Thursday, 5 September 2024

कॅन्सर किडनी फेल्युअर लिव्हर सिरोसिस ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक किटो ॲसिडोसिस या व्हेरी हाय शुगर ऐसे लाईफस्टाईल डिसीज / जीवनशैलीजन्य रोग" = अत्यंत गंभीर रोगों का "संभाव्य" कारण

कॅन्सर किडनी फेल्युअर लिव्हर सिरोसिस ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक किटो ॲसिडोसिस या व्हेरी हाय शुगर ऐसे लाईफस्टाईल डिसीज / जीवनशैलीजन्य रोग" = अत्यंत गंभीर रोगों का "संभाव्य" कारण

यह लेख, प्रतिदिन अनुभव करने योग्य और 

अत्यंत गंभीर रोगों के "संभाव्य" कारण को स्पष्ट करने का 

एक प्रयास मात्र है


जिन लोगों को पूरे जीवन मे, कभी भी, कोई भी, रोग नही हुआ, कभी भी , किसी भी , औषध उपचार गोली इंजेक्शन ऍडमिशन ऑपरेशन ... इसकी आवश्यकता नही पडी, आजतक कोई भी रोग नही हुआ, 

ऐसे लोगों को अचानक से, प्रायः 40 प्लस के वय मे, एकदम भयंकर, अनपेक्षित, बहुत बडा "लाईफस्टाईल डिसीज / जीवनशैलीजन्य रोग" क्यू होता है? ... जैसे की कॅन्सर किडनी फेल्युअर लिव्हर सिरोसिस ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक किटो ॲसिडोसिस या व्हेरी हाय शुगर!?


आगे का लेख पंचकर्म का समर्थन या महत्व बताने के लिए नही है, यह लेख "एक अन्य", प्रतिदिन अनुभव करणे योग्य और अत्यंत गंभीर रोगों के "संभाव्य" कारण को स्पष्ट करने का प्रयास मात्र है


यतेत च यथाकालं मलानां शोधनं प्रति। 

अत्यर्थसञ्चिताः ते हि क्रुद्धाः स्युः जीवितच्छिदः


यह प्रसिद्ध श्लोक है और 

इसके आगे इससे भी अधिक प्रसिद्ध श्लोक आता है

👇🏼

दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः। 

ये तु संशोधनैः शुद्धा न तेषां पुनरुद्भवः॥

👆🏼

यह श्लोक तो सभी को पता है कि,

लंघन पाचन से दोष कोप / रोगों का पुनर्भव हो सकता है, किंतु यदि शोधन करेंगे तो दोषकोप/रोग का अपुनर्भव होता है


आज के लेख का विषय ,

यह प्रसिद्ध श्लोक न होकर ,

उसके उपर , प्रथम पंक्ति मे जो लिखा है, उस श्लोक के संदर्भ मे है 

प्रकुपित दोषों का शोधन करने के लिए उचित काल मे प्रयत्न करे , ऐसा आदेश है ... यह आदेश वैद्य को भी और रुग्ण को भी लागू होता है, स्वयं की स्वास्थ्यरक्षा हेतु, रुग्ण ने जागृत रहकर , वर्ष मे तीन ऋतु मे अपना शोधन करवा लेना चाहिए और वैद्य ने भी अपने पेशंट को इस विषय मे प्रबोधन करते रहना चाहिए 


अभी वस्तुस्थिती ऐसी है, की भारत की लोकसंख्या की तुलना मे और मॉडर्न मेडिसिन की डॉक्टर्स की तुलना मे, आयुर्वेद प्रॅक्टिशनर की संख्या,  अत्यल्प है ... 

उसमे भी जो आयुर्वेद प्रॅक्टिस करते है, उनमें पंचकर्म करने की सुविधा या वृत्ती होनेवाले वैद्यों की संख्या, और भी कम है.

कितना भी प्रबोधन करे या प्रेरित करे, पेशंट भी आसानी से पंचकर्म के लिए तयार नही होते है, क्योंकि उसमे समय / धन इनका व्यय तथा आहार विहार पर अनेक निर्बंध, ये समस्या उसको असुविधाकारक लगती है

तो ऐसी स्थिती मे कुल लोकसंख्या का अत्यल्प प्रतिशत (very low %) ही प्रत्यक्ष रूप मे तीनो दोषोंका शोधन कर्म करता है, तो इसका अर्थ यह होता है कि प्रस्तुत श्लोक की जो द्वितीय पंक्ति है , उसमे जो स्थिती है वह प्रायहा सभी लोगों को, जो शोधन उपक्रम नही करते है, उनको लागू होती है ...

अत्यर्थसञ्चिताः ते हि क्रुद्धाः स्युः जीवितच्छिदः

अर्थात एक साल मे तीन मुख्य शोधन करना, स्वास्थ्य रक्षा तथा रोग अनुत्पादन के लिए आवश्यक है.

यहां तो ऐसी स्थिती होती है कि, जन्म से लेके आज के दिन तक , अर्थात लगातार कई सालोंतक, कई दशकों तक "शोधन किया ही नही होता है", तो हर साल दोषकोप होते होते, यह "अत्यर्थ संचित स्थिती" मे पहुंचता है.

इसकी आगे की एक स्थिती अष्टांगहृदय सूत्रस्थान 13 दोषोपक्रमणीय वर्णित है, वहां पर लिखते है

तत्रस्थाश्च विलम्बेरन् भूयो हेतुप्रतीक्षिणः

ते कालादिबलं लब्ध्वा कुपयन्त्यन्याश्रयेष्वपि

प्रायस्तिर्यग्गता दोषाः क्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम्


अर्थात ये अत्यंत/अत्यर्थ संचित दोष, उचित(favorable) काल की तथा और हेतु संचय (sufficient/optimum) की प्रतीक्षा करते हुए (हेतुप्रतीक्षिणः),

"उसी स्थान" (तत्रस्थाश्च) मे रहते है ... 

या काल इत्यादी अन्य हेतू की अनुकूलता प्राप्त करके, "किसी अन्य स्थान" (अन्याश्रयेषु अपि) मे भी प्रकुपित होकर रोग उत्पत्ती करते है ...


और ऐसे तिर्यग् गत अर्थात प्रायः शाखा गत या मध्यम मार्ग गत / मर्मगत दोष, ऐसे रोगों को / अवस्थाओं को उत्पन्न करते है ... 

जो या तो प्रस्तुत श्लोक मे लिखा है वैसे "जीवितच्छिद् = शीघ्र मृत्युकारक

या 

अभी के श्लोक मे लिखा है वैसे "क्लेशयन्ति आतुरांश्चिरम् अर्थात दीर्घकाल पीडा देने वाले और ठीक न होने वाले" या याप्य से प्रत्याख्येय की ओर जाने वाले रोग, जो रुग्ण तथा उसके कुटुंब के शारीरिक मानसिक सामाजिक और आर्थिक हानि का कारण बनने वाले स्थिती मे लाकर रखते है

ऐसी स्थिति पर उपाय बताते हुए , पहले सावधानी लिखी है कि

कुर्यान्न तेषु त्वरया देहाग्निबलवित् क्रियाम्। 

ऐसी स्थिती मे दोष स्थिती या रोग स्थिती मे जल्दबाजी शीघ्रकृती झटसे निर्णय ऐसा न करे , अपितु...

शमयेत्तान् प्रयोगेण सुखं वा कोष्ठमानयेत्॥

ज्ञात्वा कोष्ठप्रपन्नांश्च यथासन्नं विनिर्हरेत्। 

उन प्रकुपित दोषों को या उस रोगावस्था मे "प्रयोग" से अर्थात दीर्घकालीन उपचारोसे "शमन" करे या कोष्ठ मे लाकर यथासन्न शोधन करे 

किंतु मूलस्थिती शोधन न करने की वृत्ती के कारण ही निर्माण हुई है , तो फिर से उस पर शोधन हि करो, यह उपाय समुचित नही लगता है ...

क्योंकि ऐसे अत्यंत संचित दोष स्थिती मे या जीवितच्छिद रोग स्थिती मे या क्लेशन्ति आतुरान् चिरम् ऐसे दीर्घकालीन रोग स्थिती मे, "पेशंट का देह बल अतिशय क्षीण" होने की संभावना होती है...

तो मूलतः शोधन का प्रथम इंडिकेशन, "स्थौल्य और बल का आधिक्य होना" ऐसे लिखा है! (अष्टांगहृदय सूत्र 14 द्विविधोपक्रमणीय) तत्र संशोधनैः स्थौल्य बल अधिकान्

सभी को लगता है की शोधन का इंडिकेशन; 

कफ का बढना = वमन करे, 

पित्त का बढना = विरेचन करे, 

वातकी वृद्धी = बस्ती दे दे, ऐसा है. 

किंतु यह दूसरा इंडिकेशन है. 

पहला इंडिकेशन है, की "तत्र संशोधनैः स्थौल्य बल अधिकान्" अर्थात शरीर का आकार और शरीर की शक्ती सामर्थ्य क्षमता जिनमे अधिक है, "उन्ही पेशंट मे" शोधन करे !!✅️

... तो जो अत्यंत संचित दोष स्थिती / रोग स्थिती या जीवितच्छिद् या क्लेशयन्ति आतुरान् चिरम् ऐसी रोग स्थिती मे है, उनमें शोधन कैसे करेंगे ?! 🤔 ⁉️

तो ... 

उनमे दीर्घकालीन शमन प्रयोग ही उचित है !!!✅️

अभी इस श्लोक का जो द्वितीय पंक्ति है ,

इसको पुन्हा देखना चाहिए की ऐसी जीवितच्छिद् रोगस्थितीकारक दोष प्रकोप का अत्यंत/अत्यर्थ संचय क्यू होता है ???

तो वह केवल "शोधन नही किया", इसलिये नही होता है!!!🔥

अपितु इन लोगों के शरीर मे , कोई भी अविष्कृततम रोग होने की बजाय, दीर्घकालीन हेतु प्रतीक्षा और तत्रस्थाश्च विलंबेरन् यह स्थिती अनेक वर्ष तक, अनेक दशकों तक चलती है ... "इनको पूरी जिंदगी मे कोई भी रोग नही होता है, कोई भी उपचार लेने की, एक भी गोली इंजेक्शन ऑपरेशन ऍडमिशन की आवश्यकता नही होती है ... और अचानक प्रायः 40+ के बाद, जब शरीर की वय अवस्था "ईषत् परिहाणि" (सु सू 35 & सुश्रुत भग्न निदान) की स्थिति मे आता है ... 

उसके पश्चात 45 50 55 इस वय मे, एकदम बहुत बडा, भयंकर, अंतिम स्थिती के किसी रोग का डायग्नोसिस होता है ... 

जैसे की प्रायः इन लोगो को कॅन्सर किडनी फेल्युअर ब्रेन हिमरेज हार्ट अटॅक ऐसी कुछ , जीवन मृत्यू की बीच मे, कोई मार्जिन कुशन बफर झोन नही बचा है , ऐसी स्थिति अचानक से उत्पन्न होती है, की जिनको पिछले कई वर्ष तक, कई दशको तक, कोई भी रोग नही हुआ है ...

*"तो यह कारण है कि उनके शरीर के दोष संचय का किसी भी आविष्कृत संप्राप्ती मे रूपांतरण manifestation नहीं होता है

✅️ ... और जिनको वर्ष मे एखाद बार ज्वर हो जाता है , कास पीनस हो जाता है , थोडा बहुत अपचन ऍसिडिटी छर्दि अतिसार हो जाता है ... उनके शरीर मे संचित दोष का कुछ ना कुछ रोग रूप मे परिवर्तन होने से, उसका किसी ने किसी रूप मे उपचार हो जाता है, चाहे शोधन न हो, किंतु कोई ना कोई शमन उपचार, या तो आयुर्वेदिक उपचार या जनरली सभी का होता है, वैसे कोई ना कोई मॉडर्न मेडिसिन उपचार हो जाता है. ✅️

या फिर, ऐसा नहीं हुआ तो, संचित हो हो कर, exponential रिकरिंग compounding इंटरेस्ट के रूप मे , "अत्यंत संचित" होकर ...

इसे कॅन्सर या किडनी लिव्हर फेल्युअर जैसे भयंकर मृत्युकारक या दीर्घकालीन रोग में ही पहुंचाता है!!! 

✅️

इसलिये यह अच्छा है कि, हर व्यक्ति को , हर वर्ष, हर सीजन/ऋतु मे, एक छोटा मोठा अविष्कृततम रोग होकर , उसके दोष कोप का कुछ तो परिवर्तन होकर, किसी न किसी रूप मे उसका शमन उपचार होकर, वह फिर से दोष प्रशम की स्थिती मे पहुंच जाये ... ✅️

अगर ऐसा नही हुआ , उसको वर्ष मे या हर ऋतू मे अगर कोई छोटा-मोटा व्याधी नही हुआ ... तो यह हर साल संचित होते जानेवाला दोष प्रकोप, शरीर की परिहाणि की स्थिती मे, 40+ के वय में, अचानक से अत्यंत गंभीर जीवितच्छिद् = शीघ्र मृत्युकारक या क्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम् ऐसे दीर्घकालीन रोग स्थिती मे पहुंचता है, जहां वह प्रायः याप्य या प्रत्याख्येय की ओर मार्गक्रमण करता है ... 

तो हर वैद्यने अपने सभी पेशंट्स मे और उन पेशंट के परिजनो मे तथा स्वयं के भी परिजन तथा मित्र गण और उनके परिजन इनके संबंध मे, उनके जीवनभर में, रोग स्थितियों का एक निरीक्षण / सर्वेक्षण करके, उपरोक्त विचार की सार्थकता / यथार्थता इनका मूल्यांकन करना योग्य होगा.

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक 

9422016871 

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