Monday, 30 September 2024

पित्तस्थान = शिर तस्मात् घृतनस्य, विना यंत्रणा नेत्रतर्पण तथा घृत पिचु @ कनीनक

पित्तस्थान ✅️ (कफस्थान X) = शिर, तस्मात् घृतनस्य✅️ (तैलनस्य X),  विना यंत्रणा नेत्रतर्पण तथा घृत पिचु @ कनीनक

लेखक ✍🏼 : वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे 9422016871


तैलम् घृतम् एव ✅️ च नस्यार्थे नित्याभ्यासेन शस्यते॥३३॥ 

शिरसः श्लेष्म पित्त ✅️ धामत्वात् स्नेहाः स्वस्थस्य नेतरे। 


यह प्रसिद्ध श्लोक सभी को ज्ञात है ही,

किंतु तैल (विशेषतः अणुतैल) का नस्य करने के बाद कितना प्रक्षोभ/irritation होता है, यह कुछ लोगो ने तो निश्चित ही अनुभव किया होगा या पेशंट को प्रक्षोभ होते हुए देखा/ सुना होगा.


यदि तैल की बजाय, नस्य के लिये तप्तांबु प्रविलायित (हॉट वॉटर बाथ लिक्विफाईड) घृत का प्रयोग करेंगे, तो ऐसा प्रक्षोभ न होते हुए , अत्यंत लाभदायक परिणाम प्राप्त होते है ... की उपरोक्त श्लोक का रूपांतरण आगे लिखे हुए श्लोक मे करना योग्य है , ऐसा आपका भी मत होगा


*घृतम्* एव च नस्यार्थे नित्याभ्यासेन शस्यते॥ 

शिरसः *पित्त* धामत्वात् स्नेहाः स्वस्थस्य नेतरे। 


शिरस् यह कफ स्थान न होकर, मुख्यतः पित्त का (तथा वात का उपस्थान या शिरस् यह कफ का गौण) स्थान है


तस्मात नित्य अभ्यास की दृष्टी से नस्य में घृत का हि प्रयोग करे ✅️ ... न की तैल का!

केवल नित्य अभ्यास हि नही,

अपितु *अनेक शिरोविकारों के लिए "घृतनस्य" हि उचित औषध है*


उपरोक्त विधान मे दो (2) मुख्य बाते है ...

A)

शिर कफ का स्थान न होकर, पित्त का स्थान है. पित्तवात का स्थान है अग्नि वायु का स्थान है. 

रूपांतरण (tranform) और स्थानांतरण(transport) का स्थान है 

सत्त्व तथा रजो गुणों का स्थान है ...

न कि श्लेष्मा की तरह जल पृथ्वी क्लेद स्थैर्य गौरव स्निग्धता गतिहीनता एवं तमोगुण इनका!


B)

घृत अग्निशामक पित्तशामक है, दाह शामक है निर्वापक शीत है स्निग्ध है, शीतस्निग्ध ऐसे धातुक्षय को भरने वाले, बृंहणकारी, संतर्पणकारक ...घृत का नस्य हि सर्वाधिक उपयोगी है 


शमनं नीलिकाव्यङ्गकेशदोषाक्षिराजिषु॥

ये 👆🏼शमन नस्य के इंडिकेशन्स है, जो सभी के सभी प्रायः पित्त जन्य है ... इसलिये शमन नस्य में क्षीर = दुग्ध का भी प्रयोग किया गया है


शमनं योजयेत्पूर्वैः क्षीरेण सलिलेन वा


शिरःशूल शिरोदाह नेत्रदाह कर्णनाद ऐसे वातपित्त प्रधान लक्षण/ अवस्था मे क्षीर का नस्य शीघ्रही उपशमकारक होता है


1.

शिर कफ का स्थान नही है, 

इसीलिए शिर के उपर उष्णोदक का निषेध है 

शिर तो पित्त का अग्नि का विशेष स्थान है, इसी कारण से वहां पर उष्णोदक का निषेध है 

अगर वह कफ का स्थान होता, 

तो उष्णोदक वहां पर उचित होता


2.

शिरो रोग की संप्राप्ती मे चरक ने वातादयों के साथ *रक्त का भी प्रकोप होता है या दूषण होता है*, ऐसे लिखा है, इससे स्पष्ट है की रक्त अर्थात पित्त अर्थात अग्नि का हि स्थान शिर है, न कि मुख्य रूप से, कफ का


3.

पंचमहाभूतो मे आकाश तो विभु है, इस कारण से महाभूतों के जो दो(2) ग्रुप बनते है, उसमे पहला भौमापम् अर्थात भूमि जल इनका है ... तो दूसरा अर्थात अग्नि वायु इनका है, 

पहला बृंहण, दूसरा लंघन 

पहला संतर्पण, दूसरा अपतर्पण 

पहला वृद्धि, दुसरा क्षय का कारण है 

इसी को दर्शाते हुए वाग्भट सूत्र 9 मे, जहां पर पंच महाभूतों का वर्णन विस्तार से आया है ,

वहां 

अधोगामि च भूयिष्ठं भूमितोयगुणाधिकम्॥

इसका स्पष्ट अर्थ ये है कि, भूमि और जल से बनने वाला भाव पदार्थ अर्थात कफ दोष यह अधोगामी है. इस कारण से वह शरीर के उत्तमांग मे, सर्वोच्च भाग मे टॉप लेव्हल मे अर्थात शिरमे मुख्य स्थान प्राप्त नहीं कर सकता है 

या शिर कफ का स्थान है, ऐसा कहना यह महाभूत सिद्धांत के विरुद्ध या शास्त्र विरुद्ध आगम विरुद्ध है.


वैसे भी अधोगामी होने के कारण, भूमि जल प्रधान होने के कारण ही, कफ प्रधान जो शारीर भाव है, जैसे पुरीष मूत्र गर्भ शुक्र (और कुछ प्रमाण में रज) ये सारे अधोगामी है और इसी कारण से शरीर के अधोभाग मे नाभि के नीचे उपस्थित, शरीर का सर्वाधिक गौरव युक्त पुष्ट मांसल अवयव सक्थि नितंब पिंडिका ये भी शरीर के अधो भाग मे ही उपस्थित है. इस कारण से कफ का शरीर मे स्थान, यह नाभि/हृदय के ऊपर, ऐसा न कहते हुए, या शिर है ... ऐसा न कहते हुए ... नाभि के नीचे ही कफ का स्थान है ऐसा कहना अत्यंत उचित है.


5.

शिर व उर , ये तो पित्त और वात के हि स्थान है ! शिर व उर , ये कफ के स्थान है हि नही


6.

उर तो निश्चित रूप से वात का हि स्थान है ...

यद्यपि कफ का प्रमुख स्थान उर "बताया" गया है, किंतु उर मे, आज की दृष्टि से देखा जाये तो जीवन के आरंभ से जीवन के अंतिम क्षण तक, प्रति क्षण अखंड एक स्पंदन एक आवागमन एक अत्यंत तीव्र विक्षेप सामर्थ्य की गतियुक्त घटनाये निरंतर चलती रहती है, इसलिये यह प्राण का, यह श्वास का, रक्तविक्षेपण का अर्थात यह वात का स्थान है! 


7.

वैसे देखा जाये तो वात के "कथित (so called, hypothetical)" पाच प्रकारो मे से प्राण उदान और व्यान इनका स्थान भी उर हि है ... इसलिये दोष और उनके मुख्य स्थान तथा उपस्थान इनका पुनर्विचार, पुनः प्रस्थापन पुनर्वितरण, यह शास्त्र की आधुनिकीकरण की दृष्टि से या *"आधुनिक आयुर्वेद की प्रस्थापना"* की दृष्टि से आवश्यक है 


8.

अगर नाभि के उर्ध्व या हृदय के उर्ध्व ; इन की बातों को थोडा बाजू को रख के, केवल शिर की हि बात करे, तो शिर तो वात का भी स्थान है, क्योंकि अगर शिर में देखा जाये तो कई सारे रिक्त जगह अवकाश vaccuoles दिखाई देते है, इससे यह सुनिश्चित होता है, कि यह आकाश वायु प्रधान अवयव है.


9.

संहितोक्त श्लोक का भी पुनर्विचार करना आवश्यक आहे


शिरःस्कन्धोरुपृष्ठस्य कट्याः सक्थ्नोश्च गौरवम्।


इन अवयव में स्थित मांस, "यथा पूर्व गुरु" है, ऐसा इस श्लोक मे उल्लेख है.


इस श्लोक के अनुसार ...

तुलना मे, शिरस् स्थित मांस सर्वाधिक गुरु तथा सक्थि स्थित मांस सर्वाधिक लघु है, ऐसा इनके मांस के विषय मे उल्लेखित है, चरक एवं वाग्भट में


किंतु अगर ठीक से देखा जाये, तो सर्वाधिक मांस यह सक्थि मे ही होता है और जैसे जैसे कटी पृष्ठ उर स्कंध इस दिशा मे आते जायेंगे , वैसे मांस लघु होता चला जाता है , क्योंकि वहां के मसल की साईज/thickness (और उसमे होने वाली वसा = fat lipids cholesterol?) इनका प्रमाण कम होते जाता है.


शिर मे तो मांस है हि नही , अगर मन्या गल ग्रीवा गर्दन यहां का भाग छोड दिया जाय , तो उर्वरित शिर मे तो केवल अस्थिकंकाल या अस्थियों से बनने वाले सायनस= रिक्त जगह= अवकाश हि है, तो वहां के मांस की लघुता सर्वाधिक है. सक्थि की तुलना मे तो शिरो मांस लघुतम है और शिर की तुलना मे सक्थि मांस यह सर्वाधिक गुरु है ... *यह प्रॅक्टिकली देखा जा सकता है

और जो लोग मांस नित्य रूप से खाते है , उनको भी इस प्रकार का अनुभव = प्रचिती आती है


10.

कर्ण यह तो आकाश महाभूत का हि अवयव है 


वाचा कर्मेंद्रिय अग्नि से है और वाणी वायु से ही आती है 


नेत्र यह अवयव तो स्पष्ट रूप से अग्नि का ही है 


11.

और मनुष्य जीवन का 90% जो नॉलेज है, वो जिन इंद्रियों से इनपुट के रूप मे शरीर मे आता है, उनका ॲनालिसिस = उनका रूपांतरण transformation = *पचन* और उनका बुद्धी स्मृती अनुभव के रूप मे मनुष्य के जीवन मे चिरकाल तक दीर्घकाल तक या अंतकाल तक निर्धारण संगोपन संरक्षण, यह करना ये जो रूपांतरण=पचन की बात है... इन्फॉर्मेशन टू नॉलेज ट्रान्सफॉर्मेशन की बात है, ये जहाँ पर निरंतर रूप से चल रहा है , वह स्थान अग्नि का / पित्त का है , इसमे कोई संदेह नही होना चाहिए .


12.

पित्त अत्यंत बढ जाये तो होने वाला शिरःशूल विशेषतः शंख प्रदेश का शूल, यह भी शिर के पित्त स्थान होने की पुष्टी करता है. 


13.

अनेक लोगों को अम्लपित्त होने पर या मायग्रेन के समय जो शंख प्रदेश मे शूल होता है, वह पित्त की छर्दि होने के बाद उपशम प्राप्त होता है


14.

क्रोध के कारण या धूपके कारण अर्थात उष्णता के कारण पित्त की जो वृद्धी होती है, तो जो शूल होता है, वो प्रायः शिर मे हि होता है या स्पंदन रूप शूल होता है, वो भी शिर में ही होता है 


15.

सुश्रुत ने नही अपितु, चरकने शिरो रोग के कारण बताते समय तीनो दोषों के साथ *रक्त भी दूषित होता है* ऐसा उल्लेख किया. रक्त अर्थात पित्त अर्थात अग्नि. अर्थात यह विधान भी शिर पित्त का ही स्थान है, इसका समर्थन करता है 


16.

ब्लड प्रेशर अत्यधिक होने पर होने वाला शूल और ब्लड प्रेशर अतिशय कम होने के पश्चात् होने वाला भ्रम तथा तिमिर दर्शन यह लक्षण भी शिर मे ही होते है, इससे ये अधोरेखित होता है कि शिर यह पित्त का ही स्थान है , न कि कफ का 


17.

अगर शिर यह कफ का स्थान होता तो जैसे उष्ण द्रव्य के नस्य के पश्चात कफ का शमन होने से शिरमे सुख संवेदना होना, संभव होता. किंतु तैलके नस्य के पश्चात् अत्यंत क्षोभ संरंभ होता है ,

यह , शिर में कफ नही, अपितु पित्त का हि प्राधान्य है, शिर पित्त का हि स्थान है, इसका द्योतक है , इसमे कोई संदेह नही होना चाहिए .


18.

वैसे तो मै, आज जिसे ब्रेन कहते है या शास्त्र मे जिसे मस्तुलुंग कहा गया है, इसे मैं स्वयं मज्जा नहीं समझता, क्यों की मज्जा तो अस्थि के अंतर्गत होती है = it is intra bone = in side of bone cavity जैसे की हम टीबिया, अल्ना फिमर इनके अंतः प्रदेश मे cavity मे मज्जा होती है. जो आज का ब्रेन है या जिसे शास्त्र मे मस्तुलुंग कहा गया है ये अनेक अस्थियों के अंतराल मे है तो ये इंटरबोन है, इंट्रा बोन नही है. Brain is situated in interbone cavity ... cavity made up by many/ different bones. It is not intra bone = it is NOT inside the cavity of a single bone. इसलिये शिरःस्थ मस्तुलुंग अर्थात ब्रेन को मज्जा कहना, उतना शास्त्रीय दृष्ट्या, योग्य नही है, किंतु "बहुमत को एक क्षण के लिए मान लिया जाये" तो भी अगर ब्रेन यह मज्जा है, तो मज्जा यह पित्तधरा कला का ही स्थान होता है, यह भी शास्त्र मे संदर्भ उल्लेखित है


19.

इस कारण से रुक्ष वात और रुक्ष पित्त , वायु और अग्नि हे दोनो महाभूत रूक्ष है , इस कारण से शिर को कफ का स्थान कहने की बजाय, शिर को वायु अग्नि का या विशेष रूप से ज्ञान के रूपांतरण की प्रक्रिया, जन्म से मरण तक चलती रहती है, इस कारण से पित्त का प्रमुख स्थान कहकर , शिर मे "नित्य अभ्यास" के रूप में तैल का नही , अपितु *घृत का हि प्रयोग होना चाहिए* 


20.

घृत अग्निशामक पित्तशामक है, दाह शामक है निर्वापक शीत है स्निग्ध है ... इस कारण से आज जो आत्यंतिक बौद्धिक वैचारिक भावनिक इस प्रकार का दबाव स्ट्रेस तनाव स्ट्रेस उद्वेग इरिटेशन संरंभ मनुष्य के जीवन मे आ रहा है, इसमे क्षोभकारक उष्ण तीक्ष्ण तैल का नस्य के रूप मे उपयोग करना, यह अनुचित है.

उसके बजाय, आज संक्षोभ को नष्ट करने वाला निर्वापण करने वाला शांती देने वाला शीतस्निग्ध ऐसे धातुक्षय को भरने वाले बृंहण करने वाले संतर्पण करने वाले ... निरंतर गती + रूपांतरण/ भावांतरण ट्रान्सफॉर्मेशन पचन, जहां पर चल रहा है, निरंतर जहां पर अग्नि वायु / वात पित्त इनका व्यापार चल रहा है, उनके द्वारा शरीर की हानी न हो, इसलिये वहां पर घृत नस्य ही सर्वाधिक उपयोगी है 


21.

शिर अगर कफ का स्थान है, तो कफ तो तमोगुण प्रधान है. इस कारण से कफ का स्थान होने से शिरमे ज्ञान निर्मिती ज्ञानग्रहण ज्ञानसंग्रह संभव ही नही होता! इसी कारण से, यस्मात् शिरमे इतना सारा जीवनभर का ज्ञानग्रहण एवं संग्रहण होता रहता है , तो वहां पर सत्वगुण और रजो गुण है, न कि तमो गुण!! और ना हि शिर यह तमो गुण प्रधान कफ का स्थान है!!!


22.

इसलिये सत्वगुण रजोगुण युक्त, विशेष रूप से अग्नि तथा वायु का, शिरस् मुख्य स्थान है और इनके प्रसादन के लिए, शमन के लिए , संक्षोभनाशन के लिये घृत नस्य हि प्रशस्त है, न कि तैल का नस्य !!!


23.

घृतनस्य की मात्रा कितनी होनी चाहिये ?

बिंदु क्या है ?

मर्श की मात्रा क्या है, इस पर शास्त्र मे बहुत वाद है. 


24.

किंतु प्रॅक्टिकली जो हम 1998 से कर रहे है, उसमे एक ड्रॉपर पूर्णरूप से भरकर जो 0.5ml अर्थात दृश्यमान 14/15 बिंदू उसमे होते है, इतना लिक्विफाईड ही अर्थात प्रविलायित घृत छोडना चाहिए, रात्री मे सोते समय! 


25.

और नस्य करते समय श्वास नाक से जोर से अंदर लेना खींचना चाहिये अर्थात नासा से हि श्वास अंदर लेना चाहिए और मुखसे ही श्वास बाहर छोडना चाहिए उच्छ्वास बाहर छोडना चाहिए अर्थात वनवे श्वास लेना चाहिए ऐसा 100 बार करने से प्रविलायित घृत जो नासा पुटों में डाला है, यह स्थपनी मर्म तक जाता है और वैसा अनुभव पेशंट स्वयं फील कर सकता है 


26.

तीन या चार दिन के बाद हि, इसके अपेक्षित परिणाम दिखाई देने लगते है.

पहले 3 दिन कभी नासा स्थित कफ संचय/उपलेप के कारण नाक मे डाला हुआ घृत गले मे उतरता है. जिस पर उष्णोदक या उष्ण चाय का पान करना उपयोगी है. और यह घृत अन्नस्वरूप होने कारण उसको निगलेंगे तो भी कोई हानी नही होती है ...


27.

नेत्रतर्पण यह, बिना माषपाली बिना गाॅगल बिना यंत्रणा without instrument संभव है

तथा

आशुकृच्चिरकारित्वं गुणोत्कर्षापकृष्टता॥३४॥ 

मर्शे च प्रतिमर्शे च विशेषो न भवेद्यदि। 

को मर्शं सपरीहारं सापदं च भजेत्ततः॥३५॥ 

अच्छपानविचाराख्यौ कुटीवातातपस्थिती। 

अन्वासमात्राबस्ती च तद्वदेव विनिर्दिशेत्॥


इस शॉर्टकट /स्मॉलर व्हर्जन के श्लोक के रूप मे और एक इसमे एक्सटेंशन इस दृष्टी से ...

नेत्रतर्पण या नेत्रबस्ति का लघुरूप = शॉर्टकट = स्मॉलर वर्जन के अर्थ मे *नेत्रपिचु = घृतार्पण* यह विधी वैद्य को क्लिनिक मे तथा पेशंट को अपने घर मे स्वयं ही करना अत्यंत सरल व सुकर है.

घृतपिचु@कनीनक यह विधि अत्यंत लाभदायक / परिणामकारक है


इन दो 👆🏼विधियों पर, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda, अगले लेख में सविस्तर स्पष्टीकरण प्रस्तुत करेंगे

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