Thursday, 27 February 2025

उष्ण जल, औषधि सिद्ध उष्ण जल & शर्करा ग्रॅन्युल्स युक्त उष्ण जल : वातकफजन्य रोग लक्षण अवस्था का उत्तम औषध

उष्ण जल, औषधि सिद्ध उष्ण जल & शर्करा ग्रॅन्युल्स युक्त उष्ण जल : वातकफजन्य रोग लक्षण अवस्था का उत्तम औषध


लेखक : ©️ © Copyright वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. 

एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.

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दीपनं पाचनं कण्ठ्यं लघूष्णं बस्तिशोधनम्॥

हिध्माध्मानानिलश्लेष्मसद्यःशुद्धिनवज्वरे। 

कासामपीनसश्वासपार्श्वरुक्षु च शस्यते॥

अष्टांग हृदय सूत्रस्थान 5 द्रव द्रव्य विज्ञानीय 


उपरोक्त श्लोक मे उष्ण जल के कर्म दिये है.


उष्ण है, अर्थात यह शीत के विपरीत है, अर्थात यह वातकफके विपरीत है, अर्थात वातकफजन्य विकार लक्षण अवस्था इनमे यह उपयोगी है , यह इसका मूलभूत तत्त्व या सिद्धांत है.

इसी सूत्र पर इसी सिद्धांत पर इसी तत्त्व के अनुसार, इसकी बाकी की फलश्रुति समझना सुकर होता है.


दीपन : अग्नि का सामर्थ्य बढाने वाला 

पाचन : शेष आमका पाचन करने वाला 

कंठ्य : कंठ के लिए अर्थात स्वर के लिये हितकारी 


जब वातकफजन्य समस्या के कारण से कंठ ग्रस्त हो तब ! अर्थात कंठपाक फेरीन्जाइटिस उष्णताजन्य कंठ विकार पित्त जन्य कंठ विकार इसमे उष्ण जलका निषेध ही होगा. 


लघु : लघु गुणका होता है उष्ण जल .... जल को उष्ण करने के लिए अग्निपर उबालना आवश्यक है और केवल उबालना ही नही, अपितु ¼, ½ या ¾ औटाना (=boil to reduce) है. तो इतने अग्नि संस्कार के पश्चात् इस मे लघुत्व आता है. सामान्य जल की तुलना मे , या शीतजल की तुलना मे , उष्ण जल या तप्तजल या क्वथित जल या उबाला हुआ जल, लघु है.


बस्तिशोधन : अर्थात मूत्रशोधन है. इसमे भी पुन्हा वातकफजन्य बस्ति विकारो मे बस्ति/मूत्र शोधन की अपेक्षा हो, तब उष्ण जल उपयोगी है. अन्यथा रक्त पित्त उष्णता अग्नि जन्य बस्ति विकारो मे उष्ण जल का कोई प्रयोजन नही है.


यह तत्व ध्यान मे रखना आवश्यक है.

आगे के दिये हुये सभी विकार अवस्था लक्षण ये भी इसी प्रकार से वातकफजन्य है. ऐसे स्थिती मे उष्ण जल मे उपयोगी है इंडिकेटेड है परिणामकारक हे लाभदायक है 

हिक्का/हिध्मा वात कफ जन्य विकार है 

आध्मान वात कफ जन्य विकार है 

आगे स्वयं वातकफ में उष्ण जल उपयोगी है ये लिखा है 


अगर अष्टांग हृदय उत्तर तंत्र अध्याय 40 श्लोक क्रमांक 48 से 58 देखेंगे तो उसमे *"अभया अनिल कफे"* ऐसा अग्रे संग्रह आता है. अभया अर्थात हरीतकी भी उष्ण है, इसी कारण से वातकफ मे उपयोगी है.


इसी प्रकार से यह उष्ण जल वात/कफ/वातकफ जन्य लक्षण अवस्था रोग इनमे उपयोगी है.


सद्यशुद्धी अर्थात अभी अभी जिनका वमन या विरेचन हुआ है, उनके लिये उष्ण जल उपयोगी है. क्योंकि वमनविरेचन पश्चात्, कोष्ठ क्षोभ/ स्थान क्षोभ से, अग्नि का मंदत्व होता है, और अग्नि का सामर्थ्य बढाने के लिए, दीपन हेतु उष्ण जल उपयोगी है.


दीपन यह कर्म दो प्रकार से होता है 

एक मे "त्यक्तद्रव्यत्व" और 

दूसरे मे "पाकादि कर्मणा" 


पाकादिकर्मणा के लिये, उष्ण गुण अग्नि तेज इनका सद्भाव आवश्यक है.


साथ मे त्यक्तद्रवत्व के लिए, द्रवगुण का क्षपण होने के लिए , जल के विपरीत , अग्नि वायु आकाश प्रधान रूक्ष द्रव्य का गुणों का सद्भाव आवश्यक है, इसलिये तिक्त रस, यह भी तेज उष्ण गुण के अभाव मे भी, दीपन करत है.


उष्ण जल मे तो साक्षात जल ही है अर्थात द्रवप्राधान्य है, फिर भी उष्ण जल, दीपन है ... अग्नी का बलवर्धन करता है, क्योंकि यहा द्रव प्रधान जल, उष्ण अग्नि तेज, इनका वाहक है ... इसलिये दीपन होने के लिए, या तो पाकादिकर्मणा अर्थात अग्नि तेज उष्ण गुण इनका सद्भाव, या त्यक्तद्रवत्व... इसके लिए तिक्त रस जैसे आकाश वायु प्रधान, उष्ण गुणविरहित भी द्रव्य / गुण सद्भाव से दीपन संभव है!


नवज्वर : जिसमे आम का प्राधान्य हेतुत्व रहता है , इसमे आम के पाचन के लिए उष्ण जल उपयोगी है.


कास : जब वातकफजन्य हो तो उसमे उष्ण जल उपयोगी है.


आम : आम जन्य सभी विकारो मे उष्ण जल उपयोगी है 


पीनस : पीनस प्रतिश्याय नासानाह नासास्राव इन सभी वात कफ वातकफजन्य नासाविकारों में उष्ण जल उपयोगी है.


रसाला जयति प्रतिश्यायम् ... ऐसा अग्रे संग्रह है, इसमे रसाला यह दधि का सर है अर्थात घन भाग है , जिसमे से जलांश को पूर्णतः निष्कासित करके, उसमे एला मरिच शुंठी केसर ऐसे उष्णद्रव्यों को मिलाकर निर्माण किया जाता है,रसाला का


श्वास : जब वात कफ जन्य हो तो उसमे उष्ण जल उपयोगी है 


पार्श्व रुक् : यद्यपि श्लोक के अंत में *पार्श्वरुक्षु* च ऐसे शब्द आये है तथापि पार्श्व और रुक्ष ऐसा कुछ शब्द यहां नही है. पार्श्व रुक् इस शब्द मे क् (हलन्त) है , इसके आगे सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय षु आ गया, इस कारणसे, क् + षु = क्षु हो गया. इस कारण से रुक्षु ऐसा शब्द दिखाई देता है. किंतु यह ऐसा न होकर, कास से लेकर पार्श्व रुक् तक सभी रोग के नाम के आगे, सप्तमी बहुवचन कारक प्रत्यय षु लगा है हलन्त क् और षु मिलके क्षु होता है, इस कारण से रुक्षु ऐसा शब्द दिखाई देता है, तो अंतिम शब्द का अर्थ हुआ पार्श्व रुक् अर्थात पार्श्व रुजा अर्थात पर्शुकाओं के क्षेत्र में या लंग = फुफ्फुस = उरस् के क्षेत्र में होने वाले वातज कफज वातकफज विकार में उष्ण जल उपयोगी है.


यह हुआ इसका सामान्य शब्दार्थ एवं वाक्यार्थ ... सरल सुबोध अर्थ 


किंतु इसका applied विस्तार, क्लिनिकल प्रॅक्टिस मे बहुत ही उपयोगी होता है !


उष्ण जल यह केवल औषधियों का कल्पों का अनुपान है , ऐसे न होकर , उष्ण जल स्वयं ही एक श्रेष्ठ औषध है.

यदि उष्ण जल को किसी भी उचित योग्य विकार लक्षण रोग अवस्था के अनुसार , सिद्ध करके दिया जाये , तो यह अत्यंत परिणामकारक और अनेको बार अपुनर्भवकारक होता है.


जैसे की दीपन के लिए, जिनको क्षुधा का अनुभव नही होता है, अरुची है, अनन्नाभिलाषा है ... ऐसे अग्नि के क्षीण सामर्थ्य में , दीपन अत्यंत उपयोगी है.


दीपन, यह ऐसा शमन कर्म है, जिसका उल्लेख चरक मे नही है ... यह smart वाग्भट ने अपनी बुद्धि से जोडा हुआ है, वाग्भट सूत्र 14 मे ! चरक मे दश प्रकार के लंघन में, दीपन यह शमन कर्म और रक्त मोक्षण शोधन कर्म उल्लेखित नही है. अस्तु. 


तो दीपन यह एक स्वावलंबन की चिकित्सा है और पाचन यह परावलंबन की चिकित्सा है.


दीपन का अर्थ है कि, अपने शरीर के देवदत्त निसर्गदत्त अग्नि की क्षमता का पुनःस्थापन और पाचन का अर्थ है कि अग्नि के निरपेक्ष = अग्नि को बाजू में रखके, अग्नि का जो काम है, अग्नि से जो शेष रहे गया है ऐसे आम पचन दोष पचन के काम को, औषधियों के वीर्य से करवाना.


तो इस तरह का परावलंबी कार्य बहुत दिनो तक नही किया जा सकता. इसलिये वाग्भट सूत्र 13 के अंत मे चिकित्सा का आरंभ पाचन से करे ऐसा लिखा है ... पाचन करने के बाद, जब शेष आम शेष दोष का पचन हो जाये, जो पहले अग्नी के क्षीण सामर्थ्य के कारण नही हो सका था , वह काम पूरा होने के बाद , पाचन की बजाय, दीपन का ही प्रयोग करे, जिससे की औषध के वीर्य के द्वारा पाचन की पुन्हा आवश्यकता न पडे. और दीपन अर्थात अपने शरीर के निसर्ग दत्त देवदत्त अग्नि का सामर्थ्य पुनःप्रस्थापित होकर, किसी भी रोगकारक दोष या आमकी पुनर्निर्मिती ना हो सके! 


इसलिये पाचन के बाद, दीपन & दीपन पण के पश्चात्, स्नेहन स्वेदन शोधन इस क्रम से वाग्भट सूत्र स्थान 13 के अंत में चिकित्सा लिखी है ... 

पाचनैर्दीपनैः स्नेहैस्तान् स्वेदैश्च परिष्कृतान्॥ 

शोधयेच्छोधनैः काले यथासन्नं यथाबलम्। 

शोधन के पश्चात क्या करना है, यह वाग्भट सूत्रस्थान 4 मे लिखा है

भेषजक्षपिते पथ्यमाहारैर्बृंहणं क्रमात्। 

हृद्यदीपनभैषज्यसंयोगाद्रुचिपक्तिदैः। 

तथा स लभते शर्म सर्वपावकपाटवम्। 

धीवर्णेन्द्रियवैमल्यं वृषतां दैर्घ्यमायुषः॥

यह चिकित्सा क्रम है, जो हर वैद्य ने हर आयुर्वेद चिकित्सक ने हर विद्यार्थी ने , पहले समझ लेना चाहिये ... और उसके पश्चात् ही यथा अवस्था इस प्रकार के चिकित्सा क्रम के, कौन से सोपान पर, इस समय पेशंट है, यह देखकर उस प्रकार के चिकित्सा तत्त्व का प्रयोजन सिद्ध करे , ऐसे कल्प या कल्पना का उपयोजन करना चाहिए.


इसलिये जब उष्ण जल, दीपन के रूप में औषध के लिए उपयोग मे लाना है, तब दीपन हेतु, उष्ण जल सिद्ध करते समय, उसमे मिशि अर्थात बडीशोप/सौंफ, दीप्यक अर्थात अजवायन अजमोदा & जीरक इनका समावेश जल को उबालते समय करना उचित होगा! और ऐसे जल को उबालते हुए उसमे 25, 50 या 75% शेष होगा अर्थात ¼, ½ या ¾ इतना रिडक्शन करके बाकी बचे, उष्ण जल का औषधी कल्प के रूप मे प्रयोग करना, उचित होगा !!!


इस प्रकार के औषधी उष्ण जल का प्रयोग दिन मे तीन या चार बार या यथावस्था या उसे भी अधिक मुहुर्मुहुः रूप मे 7 दिन 14 दिन या अधिकतम 42 दिन = 6 weeks = 1.5 महिने तक करे, तो जिस विकार के लिए, इस प्रकार का सिद्ध उष्ण जल, पेशंट को दिया गया है, वह विकार उपशम होकर, अपुनर्भव की स्थिति तक आ जाता है, *ऐसा 27 साल की प्रॅक्टिस का अनुभव है !!!*


औषध यह कुछ दिन तक देने की बात है, किंतु आहार और विहार (अर्थात अन्न और व्यायाम या जीवनशैली मे बदलाव), यह निरंतर चलने वाली उपयोगी बाते है, जो उपस्थित विकार को निःशेष नष्ट करती है और उसका पुनर्भव ना हो, ऐसे समर्थ धातुओं का शरीर मे निर्माण करती है.


पाचन यह एक अत्यंत उपयोगी तथा लोकप्रिय चिकित्सा है, जो आमजन्य तथा वातजन्य कफजन्य वातकफजन्य ऐसे सभी रोगों का प्रथम उपचार है, इसलिये पाचन के द्रव्य मे जो श्रेष्ठ है, ऐसे आर्द्रक लशुन तुलसी मरिच पिप्पली हरी मिरची या लाल मिरची तथा वचा हरिद्रा मुस्ता इन द्रव्यों से अगर, उष्ण जल सिद्ध किया जाये, तो आम का अल्पकाल मे, शीघ्रता से और यथावश्यक रूप मे पूर्ण होता है.


मैने कुछ ऐसे पेशंट ट्रीट किये है, की जो ज्येष्ठ नागरिक है, 60 से आगे जिनका वय है और जो पिछले 10 या 12 15 साल से अपने संधियों के शोथ शूल वेदना के कारण, कुछ भी दैनंदिन गतिविधिया करने में समर्थ सक्षम नही है. उनको अपने कपडे भी पहना दुष्कर है, साडी के बजे उनको केवल गाऊन पर रहना पडता है, ईधर उधर जाना चलना दुष्कर होने के कारण, व्हीलचेअर पर रहना पडता है , इनको जमीन पर बैठना दुष्कर है , ऐसे भी पेशंट मे इस प्रकार के आर्द्रक सिद्ध लसूण सिद्ध या उभयसिद्ध उष्ण जल से दीर्घकालीन उपशम मिला है , जो अपुनर्भव के रूप मे आज तक वे अनुभव कर रहे है. जिन्हें संधि वक्रता है, संधियोंमे शोथ शूल स्पर्शासहत्व है आरक्तता है, जिनका RA factor 3600 इतना ज्यादा है, जो चलने मे बैठने मे उठने मे सक्षम नही है, ऐसे रुग्ण भी आज पनवेल से अंधेरी तक दो लोकल ट्रेन बदल कर जाते है, प्लॅटफॉर्म बदलने के लिए रेल्वे के ब्रिज चढते उतरते है, दिन भर जॉब करते है और सुबह जाने से पहले और घर को रात को आने के बाद अपने हाथों से रसोई बनाते है ... इतनी सुस्थिती में आ सकते है ... और औषध बंद करने के बाद भी, सालो तक उसे सुस्थिती मे अपुनर्भव रूप मे रहते है. किसी भी रसकल्प का गुगुल का आसव अरिष्ट का प्रयोग किये बिना, केवल वचाहरिद्रा सप्तधा बलाढान टॅबलेट सिद्ध उष्ण जल थर्मास मे रख कर, 90 दिन तक प्रयोग किया था!!! अभी जॉब के कारण आयटी मे होने के कारण हर वक्त पानी उबालकर ले जाना संभव नही होता है, तो इसलिये हमने इन्ही पाचन द्रद्रव्यों , जो आहारीय द्रव्यों के स्वरूप मे है, इनका शर्करा ग्रॅन्यूल्स के रूप में म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurved ने, निर्माण किया है , जो सभी वैद्यों के आयुर्वेदिक प्रॅक्टिशनर के उपयोग के लिए उपलब्ध भी है अधिक जानकारी के लिए 9422016871 इस नंबर पर "granules" यह मेसेज, व्हाट्सअप करे. 

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जिसमे एक चमचा शर्करा ग्रॅन्यूल्स, 150 ml ग्लास उष्ण जल मे मिलाने से, सिद्ध उष्ण जल का परिणाम आयेगा , ऐसा उसका बलाधान हो, इतना फार्मास्युटिकल प्रपोर्शन रखा हुआ है, जिससे की उबालना औटाना छानना आवश्यक नही होता है, जहा पर भी पेशंट है, वहा पर मशीन से या कॅन्टीन से या हॉट कॅटल का उपयोग करके, केवल गरम पानी 1 कप लेकर, उसमे यह एक चमचा रसोन आर्द्रक ग्रॅन्युल्स मिलाकर , उसी प्रकार का उपशम प्राप्त हो सकता है. या जिनको उबालना संभव है और दिनभर के लिए थर्मास ले जाना सुकर है, उनके लिये, केवल पानी उबालकर, उसमे यह रसोन आर्द्रक ग्रॅन्युल्स मिलाकर, वही परिणाम प्राप्त करना संभव होता है ! अर्थात नैसर्गिक रूप मे रसोन आर्द्रक, स्वयं घर मे पानी मे उबालकर, उसको ½, ¼ या ¾ ऐसे औटाकर, प्रयोग करना, कभी भी अधिक परिणामकारक है ही !!!


कंठ के सक्षमीकरण के लिए, सिद्ध जल करना है, तो उसमे यष्टी सारिवा सप्तधा बलाधान टॅबलेट, तीन या चार प्रमाण मे, मिलाने से यह अत्यंत लाभदायक होता है और इसको एक बार उष्ण जल मे मिलाकर टॅबलेट घुल जाये तो शीत स्थिती मे भी यह पित्त रक्त अग्निजन्य रुक्षताजन्य लक्षण अवस्था विकारो में उपयोगी होता है.


बस्ति शोधन या मूत्रशोधन जहां आवश्यक हो, ऐसे स्थिती मे उष्णजल मे, कूष्मांड ग्रॅन्यूल्स या शतावरी गोक्षुर ग्रॅन्युल्स या यष्टी गुडूची ग्रॅन्युल्स इनका एक चम्मच, 150 ml या एक कप उष्ण जल में घोलकर प्रयोग करे, प्राग्भक्त = भोजनपूर्व रूप मे , तो यह मूत्र मे जो रक्त पित्त अग्नि उष्णता जन्य लक्षण विकार अवस्था इसमे भी उपयोगी होता है.


हिक्का यह मुहुर्मुहुः औषधी प्रयोग करने का विकार है. जिनको यह वारंवार या दीर्घकालीन (क्रॉनिक अँड फ्रिक्वेंट री करंट) इस प्रकार का हिक्का का समस्या है, उनके लिये एला सिद्ध उष्ण जल या एला सिद्ध उष्ण जल को शीत करके प्रयोग करना उपयोगी होता है. इसी प्रकार से यष्टी & सारिवा ये दोनो कंठ्य है, तो ये भी रक्त पित्त अग्नि उष्णता जन्य स्थिती में, तीन या चार टॅबलेट सप्तधा बलाधान, उष्ण जल में घोलकर प्रयोग करे, तो यह भी परिणामकारक होता है.


आध्मान निवारण के लिए, सामान्यतः घर मे उपलब्ध टेबल सॉल्ट या उपलब्ध हो तो सेंधव या फिर वृक्षाम्ल अर्थात कोकम अर्थात आमसूल यह भी , यदि उष्ण जल मे घोलकर या मंथ बनाकर दिया जाये , तो आध्मान मे उपयोगी होता है. यदि बिना दूध का चाय बनाकर उसमे नींबू निचोडकर मुहुर्मुहुः या sip by sip पिया जाये तो यह आध्मान के साथ साथ , सामान्य से मध्यम तीव्रता (mild to moderate) के उदर शूल मे भी उपयोगी होता है और यह 2 मिनिट से लेकर 20 मिनिट तक के कालावधी मे तुरंत उपशम दे देता है.


वातकफजन्य सभी विकारो मे, उष्ण जल उपयोगी होता है. वात और कफ यह दोनो शीत गुण के होने के कारण, उसमे उष्ण जल परिणाम देता है. 


इसका वीर्य बढाने के लिए तथा उपचार कालावधी कम करने के लिए केवल उष्ण जल की बजाय, यदि उसमे उचित प्रकार का वातहर कफहर वातकफहर औषधी सिद्ध जल दिया जाये, तो यह अधिक उपयोगी होता है. वात और कफ दोनो मे उपयोगी हो, परिणामकारक हो किसी भी विकार अवस्था लक्षण में लाभदायक परिणामकारक हो ऐसा करना है तो ... वचाहरिद्रादि सप्तधा बलाधान 4 टॅबलेट के साथ 150 ml उष्ण जल देना, यह निश्चित रूप से उपकारक & शीघ्र परिणामदायक होता है , क्यूकी वचाहरिद्रादि के सभी द्रव्य यह वातकफनाशक है.


सद्यशुद्धी के बाद अग्नि का बल क्षीण होता है, इसलिये दीपन हेतु सर्वप्रथम बताये ऐसे मिशी अर्थात मिश्रेया अर्थात बडीशेप और ओवा अजवायन तथा जीरक का उष्ण जल मे प्रयोग करना उपयोगी होता है.


नवज्वर, यह आम प्रधान अवस्था होने के कारण, इसमे पाचन के लिए, उपर उल्लेखित द्रव्य से सिद्ध उष्ण जल का प्रयोग शीघ्र परिणामदायक होता है ... जिसमे आर्द्रक लशुन जीरक तुलसी मरिच हरिद्रा यह घर मे उपलब्ध द्रव्य परिणामकारक होते है. इन्ही द्रव्यों के शर्करा ग्रॅन्युल्स म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurved ने बनाकर, सभी आयुर्वेद चिकित्सक वैद्य सन्मित्र उपयोग के लिए उपलब्ध किये है.


पार्श्वरुक् = पार्श्व रुजा ! इसका अर्थ पार्श्व का अर्थ पर्शुकाओं का प्रदेश अर्थात लंग एरिया उरस् प्रदेश! इसमे जो वात &/or कफ प्रधान विकार होते है, इसमे एला पिप्पली आर्द्रक रसोन तुलसी रजनी पुष्करमूल कंटकारी असे उरोगामी द्रव्य से सिद्ध उष्ण जल का या इन द्रव्यों के शर्करा ग्रॅन्यूस का उष्ण जल के साथ प्रयोग करना लाभदायक होता है.


नागर पुष्करमूल गुडूची और कंटकारी यह वातकफ प्रधान कास श्वास और पार्श्वरुजा तथा ज्वर मे उपयोगी योग है. इसके सप्तधा बलाधान टॅबलेट तीन या चार मात्रा मे 150ml उष्ण जल के साथ दिया जाये, तो पार्श्व प्रदेश में उरः प्रदेश मे होने वाले वातकफजन्य रोग अवस्था लक्षण में परिणामकारक होता है


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