City Saturation Index = City Securation Index
सिटी सॅच्युरेशन इंडेक्स
मूल संकल्पना, लेखन , प्रस्तुतीकरण ,व्हिडिओ निर्मिती :
©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे.
एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.
आयुर्वेद क्लिनिक्स
@पुणे & नाशिक.
9422016871
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https://youtu.be/2B360e8I76w?si=J_Fon01bT1qXuddb
यह एक अभिनव, अभूतपूर्व और पहली बार प्रस्तुत की जा रही अवधारणा है। गूगल / AI / या किसी अन्य इंटरनेट स्रोत पर खोजकर देखिए, इस प्रकार का कोई शब्द, वाक्यांश या कॉन्सेप्ट दुनिया में कहीं भी अस्तित्व में नहीं है; इस प्रकार का कोई भी रिकॉर्ड इस क्षण तक पूरी दुनिया में कहीं भी उपलब्ध नहीं मिलेगा!
और इसलिए इस अभिनव, अभूतपूर्व, प्रथम प्रस्तुत एवं अद्वितीय अवधारणा का प्रस्तुतीकरण, सार्वजनिकीकरण और प्रकाशन उतनी ही गंभीरता से पढ़ा और समझा जाना चाहिए — यह मेरी विनम्र प्रार्थना है।
**सिटी सैचुरेशन इंडेक्स**
Abstract :
हर शहर के लिए “सिटी सैचुरेशन इंडेक्स” तय होना चाहिए।*
और उस इंडेक्स तक पहुँचने से पहले ही – नई आबादी बिल्कुल न बढ़े – इसके लिए बेहद सख़्त नियम बनाए जाएँ, जिनमें कोई भी छूट, तोड़–मरोड़ या बचाव की गुंजाइश न हो।
सिटी सैचुरेशन इंडेक्स** उस शहर के क्षेत्रफल और प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर तय हो, कि वहाँ स्थायी रूप से अधिकतम कितनी आबादी रह सकती है और कितनी फ्लोटिंग आबादी सहन की जा सकती है। इस पर बेहद कड़ा नियंत्रण होना चाहिए।
सिटी सैचुरेशन इंडेक्स लागू हो, तो जब शहर अपनी सीमा तक पहुँच जाए, उसके बाद किसी भी नए आवासीय, वाणिज्यिक, औद्योगिक प्रोजेक्ट को हमेशा के लिए रोक देना चाहिए।
ताकि वहाँ काम, शिक्षा या रोज़गार के लिए आने वालों के लिए – आसपास “जुड़वाँ” या नए नियोजित नगर बसाए जा सकें।आज भी दो ज़िलों के मुख्यालयों के बीच 3–6 घंटे की दूरी होती है। इनके बीच सैकड़ों किलोमीटर और हज़ारों एकड़ ज़मीन खाली पड़ी है। वहाँ छोटे इंडेक्स वाले, सीमित आबादी वाले नए कस्बे, नगर, महानगर बसाए जा सकते हैं।
या मौजूदा गाँवों को ही विकेंद्रीकृत ढंग से विकसित करके – शहरी, औद्योगिक, शैक्षणिक ढाँचे दिए जा सकते हैं।
क्योंकि चाहे जितनी सुविधाएँ दें, आज के “फूले हुए Swollen” या सच कहें तो “फट चुके bursted” शहरों को पहले जैसी स्थिति में लाना और बढ़ती आबादी को स्थायी या अस्थायी रूप से सँभालना – दिन–प्रतिदिन “कठिन से असंभव” होता जाएगा।
इसलिए, भले ही दुनिया में अभी ऐसा कोई कॉन्सेप्ट न हो, लेकिन जैसे भारत ने UPI को दुनिया में सबसे पहले स्वीकारा और चलाया, वैसे ही भारत “सिटी सैचुरेशन इंडेक्स” की अवधारणा लागू कर सकता है।
इसके आधार पर गाँव–कस्बों–शहरों का वर्गीकरण, इंडेक्सेशन करके – मौजूदा गाँवों को सुविधायुक्त बनाया जा सकता है। या ज़िलों के बीच खाली पड़ी ज़मीन पर योजनाबद्ध नए नगर बसाए जा सकते हैं – इस तरह कि उनका इंडेक्स कभी पार न हो।
यह बिल्कुल संभव है – बशर्ते सामाजिक समर्थन और राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों मिलें।
इसी तरह सिटी सैचुरेशन इंडेक्स भी आ सकता है।
आज का केंद्रीय तथा राज्य, इन दोनो स्तर पर उपस्थित, प्रभावी नेतृत्व और सक्षम प्रशासनिक टीम देखते हुए, यह बिलकुल असंभव नहीं है।
अगर सिटी सैचुरेशन इंडेक्स स्वीकारा और लागू किया गया, तो आज छोटे, मध्यम और बड़े शहरों में रोज़–रोज़ बढ़ रही – शहरी, औद्योगिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य, ट्रैफ़िक, प्रदूषण, कचरा, झुग्गी–झोपड़ी और अपराध की समस्याओं को नियंत्रित करना, या शायद समाप्त करना संभव हो जाएगा।
**City Saturation Index = City Securation Index**
मूल सविस्तर लेख
पुणे और मुंबई के बाद …
नासिक, कोल्हापुर, अहिल्यानगर, संभाजीनगर, नागपुर, अमरावती, अकोला – ये शहर भी धीरे–धीरे भरकर छलकने लगे हैं!
वो नासिक और कोल्हापुर, जहाँ सिर्फ 10–15 साल पहले तक सड़कें खाली होती थीं, चौक सुरक्षित रहते थे, और शाम के समय भी अपेक्षाकृत सन्नाटा महसूस होता था … वहाँ आज भीड़ और घुटन साफ महसूस होने लगी है।
**तो इसका उपाय क्या है???**
अधिकांश लोगों को लगता है कि सड़क चौड़ीकरण, एफएसआई या टीडीआर बढ़ाकर, पुराने बंगले/वाड़े गिराकर 15–40 मंज़िला इमारतें खड़ी करना, मेट्रो, फ्लाईओवर, सार्वजनिक या निजी परिवहन व्यवस्था में सुधार और विस्तार करना – यही उपाय हैं!!
लेकिन सच बताऊँ? … इन सब से कुछ भी होने वाला नहीं है। और यह हम देख ही रहे हैं। बल्कि महानगरों में जितनी आधुनिक सुविधाएँ आती हैं, उतनी ही अधिक भीड़ आसपास के गाँवों से खिंचकर वहाँ आती जाती है।
सन् 2000 से पहले, सिंहगड रोड पर राजाराम पुल बनने से पहले, संतोष हॉल, आनंद नगर, हिंजे से आगे बहुत कम बस्तियाँ थीं। इतने बड़े बरगद के पेड़ थे कि दस लोग मिलकर भी उन्हें घेर नहीं सकते थे। राजाराम पुल से पहले पानमाला तक भी बस्तियाँ विरल थीं, ईंट भट्टियाँ थीं! पर्वती से तलजाई तक का पूरा पहाड़ी क्षेत्र बिल्कुल खाली, हरा–भरा था।
जैसे ही राजाराम पुल बना, कर्वेनगर, हिंजे, कोथरूड की भीड़ नदी पार करके संतोष हॉल से धायरी के डीएसके विश्व तक फैल गई … और अब पूरी तरह ठसाठस भर गई है।
2000 से पहले, चाकण, वाघोली, खेड–शिवापुर, खड़कवासला, धायरी, हडपसर, यवत, तलेगाँव – ये सभी बहुत दूर के गाँव माने जाते थे … पर आज इनके निवासी कहते हैं – “हम पुणे में रहते हैं”! 🙆🤦
असल में, पुणे सिर्फ नारायण पेठ, शनिवार पेठ, सदाशिव पेठ तक ही है। बहुत हुआ तो डेक्कन, शिवाजीनगर … और पहले तो विठ्ठलवाड़ी जकात नाका तक ही पुणे माना जाता था। दत्तवाड़ी की शुरुआती कॉलोनी आज भी “नवी पेठ” (नई बस्ती) कहलाती है। मगर आज पुणे PMRDA का रेडियस 56 किलोमीटर है, यानी व्यास 112 किलोमीटर। इस पूरे दायरे में रहने वाले लोग खुद को पुणेकर कहते हैं!
महाराष्ट्र के लगभग हर गाँव के हर घर का एक सदस्य पुणे में स्थायी या फ्लोटिंग रूप से रहता है। जैसे कोंकण के हर गाँव से कोई न कोई मुंबई जाकर “चाकरमानी” होता है। और फिर भी, हर विवाह योग्य लड़की को लगता है कि उसका दूल्हा पुणे में 3BHK फ्लैट का मालिक होना चाहिए।
मुंबई, ठाणे, नवी मुंबई, तथाकथित “तीसरी मुंबई” की स्थिति तो इससे भी बदतर है!
महाराष्ट्र के बाहर दिल्ली और बेंगलुरु की बात न ही करें तो बेहतर!
एक्सप्रेस हाइवे बनने के बाद मुंबई से पुणे में आने वाली भीड़ अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई। उससे पहले घाट पर जाम लगता था, इसलिए मुंबई–पुणे यात्रा कठिन थी। लेकिन जैसे–जैसे चौड़ी और तेज रफ़्तार सड़कें, बायपास बनते गए, आसपास के जिलों–गाँवों से रोज़गार और सुविधाओं की तलाश में लोग गाँव की शांति और सुख छोड़कर पुणे आने लगे।
इतने लोगों के लिए अच्छे दर्जे के घर उपलब्ध नहीं हो पाए या लोग उन्हें खरीद नहीं सके – नतीजा: इतनी बड़ी झुग्गी–बस्तियाँ बनीं, जो पहले कभी नहीं थीं। शहर के भीतर की आवाजाही ठप हो गई। अनियंत्रित और रोज़ाना बढ़ती आबादी के कारण ट्रैफ़िक, प्रदूषण, भीड़, गाड़ियों की संख्या, कचरा, समय की बर्बादी, जाम, और सार्वजनिक परिवहन पर बोझ – सब बढ़ता ही गया।
इसलिए जितनी सुविधाएँ शहरों में बढ़ेंगी, उतने ही गाँव खाली होंगे … और उतना ही अधिक दबाव शहरों पर पड़ेगा!!!
तो अब यह सब जानते हुए भी यह विषय दोबारा क्यों उठाना???
क्योंकि असली समाधान यह नहीं है कि शहरों में सुविधाएँ बढ़ाएँ, तकनीक लाएँ, आधुनिक व्यवस्था करें।
सड़क चौड़ीकरण, मेट्रो, भूमिगत रेलवे – ये उपाय नहीं हैं।
*बल्कि हर शहर के लिए “सिटी सैचुरेशन इंडेक्स” तय होना चाहिए।*
और उस इंडेक्स तक पहुँचने से पहले ही – नई आबादी बिल्कुल न बढ़े – इसके लिए बेहद सख़्त नियम बनाए जाएँ, जिनमें कोई भी छूट, तोड़–मरोड़ या बचाव की गुंजाइश न हो।
जैसे पैथोलॉजी रिपोर्ट में कोलेस्ट्रॉल, यूरिया, क्रिएटिनिन, बिलीरुबिन या HbA1c अगर एक सीमा से ऊपर जाएँ तो वे “खतरनाक, गंभीर, घातक” स्तर माने जाते हैं …
वैसे ही, **सिटी सैचुरेशन इंडेक्स** उस शहर के क्षेत्रफल और प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर तय हो, कि वहाँ स्थायी रूप से अधिकतम कितनी आबादी रह सकती है और कितनी फ्लोटिंग आबादी सहन की जा सकती है। इस पर बेहद कड़ा नियंत्रण होना चाहिए।
दुनिया की कुल ज़मीन का सिर्फ 2.4% हिस्सा भारत के पास है, लेकिन यहाँ दुनिया की 20% आबादी (140 करोड़ लोग) रहती है। तो क्या भारतीय उन खाली देशों में जाकर बस सकते हैं? नहीं! क्योंकि सीमा पार के लिए पासपोर्ट–वीज़ा जैसे सख़्त नियम हैं।
इसी तरह, अगर सिटी सैचुरेशन इंडेक्स लागू हो, तो जब शहर अपनी सीमा तक पहुँच जाए, उसके बाद किसी भी नए आवासीय, वाणिज्यिक, औद्योगिक प्रोजेक्ट को हमेशा के लिए रोक देना चाहिए।
ताकि वहाँ काम, शिक्षा या रोज़गार के लिए आने वालों के लिए – आसपास “जुड़वाँ” या नए नियोजित नगर बसाए जा सकें।
आज भी दो ज़िलों के मुख्यालयों के बीच 3–6 घंटे की दूरी होती है। इनके बीच सैकड़ों किलोमीटर और हज़ारों एकड़ ज़मीन खाली पड़ी है। वहाँ छोटे इंडेक्स वाले, सीमित आबादी वाले नए कस्बे, नगर, महानगर बसाए जा सकते हैं।
या मौजूदा गाँवों को ही विकेंद्रीकृत ढंग से विकसित करके – शहरी, औद्योगिक, शैक्षणिक ढाँचे दिए जा सकते हैं।
क्योंकि चाहे जितनी सुविधाएँ दें, आज के “फूले हुए Swollen” या सच कहें तो “फट चुके bursted” शहरों को पहले जैसी स्थिति में लाना और बढ़ती आबादी को स्थायी या अस्थायी रूप से सँभालना – दिन–प्रतिदिन “कठिन से असंभव” होता जाएगा।
इसलिए, भले ही दुनिया में अभी ऐसा कोई कॉन्सेप्ट न हो, लेकिन जैसे भारत ने UPI को दुनिया में सबसे पहले स्वीकारा और चलाया, वैसे ही भारत “सिटी सैचुरेशन इंडेक्स” की अवधारणा लागू कर सकता है।
इसके आधार पर गाँव–कस्बों–शहरों का वर्गीकरण, इंडेक्सेशन करके – मौजूदा गाँवों को सुविधायुक्त बनाया जा सकता है। या ज़िलों के बीच खाली पड़ी ज़मीन पर योजनाबद्ध नए नगर बसाए जा सकते हैं – इस तरह कि उनका इंडेक्स कभी पार न हो।
यह बिल्कुल संभव है – बशर्ते सामाजिक समर्थन और राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों मिलें।
भारतीय समाज बदलाव बहुत तेज़ी से स्वीकार करता है –
चाहे नोटबंदी हो, बटन वाले फ़ोन से स्मार्टफ़ोन का बदलाव, इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग, UPI, या बैलेट पेपर से EVM मतदान। ये सब बदलाव बिना किसी बड़े व्यवधान के स्वीकार किए गए।
इसी तरह सिटी सैचुरेशन इंडेक्स भी आ सकता है।
आज का केंद्रीय तथा राज्य, इन दोनो स्तर पर उपस्थित, प्रभावी नेतृत्व और सक्षम प्रशासनिक टीम देखते हुए, यह बिलकुल असंभव नहीं है।
अगले 5–20 वर्षों में हम भारत (और शायद पूरी दुनिया) में “सिटी सैचुरेशन = दरअसल सिटी सिक्युरेशन इंडेक्स” लागू करके – शहरी और औद्योगिक व्यवस्था का पुनर्निर्माण, पुनर्गठन और पुनर्रचना कर सकेंगे।
अगर सिटी सैचुरेशन इंडेक्स स्वीकारा और लागू किया गया, तो आज छोटे, मध्यम और बड़े शहरों में रोज़–रोज़ बढ़ रही – शहरी, औद्योगिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य, ट्रैफ़िक, प्रदूषण, कचरा, झुग्गी–झोपड़ी और अपराध की समस्याओं को नियंत्रित करना, या शायद समाप्त करना संभव हो जाएगा।
**City Saturation Index = City Securation Index**
मूल संकल्पना
लेखन
प्रस्तुतीकरण
व्हिडिओ निर्मिती
©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे.
एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.
आयुर्वेद क्लिनिक्स
@पुणे & नाशिक.
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