्हें अधिक जिज्ञासा है , वे उस अधिक जानकारी के लिए वहां पर देखे.


उन सभी सोला संभाव्य कषाय योगोंका भी अध्ययन और प्रयोजन/ उपयोजन, आगे के लेखों मे प्रस्तुत करेंगे ... सद्भिषजां नियोगात् ... यदि संभाव्यते !!!

🙏🏼

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Saturday, 21 September 2024

योग रत्नाकरोक्त 25 अभिनव "रोगघ्न" अग्रे संग्रह द्रव्य

योगरत्नाकरोक्त 25 अभिनव "रोगघ्न" अग्रे संग्रह द्रव्य 

लेखक : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871

अग्र्य द्रव्यों का = अग्रे संग्रह का वर्णन चरक सूत्रस्थान 25 श्लोक 40 यज्जः पुरुषीय में उपलब्ध है , जहाँ पर 152 अग्र्य द्रव्यों का वर्णन है, किंतु उसमे "रोगघ्न, ऐसे स्पष्ट रूप से" कुछ ही (3 से 6) द्रव्य है, बाकी सभी तात्त्विक सैद्धांतिक गुणकर्मवाचक है. (अष्टांग संग्रह के अग्रेसंग्रह के अध्याय मे 155 अग्र्य द्रव्यों का वर्णन है)

उससे अधिक स्पष्ट "रोगघ्न द्रव्यों" की सूची , अष्टांगहृदय उत्तर स्थान 40 श्लोक 48 से 58 यहां उपलब्ध है. इसमे 53 अग्र्य द्रव्यों का उल्लेख है, जिसमे प्रायः सभी रोगघ्न हि है, केवल 8 हि रोगघ्न नहीं है. इस प्रकार से इतने रोगों के लिए अग्रद्रव्यों का निर्देश यह वाग्भट का अतुलनीय योगदान है

इसीमे कुछ द्रव्यों का "बदलाव एवं नया समावेश", योग रत्नाकर ग्रंथ के अंत मे प्राप्त होता है... जैसे की 

1.

ज्वर = मुस्तापर्पट के साथ *किरात* का उल्लेख हुआ है, यह नया है 

2.

श्वास = भारंगी (और औषध शब्द से अगर शुंठी लेंगे तो वह भी) ... यह भी नया है

3.

तृष्ण = (मृद्भृष्ट जल के जगह) संतप्त हेम = सुवर्ण , यह भी नया है

4.

शूल = हिंगु + करंज ... यह नया है 

5. 

आमवात = (गोमूत्र युक्त)एरंडतैल, यह भी नया है 

6.

वातव्याधी = गुग्गुल. यह भी नया है . 

चरक मे वात के लिए रास्ना, बस्ति (तथा एरंडमूल) इनका उल्लेख है 

अष्टांगहृदय मे वात के लिए लशुन का उल्लेख है 

किंतु, योग रत्ना कर ने यहां पर गुगुल का उल्लेख किया है 

7.

एक शंका के रूप मे पूछना है कि ...

अपस्मार के लिए ब्राह्मणी का उल्लेख प्राप्त होता है, संहितोक्त.

किन्तु यहां पर ...

अपस्मार = वचा स्पष्ट रूप से और "सह वागथ" ऐसा शब्द है ... तो इसका अर्थ क्या लेना चाहिए🤔⁉️ 

संभवतः "सह वाग् अथ" ऐसा संधि भेद करके ... वाक् का अर्थ वाणी अर्थात सरस्वती अर्थात ब्राह्मी ऐसा दूर से संबंध संहितोक्त अग्रेसंग्रह के साथ जोड सकते है

8.

अर्दित = माषेण्डरी उल्लेख है, यह भी नया है . किंतु, उसका अर्थ क्या लेंगे? 🤔⁉️ 

माष समझ सकते है , किंतु एंडरी का अर्थ या तो कोई स्वतंत्र द्रव्य है या माष से बनने वाला कोई कृतान्न है, ऐसे हो सकता है.

माषेण्डरी व एण्डरी इन दोनों शब्दों का संस्कृत डिक्शनरी मे अर्थ प्राप्त नही होता है किसी को अन्य किसी शब्दकोश से प्राप्त हो तो अवश्य विज्ञप्ती करे.

आदरणीय सन्मित्र वैद्य प्रयागजी सेठिया ने निम्न विज्ञप्ति भेजकर अनुग्रह किया है

[अथ माषपिष्टेण्डरी।] 

माषस्येण्डरिकां कृत्वा खण्डशः सैन्धवान्विताम्

रन्धयेद्वेसवारेण तैले पक्का वटीसमा ।। १७ ।।

[Idli made from the flour of Bengal-gram]  

After preparing an idli from besan (the flour of Bengal-gram), one should cut it in to pieces, mix it with black-salt and cook in the manner of Vadā, along with Vesavara, in oil. (17)  

अण्डरी शुक्रदा वृष्या रूक्षा विष्टम्भकारिणी । 

कफवातहरा प्रोक्ता माषपिष्टभवेण्डरी ।। १८।। 

 Such an idli prepared from the flour of black- gram increases semen quantity, is aphrodisiac, causes.

संहिता में अर्दित के लिए नवनीत खंड ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है 

9.

प्रदर = तिरीटक अर्थात लोध्र. यह भी नया समावेश है 

10.

अरुचि = लुंग अर्थात मातुलुंग का नया उल्लेख है 

11. व्रणे अन्य पुरः ऐसे लिखा है. यह भी नया है

संहिता मे त्रिफला गुग्गल का उल्लेख है 

12.

अम्लपित्त रुजा (= ? वेदना या रोग?) = द्राक्षा. यह नया उल्लेख है 

13.

मूत्रकृच्छ्र = वरी + कूष्मांड अम्बु, यह भी नया है.

वरी इसका अर्थ शतावरी लेना चाहिये, ऐसा लगता है 

साथ में कूष्मांड जल का उल्लेख हुआ है जो वैशिष्ट्यपूर्ण है 

और वाग्भट और सुश्रुत में, कूष्मांड को बस्ति शुद्धिकर ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है 

साथ में चेतोविकारहारी व उरः संधान कारी यह भी कूष्मांड के लिये उल्लेख संहिता मे प्राप्त है 

यहा पर कूष्माड अम्बु = कूष्मांडस्वरस यह मूत्र कृच्छ्र के लिए शतावरी के साथ उल्लेख हुआ है 

संहिता मे गोक्षुर,  मूत्रकृच्छ्र लिए उल्लेखित है

14.

निद्राक्षय = माहिष क्षीर का नया उल्लेख है संहिता मे केवल क्षीर का उल्लेख है

15.

श्वित्र = बाकुची फल. यह भी नया है

16.

भय = तोषण तुष्टी. यह भी नया है.

17.

अजीर्ण = निद्रा. यह नया उल्लेख है 

18.

उर्ध्वजत्रुविकार = नस्य के साथ , तीक्ष्ण = मरिच और औषध = शुंठी लेना चाहिए . यह भी नया है

या तीक्ष्ण औषध = कोई भी तीक्ष्णगुण युक्त अन्य कोई भी औषध ऐसा लेना चाहिये 

19.

मूर्च्छा मे शीत विधी यह संक्षिप्त उल्लेख है. संहिता मे अष्टांग हृदय मे शीत अंबु मारुत छाया ऐसा सविस्तर उल्लेख है

20.

अश्मरी = गिरीभिद् ऐसा उल्लेख है. यह भी नया है.

जिसका अर्थ पाषाणभेद लेना चाहिए.

किंतु संहिता ग्रंथो मे बस्तिजेषु गिरिजं अर्थात बस्तिरोग मे गिरिज अर्थात शिलाजतु का उल्लेख है

21. 

गुल्म = शिग्रु त्वचा यह नया उल्लेख प्राप्त होता है.

वैसे शिग्रु का उल्लेख विद्रधि में पान भोजन लेपन के लिए अष्टांगहृदय और सुश्रुत मे प्राप्त होता है 

22.

हिक्का = जतुरस नस्य यह भी नया है

जतुरस का अर्थ क्या लेना चाहिए ? 🤔⁉️ 

जतु का अर्थ लाक्षा होता है, ऐसा एक संदर्भ प्राप्त हुआ. किंतु लाक्षा रस का नस्य, यह विधान भी अभिनव है.

23.

भगंदर मे तूर्वीलता है या उर्वीलता है ? यह भी नया है.

किंतु उसका अर्थ क्या है?🤔⁉️ 

साथ मे , अश्व अस्थिनी ... यह भी नया उल्लेख है उसका अर्थ क्या है ?🤔⁉️

अगर अश्व के अस्थि ऐसा अर्थ लेना है, तो उसका प्रयोग कैसे करे ? 🤔⁉️

24.

वृष्टे रासभलोहितैः ... यह भी नया है किंतु, यह भी समझना थोडा दुष्कर है.

रासभलोहितगधे का रक्त ऐसा होता है.

लेकिन उसका प्रयोग वृष्टी अर्थात कौन सी अवस्था या रोग मे करना है?? 🤔⁉️

25.

और स्वर गद का अर्थ क्या लेंगे? स्वरभेद लेना है ... तो उसमे पुष्कर मूल का मधु के साथ, यह नया उल्लेख है 

वैसे संहिता में पुष्करमूल पार्श्व रुजा के लिए उल्लेखित है

यह योग रत्नाकर मे भी है 

तो योग रत्नाकर मे, ऐसे कुछ 25 नये उल्लेखों का मैने प्रस्तुतीकरण किया है , जो चरक मे या उत्तर स्थान अष्टांगहृदय मे उल्लेखित नही है 

और जो शंका प्रश्न संदेह है , उनकी भी यहां पर पृच्छा की है. 

जिनको संभव है, वे संदेहों का निवारण करे.

जिनको रुची हो, वे इस लेख को पढकर अपना अभिप्राय दे

🙏🏼

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Thursday, 5 September 2024

कॅन्सर किडनी फेल्युअर लिव्हर सिरोसिस ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक किटो ॲसिडोसिस या व्हेरी हाय शुगर ऐसे लाईफस्टाईल डिसीज / जीवनशैलीजन्य रोग" = अत्यंत गंभीर रोगों का "संभाव्य" कारण

कॅन्सर किडनी फेल्युअर लिव्हर सिरोसिस ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक किटो ॲसिडोसिस या व्हेरी हाय शुगर ऐसे लाईफस्टाईल डिसीज / जीवनशैलीजन्य रोग" = अत्यंत गंभीर रोगों का "संभाव्य" कारण

यह लेख, प्रतिदिन अनुभव करने योग्य और 

अत्यंत गंभीर रोगों के "संभाव्य" कारण को स्पष्ट करने का 

एक प्रयास मात्र है


जिन लोगों को पूरे जीवन मे, कभी भी, कोई भी, रोग नही हुआ, कभी भी , किसी भी , औषध उपचार गोली इंजेक्शन ऍडमिशन ऑपरेशन ... इसकी आवश्यकता नही पडी, आजतक कोई भी रोग नही हुआ, 

ऐसे लोगों को अचानक से, प्रायः 40 प्लस के वय मे, एकदम भयंकर, अनपेक्षित, बहुत बडा "लाईफस्टाईल डिसीज / जीवनशैलीजन्य रोग" क्यू होता है? ... जैसे की कॅन्सर किडनी फेल्युअर लिव्हर सिरोसिस ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक किटो ॲसिडोसिस या व्हेरी हाय शुगर!?


आगे का लेख पंचकर्म का समर्थन या महत्व बताने के लिए नही है, यह लेख "एक अन्य", प्रतिदिन अनुभव करणे योग्य और अत्यंत गंभीर रोगों के "संभाव्य" कारण को स्पष्ट करने का प्रयास मात्र है


यतेत च यथाकालं मलानां शोधनं प्रति। 

अत्यर्थसञ्चिताः ते हि क्रुद्धाः स्युः जीवितच्छिदः


यह प्रसिद्ध श्लोक है और 

इसके आगे इससे भी अधिक प्रसिद्ध श्लोक आता है

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दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः। 

ये तु संशोधनैः शुद्धा न तेषां पुनरुद्भवः॥

👆🏼

यह श्लोक तो सभी को पता है कि,

लंघन पाचन से दोष कोप / रोगों का पुनर्भव हो सकता है, किंतु यदि शोधन करेंगे तो दोषकोप/रोग का अपुनर्भव होता है


आज के लेख का विषय ,

यह प्रसिद्ध श्लोक न होकर ,

उसके उपर , प्रथम पंक्ति मे जो लिखा है, उस श्लोक के संदर्भ मे है 

प्रकुपित दोषों का शोधन करने के लिए उचित काल मे प्रयत्न करे , ऐसा आदेश है ... यह आदेश वैद्य को भी और रुग्ण को भी लागू होता है, स्वयं की स्वास्थ्यरक्षा हेतु, रुग्ण ने जागृत रहकर , वर्ष मे तीन ऋतु मे अपना शोधन करवा लेना चाहिए और वैद्य ने भी अपने पेशंट को इस विषय मे प्रबोधन करते रहना चाहिए 


अभी वस्तुस्थिती ऐसी है, की भारत की लोकसंख्या की तुलना मे और मॉडर्न मेडिसिन की डॉक्टर्स की तुलना मे, आयुर्वेद प्रॅक्टिशनर की संख्या,  अत्यल्प है ... 

उसमे भी जो आयुर्वेद प्रॅक्टिस करते है, उनमें पंचकर्म करने की सुविधा या वृत्ती होनेवाले वैद्यों की संख्या, और भी कम है.

कितना भी प्रबोधन करे या प्रेरित करे, पेशंट भी आसानी से पंचकर्म के लिए तयार नही होते है, क्योंकि उसमे समय / धन इनका व्यय तथा आहार विहार पर अनेक निर्बंध, ये समस्या उसको असुविधाकारक लगती है

तो ऐसी स्थिती मे कुल लोकसंख्या का अत्यल्प प्रतिशत (very low %) ही प्रत्यक्ष रूप मे तीनो दोषोंका शोधन कर्म करता है, तो इसका अर्थ यह होता है कि प्रस्तुत श्लोक की जो द्वितीय पंक्ति है , उसमे जो स्थिती है वह प्रायहा सभी लोगों को, जो शोधन उपक्रम नही करते है, उनको लागू होती है ...

अत्यर्थसञ्चिताः ते हि क्रुद्धाः स्युः जीवितच्छिदः

अर्थात एक साल मे तीन मुख्य शोधन करना, स्वास्थ्य रक्षा तथा रोग अनुत्पादन के लिए आवश्यक है.

यहां तो ऐसी स्थिती होती है कि, जन्म से लेके आज के दिन तक , अर्थात लगातार कई सालोंतक, कई दशकों तक "शोधन किया ही नही होता है", तो हर साल दोषकोप होते होते, यह "अत्यर्थ संचित स्थिती" मे पहुंचता है.

इसकी आगे की एक स्थिती अष्टांगहृदय सूत्रस्थान 13 दोषोपक्रमणीय वर्णित है, वहां पर लिखते है

तत्रस्थाश्च विलम्बेरन् भूयो हेतुप्रतीक्षिणः

ते कालादिबलं लब्ध्वा कुपयन्त्यन्याश्रयेष्वपि

प्रायस्तिर्यग्गता दोषाः क्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम्


अर्थात ये अत्यंत/अत्यर्थ संचित दोष, उचित(favorable) काल की तथा और हेतु संचय (sufficient/optimum) की प्रतीक्षा करते हुए (हेतुप्रतीक्षिणः),

"उसी स्थान" (तत्रस्थाश्च) मे रहते है ... 

या काल इत्यादी अन्य हेतू की अनुकूलता प्राप्त करके, "किसी अन्य स्थान" (अन्याश्रयेषु अपि) मे भी प्रकुपित होकर रोग उत्पत्ती करते है ...


और ऐसे तिर्यग् गत अर्थात प्रायः शाखा गत या मध्यम मार्ग गत / मर्मगत दोष, ऐसे रोगों को / अवस्थाओं को उत्पन्न करते है ... 

जो या तो प्रस्तुत श्लोक मे लिखा है वैसे "जीवितच्छिद् = शीघ्र मृत्युकारक

या 

अभी के श्लोक मे लिखा है वैसे "क्लेशयन्ति आतुरांश्चिरम् अर्थात दीर्घकाल पीडा देने वाले और ठीक न होने वाले" या याप्य से प्रत्याख्येय की ओर जाने वाले रोग, जो रुग्ण तथा उसके कुटुंब के शारीरिक मानसिक सामाजिक और आर्थिक हानि का कारण बनने वाले स्थिती मे लाकर रखते है

ऐसी स्थिति पर उपाय बताते हुए , पहले सावधानी लिखी है कि

कुर्यान्न तेषु त्वरया देहाग्निबलवित् क्रियाम्। 

ऐसी स्थिती मे दोष स्थिती या रोग स्थिती मे जल्दबाजी शीघ्रकृती झटसे निर्णय ऐसा न करे , अपितु...

शमयेत्तान् प्रयोगेण सुखं वा कोष्ठमानयेत्॥

ज्ञात्वा कोष्ठप्रपन्नांश्च यथासन्नं विनिर्हरेत्। 

उन प्रकुपित दोषों को या उस रोगावस्था मे "प्रयोग" से अर्थात दीर्घकालीन उपचारोसे "शमन" करे या कोष्ठ मे लाकर यथासन्न शोधन करे 

किंतु मूलस्थिती शोधन न करने की वृत्ती के कारण ही निर्माण हुई है , तो फिर से उस पर शोधन हि करो, यह उपाय समुचित नही लगता है ...

क्योंकि ऐसे अत्यंत संचित दोष स्थिती मे या जीवितच्छिद रोग स्थिती मे या क्लेशन्ति आतुरान् चिरम् ऐसे दीर्घकालीन रोग स्थिती मे, "पेशंट का देह बल अतिशय क्षीण" होने की संभावना होती है...

तो मूलतः शोधन का प्रथम इंडिकेशन, "स्थौल्य और बल का आधिक्य होना" ऐसे लिखा है! (अष्टांगहृदय सूत्र 14 द्विविधोपक्रमणीय) तत्र संशोधनैः स्थौल्य बल अधिकान्

सभी को लगता है की शोधन का इंडिकेशन; 

कफ का बढना = वमन करे, 

पित्त का बढना = विरेचन करे, 

वातकी वृद्धी = बस्ती दे दे, ऐसा है. 

किंतु यह दूसरा इंडिकेशन है. 

पहला इंडिकेशन है, की "तत्र संशोधनैः स्थौल्य बल अधिकान्" अर्थात शरीर का आकार और शरीर की शक्ती सामर्थ्य क्षमता जिनमे अधिक है, "उन्ही पेशंट मे" शोधन करे !!✅️

... तो जो अत्यंत संचित दोष स्थिती / रोग स्थिती या जीवितच्छिद् या क्लेशयन्ति आतुरान् चिरम् ऐसी रोग स्थिती मे है, उनमें शोधन कैसे करेंगे ?! 🤔 ⁉️

तो ... 

उनमे दीर्घकालीन शमन प्रयोग ही उचित है !!!✅️

अभी इस श्लोक का जो द्वितीय पंक्ति है ,

इसको पुन्हा देखना चाहिए की ऐसी जीवितच्छिद् रोगस्थितीकारक दोष प्रकोप का अत्यंत/अत्यर्थ संचय क्यू होता है ???

तो वह केवल "शोधन नही किया", इसलिये नही होता है!!!🔥

अपितु इन लोगों के शरीर मे , कोई भी अविष्कृततम रोग होने की बजाय, दीर्घकालीन हेतु प्रतीक्षा और तत्रस्थाश्च विलंबेरन् यह स्थिती अनेक वर्ष तक, अनेक दशकों तक चलती है ... "इनको पूरी जिंदगी मे कोई भी रोग नही होता है, कोई भी उपचार लेने की, एक भी गोली इंजेक्शन ऑपरेशन ऍडमिशन की आवश्यकता नही होती है ... और अचानक प्रायः 40+ के बाद, जब शरीर की वय अवस्था "ईषत् परिहाणि" (सु सू 35 & सुश्रुत भग्न निदान) की स्थिति मे आता है ... 

उसके पश्चात 45 50 55 इस वय मे, एकदम बहुत बडा, भयंकर, अंतिम स्थिती के किसी रोग का डायग्नोसिस होता है ... 

जैसे की प्रायः इन लोगो को कॅन्सर किडनी फेल्युअर ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक ऐसी कुछ , जीवन मृत्यू की बीच मे, कोई मार्जिन कुशन बफर झोन नही बचा है , ऐसी स्थिति अचानक से उत्पन्न होती है, की जिनको पिछले कई वर्ष तक, कई दशको तक, कोई भी रोग नही हुआ है ...

*"तो यह कारण है कि उनके शरीर के दोष संचय का किसी भी आविष्कृत संप्राप्ती मे रूपांतरण manifestation नहीं होता है

✅️ ... और जिनको वर्ष मे एखाद बार ज्वर हो जाता है , कास पीनस हो जाता है , थोडा बहुत अपचन ऍसिडिटी छर्दि अतिसार हो जाता है ... उनके शरीर मे संचित दोष का कुछ ना कुछ रोग रूप मे परिवर्तन होने से, उसका किसी ने किसी रूप मे उपचार हो जाता है, चाहे शोधन न हो, किंतु कोई ना कोई शमन उपचार, या तो आयुर्वेदिक उपचार या जनरली सभी का होता है, वैसे कोई ना कोई मॉडर्न मेडिसिन उपचार हो जाता है. ✅️

या फिर, ऐसा नहीं हुआ तो, संचित हो हो कर, exponential रिकरिंग compounding इंटरेस्ट के रूप मे , "अत्यंत संचित" होकर ...

इसे कॅन्सर या किडनी लिव्हर फेल्युअर जैसे भयंकर मृत्युकारक या दीर्घकालीन रोग में ही पहुंचाता है!!! 

✅️

इसलिये यह अच्छा है कि, हर व्यक्ति को , हर वर्ष, हर सीजन/ऋतु मे, एक छोटा मोठा अविष्कृततम रोग होकर , उसके दोष कोप का कुछ तो परिवर्तन होकर, किसी न किसी रूप मे उसका शमन उपचार होकर, वह फिर से दोष प्रशम की स्थिती मे पहुंच जाये ... ✅️

अगर ऐसा नही हुआ , उसको वर्ष मे या हर ऋतू मे अगर कोई छोटा-मोटा व्याधी नही हुआ ... तो यह हर साल संचित होते जानेवाला दोष प्रकोप, शरीर की परिहाणि की स्थिती मे, 40+ के वय में, अचानक से अत्यंत गंभीर जीवितच्छिद् = शीघ्र मृत्युकारक या क्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम् ऐसे दीर्घकालीन रोग स्थिती मे पहुंचता है, जहां वह प्रायः याप्य या प्रत्याख्येय की ओर मार्गक्रमण करता है ... 

तो हर वैद्यने अपने सभी पेशंट्स मे और उन पेशंट के परिजनो मे तथा स्वयं के भी परिजन तथा मित्र गण और उनके परिजन इनके संबंध मे, उनके जीवनभर में, रोग स्थितियों का एक निरीक्षण / सर्वेक्षण करके, उपरोक्त विचार की सार्थकता / यथार्थता इनका मूल्यांकन करना योग्य होगा.

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

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