Friday, 28 February 2025

सूतशेखर : वास्तविक मूल्यांकन

सूतशेखर : वास्तविक मूल्यांकन

सभी वैद्यों के आयुर्वेदिक चिकित्सकों के प्रॅक्टिस मे प्रायः हा सर्वाधिक लोकप्रिय सर्वाधिक उपयोग मे आने वाला रसकल्प सूतशेखर है.

इसका रोगाधिकार अम्लपित्त है 

और इसका उल्लेख योग रत्नाकर मे है 

जहा पर योग रत्नाकर ने यह सार संग्रह से लिया है ऐसा संदर्भ स्वयं लिखा है 

अथ सूतशेखर रसः सारसंग्रहात्

शुद्धं सूतं मृतं स्वर्ण टङ्कणं वत्सनागकम् ।

व्योषमुन्मत्तबीजं च गन्धकं ताम्रभस्मकम् ॥ १ ॥

चतुर्जातं शङ्खभस्म बिल्वमज्जा कचोरकम् । 

सर्व समं क्षिपेत्खल्वे मर्छ भृङ्गरसैर्दिनम् ॥ २ ॥

गुञ्जामान्नां वीं कृत्वा द्विगुञ्ज मधुसर्पिषी ।

भक्षयेदम्लपित्तघ्नो वान्तिशूलामयापहः ॥ ३॥

पञ्च गुल्मान्पञ्च कासान्ग्रहण्यामयनाशनः ।

त्रिदोषोत्थातिसारघ्नः श्वासमन्दाग्निनाशनः ॥ ४ ॥

उग्रहिक्कामुदावतं देहयाप्यगदापहः ।

मण्डलान्नात्र संदेहः सर्वरोगहरः परः ।

राजयक्ष्महरः साक्षाद्रसोऽयं सूतशेखरः ॥५॥

इति सूतशेखरो रसः ।

अम्लपित्त रोगाधिकार मे आनेवाला यह, तीन रसकल्प मे से, अंतिम कल्प है.

तीनो रसकल्प मे पारद गंधक है 

दो मे ताम्र है 

पहला कल्प लीला विलास में त्रिफला और भृंगराज दोनों की 25 भावना है 

दूसरा कल्प रसामृत में भावना नही है 


और यह तिसरा और अंतिम कल्प सूतशेखर इसमे भृंगराज की अकेले के भावना है 


अम्लपित्त यह कफ पित्त, जल अग्नि, क्लेद इस प्रकार की स्थिति है ... तो अर्थात इसका चिकित्सा तत्त्व, कफ पित्त हर, जल अग्नी हर, क्लेदनाशक क्लेदशोषक रूक्ष इस प्रकार का होता है. इसमे आदर्श रूप मे तिक्त रस की औषधिया योग्य होती है


समान मात्रा मे सुवर्णभस्म कोई भी इस कल्प मे प्रयोग नही करता है. जिन लोगो ने सुवर्ण सूतशेखर इस प्रकार से अधिकृत मान्यता ली हुई है, वे भी एक शतांश इतनेही प्रमाण मे 1% इतनेही अत्यल्प = नगण्य प्रमाण में, सुवर्ण भस्म का कल्प मे समावेश करते है, फिर भी उन्हे ग्रंथोक्त अधिकृत सुवर्ण सूतशेखर ऐसी संज्ञा प्रयोग करने की "शासकीय अनुमती" प्राप्त है, किंतु यह "शास्त्रीय नही है", यह कोई भी जान/समझ सकता है. 


समान मात्रा मे स्वर्ण भस्म कल्प में समाविष्ट करना किसी के भी लिये, कॉस्ट की दृष्टि से संभव नही है. यह अत्यंत एक्सपेन्सिव्ह काॅस्टली महार्ह हो जायेगा! इसलिये सुवर्ण सूतशेखर "कहना तो है", किंतु उतनी मात्रा में स्वर्ण भस्म तो डालना ही नही है.


केवळ 1% डालकर, "शास्त्रीय संज्ञा का लाभ लेना" है यह ॲड्जस्टमेंट और दुर्दैव से "अनैतिक व्यापार" ही है!!!


अभी सामान्य रूढी ऐसी है की यद्यपि सूतशेखर का मूल पाठ मे सुवर्ण भस्म का उल्लेख है, तथापि मार्केट मे प्रॅक्टिस मे *सादा सूतशेखर* के नाम से *सुवर्ण भस्म विरहित, सूतशेखर* का बहुशः प्रयोग होता है, क्योंकि "वह सस्ते मे मिलता है".


अभी प्रथम प्रश्न यह है की, सूतशेखर मे मूल पाठ मे 14/17 घटकद्रव्य है जिनका समसमान प्रमाण लेना है 14/17 मे से यदि स्वर्णभस्म को हटा दिया जाये, "और तो भी प्रॅक्टिस मे तथाकथित अच्छे रिझल्ट आते रहते है", तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि यदि सुवर्णभस्म जैसे महत्वपूर्ण घटक को हटाकर भी, यदि रिझल्ट मिलते है, तो पारद गंधक ताम्र वत्सनाभ टंकण ऐसे विष सदृश और जिनका प्रायः है शरीर मे शोषण, पचन , धातू में रूपांतर होना , असंभव दुष्परिणामकारक है, ऐसे घटकों को निकाल दिया जाये तो त्रिकटु बिल्वमज्जा कचोरक और शंख भस्म ये मूल घटकद्रव्य, चूर्ण के रूप मे और भ्रंगराज रस भावनाद्रव्य के रूप मे शेष रहता है ... यह शेष रहने वाले घटक द्रव्य, जिनको हटा देना उचित है ऐसे विशेष केमिकल घटक द्रव्य की तुलना मे, सुरक्षित और आरोग्यकारक है , और उन का निश्चित रूप से शरीर की धातू मे परिणमन, शरीर मे शोषण / एबसॉर्पशन , पचन होता है.


पहला घटक द्रव्य , "शुद्ध सूत" अर्थ "शोधन किया हुआ पारद" इतना ही पर्याप्त है. वस्तूतः केमिस्ट्री के दृष्टि से पारद यह एक मेटल है, जो सामान्य तापमान में भी द्रव अवस्था मे होता है, किंतु यदि यह मेटल है, तो इसका भस्म होना मारण होना अत्यावश्यक है, क्योंकि पारद की तुलना मे , जो अन्य मेटल= धातू= लोह है, इनका प्रयोग तो *सम्यक मारण के पश्चात ही= उत्तम भस्म परीक्षा के बाद ही* कल्प में या चिकित्सामे किया जाता है. ऐसे स्थिती मे उस समय के विश्व में, सुवर्ण से थोडाही कम जिसका स्पेसिफिक ग्रॅव्हिटी =गुरुत्व है, ऐसे विषसमान पारद को मारण किये बिना, भस्म किये बिना, केवल शोधन करके काम चलाना यह मूलतः अशास्त्रीय है.


इसका एक मुख्य कारण यह है की, यद्यपि *"सिद्धे रसे करिष्यामि निर्दारिद्र्यम् इदं जगत्"* यह रसशास्त्र की प्रतिज्ञा है और *"लोहाना मारणम् श्रेष्ठं सर्वेषां रसभस्मना"* यह मूल सिद्धांत है, फिर भी रस अर्थात सूत अर्थात पारद का मारण पारद का भस्म यह रसशास्त्र के लिए एक असंभव ऐसी बात है!!! इसलिये कभी भी पारद का भस्म कोई बना ही नही पाया!!! इसलिये सूतशेखर मे मृत स्वर्ण है स्वर्ण भस्म है मारण किया हुआ स्वर्ण है... किंतु पारद का मारण पारद का भस्म बनाना यह किसी की क्षमता मे है ही नही!! इस कारण से मेटल होकर भी मृत रस के बजाय मृत सूत के बजाय रसभस्म सूतभस्म के बजाय, शुद्ध सूत = शुद्ध पारद इस से ही "काम चलाया" जाता है. यह ऍडजेस्टमेंट है, यह स्पष्ट है और इसमे कोई संदेह नही है की, जिन लोगों को पारद का भस्म बनाना आया ही नही , जो रसभस्म की जगह रस सिंदूर को चलाते आये, ऍडजेस्ट करते आये, उत्तम की जगह दुय्यम का प्रयोग करते आये है, "शुद्धं सूतम्" के नाम से "काम चलाते" आये है, उत्तम से नीचे के स्तर के कल्पो का निर्माण करते रहे है ... पारद का भस्म नही बना पाते है, इसलिये शुद्ध सूत = केवल शोधन किया हुआ पारद "चल सकता है", तो बाकी भी सभी धातु का मारण = धातुओं का भस्म करने का इतना महार् costly expensive दुष्कर उद्योग, एनर्जी रिसोर्सेस पैसा और समय की बरबादी , धातुओं के भस्म = धातुओं के मारण मे करने की आवश्यकता ही क्या है?

वैसे भी चरक संहिता वाग्भट संहिता सुश्रुत संहिता मे धातुओं के चूर्ण का ही प्रयोग लिखा है ... ये भस्म निर्माण = धातु का मारण, यह रिसोर्स समय काल & धन का अपव्यय है


जिस अम्लपित्त अधिकार में ये सूतशेखर आता है, उस अम्लपित्त मे पहले से ही ... पित्त है तेज है कटु उद्गार है दाह है, ऐसे स्थिती मे यह अत्यंत तीव्र वीर्य अग्नि समान विष सदृश पारद ... तो आग में और तेल डालने का ही काम करेगा अर्थात लक्षण वृद्धी रोग वृद्धी का ही कारण बनेगा ...


वही बात, दूसरा घटक गंधक की है, गंधक का भस्म नही हो सकता, क्योंकि वह मेटल नही है, इसलिये उसको शोधन करके प्रयोग करना है ... किंतु अम्लपित्त यह विदग्धाजीर्ण सदृश स्थिती है, ऐसी स्थिती मे, जिस गंधक का शोधन, दुग्ध या घृतमें किया गया है, यह और भी रोगवृद्धिकारक क्लेदकारक अग्नि मान्द्य कारक सिद्ध होगा ... इसलिये यह गंधक नाम का घटक द्रव्य भी अम्लपित्त रोगाधिकार मे जो दोष स्थिती होती है या आशय की स्थिति होती है, उसके लिए निश्चित रूप से हानिकारक है आरोग्य नाशक रोगवर्धक हे


टंकण, फिरसे एक क्षारद्रव्य है, मूलतः पित्त प्रधान स्थिती मे ऐसा करना अनुचित ही है, हां, यह हो सकता है कि केमिस्ट्री की दृष्टि से अम्ल को ॲसिड और टंकण को अल्कली/ बेस माने, तो इसका टायट्रेशन होना संभव है , उसके के बाद फिरसे जल अर्थात क्लेद का ही वर्धन होगा, जो पुन्हा रोग के लक्षण और तीव्रता दोनों को बढायेगा.


बचनाग = वत्सनाभ अत्यंत हानिकारक विष है, उष्णवीर्य है, ऐसे द्रव्य का अम्लपित्त जैसे पित्तजन्य विकार मे कोई प्रयोजन नही और तो और वत्सनाभ की शुद्धी गोमूत्र से होती है , मूत्र अत्यंत उष्ण और क्षारयुक्त है , जो फिर से अम्लपित्त मे अनुपयोगी है.


आम्लपित्त मे पहले से ही दाह कटू उद्गार इस प्रकार की स्थिति होती है, ऐसे स्थिती मे व्योष = का वहा पर क्या प्रयोजन है, यह समजना दुष्कर है.


आगे फिरसे एक उपविष = विशेष सदृश्य घटक द्रव्य, उन्मत बीज अर्थात धत्तुर है, इसमे पहले तो संदेह है, की कौन से धत्तुर का प्रयोग करे. वैसे तो संदिग्ध और विष सदृश द्रव्य का प्रयोग करना, रुग्ण के हित मे नहीं है.


बिल्वमज्जा : यह घटक द्रव्य अत्यंत अस्थिर और शीघ्र कृमियोंको आश्रय देने वाला होता है. अगर यह घटक द्रव्य , शास्त्र आदेश के अनुसार कच्चे बिल्व का = आम बिल्व फल का लिया जाये, तो कुछ दिनों में, इसमे कृमी निर्माण होते है, ऐसा सभी का अनुभव है. अगर बिल्व मज्जा का चूर्ण क्लिनिक मे रखेंगे, तो एक दो हप्ते में ही, उसमे अपने आप, कृमी निर्माण होता है, तो ऐसे घटकद्रव्य का अम्लपित्त मे क्या प्रयोजन है , यह समजना दुष्कर है.


दूसरा ...

अम्लपित्त का सूत्र है, *"अम्लपित्ते तु वमनं पटोलारिष्टवारिणा"*, इस धोरण के अनुसार बिल्व मज्जा कही पर भी जस्टिफाय नही होती है. अगर वमन नही हो पाया, तो इस विदग्धाजीर्ण को कम से कम अधो दिशा से विरेचन के द्वारा तो बाहर निकालना चाहिए. किन्तु बिल्व मज्जा तो ग्राही है 😇


कचोरक का अर्थ शठी, शठी जैसे फिरसे उष्णद्रव्य का अम्लपित्त जैसे पित्तजन्य दाह कटु उद्गार लक्षण वाले विकार मे प्रयोजन नही है 


चातुर्जात के चारों द्रव्य उष्ण है , केसर त्वक पत्र एला ... इनका फिरसे पित्तजन्य कटूद्गार दाह ऐसे लक्षणे वाले अम्लपित्त मे कोई प्रयोजन नही है.


इन सभी घटक द्रव्य से निर्माण होने वाले चूर्ण को, जिसकी भावना है, वह भृंगराज , यह एक तिक्तद्रव्य है और अम्लपित्त मे तिक्त द्रव्य का ही सर्वत्र यशस्वी उपयोजन, उपयोगी है लाभदायक हे परिणामकारक है रोगनाशक आरोगयरक्षक उपशमकारक है और यही इसकी मूल चिकित्सा भी है ...


अम्लपित्त मे ...

पित्त और कफ, अग्नि और जल यह क्लिन्न क्लेद ऐसी स्थिति मे रहते है, इस कारण से इस जल अग्नि प्रधान रोगकारक घटकों का उत्क्लेश कटू उद्गार अरुची ऐसे लक्षण निर्माण करणे का सामर्थ्य होता है. ऐसे जल अग्नि प्रधान रोगकारक घटकों का "शोषणे रूक्षः" और वह भी कटु और दाह के विपरीत शीत गुण के साथ होना उपयोगी है, इसी कारण से वमन भी पटोल (= तिक्त रस स्कंध का सर्वश्रेष्ठ द्रव्य) से देने के लिए कहा है.


इसी दिशा मे आगे शमन देखेंगे तो वह भी तिक्त रस प्रधान का है. इसलिये अम्लपित्त का सर्वोत्कृष्ट कल्प लोकप्रिय कल्प शीघ्र फलदायी कल्प ऐसा जिसे कह सकते है वह *"कल्प शेखर भूनिंबादि"* इसमे सभी द्रव्य, तिक्त कषाय ऐसे शीत गुण और कफ पित्तनाशक जल शोषक, अग्नि शामक, द्रवशोषक इस प्रकार के ही है, तो यही "अम्लपित्त की चिकित्सा का मुख्य धोरण = guideline" है ... यशस्वी दिशा है


इसी दिशा मे, सुतशेखर मे समाविष्ट 17 के 17 घटक निरुपयोगी है !!! केवल इन घटकों का जो चूर्ण बनता है, उस चूर्ण को "जिसकी भावना है", यह अकेला "*भृंगराज*", अम्लपित्त के संप्राप्ति लक्षण रोगकारक दोष स्थिती इन सभी का समूलनाश करने में समर्थ होता है.


कल्पशेखर भूनिंबादि में भी मार्कव = भृंगराज, सर्वात अंतिम द्रव्य के रूप मे समाविष्ट है. इसी कारण से सातारा के प्रसिद्ध ज्येष्ठ वैद्य प्राचार्य दिवंगत गो आ फडके गुरुजी, सूतशेखर का कभी भी प्रयोग नही करते थे, केवल भृंगराज स्वरस को छाया शुष्क करके, उसका चूर्ण बनाकर प्रयोग करते थे.


इसका सरल अर्थ यह है की सूतशेखर का विनाकारण प्रयोग करने की बजाय,

इतने महार्ह काॅस्टली महंगी और "फिर भी निष्प्रयोजन" औषधी द्रव्य को, पेशंट को देने के बजाय, यदि इस कल्प का जो सर्वाधिक कार्यकारी घटकद्रव्य है, उस भृंगराज का, या भृंगराज को सप्तधा बलाधान वटी के रूप मे या भृंगराज स्वरस का छाया शुष्क चूर्ण करके, उपयोग किया जाये, तो सूतशेखर से भी अधिक अच्छा, शीघ्र परिणामदायक, चिरकाल लाभदायक बने रहने वाला, लॉन्ग लास्टिंग रिझल्ट निश्चित रूप से प्राप्त होता है.


यही बात, दूसरा जो सर्वाधिक लोकप्रिय व उपयोग मे आनेवाला तथा बेचा जानेवाला, L*I*V 5*2 नाम से मॉडर्न मे भी लोकप्रिय, हायब्रीड संकरीत रसकल्प का मूलाधार, जो आरोग्यवर्धिनी है, जो कुष्ठ अधिकार से आती है, उसमे से भी सारे मेटलिक कंटेंट, विष कन्टेन्ट निकाल दिये जाये, उष्ण रक्तपित्तवर्धक रक्तपित्त दुष्टीकर अग्नि = उष्ण गुण वृद्धिकर ऐसे घटक द्रव्य निकाल दिये जाये, तो केवल *"कटुकी और निंब"* इन मुख्य मात्र दो द्रव्यों के संयोग से, आरोग्यवर्धिनी मे जो फलश्रुती लिखी है, उस फलश्रुती को सार्थ सिद्ध करना निश्चित रूप से संभव है. कर के देखिये !!! 


किंतु यदि हम इस दिशा मे विचार ही नही करेंगे, केवल गतानुगतिक रूप मे, जैसे वहा लिखा है, वैसे भेड बकरीयों की तरह गढ्ढे मे गिरकर, वही चीजे करते रहेंगे, तो इसमे सुधार बदलाव और एक अभिनव कार्मुक कल्प हमारे हाथ में कभी नही आ सकता.


सूतशेखर इसी कारण से एक ओव्हर एस्टीमेटेड (over estimated) कल्प है. इसमे से केवल कार्मुक द्रव्य = भृंगराज का भी प्रयोग करेंगे, तो "उतना ही" अच्छा रिझल्ट आता है, ऐसा मेरा विश्वास और अनुभव है.


अम्लपित्त के अधिकार मे अम्लपित्त ऐसे निदान मे अम्लपित्त जन्य या अम्लपित्तबोधक लक्षण अवस्था मे , जहां सूतशेखर देने की इच्छा हो, ऐसे स्थिति में, *"कल्पशेखर भूनिंबादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट"* के रूप मे, अत्यंत सुनिश्चित शीघ्र परिणामदायक चिरस्थायी रोग उपशमकारी लाभ देता है, इसमे कोई संदेह नही है, क्यूंकी कल्पशेखर भूनिंबादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट, पाच लाख से भी अधिक संख्या में, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda और उनके सन्मित्र तथा विद्यार्थी वैद्योंने प्रयोग करके, इसका अनुभव लिया हुआ है


सूतशेखर को जो भृंगराज की भावना देनी है, वह "दिनम्" इतना ही लिखा है अर्थात एक दिन मे कितनी भावना देनी/हो सकती है, वो नही लिखा है.


दूसरा ... इतने सारे चूर्ण को कितने भृंगराज स्वरस का प्रमाण उपयोगी है, इसका भी स्पष्ट निर्देश नही.


तीसरा ... इस कल्प की गुड्डी एक गुंजा तयार करने के लिए लिखी है किंतु इस कल्प की मात्रा 2 गुंजा लिखी है ... तो यह मात्रा एक समय की मात्रा है या पूरे दिन की मात्रा है, इसका कोई दिग्दर्शन यहा पर प्राप्त नही होता है.


मधु घृत संयोग स्वयं विरुद्ध है, विष सदृश ऐसा अनुपान यदि, अम्लपित्त जैसे पित्त कफ अग्नि जल क्लेद ऐसे स्थिति में दिया जाये, तो यह उपशम कार्य न होकर, उलटा रोगवर्धक होगा, इसमे कोई संदेह नही है.


इसलिये आम्लपित्त मे सालो तक सूतशेखर लेने के बाद भी, पेशंट का आम्लपित्त ठीक नही होता है, उसको यह सूतशेखर बार-बार लेना ही पडता है. 


तो इससे अधिक अच्छा है कि, मूलगामी लक्षवेधी कल्प के रूप मे कल्पशेखर भूनिंबादि का मात्र छ सप्ताह = 42 दिन तक उपयोग करना तथा पेशंट को उसके आहार में और विहार में बदलाव करने का मार्गदर्शन करना उपयोगी होता है.

पेशंट के आहार से अम्ल, जमीन के नीचे आने वाले पदार्थ, मैदे से और काॅर्न फ्लोअर से बनाये हुए पदार्थ (बेकरी पिझ्झा पास्ता नूडल्स), कुकर में पके पदार्थ, पत्तो वाली सब्जीया, जागरण, उपवास, क्रोध, धूप मे जाना, हॉटेलिंग, चाट, फास्ट फूड, मोमो, चायनीज... ऐसे अग्नि पित्त कफ जल क्लेद, इनको बढाने वाले आहारों का निषेध परिहार त्याग करना आवश्यक है, यह भी ध्यान मे रखना आवश्यक है


सूतशेखर की जो फलश्रुती है यह अत्यंत अविश्वसनीय व्यवहार्य इम्प्रॅक्टिकल और इम्पॉसिबल है


फलश्रुती मे उल्लेखित रोगों के आगे "नाशन हर अपह:" असे शब्द लिखे है, किंतु कास गुल्म उग्र हिक्का उदावर्त इन रोगों के आगे "कोई भी शब्द/ क्रियापद नही है", जिससे की सूतशेखर से इन रोगों का नाश होता है, ऐसा बोध हो!


आगे देहयाप्यगदापह: यह अशास्त्रीय वचन है. कोई भी याप्य रोग कभी नष्ट नही हो सकता, इसलिये याप्यगदापहः, ऐसे लिखना यह अशास्त्रीय है.


देहयाप्यगद इस शब्द का शास्त्र मे कोई अर्थ नही बनता है. देहयापी ऐसा अर्थ कहे और आगे अगदापहः ऐसा शब्द समझे, तो उसका भी बोध दुष्कर है !


राजयक्ष्मा को किसी भी ग्रंथ मे साध्य नही कहा गया है, ऐसे स्थिती मे केवल सूतशेखर से राजयक्ष्मा रोग हरण हो जाएगा यह असंभव है


सेकंड लास्ट लाईन मे "सर्वरोगहर" कहने के बाद फिरसे अंतिम लाईन मे राजयक्ष्मा रोग को हरण करता है, ऐसा कहना यह पुन्हा पुनरुक्ती आत्माश्रय स्वस्कंधारोहण इस प्रकार का दोष है.


मंडलात् नाऽत्र संदेहो सर्वरोगहरः परः

यह अर्थ वाद है, यह वस्तुस्थिती नही हो सकती 


मात्र, 1 मंडल = 42 दिन मे सभी रोग या कोई भी रोग सुतसे करके प्रयोग से ठीक होगा शास्त्र नही हो सकता


शाब्दिक बाते व्याकरण की बाते निकाल दि जाये तो भी एक कल्प जिसके उपर दिये हुए उटपटांग घटक द्रव्य है, वे पाच विभिन्न प्रकार की गुल्मो का नाश करते है, का जिसमे रक्त गुल्म का भी समावेश है... पाच विभिन्न प्रकार के कास जिसमे क्षतज और क्षयज कास इनका भी समावेश है, ऐसे रोगों को नष्ट करता है यह अशास्त्रीय असंभव है!!! 


5 हिक्कामेसे अंतिम 2 हिक्का अरिष्ट स्वरूप है, जिसका ठीक होना असंभव है.

पहिली 2 हिक्का तो अपने आप ठीक होती है और बीच वाली तीसरी यमला हिक्का उग्र हिक्का नही है, तो ऐसे स्थिती मे उग्रहिक्का सूतशेखर से नष्ट होती है, ऐसा कहना यह शास्त्रीय है


उदावर्त की चिकित्सा अनुलोमन है, ऐसी स्थिती मे जिस कल्प के घटक द्रव्यों में एक भी अनुलोमक द्रव्य नही है, ऐसा कल्प उदावर्त का शमन करेगा, यह अशास्त्रीय है.


ग्रहणी यह मूलतः अवारणीय=सुदुस्तर=महारोग (अहृनि8) रोगो मे उल्लेखित हे वाग्भट निदान आठ के अंत मे!

इस कारण से,

ग्रहणी रोग का नाश करता है ऐसी सूतशेखर की फलश्रुती होना, यह आप्त प्रमाण के विरुद्ध है 

और ना ही प्रॅक्टिस मे ऐसा कोई ग्रहणीनाशन इस प्रकार का रिजल्ट किसी को प्राप्त भी होता है.


श्वास जैसे उरःस्थ वातकफजन्य विकार मे काम करे, ऐसा एक भी घटक द्रव्य जिसमे नही है, ऐसा सूतशेखर श्वास का नाशन करेगा यह विसंगत है.


केवल 42 दिन के प्रयोग से सभी रोगों का नाश होना, अशास्त्रीय है.


यही बात आरोग्यवर्धिनी मे कुष्ठ केले लिखिए, जो कुष्ठरोग दीर्घ रोग नाम श्रेष्ठ हा ऐसे अग्रेसर के रूप मे चरक सूत्र 25/ 40 मे उल्लेखित है और जहा चरक मे सुश्रुत मे कुष्ठ के लिये छह छह मास के बाद रक्त मोक्षण लिखा है और 15 दिन महीने के बाद वमनविरेचन लिखा है , ऐसे कुष्ठ को केवल 42 दिन मे आरोग्यवर्धिनी ठीक करती है, यह भी अशास्त्रीय अविश्वसनीय और असंभव है और वैसे भी प्रत्यक्ष प्रॅक्टिस मे ऐसा कोई अनुभव नही आता है, इस कारण से अत्यंत लोकप्रिय ऐसे जो सुतशेखर और आरोग्यवर्धिनी यह कल्प है, यह विनाकारण ओव्हर एस्टिमेटेड कल्प है.


इनके निर्मिती मे इनके कॉस्टली expensive महार्ह महंगे घटक द्रव्यों को पर्चेस करके, इनका निर्माण करने की बजाय, इन से भी अच्छे ... ऐसे जो कल्पशेखर भूनिंबादि और पंचतिक्त ये कल्प है, इनका प्रयोग करना उचित है ...


या सूतशेखर आरोग्यवर्धिनी इन कल्पों मे से मेटॅलिक केमिकल विषद्रव्य, रोग की संप्राप्ती से विसंगत घटकद्रव्यों को निकाल कर ... केवल भावना द्रव्य के सप्तधा बलाधान वटी ...


या आरोग्यवर्धिनी के बारे मे , *"मुख्य द्रव्य कटुकी और भावनाद्रव्य निम्ब"*, इन दोनो का ही यादी सप्तधा बलाधान टॅबलेट बनाये तो, निश्चित रूप से, अपेक्षित परिणाम प्राप्त होते है ... करके देखिये !!!


कही सुनी बातो पर विश्वास ना करे ...

पहले इस्तेमाल करे , फिर विश्वास करे !!!


सब लोग कहते है ... कई सालो से कहते है ... अनेक लोक प्रयोग करते है ... इसलिये, मै भी इन कल्पोको शरण जाऊंगा! ऐसे गतानुगतिक बुद्धी से काम न करे. 


केवल निर्देश है इसलिये काम नही करना, अपने स्वयं की बुद्धी से तर्क से भी, ऊहन अर्थात सोच विचार करना है, ऐसे चरक सिद्धी अध्याय 2 के अंत मे लिखते है


तो ... कुल मिलाकर, सारांश के रूप मे, यह कह सकते है कि ;

सूतशेखर यह एक ओव्हरेस्टीमेटेड कल्प है 

... जिसमे रोग से विसंगत घटक द्रव्य संमेलन है. इससे अधिक अच्छा है कि केवल जो भावना द्रव्य है वह मार्कव=भृंगराज ... या मार्कव जिसमे एक घटकाद्रव्य है , ऐसे सूतशेखर के ही अम्लपित्त अधिकार मे उल्लेखित, कल्पशेखर भूनिंबादि यह अधिक सुसंगत शास्त्रीय परिणामदायक लाभकारक और सुयोग्य कल्प है , यह निश्चित!!!


म्हेत्रे आयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा *"कल्पशेखर भूनिंबादि"* यह कल्प सप्तधा बलाधान टॅबलेट के रूप मे मॅन्युफॅक्चर किया जाता है ... जो एफ डी ए (FDA) द्वारा ॲप्रूव्ह्ड् है और जीएमपी (GMP) सर्टिफिकेट के अनुसार इसका निर्माण किया जाता है. इसका आयुर्वेद चिकित्सक वैद्य सन्मित्रों के लिये उपलब्धता और वितरण किया जाता है, 

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Thursday, 27 February 2025

उष्ण जल, औषधि सिद्ध उष्ण जल & शर्करा ग्रॅन्युल्स युक्त उष्ण जल : वातकफजन्य रोग लक्षण अवस्था का उत्तम औषध

उष्ण जल, औषधि सिद्ध उष्ण जल & शर्करा ग्रॅन्युल्स युक्त उष्ण जल : वातकफजन्य रोग लक्षण अवस्था का उत्तम औषध


लेखक : ©️ © Copyright वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. 

एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.

आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक.

9422016871

MhetreAyurved@gmail.com 

www.MhetreAyurveda.com

 www.YouTube.com/MhetreAyurved/

दीपनं पाचनं कण्ठ्यं लघूष्णं बस्तिशोधनम्॥

हिध्माध्मानानिलश्लेष्मसद्यःशुद्धिनवज्वरे। 

कासामपीनसश्वासपार्श्वरुक्षु च शस्यते॥

अष्टांग हृदय सूत्रस्थान 5 द्रव द्रव्य विज्ञानीय 


उपरोक्त श्लोक मे उष्ण जल के कर्म दिये है.


उष्ण है, अर्थात यह शीत के विपरीत है, अर्थात यह वातकफके विपरीत है, अर्थात वातकफजन्य विकार लक्षण अवस्था इनमे यह उपयोगी है , यह इसका मूलभूत तत्त्व या सिद्धांत है.

इसी सूत्र पर इसी सिद्धांत पर इसी तत्त्व के अनुसार, इसकी बाकी की फलश्रुति समझना सुकर होता है.


दीपन : अग्नि का सामर्थ्य बढाने वाला 

पाचन : शेष आमका पाचन करने वाला 

कंठ्य : कंठ के लिए अर्थात स्वर के लिये हितकारी 


जब वातकफजन्य समस्या के कारण से कंठ ग्रस्त हो तब ! अर्थात कंठपाक फेरीन्जाइटिस उष्णताजन्य कंठ विकार पित्त जन्य कंठ विकार इसमे उष्ण जलका निषेध ही होगा. 


लघु : लघु गुणका होता है उष्ण जल .... जल को उष्ण करने के लिए अग्निपर उबालना आवश्यक है और केवल उबालना ही नही, अपितु ¼, ½ या ¾ औटाना (=boil to reduce) है. तो इतने अग्नि संस्कार के पश्चात् इस मे लघुत्व आता है. सामान्य जल की तुलना मे , या शीतजल की तुलना मे , उष्ण जल या तप्तजल या क्वथित जल या उबाला हुआ जल, लघु है.


बस्तिशोधन : अर्थात मूत्रशोधन है. इसमे भी पुन्हा वातकफजन्य बस्ति विकारो मे बस्ति/मूत्र शोधन की अपेक्षा हो, तब उष्ण जल उपयोगी है. अन्यथा रक्त पित्त उष्णता अग्नि जन्य बस्ति विकारो मे उष्ण जल का कोई प्रयोजन नही है.


यह तत्व ध्यान मे रखना आवश्यक है.

आगे के दिये हुये सभी विकार अवस्था लक्षण ये भी इसी प्रकार से वातकफजन्य है. ऐसे स्थिती मे उष्ण जल मे उपयोगी है इंडिकेटेड है परिणामकारक हे लाभदायक है 

हिक्का/हिध्मा वात कफ जन्य विकार है 

आध्मान वात कफ जन्य विकार है 

आगे स्वयं वातकफ में उष्ण जल उपयोगी है ये लिखा है 


अगर अष्टांग हृदय उत्तर तंत्र अध्याय 40 श्लोक क्रमांक 48 से 58 देखेंगे तो उसमे *"अभया अनिल कफे"* ऐसा अग्रे संग्रह आता है. अभया अर्थात हरीतकी भी उष्ण है, इसी कारण से वातकफ मे उपयोगी है.


इसी प्रकार से यह उष्ण जल वात/कफ/वातकफ जन्य लक्षण अवस्था रोग इनमे उपयोगी है.


सद्यशुद्धी अर्थात अभी अभी जिनका वमन या विरेचन हुआ है, उनके लिये उष्ण जल उपयोगी है. क्योंकि वमनविरेचन पश्चात्, कोष्ठ क्षोभ/ स्थान क्षोभ से, अग्नि का मंदत्व होता है, और अग्नि का सामर्थ्य बढाने के लिए, दीपन हेतु उष्ण जल उपयोगी है.


दीपन यह कर्म दो प्रकार से होता है 

एक मे "त्यक्तद्रव्यत्व" और 

दूसरे मे "पाकादि कर्मणा" 


पाकादिकर्मणा के लिये, उष्ण गुण अग्नि तेज इनका सद्भाव आवश्यक है.


साथ मे त्यक्तद्रवत्व के लिए, द्रवगुण का क्षपण होने के लिए , जल के विपरीत , अग्नि वायु आकाश प्रधान रूक्ष द्रव्य का गुणों का सद्भाव आवश्यक है, इसलिये तिक्त रस, यह भी तेज उष्ण गुण के अभाव मे भी, दीपन करत है.


उष्ण जल मे तो साक्षात जल ही है अर्थात द्रवप्राधान्य है, फिर भी उष्ण जल, दीपन है ... अग्नी का बलवर्धन करता है, क्योंकि यहा द्रव प्रधान जल, उष्ण अग्नि तेज, इनका वाहक है ... इसलिये दीपन होने के लिए, या तो पाकादिकर्मणा अर्थात अग्नि तेज उष्ण गुण इनका सद्भाव, या त्यक्तद्रवत्व... इसके लिए तिक्त रस जैसे आकाश वायु प्रधान, उष्ण गुणविरहित भी द्रव्य / गुण सद्भाव से दीपन संभव है!


नवज्वर : जिसमे आम का प्राधान्य हेतुत्व रहता है , इसमे आम के पाचन के लिए उष्ण जल उपयोगी है.


कास : जब वातकफजन्य हो तो उसमे उष्ण जल उपयोगी है.


आम : आम जन्य सभी विकारो मे उष्ण जल उपयोगी है 


पीनस : पीनस प्रतिश्याय नासानाह नासास्राव इन सभी वात कफ वातकफजन्य नासाविकारों में उष्ण जल उपयोगी है.


रसाला जयति प्रतिश्यायम् ... ऐसा अग्रे संग्रह है, इसमे रसाला यह दधि का सर है अर्थात घन भाग है , जिसमे से जलांश को पूर्णतः निष्कासित करके, उसमे एला मरिच शुंठी केसर ऐसे उष्णद्रव्यों को मिलाकर निर्माण किया जाता है,रसाला का


श्वास : जब वात कफ जन्य हो तो उसमे उष्ण जल उपयोगी है 


पार्श्व रुक् : यद्यपि श्लोक के अंत में *पार्श्वरुक्षु* च ऐसे शब्द आये है तथापि पार्श्व और रुक्ष ऐसा कुछ शब्द यहां नही है. पार्श्व रुक् इस शब्द मे क् (हलन्त) है , इसके आगे सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय षु आ गया, इस कारणसे, क् + षु = क्षु हो गया. इस कारण से रुक्षु ऐसा शब्द दिखाई देता है. किंतु यह ऐसा न होकर, कास से लेकर पार्श्व रुक् तक सभी रोग के नाम के आगे, सप्तमी बहुवचन कारक प्रत्यय षु लगा है हलन्त क् और षु मिलके क्षु होता है, इस कारण से रुक्षु ऐसा शब्द दिखाई देता है, तो अंतिम शब्द का अर्थ हुआ पार्श्व रुक् अर्थात पार्श्व रुजा अर्थात पर्शुकाओं के क्षेत्र में या लंग = फुफ्फुस = उरस् के क्षेत्र में होने वाले वातज कफज वातकफज विकार में उष्ण जल उपयोगी है.


यह हुआ इसका सामान्य शब्दार्थ एवं वाक्यार्थ ... सरल सुबोध अर्थ 


किंतु इसका applied विस्तार, क्लिनिकल प्रॅक्टिस मे बहुत ही उपयोगी होता है !


उष्ण जल यह केवल औषधियों का कल्पों का अनुपान है , ऐसे न होकर , उष्ण जल स्वयं ही एक श्रेष्ठ औषध है.

यदि उष्ण जल को किसी भी उचित योग्य विकार लक्षण रोग अवस्था के अनुसार , सिद्ध करके दिया जाये , तो यह अत्यंत परिणामकारक और अनेको बार अपुनर्भवकारक होता है.


जैसे की दीपन के लिए, जिनको क्षुधा का अनुभव नही होता है, अरुची है, अनन्नाभिलाषा है ... ऐसे अग्नि के क्षीण सामर्थ्य में , दीपन अत्यंत उपयोगी है.


दीपन, यह ऐसा शमन कर्म है, जिसका उल्लेख चरक मे नही है ... यह smart वाग्भट ने अपनी बुद्धि से जोडा हुआ है, वाग्भट सूत्र 14 मे ! चरक मे दश प्रकार के लंघन में, दीपन यह शमन कर्म और रक्त मोक्षण शोधन कर्म उल्लेखित नही है. अस्तु. 


तो दीपन यह एक स्वावलंबन की चिकित्सा है और पाचन यह परावलंबन की चिकित्सा है.


दीपन का अर्थ है कि, अपने शरीर के देवदत्त निसर्गदत्त अग्नि की क्षमता का पुनःस्थापन और पाचन का अर्थ है कि अग्नि के निरपेक्ष = अग्नि को बाजू में रखके, अग्नि का जो काम है, अग्नि से जो शेष रहे गया है ऐसे आम पचन दोष पचन के काम को, औषधियों के वीर्य से करवाना.


तो इस तरह का परावलंबी कार्य बहुत दिनो तक नही किया जा सकता. इसलिये वाग्भट सूत्र 13 के अंत मे चिकित्सा का आरंभ पाचन से करे ऐसा लिखा है ... पाचन करने के बाद, जब शेष आम शेष दोष का पचन हो जाये, जो पहले अग्नी के क्षीण सामर्थ्य के कारण नही हो सका था , वह काम पूरा होने के बाद , पाचन की बजाय, दीपन का ही प्रयोग करे, जिससे की औषध के वीर्य के द्वारा पाचन की पुन्हा आवश्यकता न पडे. और दीपन अर्थात अपने शरीर के निसर्ग दत्त देवदत्त अग्नि का सामर्थ्य पुनःप्रस्थापित होकर, किसी भी रोगकारक दोष या आमकी पुनर्निर्मिती ना हो सके! 


इसलिये पाचन के बाद, दीपन & दीपन पण के पश्चात्, स्नेहन स्वेदन शोधन इस क्रम से वाग्भट सूत्र स्थान 13 के अंत में चिकित्सा लिखी है ... 

पाचनैर्दीपनैः स्नेहैस्तान् स्वेदैश्च परिष्कृतान्॥ 

शोधयेच्छोधनैः काले यथासन्नं यथाबलम्। 

शोधन के पश्चात क्या करना है, यह वाग्भट सूत्रस्थान 4 मे लिखा है

भेषजक्षपिते पथ्यमाहारैर्बृंहणं क्रमात्। 

हृद्यदीपनभैषज्यसंयोगाद्रुचिपक्तिदैः। 

तथा स लभते शर्म सर्वपावकपाटवम्। 

धीवर्णेन्द्रियवैमल्यं वृषतां दैर्घ्यमायुषः॥

यह चिकित्सा क्रम है, जो हर वैद्य ने हर आयुर्वेद चिकित्सक ने हर विद्यार्थी ने , पहले समझ लेना चाहिये ... और उसके पश्चात् ही यथा अवस्था इस प्रकार के चिकित्सा क्रम के, कौन से सोपान पर, इस समय पेशंट है, यह देखकर उस प्रकार के चिकित्सा तत्त्व का प्रयोजन सिद्ध करे , ऐसे कल्प या कल्पना का उपयोजन करना चाहिए.


इसलिये जब उष्ण जल, दीपन के रूप में औषध के लिए उपयोग मे लाना है, तब दीपन हेतु, उष्ण जल सिद्ध करते समय, उसमे मिशि अर्थात बडीशोप/सौंफ, दीप्यक अर्थात अजवायन अजमोदा & जीरक इनका समावेश जल को उबालते समय करना उचित होगा! और ऐसे जल को उबालते हुए उसमे 25, 50 या 75% शेष होगा अर्थात ¼, ½ या ¾ इतना रिडक्शन करके बाकी बचे, उष्ण जल का औषधी कल्प के रूप मे प्रयोग करना, उचित होगा !!!


इस प्रकार के औषधी उष्ण जल का प्रयोग दिन मे तीन या चार बार या यथावस्था या उसे भी अधिक मुहुर्मुहुः रूप मे 7 दिन 14 दिन या अधिकतम 42 दिन = 6 weeks = 1.5 महिने तक करे, तो जिस विकार के लिए, इस प्रकार का सिद्ध उष्ण जल, पेशंट को दिया गया है, वह विकार उपशम होकर, अपुनर्भव की स्थिति तक आ जाता है, *ऐसा 27 साल की प्रॅक्टिस का अनुभव है !!!*


औषध यह कुछ दिन तक देने की बात है, किंतु आहार और विहार (अर्थात अन्न और व्यायाम या जीवनशैली मे बदलाव), यह निरंतर चलने वाली उपयोगी बाते है, जो उपस्थित विकार को निःशेष नष्ट करती है और उसका पुनर्भव ना हो, ऐसे समर्थ धातुओं का शरीर मे निर्माण करती है.


पाचन यह एक अत्यंत उपयोगी तथा लोकप्रिय चिकित्सा है, जो आमजन्य तथा वातजन्य कफजन्य वातकफजन्य ऐसे सभी रोगों का प्रथम उपचार है, इसलिये पाचन के द्रव्य मे जो श्रेष्ठ है, ऐसे आर्द्रक लशुन तुलसी मरिच पिप्पली हरी मिरची या लाल मिरची तथा वचा हरिद्रा मुस्ता इन द्रव्यों से अगर, उष्ण जल सिद्ध किया जाये, तो आम का अल्पकाल मे, शीघ्रता से और यथावश्यक रूप मे पूर्ण होता है.


मैने कुछ ऐसे पेशंट ट्रीट किये है, की जो ज्येष्ठ नागरिक है, 60 से आगे जिनका वय है और जो पिछले 10 या 12 15 साल से अपने संधियों के शोथ शूल वेदना के कारण, कुछ भी दैनंदिन गतिविधिया करने में समर्थ सक्षम नही है. उनको अपने कपडे भी पहना दुष्कर है, साडी के बजे उनको केवल गाऊन पर रहना पडता है, ईधर उधर जाना चलना दुष्कर होने के कारण, व्हीलचेअर पर रहना पडता है , इनको जमीन पर बैठना दुष्कर है , ऐसे भी पेशंट मे इस प्रकार के आर्द्रक सिद्ध लसूण सिद्ध या उभयसिद्ध उष्ण जल से दीर्घकालीन उपशम मिला है , जो अपुनर्भव के रूप मे आज तक वे अनुभव कर रहे है. जिन्हें संधि वक्रता है, संधियोंमे शोथ शूल स्पर्शासहत्व है आरक्तता है, जिनका RA factor 3600 इतना ज्यादा है, जो चलने मे बैठने मे उठने मे सक्षम नही है, ऐसे रुग्ण भी आज पनवेल से अंधेरी तक दो लोकल ट्रेन बदल कर जाते है, प्लॅटफॉर्म बदलने के लिए रेल्वे के ब्रिज चढते उतरते है, दिन भर जॉब करते है और सुबह जाने से पहले और घर को रात को आने के बाद अपने हाथों से रसोई बनाते है ... इतनी सुस्थिती में आ सकते है ... और औषध बंद करने के बाद भी, सालो तक उसे सुस्थिती मे अपुनर्भव रूप मे रहते है. किसी भी रसकल्प का गुगुल का आसव अरिष्ट का प्रयोग किये बिना, केवल वचाहरिद्रा सप्तधा बलाढान टॅबलेट सिद्ध उष्ण जल थर्मास मे रख कर, 90 दिन तक प्रयोग किया था!!! अभी जॉब के कारण आयटी मे होने के कारण हर वक्त पानी उबालकर ले जाना संभव नही होता है, तो इसलिये हमने इन्ही पाचन द्रद्रव्यों , जो आहारीय द्रव्यों के स्वरूप मे है, इनका शर्करा ग्रॅन्यूल्स के रूप में म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurved ने, निर्माण किया है , जो सभी वैद्यों के आयुर्वेदिक प्रॅक्टिशनर के उपयोग के लिए उपलब्ध भी है अधिक जानकारी के लिए 9422016871 इस नंबर पर "granules" यह मेसेज, व्हाट्सअप करे. 

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जिसमे एक चमचा शर्करा ग्रॅन्यूल्स, 150 ml ग्लास उष्ण जल मे मिलाने से, सिद्ध उष्ण जल का परिणाम आयेगा , ऐसा उसका बलाधान हो, इतना फार्मास्युटिकल प्रपोर्शन रखा हुआ है, जिससे की उबालना औटाना छानना आवश्यक नही होता है, जहा पर भी पेशंट है, वहा पर मशीन से या कॅन्टीन से या हॉट कॅटल का उपयोग करके, केवल गरम पानी 1 कप लेकर, उसमे यह एक चमचा रसोन आर्द्रक ग्रॅन्युल्स मिलाकर , उसी प्रकार का उपशम प्राप्त हो सकता है. या जिनको उबालना संभव है और दिनभर के लिए थर्मास ले जाना सुकर है, उनके लिये, केवल पानी उबालकर, उसमे यह रसोन आर्द्रक ग्रॅन्युल्स मिलाकर, वही परिणाम प्राप्त करना संभव होता है ! अर्थात नैसर्गिक रूप मे रसोन आर्द्रक, स्वयं घर मे पानी मे उबालकर, उसको ½, ¼ या ¾ ऐसे औटाकर, प्रयोग करना, कभी भी अधिक परिणामकारक है ही !!!


कंठ के सक्षमीकरण के लिए, सिद्ध जल करना है, तो उसमे यष्टी सारिवा सप्तधा बलाधान टॅबलेट, तीन या चार प्रमाण मे, मिलाने से यह अत्यंत लाभदायक होता है और इसको एक बार उष्ण जल मे मिलाकर टॅबलेट घुल जाये तो शीत स्थिती मे भी यह पित्त रक्त अग्निजन्य रुक्षताजन्य लक्षण अवस्था विकारो में उपयोगी होता है.


बस्ति शोधन या मूत्रशोधन जहां आवश्यक हो, ऐसे स्थिती मे उष्णजल मे, कूष्मांड ग्रॅन्यूल्स या शतावरी गोक्षुर ग्रॅन्युल्स या यष्टी गुडूची ग्रॅन्युल्स इनका एक चम्मच, 150 ml या एक कप उष्ण जल में घोलकर प्रयोग करे, प्राग्भक्त = भोजनपूर्व रूप मे , तो यह मूत्र मे जो रक्त पित्त अग्नि उष्णता जन्य लक्षण विकार अवस्था इसमे भी उपयोगी होता है.


हिक्का यह मुहुर्मुहुः औषधी प्रयोग करने का विकार है. जिनको यह वारंवार या दीर्घकालीन (क्रॉनिक अँड फ्रिक्वेंट री करंट) इस प्रकार का हिक्का का समस्या है, उनके लिये एला सिद्ध उष्ण जल या एला सिद्ध उष्ण जल को शीत करके प्रयोग करना उपयोगी होता है. इसी प्रकार से यष्टी & सारिवा ये दोनो कंठ्य है, तो ये भी रक्त पित्त अग्नि उष्णता जन्य स्थिती में, तीन या चार टॅबलेट सप्तधा बलाधान, उष्ण जल में घोलकर प्रयोग करे, तो यह भी परिणामकारक होता है.


आध्मान निवारण के लिए, सामान्यतः घर मे उपलब्ध टेबल सॉल्ट या उपलब्ध हो तो सेंधव या फिर वृक्षाम्ल अर्थात कोकम अर्थात आमसूल यह भी , यदि उष्ण जल मे घोलकर या मंथ बनाकर दिया जाये , तो आध्मान मे उपयोगी होता है. यदि बिना दूध का चाय बनाकर उसमे नींबू निचोडकर मुहुर्मुहुः या sip by sip पिया जाये तो यह आध्मान के साथ साथ , सामान्य से मध्यम तीव्रता (mild to moderate) के उदर शूल मे भी उपयोगी होता है और यह 2 मिनिट से लेकर 20 मिनिट तक के कालावधी मे तुरंत उपशम दे देता है.


वातकफजन्य सभी विकारो मे, उष्ण जल उपयोगी होता है. वात और कफ यह दोनो शीत गुण के होने के कारण, उसमे उष्ण जल परिणाम देता है. 


इसका वीर्य बढाने के लिए तथा उपचार कालावधी कम करने के लिए केवल उष्ण जल की बजाय, यदि उसमे उचित प्रकार का वातहर कफहर वातकफहर औषधी सिद्ध जल दिया जाये, तो यह अधिक उपयोगी होता है. वात और कफ दोनो मे उपयोगी हो, परिणामकारक हो किसी भी विकार अवस्था लक्षण में लाभदायक परिणामकारक हो ऐसा करना है तो ... वचाहरिद्रादि सप्तधा बलाधान 4 टॅबलेट के साथ 150 ml उष्ण जल देना, यह निश्चित रूप से उपकारक & शीघ्र परिणामदायक होता है , क्यूकी वचाहरिद्रादि के सभी द्रव्य यह वातकफनाशक है.


सद्यशुद्धी के बाद अग्नि का बल क्षीण होता है, इसलिये दीपन हेतु सर्वप्रथम बताये ऐसे मिशी अर्थात मिश्रेया अर्थात बडीशेप और ओवा अजवायन तथा जीरक का उष्ण जल मे प्रयोग करना उपयोगी होता है.


नवज्वर, यह आम प्रधान अवस्था होने के कारण, इसमे पाचन के लिए, उपर उल्लेखित द्रव्य से सिद्ध उष्ण जल का प्रयोग शीघ्र परिणामदायक होता है ... जिसमे आर्द्रक लशुन जीरक तुलसी मरिच हरिद्रा यह घर मे उपलब्ध द्रव्य परिणामकारक होते है. इन्ही द्रव्यों के शर्करा ग्रॅन्युल्स म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurved ने बनाकर, सभी आयुर्वेद चिकित्सक वैद्य सन्मित्र उपयोग के लिए उपलब्ध किये है.


पार्श्वरुक् = पार्श्व रुजा ! इसका अर्थ पार्श्व का अर्थ पर्शुकाओं का प्रदेश अर्थात लंग एरिया उरस् प्रदेश! इसमे जो वात &/or कफ प्रधान विकार होते है, इसमे एला पिप्पली आर्द्रक रसोन तुलसी रजनी पुष्करमूल कंटकारी असे उरोगामी द्रव्य से सिद्ध उष्ण जल का या इन द्रव्यों के शर्करा ग्रॅन्यूस का उष्ण जल के साथ प्रयोग करना लाभदायक होता है.


नागर पुष्करमूल गुडूची और कंटकारी यह वातकफ प्रधान कास श्वास और पार्श्वरुजा तथा ज्वर मे उपयोगी योग है. इसके सप्तधा बलाधान टॅबलेट तीन या चार मात्रा मे 150ml उष्ण जल के साथ दिया जाये, तो पार्श्व प्रदेश में उरः प्रदेश मे होने वाले वातकफजन्य रोग अवस्था लक्षण में परिणामकारक होता है


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Wednesday, 26 February 2025

चरकोक्त प्रसिद्ध श्लोक का योग्य अर्थ : ओषधीर्नामरूपाभ्यां जानते ह्यजपा वने । अविपाश्चैव गोपाश्च ये चान्ये वनवासिनः ॥

ओषधीर्नामरूपाभ्यां जानते ह्यजपा वने ।

अविपाश्चैव गोपाश्च ये चान्ये वनवासिनः ॥१२०॥

न नामज्ञानमात्रेण रूपज्ञानेन वा पुनः ।

ओषधीनां परां प्राप्तिं कश्चिद्वेदितुमर्हति ॥१२१॥

यो१गवित्त्वप्यरूपज्ञस्तासां तत्त्वविदुच्यते ।

किं पुनर्यो विजानीयादोषधीः सर्वथा भिषक् ॥१२२॥


उपरोक्त श्लोकों का अर्थ आयुर्वेद के कुछ विद्वान् (?) ऐसा बताते है की, ओषधीयों का ज्ञान चरवाह , गोपालक या अन्य वनवासी लोगो से लेना चाहिए ... किंतु इन श्लोकों का अर्थ ऐसा है "ही" नही.


ओषधीयों को नाम से और रूप से अजपा अविपा अर्थात अजा या अवि का पालन करने वाले अर्थात भेड बकरी मेंढी शिप लॅम्ब का पालन करने वाले (जिसको हम मराठी मे मेंढपाळ धनगर ऐसा भी कहते है), तथा गोपा अर्थात गो = गाय का पालन करने वाले, एवं च, ये च अन्य वनवासिनः अर्थात इन दोनों को छोडकर जो अन्य कोई वन मे जंगल = अरण्य मे रहने वाले लोग है, ये सभी औषधियों को नाम से &/or रूप से जानते है. 

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इस श्लोक मे "इनसे जानना चाहिए" ऐसा कही भी नही लिखा है , ना ही अभिप्रेत है.


आगे के श्लोक मे लिखा है की ...

केवल नाम ज्ञान से या रूप ज्ञान से ओषधीयों की उत्तम जानकारी कोई पा नही सकता 


और अंतिम श्लोक मे लिखा है कि ...

जिसे ओषधीयों के योग का ज्ञान है, उसे चाहे ओषधी के रूप का या नाम का या नाम और रूप का ज्ञान नही हो, फिर भी उसे औषधियों का तत्त्ववित् = तत्त्व जानने वाला कहा जाता है 

और फिर अगर कोई ओषधी को नामरूप और गुण इन तीनो से भी जानता हो, तो उसकी तो बात ही क्या है ऐसा गौरवोद्गार चरक ने किया है


ओषधी से जो बनता है वह औषधी! ओष अर्थात तेज वीर्य शक्ती सामर्थ्य बल ओष = उषा, जो प्रत्यक्ष तेज अग्नि सूर्य के पूर्व हमे दिखाई देता है! ऐसे ओष अर्थात तेज या वीर्य या सामर्थ्य का ... धी अर्थात भंडार संचय अधिष्ठान साठा जिसमे है वह ओषधी और इन ओषध से जो कल्प डेरीवेटीव्ह तज्जन्य उत्पादन बनता है , वह औषधी!!!

Tuesday, 25 February 2025

महाशिवरात्र उपवास रताळं बटाटा साबुदाणा कंद साळीच्या लाह्या

 महाशिवरात्रीला रताळे का खाल्लं जाते? कारण रताळं हा एक कंद आहे. कंद हे पचायला अत्यंत जड असतात. एकदा हे कंद खाल्ले की पुढे बराच काळ भूक लागत नाही. म्हणजे दिवसात दोन वेळा किंवा तीन वेळा खाण्यासाठी आणि स्वयंपाक करण्यासाठी वेळ द्यावा लागत नाही, डिस्टर्ब होत नाही. म्हणून ऋषीमुनी त्याकाळी कंदमुळे खात असत, की जेणेकरून लवकर भूक लागणार नाही आणि अखंड तपःसाधना आराधना जप हे करता येईल! आज आपण गृहस्थाश्रमामध्ये कंदमूळ म्हणजे रताळा बटाटा साबुदाणा हे खातो; ते पचायला अत्यंत जड असतं! त्यामुळे पुढील दोन-तीन दिवस पचनसंस्थेचे वाट्टोळे होते! ॲसिडिटी होते, कॉन्स्टिपेशन होतं, पोट साफ होत नाही, गॅसेस होतात, जळजळ मळमळ उलटी भूक न लागणे डोकं दुखणे अशा तक्रारी होतात.


 ज्याला खरंच उपवास करायचा आहे , त्याने उप म्हणजे जवळ, वास म्हणजे राहणे, म्हणजे देवाच्या जवळ राहणे, असे आचरण करायला हवे !!

त्याचा आपण काय खाल्लं, याच्याशी काही संबंध नाही !!


अनेक लोक असे म्हणतात की गीतेमध्ये सात्विक राजस तामस आहार दिलेले आहेत ... असं काहीही गीतेमध्ये दिलेलं नाही. ते आहार हे सात्विक राजस तामस "अशा लोकांना प्रिय असणारे आहार" आहेत ! प्रत्यक्षात आहार सात्विक राजस तामस नसतो , तो त्या त्या प्रकृतीच्या लोकांना प्रिय असलेला आहार असतो, इतकंच!!

त्यामुळे उद्याच्या महाशिवरात्रीला अकारण आपले पोट बिघडेल असे प्रचंड जड, न पचणारे अन्न म्हणजे रताळे साबुदाणा बटाटे यापासून बनलेले पदार्थ खाऊ नयेत!!


 अर्थात ज्यांना हे स्वतःच्या टेस्टसाठी चेंज साठी व्हरायटीसाठी चवीसाठी रुचिपालट म्हणून खायचेत, त्यांच्यासाठी ही पोस्ट नाही !!!


ज्यांना आरोग्य शास्त्र यातलं काहीतरी कळतं , बुद्धी शाबूत आणि जागृत आहे , त्यांच्यासाठी ही पोस्ट लिहिलेली आहे!!


अर्थात हे पटलं नाही तर समाजात रूढी म्हणून जे चालतं, त्याच्यामागे गतानुगतिकपणे अगतिकपणे जात राहा. 


बुद्धी जागृत असेल आणि हे पटलं तर नेहमीचाच आहार करावा, त्याच्या पेक्षा हलका आहार करणे याचा अर्थ साळीच्या लाह्या खाणे हे योग्य होय !!

साळीच्या लाह्या हा उपासाचा सर्वोत्तम पदार्थ आहे!! 

म्हणून नागपंचमीला आपण साळीच्या लाह्या, लक्ष्मीपूजनाला साळीच्या लाह्या हा नैवेद्य किंवा प्रसाद म्हणून वापरतो !!!


शास्त्राभ्यास नको श्रुति पढुं नको *तीर्थासि जाऊं नको* । 


योगाभ्यास नको व्रतें मख नको तीव्रें तपें तीं नको । 


काळाचे भय मानसीं धरुं नको दुष्टांस शंकूं नको ।


*ज्याचीया स्मरणें पतीत तरती तो शंभु सोडू नको* ॥ श्रीशिवस्तुति ॥


यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि


आटापिटा करून प्रवास करून तीर्थयात्रा करण्यापेक्षा मनापासून पंचाक्षरी किंवा षडाक्षरी नाम जप करणे हे अधिक श्रेयस्कर आहे


मन चंगा ... तो कठौती मे गंगा


क्यू पानी में मल मल नहाये

मन की मैल उतार , ओ प्राणी


शंकर हा नीलकंठ म्हणजे फक्त गळा काळा निळा असलेला असा आहे 

तो सर्वांगाने निळा नाही 


शंकराची आरती करताना "कर्पूर गौर" असं म्हटलं जातं ... म्हणजेच तो कापराप्रमाणे शुभ्र गोरा आहे ... स्नो व्हाईट = हिमगौर

लेखक : ©️ © Copyright वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. 

एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.

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Thursday, 20 February 2025

केश पतन पालित्य: निदान चिकित्सा दिग्दर्शन तथा उपयुक्त औषधी कल्प विकल्प

केश पतन पालित्य: निदान चिकित्सा दिग्दर्शन तथा उपयुक्त औषधी कल्प विकल्प


केश यह अनेक व्यक्तियों के लिए संवेदनशील तथा भावनिक बात होती है.

केशों का बालों का घटना गिरना टूटना श्वेत सफेद होना डँड्रफ होना पतला होना यह मुख्य चिंता के विषय होते है. 

इसके आगे जाकर गंजापन टकला बाल्डनेस ये बात होती है 

इन सभी केश विषयक समस्याओंका वय & आनुवंशिकता यह कारण अगर बाजू को रख दिया जाये तो ...केश की समस्याओंको प्रमुख दो भागो मे विभाजित कर सकते है 


1.

एक, अस्थिसे संबंधित विकृतियों के कारण, जिसे हम प्रायः धातुक्षयजन्य स्थिती कहेंगे और 

2.

दूसरा, उष्णता अग्नि पित्त रक्त / रस इनसे संबंधित समस्यायें


केशों की बालों की समस्याओं का निदान कारण हेतु:


1.

अम्लद्रव्य का निरंतर या अधिक प्रमाण मे सेवन 


अम्ल खट्टे सोअर आहार द्रव्य का सेवन अस्थि को और केशों को क्षीण बलहीन बनाता है, इसमे मुख्य रूप से दही छास तक्र अचार पिकल्स टमाटर सॉस केचप संत्री मोसंबी अननस सफरचंद एप्पल केले (काटने पर जो काले पडते है ऐसे सभी फल) तथा कॉर्नफ्लॉवर & मैदे से बनी सारी बेकरी प्रॉडक्ट्स नूडल्स पास्ता पिझ्झा वडापाव समोसा पाणीपुरी गोल-गप्पे रगडा पॅटीस भेळ पावभाजी ... 


तथा जमीन के नीचे उगने वाले सारे अन्नपदार्थ ... जैसे साबुदाणा बटाटा शक्करकंद रताळं बीट गाजर, स्टार्च अधिक होता है, ऐसे सारे पदार्थ


इसके साथ ही अत्यंत लोकप्रिय इडली, वडा, डोसा, आप्पे ये जो फर्मेंटेड आटे से बनाये जाने वाले पदार्थ है, ये भी उतने ही हानिकारक है ... क्यूकी अंततः ये भी शरीर मे जाकर अम्लता या अम्लपित्त को ही बढाते है


इसके साथ ही कुकर मे पकाये हुए अन्नपदार्थ ... शरीर मे अम्लता अम्लपित्त विदाह इनको बढाते है, इसलिये केशों की समस्या जिनको है, उन्होने कुकर मे पके हुए अन्नपदार्थ खाना वर्ज्य करना उपयोगी है.


चावल के दानों को तंडुल को शुद्ध देसी घर मे बने हुए (बाजार के रेडिमेड परचेस किये हुए नही) घी पर भून कर, इन चावल को ... एक कटोरी चावल के लिए एक चमचा जिरा और एक इंच अद्रक डालकर, खुले पात्र मे पकाना चाहिये और इसकी मांड पेज स्टार्च निकाल देना चाहिये और ऐसा खुले दानों वाला चावल खाना चाहिए.


कुकर मे पकाया हुआ चावल भात ओदन राईस वर्ज्य करना आवश्यक होता है, केशों की समस्या के लिये


लवण नमकीन द्रव्य का निरंतर या अधिक प्रमाण में सेवन

 

इसमे बाजार मे मिलने वाले सारे चाट, सारे नमकीन, फरसाण, चीज , बटर , सभी बेकरी प्रॉडक्ट , पॅक्ड हवाबंद प्रिझर्वेटिव्ह डाले हुए केमिकल डाले हुए तले हुए चिप्स जैसे पदार्थ, तथा अजिनोमोटो जैसे हानिकारक लवणवाले चायनीज पदार्थ ... इनका समावेश होता है


उष्ण विदाही तीक्ष्ण मसालेदार स्पायसी चटपटे ऐसे पदार्थों का निरंतर या अधिक प्रमाणमें सेवन 


इसमे सभी स्ट्रीट फूड, जंक फूड, फास्ट फूड, ग्रेव्ही वाले, हॉटेल के, ऑनलाइन फूड, चाट के पदार्थों का समावेश होता है ... इसमे वडापाव पावभाजी नॉनव्हेज शेजवान सभी प्रकार के चाट, इनका भी समावेश होता है


तंबाखू तथा मद्य इनका निरंतर अधिक प्रमाण मे सेवन 


तंबाखू तथा मद्य ये अत्यंत उष्ण तीक्ष्ण रूक्ष कटु ऐसे होने के कारण , अस्थि और केश इनका बलक्षय होता है तथा उष्णता पित्त रक्त अग्नि इनका वर्धन करते है


ये कुछ मुख्य आहारीय कारण इन समस्या के लिए होते है 


आहार के परे ...

धूप मे घूमना, सिरको ढके बिना, सिर/ मस्तक पर कुछ भी शिरस्त्राण शिरोआवरण वस्त्र धारण किये बिना, ट्रॅफिक मे धूल धूर इनमे दिनभर घूमना, बालों को खुला छोडना (विशेषतः स्त्रियों के संदर्भ मे) , यह भी केशों के बालों के समस्याओं का एक प्रमुख और अपरिचित दुर्लक्षित नॉन कन्सिडर्ड कारण है


तिसरा ...

बालों को अच्छा रखने के धुन मे, केमिकल पदार्थों का शाम्पू कंडिशनर साबुन इनका अधिक मात्रा मे वारंवार प्रयोग करना, बालों को रंगने के लिये केमिकल डाय का या तथाकथित हर्बल डाय का बार बार उपयोग करना. 


जिस भी चीज का झाग फेन फोम spume होता है किसने स्टेरिक ऍसिड होता है तथा साबुन जैसे सभी पदार्थ मे क्षार या सोडियम कभी समावेश होता है ... ये दोनो ऍसिड और सोडियम ये बालों के लिए हानिकारक होते है


इसके पश्चात , जिससे शरीर मे उष्णता अग्नि पित्त रक्त इनकी वृद्धी दुष्टी वैगुण्य, तथा/या (&/or) शरीर मे रूक्षता बढे, ऐसे विचार भावना बौद्धिक आचरण, यह भी इसका कारण है , जिसमे चिंता शोक भय नैराश्य वैफल्य विषाद डिप्रेशन फ्रस्ट्रेशन फियर असूया ईर्ष्या जेलसी कॉम्पिटिशन कम्पॅरिझन तुलना इनका समावेश होता है


और सबसे अंत मे ...

देर रात तक जागना या निद्रा का हीनयोग या अभाव या अल्पता या निद्रा खंडित होना या निद्रा देर विलंब से आना या कुल मिलाकर सात घंटे से कम निद्रा लेना


ये केशों के बालों के इन समस्याओं के ...

आहारात्मक, विहारात्मक और वैचारिक कारण है


चिकित्सा दिग्दर्शन

1.

इसमे सर्वप्रथम अस्थि दुष्टी वैगुण्य क्षय तथा धातुक्षयजन्य कारणों का विचार करे ...


तो दुग्ध घृत, यष्टी लाक्षा इनका प्रयोग अपान काल अर्थात प्रागभक्त भोजनपूर्व करना अत्यंत उपयोगी है

भग्न अधिकार मे इन तीनो चारो द्रव्यों का उल्लेख और उपयोग प्राधान्य से उल्लेखित है

साथ ही लशुन रसोन गार्लिक, जो कटू उष्ण तीक्ष्ण होने पर भी, स्निग्ध केश्य वृष्य (= पुनरुत्पादक) और भग्नसंधानकारी है ... इसका क्षीरपाक, अस्थिक्षय तथा केशपतन केशक्षय इनमे उपयोगी लाभदायक सिद्ध होता है


अम्लपदार्थ सेवन यह यदि निदान हो केश पतन के कारण हो तो ...

अम्ल के विपरीत तिक्त रस है ... इसलिये पंचतिक्त क्षीरपाक या पंचतिक्त कल्प अर्थात शर्करा ग्रॅन्यूल्स एवम गुडूची कल्प, यष्टी गुडूची कल्प अर्थात शर्करा ग्रॅन्यूल्स ... इनका दुग्ध और घृत के साथ, अपानकाल मे या सूर्योदय सूर्यास्त स्वप्न काल मे, प्रयोग करना लाभदायक होता है


यदि लवणरस यह मुख्य निदान है , तो लवण रसके विपरीत कषायरस होता है, इस कारण से खदिर हरीतकी बिभीतकी पंचक्षीरी वृक्ष का कल्प अर्थात ग्रॅन्युल्स तथा ... खर्जूर = खारीक इनका प्रयोग अपेक्षित परिणामदायक होता है


निद्रा का अल्पता अभाव जागरण खंडित निद्रा विलंबित निद्रा, धूप मे घूमना, धूर धूल ट्रॅफिक मे सर को ढके बिना (uncovered / unwrapped) घूमना, शाम्पू साबुन कंडिशनर कलरिंग डाय इनका प्रयोग करना तथा शोक भय इत्यादि वैचारिक बौद्धिक भावनिक ऐसे कारण हो तो ... ये सारे कारण प्रायः उष्ण अग्नि रक्त पित्त इनकी दुष्टी विकृती वैगुण्य वृद्धी करने वाले होने के कारण, ऐसा निदान जब केशों की समस्याओं के लिए हो, तब घृतनस्य क्षीरनस्य , यष्टी सारिवा सप्तधा बलाधान टॅबलेट , यष्टी काश्मरी कल्प शतावरी गोक्षुर शर्करा कल्प ग्रॅन्युल्स, कूष्मांड कल्प ग्रॅन्युल्स , दूर्वा कल्प ग्रॅन्युल्स, यष्टी लाक्षा टॅबलेट इनका प्रयोग अपेक्षित लाभदायक परिणाम देता है.


यद्यपि रसायन चूर्ण नाम से अष्टांग हृदय उत्तर तंत्र रसायन अधिकार से, धात्री गोक्षुर गुडूची यह प्रसिद्ध है, जो केश्य माना जाता है, किंतु इसमे से धात्री अर्थात आमलकी यह अत्यंत रूक्ष होने के कारण से इसका प्रयोग उतना लाभदायक सिद्ध नही होता है .


साथ ही लाक्षादि गुग्गुल या प्रवाळ मुक्ता ऐसे सुधावर्ग का प्रयोग यह भी उतना कार्यकारी नही होता है.


उसकी तुलना मे यष्टी लाक्षा, यष्टी सारिवा, ये टॅबलेट्स तथा यष्टी गुडूची, केवल गुडूची, पंचतिक्त, शतावरी गोक्षुर, दूर्वा कूष्मांड इनके टॅबलेट तथा शर्करा कल्प ग्रॅन्युल्स, अपानकाल मे प्राग्भक्त = भोजनपूर्व कालमे या सूर्योदय सूर्यास्त स्वप्न काल में , क्षीर और घृत के साथ देना अधिक उपयोगी होता है.👍🏼✅️💪🏼


उष्णता रक्तपित्त अग्नि प्रधान कारणों से, भावनिक वैचारिक बौद्धिक कारण से या धूप धूल धूर ट्रॅफिक मे घुमना, खुले बाल रखकर, सिरको ढके बिना घूमना, इन कारणो से, जिनके केशों मे समस्या है, उन्होने रोज रात्री सोने से पहले नाक मे पॉईंट फाईव्ह एम एल (0.5ml) घृत = शुद्ध देसी घी (घर मे बनाया हुआ ✅️, मार्केट मे मिलने वाला रेडिमेड पर्चेस किया हुआ नही) छोडना चाहिए अर्थात प्रति रात्री निद्रा पूर्व घृतनस्य करना चाहिए ... घृत नस्यही करना चाहिए, तैल नस्य नही! इसके संदर्भ मे एक अलग सविस्तर लेख लिखा है, जिसकी लिंक आगे दी है

पित्तस्थान ✅️ (कफस्थान X) = शिर, तस्मात् घृतनस्य✅️ (तैलनस्य X), विना यंत्रणा नेत्रतर्पण तथा घृत पिचु @ कनीनक

https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/09/blog-post_30.html


बाह्य प्रयोग के रूप मे बालों को धोने के लिए ... पारंपारिक रूप मे हप्ते मे 15 दिन मे या महिने मे एखाद बार शिकेकाई सप्तला सातला इसका प्रयोग ठीक है, किंतु यह द्रव्य अत्यंत रुक्ष है. इसलिये इसका प्रयोग महिने मे एक बार ही करे. वो भी अगर डँड्रफ है तो, प्रारंभिक काल में ही करे. 


उसके पश्चात बाल केस या केशभूमी अर्थात स्काल्प धोने के लिए हप्ते मे एक या दो बार ... त्रिफला मुस्ता खदिर निंब ऐसे तिक्त कषाय शीत द्रव्यों के काढे का उपयोग करे ... किंतु इसके दाग कपडे पर पडते है, इसलिये केश बाल शिर इन द्रव्यों के काढे से धोते समय कपडों को दूर रखे. 


इससे अच्छा है कि मसूर दाल चूर्ण / आटा (लेंटिल दाल फ्लोअर lentil daal flour) और दुग्ध, इनका मिश्रण बालों को, उनके मूल मे तथा केशभूमी को अर्थात स्काल्प मे लगाकर , उसको सूखने देना ... अपनी त्वचा को पकडेगा/जकडेगा, उस लेप पर क्रॅक्स आयेंगे, इतनी देर तक रखना और उसके बाद गुनगुने कोमट वाॅर्म ल्युकवाॅर्म पानी से , सिर को धोना चाहिये. मसूर दाल पिष्ट तथा दुग्ध ये दोनो स्निग्ध कषाय मृदु श्लक्ष्ण इस प्रकार के होने के कारण, अस्थि केश केशभूमी की त्वचा स्काल्प स्किन इनका रक्षण प्रसादन होता है एवं उष्ण रक्त पित्त अग्नि इनका शमन और प्रसादन होता है. ये दोनो द्रव्य प्रोटीन तथा कंडिशनिंग कथा स्निग्धता दृढता इनका लाभ देते है

इसी के समान यदि गाढे दधि से केश और केशभूमी स्काल्प इनका लेपन करे और 30 मिनिट के बाद, उसको धो दे तो , उसका भी इसी प्रकार से उपयोग होता है ... 

दधि में दुगुना पानी डालकर, उसको ब्लेंडर से मथित करके, ओवर नाईट रातभर रखा जाये और सुबह जो गाढा भाग तल मे बॉटम मे है , उसको बालो मे केशभूमी मे स्काल्प मे लगाये और 30 मिनिट बाद जो उपर का सुपरनेटंट तक्रमस्तु है , उससे बाल केशभूमी स्काल्प सिर को धोए , तो ये भी अपेक्षित लाभदायक परिणाम देता है


बालो मे तेल लगाना आजकल आऊट ऑफ फॅशन हो गया है, लोगों को तेल लगाना चिपचिपा, पिछडे काल का लगता है. 

डॅन्ड्रफ का होना यह केशभूमी की त्वचा का टूटना इतना ही है, जसे अकाल दुष्काळ ड्राॅट drought मे जमीन पर क्रॅक्स पडते है,  वैसे केशभूमी की त्वचा मे क्रॅक्स पडने के कारण, उसके छोटे छोटे तुकडे, केशभूमी से अलग होकर दिखाई देते है डँड्रफ के रूप मे ...

और केशभूमी की त्वचा का टूटना, रूक्षता के कारण होता है, इसलिये इसमे उचित प्रकार से तेल लगाना आवश्यक है. वैसे तो ये पिछली पिढी की तरह प्रतिदिन लगाना चाहिए, लेकिन जिनको तेल से द्वेष है, वो कम से कम हप्ते मे दो या तीन बार, बालों को नही, अपितु बालों के मूल मे केशभूमी मे स्काल्प मे तेल लगाये. 


केशभूमी स्काल्प के उपर जो बाल हमे दिखाई देते है, वे निर्जीव है. जैसे हम बढे हुए नाखून को काट देते है, तो उसमे कोई भी हानी नही होती है, क्यूंकी उसमें रक्त संचरण ब्लड सर्क्युलेशन नही होता है. इसी प्रकार से केशभूमी के उपर दिखाई देने वाला बाल केश, यह रक्तसंचारण ब्लड सर्क्युलेशन से विरहित है, इसलिये बालों को केशों को बाहर से कुछ भी लगाने से, जैसे टीव्ही ॲडवटाईज मे दिखाया जाता है, वैसे कुछ भी, वस्तुस्थिती में, नही होता है! केवल बालों के मूल मे शिरोभूमी मे स्काल्प मे, जहां हेअर फॉलिकल होते है, वहा पर तेल या अन्य औषधी द्रव्य का लेपन करने से, कुछ हद तक अल्प मर्यादा तक लाभ होता है ... जितना लाभ अभ्यंतर औषधी सेवन तथा आहार पथ्य पालन से होता है, उतना लाभ बालों को केशों को केशभूमी को स्काल्प को कुछ भी लगाने से नही होता है


केशभूमी शिर पर तिल तेल की बजाय यदि, कोकोनट ऑइल नारियल का तेल लगाया जाये तो यह जादा अच्छा है.

लाक्षादि केर तैल अर्थात लाक्षादि के कंटेंट्स, नारियल के तेल मे सिद्ध किया हुआ तेल, इसका प्रयोग करे तो ये अधिक कार्यकारी होता है.

लाक्षादि केर तेल यह अन्नस्वरूप होने के कारण, दुग्ध और घृत के साथ अपान काल मे या सूर्योदय सूर्यास्त स्वप्न काल मे, लाक्षादि केर तेल का भी सेवन आभ्यंतर रूप मे किया जाये, तो यह भी अधिक लाभदायक सिद्ध होता है.


इन सभी आभ्यंतर बाह्य उपाय के साथ साथ , पहले बताये हुए कारण का हेतुओं का निदान का वर्जन करना परिहार करना avoid करना, यह भी आवश्यक है ...


और भोजन मे , जितना हो सके उतना , भोजन के प्रारंभ मे क्षीर घृत मधुर इनका प्रयोग करना आवश्यक है. 


इतना करेंगे तो पुरुषो मे प्रायः छ से बारा सप्ताह मे (उनकी केस समस्या की तीव्रता और क्रोनिसिटी इसकी अनुसार) अपेक्षित रिझल्ट आते है. 


स्त्रियों में अपेक्षित रिझल्ट आने के लिए, दो या चार मेंसेस तक उपचार , आहार और विहार इनका पालन आवश्यक होता है


सारांश :

केश पतन, केशपालित्य , डँड्रफ आदि केश संबंधित समस्याओं के समाधान के लिए ...

1

यष्टी लाक्षा टॅब्लेट 

2

यष्टी सारिवा सप्तधा बलाधान टॅबलेट 

तथा 

3

पंचतिक्त 

गुडूची 

यष्टी गुडूची 

यष्टी काश्मरी 

शतावरी गोक्षुर 

दूर्वा 

कूष्मांड 

ऐसे क्षीरपाक शर्कराकल्प Granules 

एवं 

4

घृत नस्य 

तथा 

5

अपान काल में प्राग्भक्त भोजनपूर्व क्षीर, घृत, लाक्षादि केर तैल ...

इनका सेवन शीघ्र लाभदायक परिणामकारी तथा निरंतर उपयोगी होता है.


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Saturday, 15 February 2025

आयुर्वेद फॉर ग्लोबल हेल्थ : एक दिग्भ्रम

 आयुर्वेद फॉर ग्लोबल हेल्थ


आयुर्वेद में निश्चित ही कुछ अंशतक पोटेन्शिअल सामर्थ्य शक्तिस्थान उपलब्ध है, उन्ही वास्तविक शक्तीस्थानो का पोटेन्शिअल का उचित मर्यादा मे रहकर जनसामान्य के कल्याण के लिए उपयोग करना चाहिए. किंतु आयुर्वेद से *"सब कुछ ठीक हो सकता है"* इस भ्रम मे ना स्वयं रहना चाहिए एवं ना हि जनसामान्य को इस भ्रम में डालना चाहिए


जिस शास्त्र को या जिस शास्त्र के अनुयायीयोंको प्रॅक्टिशनर को लोकल हेल्थ संभालना संभव नही है या जिनको अपने स्वयं के घर के सदस्य का हेल्थ संभालना संभव नही है, 99.99% आयुर्वेद के प्रॅक्टिशनर स्वयं और उनके घर के सदस्य भी आयसीयू आयसीसीयू के द्वारा मॉडर्न मेडिसिन लेते लेते हि, अंत काल में , मृत्युसमय में , स्वर्ग सिधारते है, यह सत्यस्थिती होने के बावजूद, वे आयुर्वेद फाॅर ग्लोबल हेल्थ की बात करते है, ये कितना विसंगत है!?


जिस शास्त्र को शरीर रचना के ज्ञान की भयानक मर्यादायें है, शरीर क्रिया (फंक्शन) की ज्ञान के बारे मे प्रचंड अज्ञान है, जिस शास्त्र में शस्त्रक्रिया के लिए anesthesia देना संभव नही है, जिस शास्त्र को किडनी लिव्हर पॅन्क्रियाज लंग हृदय/हार्ट ब्रेन स्पायनल कॉर्ड गर्भाशय ओवरी इनके ना रचना का ज्ञान है, ना हि इनकी क्रिया (फंक्शन) का ज्ञान है, हार्मोन नाम की चीज होती भी है और होती है तो उसका क्या काम होता है, इसका ज्ञान नही है ... जिस शास्त्र के औषधी निर्माण मे अनेकों प्रकार की मर्यादायें है, अज्ञान है, जिसे शास्त्र मे 1300AD के बाद रसशास्त्र नाम के दूसरे हि विषाक्त / विष स्वरूप / विषैले / घातक केमिकल हेवी मेटॅलिक का औषधों(?) का अशास्त्रीय संकर हुआ है, जिस शास्त्र का मूलाधार होने वाली कई वनस्पतीयों का या तो परिचय ही नही है या पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध ही नही है या उस वनस्पती का जो उपयुक्तांग शास्त्र ने प्रयुक्त करने के लिए कहा है, वह उपयुक्त अंग प्रयुक्त होता ही नही है, जिस शास्त्र को ओव्युलेशन क्या है, फर्टिलिटी पिरियड क्या है, गर्भ का विकास निश्चित रूप से कैसे होता है, यही ज्ञात नही है, जिस शास्त्र के अनुयायी उस शास्त्र मे लिखे हुए औषध उस शास्त्र मे लिखी हुई मात्रा मे तथा कालावधी (ड्यूरेशन) मे कभी देते ही नही है, जिस शास्त्र के अनुयायी उस शास्त्र के औषधो को अन्य किसी शास्त्र की औषधों के साथ बिना डोस प्रोपोर्शन का विचार किये ऐसे ही देते है, जिस शास्त्र मे शास्त्रीय बातों को "सोचने" की बजाय, शास्त्र के नाम कर "बेचने, का व्यापार धंदा दुकान व्यवसाय बिजनेस ट्रेड सेल" इसकी प्रवृत्ती सामान्य रूप से अधिकतम है, ऐसे शास्त्र से, ऐसे शास्त्र के अनुयायीयों से, *"ग्लोबल हेल्थ"* इस प्रकार का उच्चारण भी करना आत्यंतिक विसंगत है. जिस शास्त्र को अपने शास्त्र रूप मे होने वाली मर्यादायें ज्ञात नही है , मान्य नही है , स्वीकार्य नही है ... जिस शास्त्र के अनुयायी , extremist उग्रवादीयों की तरह स्काय स्क्रेपर्स की तरह गगनचुंबी tall किंतु अशास्त्रीय unrealistic unscientific असिद्ध क्लेम करते रहते है, अन्य शास्त्रों की कई बाते नामांतर करके अपने शास्त्र के नाम पर समाज मे चलाते रहते है, जो च्यवनप्राश निर्माण होना तथा उसके लिखित परिणाम सार्थक सिद्ध होना कधी भी संभव हि नही है , उसका सर्वाधिक व्यापार करते है , स्वर्ण प्राशन गर्भसंस्कार नाडी ऐसे आत्यंतिक असिद्ध अशास्त्रीय विधियोंका प्रचलन करते है, शिरोधारा के नाम पर पंचकर्म स्नेहन स्वेदन के नाम पर मसाज मालिश स्पा हेल्थ रिसॉर्ट वेलनेस सेंटर जेसे अशास्त्रीय अवैद्यकीय धंदे चलाते है, सौंदर्यशास्त्र के नाम पर केमिकल कॉस्मेटेस्युटीकल्स मे अत्यल्प पर्सेंटेज मे हर्बल प्रॉडक्ट्स मिलाकर उसको आयुर्वेद सौंदर्यशास्त्र के नाम पर बेचते है और ऐसा सारा शास्त्रीय अनैतिक व्यवहार करते हुए जिनको लज्जा शर्म ऐसी भावनाये नही आती है, ऐसे लोगों से ऐसे शास्त्र से *"ग्लोबल हेल्थ "* की अपेक्षा की घोषणा करना अत्यंत हास्यास्पद तथा निंदनीय है.


आयुर्वेद के लोगो ने नैतिक और प्रामाणिक धरातल पर अपनी वास्तविक मर्यादाओं को जान लेना चाहिये पहचान लेना चाहिए सीख लेना चाहिए मान्य करना चाहिए स्वीकार करना चाहिए गगनचुंबी स्काय स्क्रेपिंग tall अवास्तव अशास्त्रीय क्लेम करना बंद करना चाहिए. 


आयुर्वेद में निश्चित ही कुछ अंशतक पोटेन्शिअल सामर्थ्य शक्तिस्थान उपलब्ध है, उन्ही वास्तविक शक्तीस्थानो का पोटेन्शिअल का उचित मर्यादा मे रहकर जनसामान्य के कल्याण के लिए उपयोग करना चाहिए. 


किंतु आयुर्वेद से *"सब कुछ ठीक हो सकता है"* इस भ्रम मे ना स्वयं रहना चाहिए ना हि जनसामान्य को इस भ्रम में डालना चाहिए और जहां तक हो सके, वहां तक आयुर्वेद शास्त्र के नाम पर अवैज्ञानिक अशास्त्रीय असत्य असिद्ध असंभव इस प्रकार के च्यवनप्राश उबटन अभ्यंग तेल मसाज मालिश showधन शिरोधारा मानस विकार चिकित्सा गर्भसंस्कार मर्म थेरपी नाडी परीक्षा रसकल्प सुवर्णप्राशन सौंदर्यशास्त्र ऐसे "बाजारू मार्केटिंग धंदा व्यापार व्यवसाय दुकान ट्रेड बेचना" ऐसी छोटी क्षुद्र बातों से स्वयं को दूर रखना चाहिए और ऐसे कीचड मे लोगों को भी खींच कर मलीन नही करना चाहिए

प्रकृती परीक्षण : एक अशक्य गोष्ट

 🔥

ज्या काळी वैद्य हा दुकान मांडून बसत नव्हता ...

तो त्या गावामध्येच राहून, मागच्या दोन आणि पुढच्या दोन पिढ्या पहात होता... तेव्हा त्याच्या समोर तिथल्या स्वयंपूर्ण खेड्यामध्ये तिथला बहुतेक प्रत्येक माणूस अनेक वर्षां करता असायचा... प्रत्यक्ष तो व्याधित = रोगी होण्यापूर्वीपासून त्याच्या नजरेसमोर असायचा 


अशा परिस्थितीत त्या वैद्याला त्या रुग्णाची किंवा व्यक्तीची प्रकृती माहीत असणं, हे शक्य आणि शास्त्रीय होतं


आज जगाच्या कुठल्या कोपऱ्यातून किती शे km वरून "पेशंट" तुमच्यासमोर "पहिल्यांदाच" येऊन बसलेला आहे ... तोही त्याच्या "रोगा"साठी आलेला आहे ... त्याला तुम्ही पंधरा मिनिटे ते 30 मिनिटे जास्तीत जास्त , एक "पेशंट" म्हणून देणार आहात... अशा त्या "पेशंट" मधलं प्रकृती (= निर्विकारिणी दोष स्थिती) नावाचं परीक्षण, मी किती मिनिटात करणार??? 


खरंच ते "प्रकृती परीक्षण" करणे "शक्य आहे का"? 


जन्माच्या वेळेस ची वायेबल= जगण्यायोग्य अशी "असंतुलित दोषल प्रकृती ... सो कॉल्ड"!!


याच्यावरती जन्मानंतर पुढे 

वय 

देश 

कुल

यांची नैसर्गिक पुटं layers स्तर चढतात!


 त्याच्यापुढे सात्म्य नावाचं एक, "आरोग्य आणि निदान यांच्यामधलं", खूप "स्ट्रॉंग" असं पुट चढतं!! 


त्याच्यानंतर मग निदान सेवन 


मग प्रत्यक्ष रोग व त्यानंतर 

उपद्रव 

रोगसंकर 

अरिष्ट ...

अशी साधारणतः "सात्म्य ते अरिष्ट या स्पेक्ट्रम" मध्ये असलेला "पेशंट" आपल्यासमोर बसलेला असताना ... त्या पेशंटच्या शरीरावरची ही सगळी पुटं लेयर्स स्तर काढून,


"प्रत्यक्ष जन्माच्या वेळची असंतुलित दोष स्थिती" की जी त्याला "जगायला अलाऊ" करते "ती दोषस्थिती" मला कळते समजते ... त्या प्रकृतीचे मी परीक्षण करतो ... हा केवढा मोठा विनोद 🤣😆आणि अशक्य प्राय अशी गोष्ट😳😱 आहे, हे का कळत नाही !?


Prakruti : a rebel thought ek nayee soch ek bandakhor vichaar ... To listen to actual rebel thought you may jump to 37.50 minutes or to listen to the essence of this lecture you may jump to 40.50 or 46 or 49 minutes ...

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https://youtu.be/F6SWPNvgee4?si=-2GI7mVtFv3rgEvo

जेव्हा अशा प्रकारचं राष्ट्रीय स्तरावरचे प्रकृती परीक्षण नावाचं काहीतरी सुरू करायचं ठरलं, तेव्हा तिथं आयुर्वेद @ द कोअर जाणणारी माणसं नव्हती का...? त्यांनी त्याला विरोध का केला नाही ??


एका यांत्रिक ॲप मध्ये दहा वीस प्रश्न विचारून, पुढच्या पंधरा-वीस मिनिटात , त्याला "ऑटोमेटेड प्रकृती सांगणे ", हे एक उपक्रम हॅपनिंग गोष्ट इव्हेंट सेलिब्रेशन दिखावा "काहीतरी केलं" , शासकीय स्तरावरचे कागदी घोडे ... यासाठी ठीक आहे...


 पण शास्त्रीय दृष्ट्या ते अत्यंत चुकीचं दिशाभूल करणारं vague असत्य मुख्य म्हणजे निरुपयोगी असं आहे , असं आपल्याला का पटत नाही आणि ज्यांना हे स्पष्टपणे माहिती आहे, त्यांनी या सगळ्याला का विरोध करू नये, ठामपणे एक अधिकारी म्हणून, अध्यापक म्हणून, एखाद्या संघटनेचे पदाधिकारी म्हणून, वैद्यांच्या समूहाचे प्रतिनिधी म्हणून ... कारण माझ्यासारख्या एकट्यादुकट्या वैयक्तिक माणसाने याला विरोध केला तर तो शास्त्रद्रोह होईल !!!


प्रत्येक गोष्टीत असा सगळा कचरा विचका गुंता ... एकही गोष्ट स्पष्ट सरळ छान सुंदर नाही!!! 


दीडशे दोनशे वर्षात, मॉडर्न मेडिसिन ने, आयुर्वेदाचा सगळा जनाधार घालवला ... आज पेशंट येतो, तो मला "मॉडर्न नुसार अमुक रिपोर्ट अमुक रोग झालाय, त्याच्यावर तुमच्याकडे काही इलाज आहे का, ते सांगा" म्हणून येतो !!!


शंभरातला एक तरी पेशंट, मला वात पित्त कफ स्रोतस् धात्वग्नि धातु असे दुष्टी झाली, म्हणून येऊ शकतो का? सव्वाशे वर्ष झाले तुम्ही आयुर्वेद शिकवता येथे... तुमची परिभाषा रुजली आहे का? दहा वर्षात मोबाईलची परिभाषा लहान मुलांपासून मरणाऱ्या माणसा पर्यन्त प्रत्येकाच्या तोंडात आलेली आहे ???


काय तुमच्या अस्तित्वाला अर्थ आहे ?!


आणि तुम्ही "ग्लोबल हेल्थ साठी आयुर्वेद" अशा पोकळ वल्गना करता!!! 👇🏼

https://mhetreayurved.blogspot.com/2025/02/blog-post_88.html


बेडकीचा बैल होणार आहे का??? 


स्वतःच्या मर्यादा मान्य नाहीत, ज्ञात नाहीत, स्वीकारायची इच्छा तयारी नाही!!! सगळा भंपकपणा ... 

जिकडे बघावं, तिकडं ढोंग लबाडी 


"सोचेगा" कोई नही ... "बेचेगा" हर एक आदमी ... अशी घाणेरडी अवस्था आहे या शास्त्राची आणि या क्षेत्राची ... अत्यंत निषेधार्ह 👎🏼😔☹️😏




💐🙏🏼

Tuesday, 11 February 2025

यकृत औष्ण्य : एक बहुपयोगी परीक्षण तथा वासागुडूच्यादि एवं भूनिंबादि

 यकृत औष्ण्य : एक बहुपयोगी परीक्षण तथा वासागुडूच्यादि एवं भूनिंबादि


वासागुडूच्यादि 👇🏼

वासागुडूचीत्रिफलाकट्वीभूनिम्बनिम्बजः। 

क्वाथः क्षौद्रयुतो हन्ति पाण्डुपित्तास्रकामलाः॥


भूनिंबादि 👇🏼

भूनिंब निंब त्रिफला पटोल वासा अमृता पर्पट मार्कवाणाम्



आदरणीय दातार शास्त्री द्वारा प्रसृत पांचभौतिक चिकित्सा पद्धती में उदर परीक्षण यह एक वैशिष्ट्यपूर्ण पद्धत है. इसमें नाभी आसमंत, यकृत & प्लीहा इनका स्पर्श देखा जाता है. इनमें से नाभी आसमंत की तुलना में यकृत का स्पर्श अधिक उष्ण हो तो, उस रुग्ण के शरीर में पित्त रक्त अग्नी इन से संबंधित निदान व लक्षणे मिलते है. यदि उस प्रकार के लक्षण उस समय उस पेशंट में ना उपलब्ध हो, तो भी भविष्य में पेशंट को उस प्रकार के लक्षण/ समस्या/ रोग होने की संभावना निश्चित रूप से रहती है. 

जिनको नजीक भूतकाळ मे कोई भी विशिष्ट ज्वर अल्पकालीन /दीर्घकालीन /तीव्रवेगी जसेटायफॉईड  मलेरिया, डेंग्यू चिकुनगुनिया UTI या फिर उस प्रकार के कोई पित्त रक्त उष्णताजन्य रोग जैसे कामला या लिव्हर संबंधित कोई इंफ्लामेशन इन्फेक्शन हुए हो, तो ऐसे पेशंट मे इस प्रकार का यकृत औष्ण्य प्रतीत होता है.

जैसे हचिसन मे बताया है, वैसे पेशंट को नॉर्मल सुपाईन पोझिशन मे लेट कर/ लिटा कर , अपने दाहीने right हाथ की हथेली से राईट हॅन्ड palm से नाभी का स्पर्श करे, इस स्पर्श की तुलना मे राईट हायपोकॉन्ड्रीएक रीजन अर्थात दक्षिण स्तन के नीचे, लिव्हर के उपर जो पर्शुकाये है रिब्ज है, वहा पर वही पाम = हस्ततल रखे, नाभी की तुलना मे यहा यकृत का स्पर्श अगर उष्ण प्रतीत हो तो, इस पेशंट मे पित्त रक्त उष्णता संबंधित या तो ...

1. निदानों का सेवन है या 

2. तज्जन्य लक्षणोंका प्रादुर्भाव है या 

3. ऐसे लक्षण का उद्भव होने की संभावना है ... ऐसे जाने.

ऐसे लक्षण बहुत ब्रॉडस्पेक्टर मे होते है जैसे की ...

शिरःशूल जिसे मायग्रेन या शंख-शूल के रूप मे देखा जा सकता है ...

साथ में छर्दि के बाद इस से शिरःशूल का उपशम होना , गलदाह , उरोदाह , उदर दाह. कटु तिक्त अम्ल उद्गार  अम्लपित्त , ॲसिडिटी, गॅस्ट्रायटिस, गॅस्ट्रिक अल्सर, पेप्टिक अल्सर , डीओडीनायटिस , कोलाइटिस , हेमरॅजिक कोलाइटिस, परिकर्तिका, भगंदर, सरक्त अर्श, मलावरोध, ऐसे महास्रोतस् से संबंधित लक्षण पेशंट मे हो सकते है ...

इसी के साथ हस्तपाददाह, गुददाह, मूत्र दाह, नेत्रदाह या आरक्तता ऐसे भी लक्षण मिलते है

सरकता मलप्रवृत्तीसरक्तमूत्रता अति रजःस्राव दीर्घकालीरजःस्राव डी यु बी स्पॉटिंग ऐसे भी लक्षण इसमे प्राप्त होते है 

इसी के साथ अनिद्रा संतापी स्वभाव चिडचिडापन इरिटेबिलिटी अति संवेदनशीलता हायपरसेंटिव्हिटी रॅश विस्फोट मुखदूषिका युवानपिडका तारुण्यपिटीका ॲक्ने पालित्य केशपतन डॅन्ड्रफ टॉन्सिलायटिस ओटायटिस नासागत रक्तपित्त अर्थात एपीस्टॅक्सिस मुखपाक स्टोमॅटायटिस विसर्प हर्पिस त्वचारोग फंगल इन्फेक्शन ऐसे भी लक्षण इसमे प्राप्त होते है

या फिर जागरण उपवास निद्रा का अभाव अनिद्रा अति कटू सेवन आतपसेवन कलहप्रियता झगडाळू स्वभाव इंट्रोव्हर्ट स्वभाव अति महत्वाकांक्षा स्ट्रेस प्रक्षोभ इरिटेशन प्रेशर डेडलाईन हेस्ट घाई गडबड जल्दी हरी वरी फ्रस्ट्रेशन नैराश्य डिप्रेशन अवसाद सुपेरीयोरिटी कॉम्प्लेक्स इन्फिरिऑटी कॉम्प्लेक्स भयगंड न्यूनगंड अतिगंड शोक भय द्वेष ईर्ष्या मत्सर असूया जेलसी स्पर्धा फोमो हार का भय है ऐसे निदान का भी प्रभाव यकृत औष्ण्य के रूप मे प्रतीत होता है 

.. तो यकृत औष्ण्य एक बहुउपयोगी परीक्षण है, जो आपको उपस्थित या संभाव्य निदान या लक्षण इनका दिग्दर्शन करता है ... साथ ही अगर यकृत स्थान पर राईट हायपोकॉनड्रिक एरिया पर पर्कजन करे तो आकाशीय या नॉन सॉलिड = हॉलो इस प्रकार के नाद आवाज साऊंड आते है, ऐसे रुग्ण मे बुद्धी विचार भावना विषयक अतियोग हीनयोग या मिथ्यायोग होते है या सम्यक योग नही होता है (थिंकिंग इमोशन अँड इंटेलेक्चुअल लेव्हलपर हायपो/हाइपर या अब्युज इस प्रकार का संभावना होता है) 

ऐसे सभी पेशंट मे फलत्रिकादी या फ इनका प्रयोग दातार शास्त्री के पांचभौतिक चिकित्सा मे बताया जाता है 

किंतु फ या फलत्रिकादि गुग्गुल के रूप मे प्रयोग करना यह उतना उचित नही, क्योंकि गुगुल स्वयं उष्ण लेखन रूक्ष कषाय कटु तिक्त इस प्रकार का अपतर्पण द्रव्य है 

और तो और जितना गुग्गुल युक्त टॅबलेट/पिल्स भारत में फार्मसी द्वारा निर्मित होता है, उतना गुग्गुल निर्माण होना तो पूरे विश्व मे भी संभव नही है. 

इस कारण से प्रायः अनेक फार्मर्सियों को अपनी सभी टॅबलेट या पिल्स एक समान युनिफॉर्म लगे दिखे , इसलिये उसमे चारकोल और गम अकेशिया बबूल के निर्यास का प्रयोग करना पडता है. इस कारण से, गुग्गुल के बजाय गम अकॅशिया और चारकोल की बजाय, यह अच्छा है कि फलत्रिकादी जो मूल स्वरूप मे वाग्भट और चरक संहिता मे वासागुडूच्यादि इस रूप मे पांडु चिकित्सा में उल्लेखित है इन 6/8 द्रव्यों के योग का सप्तधा बलाधान टॅब्लेट बनाकर उसका प्रयोग करे

वह्निसाध्यवटीनिर्माणविधिः 

लेहवत्साध्यतेवह्नौ गुडो वा शर्करा तथा 

गुग्गुलुर्वाक्षिपेत्तत्र चूर्णं तन्निर्मिता वटी 


अवह्निसाध्यवटीनिर्माणविधिः 

कुर्यादवह्निसिद्धेन क्वचिद् गुग्गुलुना वटीम् 

द्रवेण मधुना वाऽपि गुटिकां कारयेद् बुधः


वटिकायां गुडशर्करामाननिर्णयः 

सिता चतुर्गुणा देया वटीषु द्विगुणो गुडः 

चूर्णाच्चूर्णसमः कार्योगुग्गुलुर्मधु तत्समम् 

द्रवं च द्विगुणं देयं मोदकेषु भिषग्वरैः

गुटी वटी निर्माण मे, केवल चूर्ण से ... या चूर्ण मे उसी चूर्ण की द्रव्य से अर्थात भावना से अर्थात क्वाथ से गुटी वटी बनाई जा सकती है, ऐसे शारंगधर मध्यमखंड अध्याय लिखा है

इस कारण से फलत्रिकादि या वासागुडूच्यादि बनाते समय , उसी के चूर्ण को , उसी के क्वाथ की सात भावना देकर सप्तधा बलाधान टॅबलेट प्रयोग मे लाना, अधिक उपयोगी हे, निश्चित रूप से ✅️

फलत्रिकादि, जो मूल स्वरूप मे वासागुडूच्यादि योग है संहिताओं का... उसमे निम्न घटक द्रव्य है 

वासागुडूचीत्रिफलाकट्वीभूनिम्बनिम्बजः। 

अगर ठीक से देखा जाये, तो ये घटक द्रव्य कल्पशेखर भूनिंबादि से मिलते जुलते है, दो तीन द्रद्रव्यों को अगर इसमे जोड दिया जाये / निकाल जा निकाल दिया जाये, तो भूनिंबादि और वासागुडूच्यादि मिलकर एक नया रक्तप्रसादक पित्तशामक अग्नि संतुलक योग बन सकता है ... कल्पशेखर भूनिंबादि के संदर्भ मे हमने विस्तृत संभावनाये उजागर करने वाला लेख पहले ही प्रसृत किया है, जिसकी लिंक नीचे दी हुई है 

✍🏼 कल्प'शेखर' भूनिंबादि एवं शाखाकोष्ठगति, छर्दि वेग रोध तथा ॲलर्जी

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/12/blog-post.html

तो अगर दोनो योगों के घटक द्रव्य देखे जाये तो

वासागुडूचीत्रिफलाकट्वीभूनिम्बनिम्बजः। 

क्वाथः क्षौद्रयुतो हन्ति पाण्डुपित्तास्रकामलाः॥

&

भूनिंब निंब त्रिफला पटोल वासाऽमृता पर्पट मार्कवाणाम् 

क्वाथः क्षौद्र युतो हन्त्यम्लपित्तम्

वासागुडूच्यादि मे पटोल पर्पट मार्कव समावेश नही है , और

  भूनिंबादि मे कटुकी का समावेश नाही

तो केवल भूनिंबादि क्वाथ में कटुकी का समावेश किया जाय तो एक उत्तम कल्पशेखर भूनिंबादि प्राप्त हो सकता है ... जो अत्यंत ब्रॉडस्पेक्ट्रम मे पित्त रक्त अग्नि जन्य लक्षणे व तत्समान निदान सेवन जन्य रोग में उपयोगी होता है 


कल्पशेखर भूनिंबादि 👇🏼


वासागुडूच्यादि 👇🏼



अभी तो वासागुडूच्यादि और भूनिंबादि ये दोनो टॅबलेट मूल रूप मे सप्तधा बलाधान विधी से निर्मित करके म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurved द्वारा, वैद्य सन्मित्र के लिए उपलब्ध की गई है ✅️

अन्य भी 21 औषधे कल्प, जो FDA APPROVED & GMP CERTIFIED नुसार निर्मित,  नवीनतम अभिनव योगों की सूची, प्राईस, एवं तत्संबंधी ऑनलाइन लेखों की लिंक के लिये 7bt price list इस प्रकार से व्हाट्सअप मेसेज करे 9422016871 इस नंबर पर

Articles about a few medicines that we manufacture

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पूर्वप्रकाशित 

अन्य लेखों की 

ऑनलाईन लिंक👇🏼


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The BOSS !! VachaaHaridraadi Gana 7dha Balaadhaana Tablets 

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/blog-post.html

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वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट : डायबेटिस टाईप टू तथा अन्य भी संतर्पणजन्य रोगों का सर्वार्थसिद्धिसाधक सर्वोत्तम औषध


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कल्प'शेखर' भूनिंबादि एवं शाखाकोष्ठगति, छर्दि वेग रोध तथा ॲलर्जी

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/12/blog-post.html


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वेदनाशामक आयुर्वेदीय पेन रिलिव्हर टॅबलेट : झटपट रिझल्ट, इन्स्टंट परिणाम

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/10/blog-post.html


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स्थौल्यहर आद्ययोग : यही स्थूलस्य भेषजम् : त्रिफळा अभया मुस्ता गुडूची

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/06/blog-post.html


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क्षीरपाक बनाने की विधि से छुटकारा, अगर शर्करा कल्प को स्वीकारा

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/blog-post_25.html


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ऑलिगो एस्थिनो स्पर्मिया oligo astheno spermia और द्रुत विलंबित गो सप्तधा बलाधान टॅबलेट

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/06/oligo-astheno-spermia.html


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Monday, 10 February 2025

आयुर्वेद version 4.0

आयुर्वेद version 4.0

आमचे म्हणणे असे की 4000 वर्षंपूर्वी 

जेव्हा शरीराच्या आत प्रत्यक्ष काय चालले आहे 

हे कळू शकत नव्हते दिसू शकत नव्हते 

तेव्हा केवळ तर्काच्या आधारे जे लिहिले गेलेले आहे की, स वायुः कुपितोऽग्नावुपहते *मूत्रस्वेदौ पुरीषाशयमुपहृत्य* 😇, ताभ्यां पुरीषं द्रवीकृत्य, अतीसाराय प्रकल्पते ।

 मूत्र आणि स्वेद हे पुरीष आशयात येतात 🤔⁉️

अशा प्रकारचा वस्तुस्थिती जन्य पुरावा ज्याला "असू शकत नाही" 

*अशा बाबी सोडून द्याव्यात*, 

आणि खरोखरच अशा गोष्टी वाग्भटाने सोडून दिलेल्या आहे 


यालाच शास्त्राचे अपडेटिंग, अद्ययावतीकरण, आधुनिकीकरण , युगानुरूप संदर्भ, प्रतिसंस्कार असे म्हणतात 


कितीही आदळ आपट केली तरी मूत्र आणि स्वेद हे पुरीषाशयात येणारच नाहीत, 

हे आज आपल्याला स्पष्टपणे माहिती आणि मान्य दोन्हीही आहे 


आता शल्याहरण अध्यायामध्ये दोरीला शल्य बांधून ती दोरी वाकलेल्या झाडाच्या फांदीला बांधून शल्य काढावे असे लिहिले म्हणून मग आजही त्यालाच घट्ट धरून बसणार का ?


शल्य शोधण्यासाठी लेप लावावा तूप ठेवावे लेप वाळेल तूप पातळ होईल तेथे शल्य असे समजावे असल्या गोष्टी आजही घट्ट धरून ठेवणार का? का x ray सोनोग्राफी MRI करून बघणार???


लिहिण्याचा उद्देश हाच होता की 

*मूत्र आणि स्वेद पुरीषाशयात येतात , असं काहीही होत नाही* हे आजच्या विद्यार्थ्यांना स्पष्ट सांगा की ...

जे वाग्भटाने सांगितलं आहे 


वाग्भटाने, चरकातील अशा घटनेचा उल्लेख टाळला आहे 

यालाच आयुर्वेद वर्जन 3.0 असं म्हणतात 

आयुर्वेद वर्जन 3.0 = वाग्भट 

वाग्भट = (चरक + सुश्रुत) ÷ smartness 

बरं...

एक वात दुसऱ्या भावाला तिसऱ्या आशयात घेऊन येतो, याच्या उदाहरणासाठी जे उदाहरण दिलं मधुमेहाचं च सू 17 ... त्याच्याविषयी तर मला ठाम शंका आहे , जाम शंका आहे ...

तुम्ही उदाहरण दिलं, याबद्दल मला काही म्हणायचं नाहीये 


अरे पण ते एकातरी माणसाने मागच्या चार हजार वर्षात मूत्रामध्ये आलेले ओज एकदातरी प्रत्यक्ष पाहायला हवं होतं ना ???

तरच त्याला तो मधुमेह म्हणेल 


ऐटीत थाटात आत्मविश्वासाने मधुमेह हे निदान लिहायचं 

आणि पेशंटच्या मूत्रामध्ये ओज कोणीही पाहिलेलेच नाही, हा जर 4000 वर्षांचा इतिहास असेल, 

तर त्या मधुमेह नावाच्या संज्ञा आणि त्याच्या संबंधित लक्षणाला काही अर्थ आहे का? 


तीच बाब त्या प्रमेहाची !!!


प्रभूत मूत्रता आविल मूत्रता म्हणायचं 

मूत्राचं प्राकृत प्रमाण किती, हेच माहीत नसेल ?

तर किती मूत्राला प्रभूत म्हणावं हे ठरू शकत नाही... 


आणि ते ठरू शकत नसेल तर त्याच्या आधारे होऊ शकणार प्रमेह नावाचं निदान होऊ शकत नाही 


उभ्या भारतातला आज एक तरी वैद्य एकातरी पेशंटचं मूत्राचं दिवसभराचं प्रमाण हे प्रभूत आहे, म्हणून प्रमेह निदान करू शकणार आहे का? 


समजा कोणी केलंच तर त्याला साष्टांग नमस्कार🙏🏼 घालूया 


पण "ते तसं केलेलं प्रमेह हे निदान निदान (withoutBSL report)" आज पेशंटला आजच्या सामाजिक स्थितीत स्वीकार्य ॲक्सेप्ट मान्य होणार आहे का ???


आणि उद्या तुम्ही तसं निदान त्या केलेल्या त्या पेशंट ला सांगितलं की तुझा प्रमेह बरा झालाय (withoutBSL report) तरी 

त्या पेशंटला ते पटणार समजणार कळणार मान्य स्वीकार्य होणार आहे का? 


मग अशा "अमेय" म्हणजे नॉन मेजरेबल नॉन काउंटेबल प्रभूत मूत्रता या लक्षणावर आधारलेलं "प्रमेह निदान" आणि ज्या ओजाला आजपर्यंत कोणी मूत्रात बघितलंच नाहीये, ते "मधुमेह निदान" *हे कालबाह्य आहे* ... असं स्पष्टपणे सांगण्याचं काम कोणाचं आहे ???

प्रॅक्टिस करणारे वैद्यांचं नसलं तर ...

आयुर्वेद संहिता शिकून एमडी केलेल्या संहिता शिकवणाऱ्या माणसांचं नक्की आहे ना ???


जो वायू इथून तिथून एकच आहे 

त्या वायूचे एकमेकांवरती आवरण होतं 

ही किती हास्यस्पद संकल्पना आहे??? 


काही अशी लक्षणे त्याकाळी आचार्यांना दिसले असतील की ज्याची उत्तरं त्यांना नेहमीच्या दोष धातू मल अग्नी या परिभाषेत सुसंगतपणे मांडता आले नाहीत 

म्हणून त्यांनी एक तर्क्य अनिर्देश्य अनुमान गम्य अंदाज पंचे आवरण नावाची संकल्पना मांडली 


बरं, त्या आवरण संकल्पनेची लक्षणे, आवरक किंवा आवृत अशा , सबल किंवा दुर्बल भावाशी, प्रत्येक वेळेला सुसंगतपणे जुळतात असे होत नाही 


बरं, कितीही आवरण निदान केलं तरी 

तद्गत आवरणाचे चिकित्सा 

जर पुन्हा जाऊन तद्गत वाताप्रमाणेच करायची असेल,


तर त्या आवरण नावाच्या निदानाचं वैशिष्ट्य आणि प्रयोजन आणि वेगळेपण काय शिल्लक उरतं ???


संपूर्ण शरीरात वात एकच आहे 


तो आमच्या "समजुती"साठी 'उपाधी' म्हणून प्राण अपान उदान असा सांगितला आहे 


जसे दिशा एकच आहे पण ती आमच्या संदर्भाने समजूतीने पूर्व पश्चिम समोर मागे वरती खालती अशी होते 


काळ हा एकच आहे पण तो आमच्या सोयीसाठी समजूतीसाठी भूत भविष्य वर्तमान दशविध औषध काल दिवस रात्र वसंत ग्रीष्म शरद असा होतो 


प्रत्यक्षात काळ हा एकसंध सलग एकच आहे 


त्यामुळे दिवसाचे रात्रीवर आवरण 

वसंताचे ग्रीष्मावर आवरण 

भूतकाळाचे भविष्यकाळावर आवरण 

पूर्वेस पश्चिमेवर आवरण 

ईशान्येचं आग्नेय वर आवरण 

ऊर्ध्व दिशेचे अधो दिशेवर आवरण

असलं काहीही होत नसतं ...

असं ठामपणे आजच्या काळामध्ये युगानुरूप संदर्भ म्हणून निश्चितपणे सांगायलाच हवं आहे 



बरे जाता जाता हे ही सांगून ठेवतो की चरक म्हणताना म्हणतो की मी बारा आवरणे सांगितली ... आठ तुम्ही समजून घ्या 

पण नीट मोजा ...

प्रत्यक्ष आठच आवरणं त्याने सांगितलीत 

आणि बारा तुम्हाला समजून घ्यायला सोडून दिलीत😇 


थोडक्यात काय तर चरक ही एक कालबाह्य संहिता आहे / होती


त्याच्यावरती युगानुरूप संदर्भ म्हणून 

वाग्भटाने "उचित संस्कार करून", 

एक चरकाच्या तुलनेत , निर्दोष संहिता आयुर्वेद version 3.0 तुमच्या हाती दिलेली आहे , अष्टांगहृदय (&/or अष्टांग संग्रह) ...

ती वापरा 

आयुर्वेद वर्जन 3.0 = वाग्भट 

वाग्भट = (चरक + सुश्रुत) ÷ smartness 

डायल क्रेडल टरटर करणारा फोन सोडून ,

तुम्ही नोकियाच्या बारा बटनांच्या फोनपर्यंत आले होते 


त्याच्यात सुधारणा करून , आता तुम्हाला स्मार्टफोन दिला आहे 


असे असताना आम्ही पुन्हा टरटर डायल क्रेडलचाच फोन वापरणार, असा अट्टाहास हास्यास्पद आहे 


म्हणून वाग्भट सोडून 

उलट पुन्हा 2000 वर्षे भूतकाळात चालत जाऊन चरक संहितेच्या मागे लागणं 

ही हास्यास्पद गोष्ट आहे ... अनावश्यक गोष्ट आहे ...

असं आपणच आता ठामपणे संहिता विभागाच्या लोकांनीच, *"किमान नव्या पिढीला"* तरी सांगायला पाहिजे 


आपली समकालीन समवयस्क आणि आपली ज्येष्ठ पिढी ते मान्य करणार नाही ,

ही वस्तुस्थिती आहे 

पण काळाच्या ओघात स्वभावोपरम वादा नुसार आपली ज्येष्ठ पिढी आणि आपली समवयस्क समकालीन पिढी ही नष्ट होणार आहे 


त्यामुळे पुढच्या पिढीला अपडेटेड आयुर्वेद version 3.0 म्हणजे वाग्भट कळू दे 

आयुर्वेद वर्जन 3.0 = वाग्भट 

वाग्भट = (चरक + सुश्रुत) ÷ smartness 

त्यांच्या डोक्यात कारण नसताना चरकातले गोंधळ घालू नयेत 


चरकाने आयुर्वेदात आवश्यकता नसताना दर्शन प्रमाण तत्त्वज्ञान स्टेजवर कसं बोलावं असल्या अनेक आयुर्वेद बाह्य विषयांची भरताड ही आयुर्वेदाच्या पुस्तकात करून ठेवलेली आहे 


परंतु हा सगळा पसारा सुश्रुतामध्ये केवळ एका अध्यायात गुंडाळण्यात आला सु शा 1 मध्ये 


*आणि वाग्भट अशा पसाराकडे पूर्णतः दुर्लक्ष करतो


याचा अर्थ आयुर्वेदाचे अपडेटिंग = त्यातील अनावश्यक भाग गाळणे आणि उपयोगी शास्त्रीय भाग तेवढाच शिल्लक ठेवणे

अशी प्रक्रिया निरंतरपणे चालू होती 


पण आपण *अनावश्यक त्या अशास्त्रीय श्रद्धा भक्ती अशा भावनां पोटी* ... "बुद्धी आणि विचार बाजूला ठेवून"

अपडेटेड असलेला आयुर्वेद version 3.0 बाजूला ठेवून 

अपडेटेड आयुर्वेदापेक्षा जुनाट 2000 वर्षांचा चरक (आयुर्वेद version 1.0) वाचून स्वतःचा आणि आपल्यापुढे विश्वास ठेवून ज्ञानार्जन करायला बसलेल्या विद्यार्थ्यांचा गोंधळ करतो.


 त्यामुळे चरक सोडून, आधी वाग्भट वाचावा 

आयुर्वेद वर्जन 3.0 = वाग्भट 

वाग्भट = (चरक + सुश्रुत) ÷ smartness 

आणि वाग्भट वाचून ...

त्यातल्याही कालबाह्य गोष्टी वगळून सोडून गाळून...


आजच्या युगाला सुसंगत अशी नवीन हेतुस्कंधाची नवीन लक्षणस्कंधाची निर्मिती करून...

कालबाह्य अशी चरकातल्या चिकित्सेतली औषध स्कंध चा त्याग करून 

नवा औषध स्कंध आजच्या काळाला सुसंगत असा आयुर्वेद version 4.0 लिहून देणे ,

हे संहितेच्याच लोकांचं काम आहे 


भले ते आजच्या अस्तित्वात असलेल्या आपल्यापेक्षा ज्येष्ठ आणि आपल्या समकालीन समवयस्क वैद्यांना पटणार नाही ...आवश्यकही वाटणार नाही 

परंतु ते पुढे येणाऱ्या 20 30 50 100 वर्षातल्या पिढीसाठी निश्चितपणे उपयोगी ठरेल 


आजही आपल्या वरच्या पिढीला कॉम्प्युटर मोबाईल यूपीआय यांची आवश्यकता वाटत नाही 


पण आजच्या पिढीचं त्याच्या विना काहीही चालत नाही ... हेही माहिती हवं 


म्हणून समवयस्कांना समकालीनांना आणि ज्येष्ठांना चरका बद्दल आणि वाग्भट बद्दल फार आदर आहे, म्हणून चरकाला चिकटून राहणे आणि वाग्भट वाचत राहणे ...

यापेक्षा ते सगळं ज्यांनी वाचलेय, 

अशा संहितेच्या (क्षमता असलेल्या) लोकांनी युगाची काळाची गरज म्हणून ...

1.नवा हेतू स्कंध , 2.नवा लक्षणस्कंध आणि हो हो नवा औषध स्कंध सुद्धा... नव्या संहितेत *इंग्लिश मध्ये लिहिला पाहिजे

... _संस्कृत मध्ये नव्हे_

Friday, 7 February 2025

षड्धरण : काही प्रश्न , निरीक्षण व उत्तर

षड्धरण : काही प्रश्न , निरीक्षण व उत्तर  


चित्रकेन्द्रयवे पाठा कटुकाऽतिविषाऽभया । 

वातव्याधिप्रशमनो योगः षड्धरणः स्मृतः ।।

सुश्रुत 👆🏼


षड्धरणयोगः सङ्ग्रहादेवावगन्तव्यः। तत्रैवं पठ्यते (चि. अ. २१)- \"दार्वीकलिङ्गकटुकातिविषाग्निपाठा


दार्वी कि अभया ???


In a formula from a South Indian pharmacy, 

there is daarvi not abhaya ... (& ativisha is replaced by mustaa)


Reference given by this pharmacy is अष्टांगहृदय ...

but in अष्टांगहृदय there is no Reference of षड्धरण contents. 

It is mentioned in teekaa, which quotes Reference from अष्टांग संग्रह.  


But in अष्टांग संग्रह again, there is again no Reference which quotes contents of षड्धरण. 


The explanation of contents comes in teekaa which referes to daarvi etc shloka in AS Chi 21 Kushtha ... 


where this daarvi etc shloka doesn't say that this is षड्धरण. 


& where ever षड्धरण word appears , there contents are not mentioned 


In another pharmacy from south India, in 6dharana formula, there is abhaya and ativisha

This is as per Su Chi 4/1 वातव्याधि.


Hence the query was posted


What is the actual practice by vaidyas and pharmacy 🤔⁉️


1.

कटुकाऽतिविषा क्षपा\" इति केचित् 


असे सुश्रुत चिकित्सा 4 श्लोक 1 या षड्धरणाच्या श्लोकाच्या टीकेत डह्लणाने लिहिलेले आहे.


 क्षपा याचा अर्थ हरिद्रा असा होतो, त्याच्यावरून *अभया ऐवजी दारुहरिद्रा* असा मतप्रवाह त्याकाळी ही अस्तित्वात असावा असे दिसते.


2.

बहुधा, ग्रंथाची जी छापील प्रत आहे त्याच्या फूट नोटमध्ये सुश्रुताच्या शिवदाससेन टीका किंवा अष्टांगहृदय गुटका/गुटी(= म्हणजे मूळ फक्त संस्कृत लोकांचं पामटॉप साईज पुस्तक) याच्यावर ताराचंद शर्मा यांनी फुटनोट्स टिप्पणी लिहिलेले आहेत. त्याच्यात *कटुकाऽतिविषा"वचा"* असेही वाचल्याचं पुसटसं स्मरतंय!ज्यांच्याकडे हार्ड कॉपी प्रिंट असेल, त्यांनी पडताळणी करून पहावी. 


3.

त्यामुळे षड्धरणामध्ये चित्रक इंद्रयव पाठा कटुकी अतिविषा पाच समान घटकांच्या नंतर... *सहावा घटक अभया/ दार्वी/ वचा असे तीन विकल्प आहेत*, असे दिसते. 


4.

हे तीनही घटक वचाहरिद्रादि मध्ये आहेत आणि षड्धरणाचा विकल्प म्हणून आमाशय गत वातामध्ये वचादि हरिद्रादि यांचा उल्लेख अष्टांग हृदय /संग्रह मध्ये आहे

आयुर्वेद शास्त्राच्या आधुनिक विकासाचा पाया किंवा दिशा

आयुर्वेद शास्त्राच्या आधुनिक विकासाचा पाया किंवा दिशा


1.

निरपायि & ब्रॉडस्पेक्ट्रम (म्हणजे बहुकल्प बहुगुण संपन्न योग्य) असं सर्व एकाच वेळी ज्यामध्ये असू शकेल, 

असे कल्प "वापरात वितरणात उपलब्धतेत" आणणं, हे आवश्यक आहे 


2.

आणि त्याच वेळेला ते "पॅलेटेबल ट्रान्सपोर्टेबल ॲफाॅर्डेबल" असतील, असेही पाहायला हवं.


3.

 वचाहरिद्रादि गण हा अतिशय *संतुलित असा संतर्पणजन्य रोगांवरचा सर्वार्थसिद्धीकारक कल्प* आहे.


https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/blog-post.html

वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट : डायबेटिस टाईप टू तथा अन्य भी संतर्पणजन्य रोगों का सर्वार्थसिद्धिसाधक सर्वोत्तम औषध


4.

जरी त्यातील *वचा हरिद्रा मुस्ता शुंठी हे कंद स्वरूपात असलेले उग्र वीर्य 4 घटक अत्यंत कार्मुक आहेत*... तरीही त्यांच्या उग्र वीर्यतेचा *धातुप्रक्षोभकारक दुष्परिणाम होऊ नये* म्हणून त्याच्यामध्ये इंद्रयव पृष्णिपर्णी यष्टी अशा प्रकारची स्निग्धद्रव्य सुद्धा आलेली आहेत.


5.

अशाच प्रकारे अपतर्पणजन्य रोगांसाठी ही संतुलित औषध कल्प "व्यवहारात वितरणात आणि उपलब्धतेमध्ये" आणायला हवा


त्यादृष्टीने *विदार्यादी गण* हा उपयोगी आहे 


6.

याच पद्धतीने उष्ण तीक्ष्ण या गुणांच्या वीर्यांच्या व तज्जन्य लक्षण रोग संप्राप्ति यांच्या विरोधात *सारिवादी गण किंवा नुसतं यष्टी सारिवा सप्तधा बलाधान* हे अशाच प्रकारे "बहुकल्प बहुगुण संपन्न योग्य प्रक्षोभनाशक प्रसादक" औषध कल्प म्हणून व्यवहारात वितरणात आणि उपलब्धतेत आणता येईल.


7.

सारिवादि गणातील अन्य द्रव्ये ही उपलब्धतेच्या दृष्टीने थोडी दुष्कर आहेत. त्यामुळे पहिले द्रव्य सारिवा आणि अंतिम द्रव्य यष्टी या दोनच द्रव्यांनी सारिवादि गणाची संपूर्ण फलश्रुती लाभू शकते, असा काही लाख *यष्टी सारिवा सप्तधा बलाधान टॅबलेट* उपयोगात व वितरणात आणल्यानंतर अनुभवाला आलेले आहे.


https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/07/blog-post_6.html

सारिवादि/यष्टी+सारिवा *Stress, Irritation & Cancer स्ट्रेस अर्थात क्षोभ उद्वेग इरिटेशन ताण तणाव टेन्शन प्रेशर दडपण दबाव ... तथा कॅन्सर*


8.

मुख्य जी आठ वीर्य आहेत... गुरु स्निग्ध शीत मृदु आणि त्यांच्या विपरीत लघु रुक्ष तीक्ष्ण उष्ण या *आठ वीर्यांच्या विपरीत आठ कल्प* सर्वस्वीकृत उपलब्ध व व्यवहारात वितरणासाठी सिद्ध होणे आवश्यक आहे.


9.

औषधांची संख्या जितकी नेमकी निवडक (प्रिसाईज कन्साईज सिलेक्टेड) असेल आणि त्या बरोबरीने ती औषध जितकी "बहुकल्प बहुगुण संपन्न योग्य" या संहितोक्त चतुष्पादा/गुणां बरोबरच *पॅलेटेबल ॲफाॅर्डेबल ट्रान्सपोर्टेबल* असतील तितकं *आधुनिक औषध कंध हा वैद्य आणि रुग्ण दोघांसाठी उपकारक होऊ शकणार आहे* 


10.

जसे आठ वीर्यांच्या दृष्टीने विचार करता येईल ...

तसंच तो पंच5महाभूत ... खरंतर चारच 4महाभूत... आकाश हे डिस्पेन्सिबल नाही , तर म्हणून त्याचा विचार करणे, आवश्यक नाही. पृथ्वीची उपस्थिती आणि अनुपस्थिती म्हणजे आकाश महाभूत ... असे ते सापेक्ष / पॅसिव्ह आहे . असो 


11.

... तर आठ वीर्यांच्या विचाराप्रमाणेच ,

चार महाभूतांच्या विचाराने म्हणजे पृथ्वी जल अग्नि वायु (आकाश❌️) यांच्या वृद्धी आणि क्षय यासाठीची औषधं कल्प सिद्ध व स्वीकृत होणे आवश्यक आहे.


12.

थोडे पुढे जाऊन संपूर्ण आयुर्वेदीय निदान चिकित्सेचा जो पाया आहे, तो वाग्भट सूत्र स्थान 14, जिथे उपक्रम्य म्हणजे ज्याच्यावर उपचार करायचे आहेत, त्या दोनच गोष्टी आहेत (वृद्धि क्षय) आणि म्हणून तद्विपरीत उपचार या अर्थी चिकित्सा सुद्धा किंवा उपक्रम सुद्धा दोनच आहेत ते म्हणजे लंघन बृंहण अर्थात अपतर्पण आणि संतर्पण


13.

आणि हे दोन उपचार *भौमापम् आणि इतरत्* ... म्हणजे पृथ्वी+ जल आणि अग्नी+ वायू या गटांमध्ये विभागलेले आहेत. म्हणून खरंतर पृथ्वीजल वाढवणारे घटवणारे आणि अग्नी वायू वाढवणारे घटवणारे असे *चारच औषधी कल्प* हे खऱ्या अर्थाने मूलभूत चिकित्सा याअर्थी आवश्यक आहेत आणि त्यांचं डिझाईन त्यांचं वितरण त्यांची उपलब्धता आणि त्यांची स्वीकृती हा आयुर्वेद शास्त्राच्या आधुनिक विकासाचा पाया किंवा दिशा ठरू शकेल


वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

9422016871