आरोग्यवर्धिनी : एक आय ओपनर 👀 ॲनालिसिस तथा एक सशक्त 💪🏼 विकल्प
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आरोग्यवर्धिनी
रसगंधकलोहाभ्रशुल्बभस्मसमांशकम् ।
त्रिफला द्विगुणा योज्या त्रिगुणं तु शिलाजतु ॥
चतुर्गुणं पुरं शुद्धं चित्रमूलं च तत्समम् ।
तिक्ता सर्वसमा ज्ञेया (देवा) सर्वं संचूण्यं यत्नतः ।
निंबवृक्षदलांभोभिर्मर्दयेत् द्विदिनावधि ।
ततस्तु गुटिका कार्या क्षुद्रकोलफलोपमाः ।।
मंडलं सेविता सैषा (ह्येषा) हन्ति कुष्ठान्यशेषतः।
वातपित्तकफोद्भूताञ्ज्वरान्नानाप्रकारजान् ॥
देया पञ्चदिने जाते ज्वरे रोगे वटी शुभा ।
पाचनी दीपनी पथ्या हृद्या मेदोविनाशिनी ॥
मलशुद्धिकरी नित्यं दुर्धर्षक्षुत्प्रवर्तिनी ।
बहुनाऽत्र किमुक्तेन सर्वरोगेषु शस्यते ॥
आरोग्यवर्धनी नाम्ना गुटिकेयं प्रकीर्तिता ।
सर्वरोगप्रशमनी श्रीनागार्जुनयोगिना
आरोग्यवर्धिनी यह सभी आयुर्वेद प्रॅक्टिशनर वैद्यों के उपयोग मे आनेवाला, सूतशेखर के बाद, दूसरा लोकप्रिय कल्प है.
इसका रोग अधिकार रसरत्नसमुच्चय में कुष्ठ है
इसके प्रथम पांच कंटेंट =घटक द्रव्य ये, भस्म स्वरूप है जिसमें से रस अर्थात पारद का भस्म असंभव हि है. इसलिए उसका "शोधित पारद" इतना ही प्रॅक्टिकली लिया जा सकता है.
दूसरा गंधक , जिसका फिर से भस्म नहीं होता है, वह भी शुद्ध गंधक के रूप में लेना है
लोह अभ्रक और ताम्र इनका भस्म "बनाया जाता" है, किंतु ऐसे भस्मों की व्यावहारिक स्थिति क्या है, इसके लिए निम्नोक्त लेख अवश्य पढ़े
https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/01/blog-post.html
इसके पश्चात त्रिफला त्रिगुण मात्रा में उल्लेखित है. लोकप्रिय रसकल्प विवरणकारी, आयुर्वेदीय औषधि गुण धर्म शास्त्र, इस पुस्तक के लेखक, आदरणीय गुणे शास्त्री ने हरीतकी आमलकी बिभीतक ये तीनों द्विगुण मात्रा में लेने के लिए कहे हैं, जो अनुचित है. कुल मिलाकर त्रिफला द्विगुण मात्रा में लेनी है. अगर हरीतकी बिभीतकी आमलकी तीनों भी दुगुनी मात्रा में लेंगे, तो त्रिफला द्विगुण की बजाय, 6 गुना हो जाएगी!!! जो इस कल्प के पाठक के अनुसार नहीं है.
आगे शिलाजीत तीन भाग या त्रिगुण लेने के लिए कहा है , किंतु रस शास्त्र में जो अपेक्षित है या संहिता में जो अपेक्षित है, ऐसा शिलाजीत तो, आज व्यवहार में प्राप्त होता ही नहीं है. रस शास्त्र में , शिलाजीत की परीक्षा "सलिले अपि अविलीनं" अर्थात जल में अविलेय अर्थात वाॅटर इनसोल्युबल water insoluble, ऐसी लिखी है और आज व्यवहार में शिलाजीत का शोधन त्रिफला के क्वाथ में "घोलकर" 😇यानी "डिझाॅल्व्ड् 🙃 इन त्रिफला क्वाथ". तो ऐसे आज का व्यावहारिक शिलाजीत वॉटर सॉल्युबल है, ना कि वाटर इनसोल्युबल 😆🤣... "जो मूल ग्रंथ की शिलाजीत ग्राह्यता परीक्षा के संपूर्णतः विपरीत है".
वैसे तो संहितोक्त शिलाजीत 4 प्रकार का चरक में और 6 प्रकार का सुश्रुत में, किंतु रस रत्न समुच्चय में तो ऐसे 4 या 6 प्रकार ना होते हुए, केवल 2 ही प्रकार है ... जिसमें से गोमूत्र गंधी शिलाजीत है, जो जैसे ऊपर बताया वाटर इनसोल्युबल के रूप में वैसे, आज अस्तित्व में ही नहीं है और कर्पूर शिलाजीत का शिलाजीत से कोई संबंध नहीं है, वह कलमी सोरा= पोटॅशियम नाइट्रेट है.
आगे गुग्गुल चार गुणा लिखा है ... जितनी चंद्रप्रभा और आरोग्य वर्धिनी भारत में बनती है , उसके लिए जितना गुग्गुल आवश्यक है, उतना तो पूरे विश्व में भी नहीं बन सकता है , उपलब्ध नहीं हो सकता है😖😩 ... ऐसी स्थिति में सभी की चंद्रप्रभा और आरोग्यवर्धिनी एक ही रंग की हो, इसलिए यह टैबलेट्स काले रंग की बनाई जाती है, क्योंकि उसमें गुग्गुल तो मिलता नहीं है, जितना चाहिए उतना, इसलिए गम ॲकेशिया= बब्बूल का गोंद और चारकोल अर्थात कोयले का चूर्ण डाला जाता है 😳😱...
तो इस प्रकार से आप देखेंगे तो , त्रिफला नामक कंटेंट बाजू को रखेंगे , तो रस से लेकर गुग्गुल तक के कंटेंट, यह व्यावहारिक & शास्त्रीय इस प्रकार से, असंभव है अनुपलब्ध है अशास्त्रीय है विसंगत है अनुचित है अयोग्य है अहितकारी है ⛔️🚫❌️
चित्रक जैसा अत्यंत उष्ण वीर्य द्रव्य, कुष्ठ रोग में उपयोगी कल्प में होना , अत्यंत अनुचित है ... वैसे भी देखा जाए तो, यह संपूर्ण कप अत्यंत रूक्ष है , इसमें त्रिफला गुग्गुलु कटुकी निंब ऐसे अत्यंत रूक्ष द्रव्य है और कुष्ठ में इतनी रूक्षता योग्य नहीं है !!!
चित्रक तो साक्षात् अग्नि है , इसलिए वह उष्ण और रूक्ष दोनों हैं , जो कुष्ठ के लिए अत्यंत हानिकारक है.
अगर आप देखेंगे तो "कुष्ठ का उल्लेख" चरक सूत्र स्थान 28 विविधाशितपीतीय , इस अध्याय में "रक्त प्रदोषज" विकारों में हुआ है और कुष्ठ में जो धातुओं की स्थिति होती है, वह "क्लेद और कोथ" इस प्रकार की होती है और "क्लेद और कोथ" यह दोनों भी चरक सूत्र 20 तथा अष्टांगहृदय सूत्र स्थान 12 में, "प्रकुपित पित्त के कर्म" लिखे हैं अर्थात जहां कुष्ठ की संप्राप्ति होने के लिए "पित्त और रक्त की दुष्टि मूलभूत कारण" है , ऐसी स्थिति में , चित्रक का वहां पर प्रयोग करना, तो अशास्त्रीय अनुचित अयोग्य और पेशंट के दृष्टि से हानिकारक है.
वैसे भी आप अगर संहिता में कुष्ठ चिकित्सा देखेंगे, तो उसका प्रारंभ स्नेहपान से होता है. इसका अर्थ यह होता है की "कुष्ठ चिकित्सा का मूलाधार स्नेह चिकित्सा" है, इसलिए उसकी चिकित्सा में प्रारंभ में ही तिक्तक महातिक्तक वज्रक महावज्रक इन "घृतों" का उल्लेख हुआ है.
वैसे भी बहुत लोकप्रिय है ऐसे, महातिक्तक घृत में , घृत की द्विगुण मात्रा में आमलकी स्वरस है, किंतु आमलकी स्वरस में जल/द्रव की मात्रा अधिक होने के कारण, जब घृत सिद्ध हो जाता है, तो महातिक्तक के अन्य सभी तिक्त द्रव्य और आमलकी इनकी मिलकर जो रूक्षता है, इसका कंपनसेशन या अनुपद्रवता; घृत की उपस्थिति से हो जाता है.
संहिता में चित्रक का उल्लेख केवल कफज कुष्ठ में है, वह भी फिर से घृत सिद्ध करके ही देना है. इसलिए चित्रक जैसे उष्ण रूक्ष घटक द्रव्य का आरोग्यवर्धिनी नामक कुष्ठ अधिकार में उल्लेखित कल्प में होना अनुचित है.
आरोग्यवर्धिनी को परिवर्तित/ नामांतरित रूप में 50 टू लीव इस नाम से बाजार में मार्केट में पाया जाता है, जो कुष्ठ नहीं, अपितु लीवर की हेपेटाइटिस की जॉन्डिस की स्थिति में प्रायः दिया जाता है ... यह भी पित्त प्रधान रक्त प्रधान ही स्थिती है, तो ऐसी स्थिति में भी चित्रक जैसे द्रव्य का आरोग्यवर्धिनी या 50 टू लीव , इनमें होना अनुचित है.
अर्थात इसी प्रकार से पारद गंधक ताम्र ऐसे आत्यंतिक उष्ण और विष सदृश विष युक्त द्रव्यों का आरोग्यवर्धिनी में होना, वैसे भी असुरक्षित और अशास्त्रीय है.
मूलतः विचार किया जाए तो, यदि पारद गंधक लोह अभ्रक ताम्र शिलाजीत गुग्गुल चित्रक इन अयोग्य द्रव्यों को बाजू को रखेंगे, तो भी जो बाकी तीन (3) मुख्य द्रव्य इस कल्प में शेष रहते हैं ... "त्रिफला कटुकी और निंब" यह भी अत्यंत रूक्ष है और कुष्ठ की चिकित्सा स्नेह से होती है ... रूक्षता से नहीं!
इसलिए मूलतः इस कल्प का फाॅर्म्युलेशन/ डिजाइन ही आप्त प्रमाण से विसंगत तथा अशास्त्रीय और अनुचित है.
फिर भी जिनको दुराग्रह हट्टाग्रह करके आरोग्यवर्धिनी उपयोग में "लानी ही है", उन्होंने उपरोक्त असुरक्षित और अशास्त्रीय द्रव्यों को इस कल्प से हटाकर (अर्थात पारद गंधक लोह अभ्रक ताम्र शिलाजीत गुग्गुलु और चित्रक इनको हटाकर), केवल त्रिफला व कटुकी उनके चूर्ण को निंब पत्र स्वरस की भावना देकर, उस कल्प का प्रयोग करना उचित होगा !!
आगे ... यह आरोग्य"वर्धनी या वर्धिनी" नाम का कल्प निर्माण करने के बाद , उसकी वटी का प्रमाण क्षुद्र कोल और राज कोल ऐसे दोनों शब्दों में लिखा गया है तो यह कन्फ्यूजिंग है.
कोल का अर्थ = अर्ध कर्ष अर्थात 5 (या 6.15) ग्राम होता है , तो आपने कभी भी, किसी भी फार्मेसी की आरोग्यवर्धिनी वटी 5 या 6 ग्राम की देखी तक नहीं होगी !!!
प्राय यह वटी 250 मिलीग्राम की मात्रा में ही आती है. और अगर शास्त्रोक्त मात्रा कोल प्रमाण देना हुआ, तो इस वटी के 20 वटिया/टॅबलेट्स देना, एक समय में, आवश्यक होगा, जो प्रॅक्टिकली इंपॉसिबल है ...
और जो लोग 250 मिलिग्राम वटी देकर, उसके "रिजल्ट आते हैं" , ऐसा कहते हैं, यह एक बुद्धि भ्रम है या इल्यूजन डिलूजन है.😇🙃
त्रिफला और निंबपत्र यह दोनों नेत्र्य है चक्षुष्य 👁👁 है, फिर भी आरोग्यवर्धिनी की फलश्रुती में इस प्रकार का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है , यह आश्चर्यकारक है
आगे ... यह एक ही वटी वात पित्त कफ ऐसे "तीनों / कई/विविध/नाना प्रकार के ज्वर" का नाश करती है , ऐसा लिखा है ... जो इसके कंटेंट देखकर शास्त्रसुसंगत नहीं लगता है
ज्वर के लिए यह वटी पांचवें दिन देने के लिए कहा है, यह भी शास्त्र के विरोध में है , क्योंकि ज्वर के लिए जो औषध देना है , वह सातवें दिन देना है , वस्तुतः अगर ठीक से कॅलक्युलेट करें तो लंघन स्वेदन कालो ... इस श्लोक के अनुसार औषध देने की बात तो 7 दिन के भी बहुत बाद आती है ... तो यहां पर पांचवें दिन ज्वर के लिए आरोग्यवर्धिनी वटी देना यह शास्त्रविसंगत है
और थोड़ा व्याकरण की दृष्टि से अलग देखा जाए ... और कोई कहे कि पांचवें दिन नहीं देना है , अपितु 5 वटियां देनी है, तो यह भी अनुचित है , क्योंकि आगे वटी यह शब्द एक वचन में है ... अगर पंच वटी ऐसा अभिप्रेत होता यानी पांच वटियां देनी है ऐसा अभिप्रेत होता तो, वटी शब्द का बहुवचन वट्यः आना आवश्यक था.
आत्यंतिक उष्ण द्रव्य इसमें होने के कारण दीपनी पाचनी यह तो ठीक है , किंतु पथ्या कहना शास्त्रविसंगत है , इतनी रूक्ष उष्ण वटी पथ्या है, ऐसा कहना ठीक नहीं.
आगे हृद्य ऐसा इसका गुणधर्म लिखा है, जो फिर से शास्त्रविसंगत है, इतना रूक्ष द्रव्य हृदय जैसे त्रिमर्म में उल्लेखित अवयव के लिए हानिकारक ही होगा
और हृद्य का अर्थ "रुचि कारक" लेंगे तो इतनी कड़वी जिसकी टेस्ट है, वह रुचिकर हो या मन के लिए प्रिय हो, हृद्य के अर्थ में यह भी संभव नहीं है
मेदोविनाशिनी लिखा है, यह ठीक है ... किंतु आरोग्यवर्धिनी की कितनी मात्रा कितनी कालावधी तक देने के बाद , अपेक्षित मेदोनाश होगा , यह करके देखने की बात है ... किंतु प्रायः इस प्रकार का व्यवहार आरोग्यवर्धिनी के संदर्भ में देखा सुना नहीं है की यह वटी मेदो नाश के लिए दी गई है
अगर इसमें त्रिफला और कटुकी इतनी बड़ी मात्रा में है तो , विरेचन के द्वारा मल शुद्धिकरी होना , यह सामान्य सी बात है
दुर्धर्ष क्षुत् प्रवर्तनी यह विसंगत है , क्योंकि आरोग्यवर्धिनी से क्षुत् = क्षवथु = छींके आना यह असंभव है
क्षृत् शब्द का अर्थ क्षुधा लेना, यह यहां पर व्याकरण की दृष्टि से संभव नहीं है, क्योंकि क्षुध् ऐसा शब्द है, तो ध् का द् होगा (झलां जशोऽन्ते) इसलिए क्षुद्प्रवर्तिनी होना चाहिए था क्षुत्प्रवर्तिनी नहीं ... क्षुत्प्रवर्तिनी यह शब्द क्षुधा को बोधित नहीं करता
आगे ... "सर्वरोगेषु शस्यते" कह कर, फिर से, "सर्वरोगप्रशमनी" कहा है यह पुनरुक्ति दोष है ...
और कोई एकही कल्प व भी ऐसे उटपटांग शास्त्रविसंगत अयोग्य असुरक्षित विष सदृश जिसके घटक द्रव्य है, ऐसा एकही कल्प सभी रोगमे प्रशस्त है या सभी रोगों का प्रशमन करेगा यह वाक्य ही दोषयुक्त है असंभव है
इतने उष्ण तीक्ष्ण रूक्ष कंटेंट्स है , यह सभी रोगों को नष्ट करेंगी, यह शास्त्रविसंगत है
अभी, जैसे पहले स्पष्ट किया, वैसे इस कल्प के पारद गंधक लोह अभ्रक ताम्र शिलाजीत और गुग्गुल चित्रक ये घटक द्रव्य शास्त्रविसंगत है ... इसलिए शेष बचे त्रिफला और कटुकी , इनके चूर्ण को यदि निम्ब पत्रों की भावना दी जाए , तो भी यह कल्प, स्नेह के साथ या स्निग्ध अनुपान के साथ उचित और शास्त्रसुसंगत होगा!!!
किंतु इतना करने की आवश्यकता ही नहीं 🙂
... अगर आप "कल्पशेखर भूनिंबादि" देखेंगे , तो इसमें त्रिफला कटुकी और निंब इनका समावेश पहले से ही है ... साथ में वासा गुडूची पटोल पर्पट और मार्कव इनका भी इसमें समावेश होने के कारण यह "कल्पशेखर भूनिंबादि", आरोग्यवर्धिनी के सुसंगत और शास्त्रीय घटक द्रव्य त्रिफला कटुकी नंबर इनकी तुलना में भी, अधिक उपयोगी सुरक्षित और श्रेष्ठ कल्प है, यह निश्चित!!!✅️👍🏼
✍🏼 कल्प'शेखर' भूनिंबादि एवं शाखाकोष्ठगति, छर्दि वेग रोध तथा ॲलर्जी 👇🏼
https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/12/blog-post.html
इसलिए अत्यंत कॉस्टली (रसकल्प होने के कारण), आरोग्यवर्धिनी का , शास्त्रोक्त मात्रा में प्रयोग किए बिना, मनघडन व्यवहार = प्रॅक्टिस में इर्लीव्हन्ट उपयोग करने की जगह, यदि शास्त्रीय सुरक्षित इस प्रकार के "कल्पशेखर भूनिंबादि" का यहां पर उपयोग किया जाए, तो यह अत्यंत योग्य और पेशंट के हित में होगा!!! ... साथ ही पेशंट एवं वैद्य, दोनो के लिए भी यह अफॉर्डेबल है
अगर ठीक से कुष्ठ रोग अधिकार देखा जाए तो,
माधव निदान में कुष्ठ के पहले नाडीव्रण भगंदर उपदंश शूकदोष का वर्णन है , "जो क्लेदप्रधान रोग" है और कुष्ठ के पश्चात ... पुनः "क्लेदप्रधान" ही अम्लपित्त शीतपित्त विसर्प विस्फोट मसूरिका इनका वर्णन आता है ...
अर्थात यह सारे "क्लेद प्रधान व्याधियों का संप्राप्ति मार्ग है", इसी कारण से कुष्ठ में उल्लेखित आरोग्यवर्धिनी की जगह , यदि कुष्ठ के समान ही क्लेद प्रधान संप्राप्ति जिसमें है ऐसे अम्लपित्त अधिकार में उल्लेखित कल्प शेखर भूनिंबादि का प्रयोग कुष्ठ के संप्राप्ति में करना, वह भी स्निग्ध अनुपान के साथ, यह अत्यंत उचित शास्त्र सुसंगत और पेशंट के लिए हितकारक तथा वैद्य के लिए अफॉर्डेबल होगा
वटी की मात्रा एक कर्ष है अर्थात 10 (या 12) ग्राम है. तो 250 मिलीग्राम की 40 टैबलेट देना आवश्यक है. किंतु यदि जिस चूर्ण की टॅबलेट बन रही है, उस चूर्ण को उसी चूर्ण की 7 भावनाएं दी जाए, तो यह मात्रा एक सप्तमांश 1/7 अर्थात 14% तक नीचे आती है ... इसी कारण से 250 mg की 40 गोली देने के बजाय, केवल 6 गोलियों में इच्छित कार्य परिणाम कारक रूप से हो सकता है. ✅️👍🏼
आरोग्यवर्धिनी की शास्त्रोक्त मात्रा कोल प्रमाण है. कोल का अर्थ = अर्ध कर्ष होता है = जो 5 ग्राम के बराबर आता है , तो 250 मिलीग्राम की 20 टॅबलेट देना, एक समय में, आवश्यक है... जो प्रॅक्टिकली इंपॉसिबल है पेशेंट के लिए असुविधा कारक है तथा नॉन अफॉर्डेबल है, कॉस्टली है , रसकल्प पर होने के कारण !!!
इन सभी मुद्दों का अगर आप शास्त्र , व्यवहार , पेशंट का हित तथा ॲफॉर्डेबिलिटी (पेशंट और वैद्य दोनों के लिए) इन सभी बातों का विचार करें, तो आरोग्यवर्धिनी जैसे शास्त्रविसंगत अत्यंत रूक्ष कल्प की जगह, यदि क्लेद जन्य संप्राप्ति में उल्लेखित, अम्लपित्त अधिकार में उल्लेखित, कल्पशेखर भूनिंबादि का प्रयोग करेंगे, तो आपको आपकी अपेक्षा से भी अधिक अच्छे रिजल्ट्स, कम समय में प्राप्त होंगे.
आरोग्यवर्धिनी के लिए लिखा गया है कि, 42 दिन अर्थात एक मंडल = 6 सप्ताह में सभी कुष्ठ का नाश 🤔⁉️करती है ...
कुष्ठं दीर्घ रोगाणाम् ऐसा चरकोक्त अग्रे संग्रह है
कुष्ठ यह एक दीर्घरोग है ... दीर्घरोग का अर्थ यह क्रॉनिक होता है, जिसमें रिकरंस फ्लेअर्स यह बात बहुत ही सामान्य है, तो ऐसी स्थिति में केवल 6 सप्ताह में आरोग्यवर्धिनी से सभी कुष्ठ नष्ट हो जाएंगे , यह एक अशास्त्रीय और आगम प्रमाण से विसंगत विधान है!!!
इसलिए प्रॅक्टिकल, व्यावहारिक स्तर पर जो संभव है, ऐसी अपेक्षा रखकर , कुष्ठ में कल्पशेखर भूनिंबादि का, स्निग्ध अनुपान के साथ, यदि 3 से 6 मास तक आहार के पथ्यपालन के साथ, प्रयोग किया जाए , तो निश्चित रूप से सभी प्रकार के कुष्ठ में त्वचा रोगों में रक्त पित्त दुष्टि में "कल्पशेखर भूनिंबादि" अत्यंत कार्यकारी सिद्ध हो सकता है.
अर्थात "औषध अन्न और विहार" इन तीनों का समन्वय👍🏼 ही पेशंट को आरोग्य की प्राप्ति ✅️करा सकता है ...
इसलिए "कल्पशेखर भूनिंबादि" देते समय, पेशंट के आहार में अम्ल वर्ग के पदार्थ ,अति नमकीन पदार्थ, जमीन के नीचे आने वाले अंडरग्राउंड पदार्थ , मैदा और कॉर्नफ्लोअर से बनने वाले पदार्थ जैसे की बेकरी पिझ्झा इत्यादि तथा कुकर में पकने वाले अन्न पदार्थ, सभी पल्प और फ्लुईड वाले अन्न पदार्थ वर्ज्य रखेंगे ; जैसे यह निगेटिव्ह पथ्य है या अपथ्य है, ...
वैसे ही पॉझिटिव पथ्य के रूप में ...
सुबह के नाश्ते में मूंग मसूर चवळी ...
दोपहर के भोजन मे फुलके, वेलवर्गीय लंबी फल वाली सब्जियां = गॉर्ड्स, कुकर में ना पकाया हुआ चावल, मांड/स्टार्च निकालकर और
रात्रि के भोजन में ... हो सके तो केवल लाजा या मूंग से बने पदार्थ या मूंग की खिचड़ी इतना ही आहार करेंगे ...
तो निश्चित रूप से व्याधि की क्राॅनिसिटी के अनुसार और रुग्ण के वय के अनुसार ... 3 से 6 महीने में सभी कुष्ठ/ त्वचा रोगों में "कल्पशेखर भूनिंबादि" के उपयोग से पेशंट को आरोग्य की प्राप्ति निश्चित रूप से हो सकती है.
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