सूतशेखर : वास्तविक मूल्यांकन
सभी वैद्यों के आयुर्वेदिक चिकित्सकों के प्रॅक्टिस मे प्रायः हा सर्वाधिक लोकप्रिय सर्वाधिक उपयोग मे आने वाला रसकल्प सूतशेखर है.
इसका रोगाधिकार अम्लपित्त है
और इसका उल्लेख योग रत्नाकर मे है
जहा पर योग रत्नाकर ने यह सार संग्रह से लिया है ऐसा संदर्भ स्वयं लिखा है
अथ सूतशेखर रसः सारसंग्रहात्
शुद्धं सूतं मृतं स्वर्ण टङ्कणं वत्सनागकम् ।
व्योषमुन्मत्तबीजं च गन्धकं ताम्रभस्मकम् ॥ १ ॥
चतुर्जातं शङ्खभस्म बिल्वमज्जा कचोरकम् ।
सर्व समं क्षिपेत्खल्वे मर्छ भृङ्गरसैर्दिनम् ॥ २ ॥
गुञ्जामान्नां वीं कृत्वा द्विगुञ्ज मधुसर्पिषी ।
भक्षयेदम्लपित्तघ्नो वान्तिशूलामयापहः ॥ ३॥
पञ्च गुल्मान्पञ्च कासान्ग्रहण्यामयनाशनः ।
त्रिदोषोत्थातिसारघ्नः श्वासमन्दाग्निनाशनः ॥ ४ ॥
उग्रहिक्कामुदावतं देहयाप्यगदापहः ।
मण्डलान्नात्र संदेहः सर्वरोगहरः परः ।
राजयक्ष्महरः साक्षाद्रसोऽयं सूतशेखरः ॥५॥
इति सूतशेखरो रसः ।
अम्लपित्त रोगाधिकार मे आनेवाला यह, तीन रसकल्प मे से, अंतिम कल्प है.
तीनो रसकल्प मे पारद गंधक है
दो मे ताम्र है
पहला कल्प लीला विलास में त्रिफला और भृंगराज दोनों की 25 भावना है
दूसरा कल्प रसामृत में भावना नही है
और यह तिसरा और अंतिम कल्प सूतशेखर इसमे भृंगराज की अकेले के भावना है
अम्लपित्त यह कफ पित्त, जल अग्नि, क्लेद इस प्रकार की स्थिति है ... तो अर्थात इसका चिकित्सा तत्त्व, कफ पित्त हर, जल अग्नी हर, क्लेदनाशक क्लेदशोषक रूक्ष इस प्रकार का होता है. इसमे आदर्श रूप मे तिक्त रस की औषधिया योग्य होती है
समान मात्रा मे सुवर्णभस्म कोई भी इस कल्प मे प्रयोग नही करता है. जिन लोगो ने सुवर्ण सूतशेखर इस प्रकार से अधिकृत मान्यता ली हुई है, वे भी एक शतांश इतनेही प्रमाण मे 1% इतनेही अत्यल्प = नगण्य प्रमाण में, सुवर्ण भस्म का कल्प मे समावेश करते है, फिर भी उन्हे ग्रंथोक्त अधिकृत सुवर्ण सूतशेखर ऐसी संज्ञा प्रयोग करने की "शासकीय अनुमती" प्राप्त है, किंतु यह "शास्त्रीय नही है", यह कोई भी जान/समझ सकता है.
समान मात्रा मे स्वर्ण भस्म कल्प में समाविष्ट करना किसी के भी लिये, कॉस्ट की दृष्टि से संभव नही है. यह अत्यंत एक्सपेन्सिव्ह काॅस्टली महार्ह हो जायेगा! इसलिये सुवर्ण सूतशेखर "कहना तो है", किंतु उतनी मात्रा में स्वर्ण भस्म तो डालना ही नही है.
केवळ 1% डालकर, "शास्त्रीय संज्ञा का लाभ लेना" है यह ॲड्जस्टमेंट और दुर्दैव से "अनैतिक व्यापार" ही है!!!
अभी सामान्य रूढी ऐसी है की यद्यपि सूतशेखर का मूल पाठ मे सुवर्ण भस्म का उल्लेख है, तथापि मार्केट मे प्रॅक्टिस मे *सादा सूतशेखर* के नाम से *सुवर्ण भस्म विरहित, सूतशेखर* का बहुशः प्रयोग होता है, क्योंकि "वह सस्ते मे मिलता है".
अभी प्रथम प्रश्न यह है की, सूतशेखर मे मूल पाठ मे 14/17 घटकद्रव्य है जिनका समसमान प्रमाण लेना है 14/17 मे से यदि स्वर्णभस्म को हटा दिया जाये, "और तो भी प्रॅक्टिस मे तथाकथित अच्छे रिझल्ट आते रहते है", तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि यदि सुवर्णभस्म जैसे महत्वपूर्ण घटक को हटाकर भी, यदि रिझल्ट मिलते है, तो पारद गंधक ताम्र वत्सनाभ टंकण ऐसे विष सदृश और जिनका प्रायः है शरीर मे शोषण, पचन , धातू में रूपांतर होना , असंभव दुष्परिणामकारक है, ऐसे घटकों को निकाल दिया जाये तो त्रिकटु बिल्वमज्जा कचोरक और शंख भस्म ये मूल घटकद्रव्य, चूर्ण के रूप मे और भ्रंगराज रस भावनाद्रव्य के रूप मे शेष रहता है ... यह शेष रहने वाले घटक द्रव्य, जिनको हटा देना उचित है ऐसे विशेष केमिकल घटक द्रव्य की तुलना मे, सुरक्षित और आरोग्यकारक है , और उन का निश्चित रूप से शरीर की धातू मे परिणमन, शरीर मे शोषण / एबसॉर्पशन , पचन होता है.
पहला घटक द्रव्य , "शुद्ध सूत" अर्थ "शोधन किया हुआ पारद" इतना ही पर्याप्त है. वस्तूतः केमिस्ट्री के दृष्टि से पारद यह एक मेटल है, जो सामान्य तापमान में भी द्रव अवस्था मे होता है, किंतु यदि यह मेटल है, तो इसका भस्म होना मारण होना अत्यावश्यक है, क्योंकि पारद की तुलना मे , जो अन्य मेटल= धातू= लोह है, इनका प्रयोग तो *सम्यक मारण के पश्चात ही= उत्तम भस्म परीक्षा के बाद ही* कल्प में या चिकित्सामे किया जाता है. ऐसे स्थिती मे उस समय के विश्व में, सुवर्ण से थोडाही कम जिसका स्पेसिफिक ग्रॅव्हिटी =गुरुत्व है, ऐसे विषसमान पारद को मारण किये बिना, भस्म किये बिना, केवल शोधन करके काम चलाना यह मूलतः अशास्त्रीय है.
इसका एक मुख्य कारण यह है की, यद्यपि *"सिद्धे रसे करिष्यामि निर्दारिद्र्यम् इदं जगत्"* यह रसशास्त्र की प्रतिज्ञा है और *"लोहाना मारणम् श्रेष्ठं सर्वेषां रसभस्मना"* यह मूल सिद्धांत है, फिर भी रस अर्थात सूत अर्थात पारद का मारण पारद का भस्म यह रसशास्त्र के लिए एक असंभव ऐसी बात है!!! इसलिये कभी भी पारद का भस्म कोई बना ही नही पाया!!! इसलिये सूतशेखर मे मृत स्वर्ण है स्वर्ण भस्म है मारण किया हुआ स्वर्ण है... किंतु पारद का मारण पारद का भस्म बनाना यह किसी की क्षमता मे है ही नही!! इस कारण से मेटल होकर भी मृत रस के बजाय मृत सूत के बजाय रसभस्म सूतभस्म के बजाय, शुद्ध सूत = शुद्ध पारद इस से ही "काम चलाया" जाता है. यह ऍडजेस्टमेंट है, यह स्पष्ट है और इसमे कोई संदेह नही है की, जिन लोगों को पारद का भस्म बनाना आया ही नही , जो रसभस्म की जगह रस सिंदूर को चलाते आये, ऍडजेस्ट करते आये, उत्तम की जगह दुय्यम का प्रयोग करते आये है, "शुद्धं सूतम्" के नाम से "काम चलाते" आये है, उत्तम से नीचे के स्तर के कल्पो का निर्माण करते रहे है ... पारद का भस्म नही बना पाते है, इसलिये शुद्ध सूत = केवल शोधन किया हुआ पारद "चल सकता है", तो बाकी भी सभी धातु का मारण = धातुओं का भस्म करने का इतना महार् costly expensive दुष्कर उद्योग, एनर्जी रिसोर्सेस पैसा और समय की बरबादी , धातुओं के भस्म = धातुओं के मारण मे करने की आवश्यकता ही क्या है?
वैसे भी चरक संहिता वाग्भट संहिता सुश्रुत संहिता मे धातुओं के चूर्ण का ही प्रयोग लिखा है ... ये भस्म निर्माण = धातु का मारण, यह रिसोर्स समय काल & धन का अपव्यय है
जिस अम्लपित्त अधिकार में ये सूतशेखर आता है, उस अम्लपित्त मे पहले से ही ... पित्त है तेज है कटु उद्गार है दाह है, ऐसे स्थिती मे यह अत्यंत तीव्र वीर्य अग्नि समान विष सदृश पारद ... तो आग में और तेल डालने का ही काम करेगा अर्थात लक्षण वृद्धी रोग वृद्धी का ही कारण बनेगा ...
वही बात, दूसरा घटक गंधक की है, गंधक का भस्म नही हो सकता, क्योंकि वह मेटल नही है, इसलिये उसको शोधन करके प्रयोग करना है ... किंतु अम्लपित्त यह विदग्धाजीर्ण सदृश स्थिती है, ऐसी स्थिती मे, जिस गंधक का शोधन, दुग्ध या घृतमें किया गया है, यह और भी रोगवृद्धिकारक क्लेदकारक अग्नि मान्द्य कारक सिद्ध होगा ... इसलिये यह गंधक नाम का घटक द्रव्य भी अम्लपित्त रोगाधिकार मे जो दोष स्थिती होती है या आशय की स्थिति होती है, उसके लिए निश्चित रूप से हानिकारक है आरोग्य नाशक रोगवर्धक हे
टंकण, फिरसे एक क्षारद्रव्य है, मूलतः पित्त प्रधान स्थिती मे ऐसा करना अनुचित ही है, हां, यह हो सकता है कि केमिस्ट्री की दृष्टि से अम्ल को ॲसिड और टंकण को अल्कली/ बेस माने, तो इसका टायट्रेशन होना संभव है , उसके के बाद फिरसे जल अर्थात क्लेद का ही वर्धन होगा, जो पुन्हा रोग के लक्षण और तीव्रता दोनों को बढायेगा.
बचनाग = वत्सनाभ अत्यंत हानिकारक विष है, उष्णवीर्य है, ऐसे द्रव्य का अम्लपित्त जैसे पित्तजन्य विकार मे कोई प्रयोजन नही और तो और वत्सनाभ की शुद्धी गोमूत्र से होती है , मूत्र अत्यंत उष्ण और क्षारयुक्त है , जो फिर से अम्लपित्त मे अनुपयोगी है.
आम्लपित्त मे पहले से ही दाह कटू उद्गार इस प्रकार की स्थिति होती है, ऐसे स्थिती मे व्योष = का वहा पर क्या प्रयोजन है, यह समजना दुष्कर है.
आगे फिरसे एक उपविष = विशेष सदृश्य घटक द्रव्य, उन्मत बीज अर्थात धत्तुर है, इसमे पहले तो संदेह है, की कौन से धत्तुर का प्रयोग करे. वैसे तो संदिग्ध और विष सदृश द्रव्य का प्रयोग करना, रुग्ण के हित मे नहीं है.
बिल्वमज्जा : यह घटक द्रव्य अत्यंत अस्थिर और शीघ्र कृमियोंको आश्रय देने वाला होता है. अगर यह घटक द्रव्य , शास्त्र आदेश के अनुसार कच्चे बिल्व का = आम बिल्व फल का लिया जाये, तो कुछ दिनों में, इसमे कृमी निर्माण होते है, ऐसा सभी का अनुभव है. अगर बिल्व मज्जा का चूर्ण क्लिनिक मे रखेंगे, तो एक दो हप्ते में ही, उसमे अपने आप, कृमी निर्माण होता है, तो ऐसे घटकद्रव्य का अम्लपित्त मे क्या प्रयोजन है , यह समजना दुष्कर है.
दूसरा ...
अम्लपित्त का सूत्र है, *"अम्लपित्ते तु वमनं पटोलारिष्टवारिणा"*, इस धोरण के अनुसार बिल्व मज्जा कही पर भी जस्टिफाय नही होती है. अगर वमन नही हो पाया, तो इस विदग्धाजीर्ण को कम से कम अधो दिशा से विरेचन के द्वारा तो बाहर निकालना चाहिए. किन्तु बिल्व मज्जा तो ग्राही है 😇
कचोरक का अर्थ शठी, शठी जैसे फिरसे उष्णद्रव्य का अम्लपित्त जैसे पित्तजन्य दाह कटु उद्गार लक्षण वाले विकार मे प्रयोजन नही है
चातुर्जात के चारों द्रव्य उष्ण है , केसर त्वक पत्र एला ... इनका फिरसे पित्तजन्य कटूद्गार दाह ऐसे लक्षणे वाले अम्लपित्त मे कोई प्रयोजन नही है.
इन सभी घटक द्रव्य से निर्माण होने वाले चूर्ण को, जिसकी भावना है, वह भृंगराज , यह एक तिक्तद्रव्य है और अम्लपित्त मे तिक्त द्रव्य का ही सर्वत्र यशस्वी उपयोजन, उपयोगी है लाभदायक हे परिणामकारक है रोगनाशक आरोगयरक्षक उपशमकारक है और यही इसकी मूल चिकित्सा भी है ...
अम्लपित्त मे ...
पित्त और कफ, अग्नि और जल यह क्लिन्न क्लेद ऐसी स्थिति मे रहते है, इस कारण से इस जल अग्नि प्रधान रोगकारक घटकों का उत्क्लेश कटू उद्गार अरुची ऐसे लक्षण निर्माण करणे का सामर्थ्य होता है. ऐसे जल अग्नि प्रधान रोगकारक घटकों का "शोषणे रूक्षः" और वह भी कटु और दाह के विपरीत शीत गुण के साथ होना उपयोगी है, इसी कारण से वमन भी पटोल (= तिक्त रस स्कंध का सर्वश्रेष्ठ द्रव्य) से देने के लिए कहा है.
इसी दिशा मे आगे शमन देखेंगे तो वह भी तिक्त रस प्रधान का है. इसलिये अम्लपित्त का सर्वोत्कृष्ट कल्प लोकप्रिय कल्प शीघ्र फलदायी कल्प ऐसा जिसे कह सकते है वह *"कल्प शेखर भूनिंबादि"* इसमे सभी द्रव्य, तिक्त कषाय ऐसे शीत गुण और कफ पित्तनाशक जल शोषक, अग्नि शामक, द्रवशोषक इस प्रकार के ही है, तो यही "अम्लपित्त की चिकित्सा का मुख्य धोरण = guideline" है ... यशस्वी दिशा है
इसी दिशा मे, सुतशेखर मे समाविष्ट 17 के 17 घटक निरुपयोगी है !!! केवल इन घटकों का जो चूर्ण बनता है, उस चूर्ण को "जिसकी भावना है", यह अकेला "*भृंगराज*", अम्लपित्त के संप्राप्ति लक्षण रोगकारक दोष स्थिती इन सभी का समूलनाश करने में समर्थ होता है.
कल्पशेखर भूनिंबादि में भी मार्कव = भृंगराज, सर्वात अंतिम द्रव्य के रूप मे समाविष्ट है. इसी कारण से सातारा के प्रसिद्ध ज्येष्ठ वैद्य प्राचार्य दिवंगत गो आ फडके गुरुजी, सूतशेखर का कभी भी प्रयोग नही करते थे, केवल भृंगराज स्वरस को छाया शुष्क करके, उसका चूर्ण बनाकर प्रयोग करते थे.
इसका सरल अर्थ यह है की सूतशेखर का विनाकारण प्रयोग करने की बजाय,
इतने महार्ह काॅस्टली महंगी और "फिर भी निष्प्रयोजन" औषधी द्रव्य को, पेशंट को देने के बजाय, यदि इस कल्प का जो सर्वाधिक कार्यकारी घटकद्रव्य है, उस भृंगराज का, या भृंगराज को सप्तधा बलाधान वटी के रूप मे या भृंगराज स्वरस का छाया शुष्क चूर्ण करके, उपयोग किया जाये, तो सूतशेखर से भी अधिक अच्छा, शीघ्र परिणामदायक, चिरकाल लाभदायक बने रहने वाला, लॉन्ग लास्टिंग रिझल्ट निश्चित रूप से प्राप्त होता है.
यही बात, दूसरा जो सर्वाधिक लोकप्रिय व उपयोग मे आनेवाला तथा बेचा जानेवाला, L*I*V 5*2 नाम से मॉडर्न मे भी लोकप्रिय, हायब्रीड संकरीत रसकल्प का मूलाधार, जो आरोग्यवर्धिनी है, जो कुष्ठ अधिकार से आती है, उसमे से भी सारे मेटलिक कंटेंट, विष कन्टेन्ट निकाल दिये जाये, उष्ण रक्तपित्तवर्धक रक्तपित्त दुष्टीकर अग्नि = उष्ण गुण वृद्धिकर ऐसे घटक द्रव्य निकाल दिये जाये, तो केवल *"कटुकी और निंब"* इन मुख्य मात्र दो द्रव्यों के संयोग से, आरोग्यवर्धिनी मे जो फलश्रुती लिखी है, उस फलश्रुती को सार्थ सिद्ध करना निश्चित रूप से संभव है. कर के देखिये !!!
किंतु यदि हम इस दिशा मे विचार ही नही करेंगे, केवल गतानुगतिक रूप मे, जैसे वहा लिखा है, वैसे भेड बकरीयों की तरह गढ्ढे मे गिरकर, वही चीजे करते रहेंगे, तो इसमे सुधार बदलाव और एक अभिनव कार्मुक कल्प हमारे हाथ में कभी नही आ सकता.
सूतशेखर इसी कारण से एक ओव्हर एस्टीमेटेड (over estimated) कल्प है. इसमे से केवल कार्मुक द्रव्य = भृंगराज का भी प्रयोग करेंगे, तो "उतना ही" अच्छा रिझल्ट आता है, ऐसा मेरा विश्वास और अनुभव है.
अम्लपित्त के अधिकार मे अम्लपित्त ऐसे निदान मे अम्लपित्त जन्य या अम्लपित्तबोधक लक्षण अवस्था मे , जहां सूतशेखर देने की इच्छा हो, ऐसे स्थिति में, *"कल्पशेखर भूनिंबादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट"* के रूप मे, अत्यंत सुनिश्चित शीघ्र परिणामदायक चिरस्थायी रोग उपशमकारी लाभ देता है, इसमे कोई संदेह नही है, क्यूंकी कल्पशेखर भूनिंबादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट, पाच लाख से भी अधिक संख्या में, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda और उनके सन्मित्र तथा विद्यार्थी वैद्योंने प्रयोग करके, इसका अनुभव लिया हुआ है
सूतशेखर को जो भृंगराज की भावना देनी है, वह "दिनम्" इतना ही लिखा है अर्थात एक दिन मे कितनी भावना देनी/हो सकती है, वो नही लिखा है.
दूसरा ... इतने सारे चूर्ण को कितने भृंगराज स्वरस का प्रमाण उपयोगी है, इसका भी स्पष्ट निर्देश नही.
तीसरा ... इस कल्प की गुड्डी एक गुंजा तयार करने के लिए लिखी है किंतु इस कल्प की मात्रा 2 गुंजा लिखी है ... तो यह मात्रा एक समय की मात्रा है या पूरे दिन की मात्रा है, इसका कोई दिग्दर्शन यहा पर प्राप्त नही होता है.
मधु घृत संयोग स्वयं विरुद्ध है, विष सदृश ऐसा अनुपान यदि, अम्लपित्त जैसे पित्त कफ अग्नि जल क्लेद ऐसे स्थिति में दिया जाये, तो यह उपशम कार्य न होकर, उलटा रोगवर्धक होगा, इसमे कोई संदेह नही है.
इसलिये आम्लपित्त मे सालो तक सूतशेखर लेने के बाद भी, पेशंट का आम्लपित्त ठीक नही होता है, उसको यह सूतशेखर बार-बार लेना ही पडता है.
तो इससे अधिक अच्छा है कि, मूलगामी लक्षवेधी कल्प के रूप मे कल्पशेखर भूनिंबादि का मात्र छ सप्ताह = 42 दिन तक उपयोग करना तथा पेशंट को उसके आहार में और विहार में बदलाव करने का मार्गदर्शन करना उपयोगी होता है.
पेशंट के आहार से अम्ल, जमीन के नीचे आने वाले पदार्थ, मैदे से और काॅर्न फ्लोअर से बनाये हुए पदार्थ (बेकरी पिझ्झा पास्ता नूडल्स), कुकर में पके पदार्थ, पत्तो वाली सब्जीया, जागरण, उपवास, क्रोध, धूप मे जाना, हॉटेलिंग, चाट, फास्ट फूड, मोमो, चायनीज... ऐसे अग्नि पित्त कफ जल क्लेद, इनको बढाने वाले आहारों का निषेध परिहार त्याग करना आवश्यक है, यह भी ध्यान मे रखना आवश्यक है
सूतशेखर की जो फलश्रुती है यह अत्यंत अविश्वसनीय व्यवहार्य इम्प्रॅक्टिकल और इम्पॉसिबल है
फलश्रुती मे उल्लेखित रोगों के आगे "नाशन हर अपह:" असे शब्द लिखे है, किंतु कास गुल्म उग्र हिक्का उदावर्त इन रोगों के आगे "कोई भी शब्द/ क्रियापद नही है", जिससे की सूतशेखर से इन रोगों का नाश होता है, ऐसा बोध हो!
आगे देहयाप्यगदापह: यह अशास्त्रीय वचन है. कोई भी याप्य रोग कभी नष्ट नही हो सकता, इसलिये याप्यगदापहः, ऐसे लिखना यह अशास्त्रीय है.
देहयाप्यगद इस शब्द का शास्त्र मे कोई अर्थ नही बनता है. देहयापी ऐसा अर्थ कहे और आगे अगदापहः ऐसा शब्द समझे, तो उसका भी बोध दुष्कर है !
राजयक्ष्मा को किसी भी ग्रंथ मे साध्य नही कहा गया है, ऐसे स्थिती मे केवल सूतशेखर से राजयक्ष्मा रोग हरण हो जाएगा यह असंभव है
सेकंड लास्ट लाईन मे "सर्वरोगहर" कहने के बाद फिरसे अंतिम लाईन मे राजयक्ष्मा रोग को हरण करता है, ऐसा कहना यह पुन्हा पुनरुक्ती आत्माश्रय स्वस्कंधारोहण इस प्रकार का दोष है.
मंडलात् नाऽत्र संदेहो सर्वरोगहरः परः
यह अर्थ वाद है, यह वस्तुस्थिती नही हो सकती
मात्र, 1 मंडल = 42 दिन मे सभी रोग या कोई भी रोग सुतसे करके प्रयोग से ठीक होगा शास्त्र नही हो सकता
शाब्दिक बाते व्याकरण की बाते निकाल दि जाये तो भी एक कल्प जिसके उपर दिये हुए उटपटांग घटक द्रव्य है, वे पाच विभिन्न प्रकार की गुल्मो का नाश करते है, का जिसमे रक्त गुल्म का भी समावेश है... पाच विभिन्न प्रकार के कास जिसमे क्षतज और क्षयज कास इनका भी समावेश है, ऐसे रोगों को नष्ट करता है यह अशास्त्रीय असंभव है!!!
5 हिक्कामेसे अंतिम 2 हिक्का अरिष्ट स्वरूप है, जिसका ठीक होना असंभव है.
पहिली 2 हिक्का तो अपने आप ठीक होती है और बीच वाली तीसरी यमला हिक्का उग्र हिक्का नही है, तो ऐसे स्थिती मे उग्रहिक्का सूतशेखर से नष्ट होती है, ऐसा कहना यह शास्त्रीय है
उदावर्त की चिकित्सा अनुलोमन है, ऐसी स्थिती मे जिस कल्प के घटक द्रव्यों में एक भी अनुलोमक द्रव्य नही है, ऐसा कल्प उदावर्त का शमन करेगा, यह अशास्त्रीय है.
ग्रहणी यह मूलतः अवारणीय=सुदुस्तर=महारोग (अहृनि8) रोगो मे उल्लेखित हे वाग्भट निदान आठ के अंत मे!
इस कारण से,
ग्रहणी रोग का नाश करता है ऐसी सूतशेखर की फलश्रुती होना, यह आप्त प्रमाण के विरुद्ध है
और ना ही प्रॅक्टिस मे ऐसा कोई ग्रहणीनाशन इस प्रकार का रिजल्ट किसी को प्राप्त भी होता है.
श्वास जैसे उरःस्थ वातकफजन्य विकार मे काम करे, ऐसा एक भी घटक द्रव्य जिसमे नही है, ऐसा सूतशेखर श्वास का नाशन करेगा यह विसंगत है.
केवल 42 दिन के प्रयोग से सभी रोगों का नाश होना, अशास्त्रीय है.
यही बात आरोग्यवर्धिनी मे कुष्ठ केले लिखिए, जो कुष्ठरोग दीर्घ रोग नाम श्रेष्ठ हा ऐसे अग्रेसर के रूप मे चरक सूत्र 25/ 40 मे उल्लेखित है और जहा चरक मे सुश्रुत मे कुष्ठ के लिये छह छह मास के बाद रक्त मोक्षण लिखा है और 15 दिन महीने के बाद वमनविरेचन लिखा है , ऐसे कुष्ठ को केवल 42 दिन मे आरोग्यवर्धिनी ठीक करती है, यह भी अशास्त्रीय अविश्वसनीय और असंभव है और वैसे भी प्रत्यक्ष प्रॅक्टिस मे ऐसा कोई अनुभव नही आता है, इस कारण से अत्यंत लोकप्रिय ऐसे जो सुतशेखर और आरोग्यवर्धिनी यह कल्प है, यह विनाकारण ओव्हर एस्टिमेटेड कल्प है.
इनके निर्मिती मे इनके कॉस्टली expensive महार्ह महंगे घटक द्रव्यों को पर्चेस करके, इनका निर्माण करने की बजाय, इन से भी अच्छे ... ऐसे जो कल्पशेखर भूनिंबादि और पंचतिक्त ये कल्प है, इनका प्रयोग करना उचित है ...
या सूतशेखर आरोग्यवर्धिनी इन कल्पों मे से मेटॅलिक केमिकल विषद्रव्य, रोग की संप्राप्ती से विसंगत घटकद्रव्यों को निकाल कर ... केवल भावना द्रव्य के सप्तधा बलाधान वटी ...
या आरोग्यवर्धिनी के बारे मे , *"मुख्य द्रव्य कटुकी और भावनाद्रव्य निम्ब"*, इन दोनो का ही यादी सप्तधा बलाधान टॅबलेट बनाये तो, निश्चित रूप से, अपेक्षित परिणाम प्राप्त होते है ... करके देखिये !!!
कही सुनी बातो पर विश्वास ना करे ...
पहले इस्तेमाल करे , फिर विश्वास करे !!!
सब लोग कहते है ... कई सालो से कहते है ... अनेक लोक प्रयोग करते है ... इसलिये, मै भी इन कल्पोको शरण जाऊंगा! ऐसे गतानुगतिक बुद्धी से काम न करे.
केवल निर्देश है इसलिये काम नही करना, अपने स्वयं की बुद्धी से तर्क से भी, ऊहन अर्थात सोच विचार करना है, ऐसे चरक सिद्धी अध्याय 2 के अंत मे लिखते है
तो ... कुल मिलाकर, सारांश के रूप मे, यह कह सकते है कि ;
सूतशेखर यह एक ओव्हरेस्टीमेटेड कल्प है
... जिसमे रोग से विसंगत घटक द्रव्य संमेलन है. इससे अधिक अच्छा है कि केवल जो भावना द्रव्य है वह मार्कव=भृंगराज ... या मार्कव जिसमे एक घटकाद्रव्य है , ऐसे सूतशेखर के ही अम्लपित्त अधिकार मे उल्लेखित, कल्पशेखर भूनिंबादि यह अधिक सुसंगत शास्त्रीय परिणामदायक लाभकारक और सुयोग्य कल्प है , यह निश्चित!!!
म्हेत्रे आयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा *"कल्पशेखर भूनिंबादि"* यह कल्प सप्तधा बलाधान टॅबलेट के रूप मे मॅन्युफॅक्चर किया जाता है ... जो एफ डी ए (FDA) द्वारा ॲप्रूव्ह्ड् है और जीएमपी (GMP) सर्टिफिकेट के अनुसार इसका निर्माण किया जाता है. इसका आयुर्वेद चिकित्सक वैद्य सन्मित्रों के लिये उपलब्धता और वितरण किया जाता है,
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