Wednesday, 12 March 2025

आरोग्यवर्धिनी : एक आय ओपनर 👀 ॲनालिसिस तथा एक सशक्त 💪🏼 विकल्प

आरोग्यवर्धिनी : एक आय ओपनर 👀 ॲनालिसिस तथा एक सशक्त 💪🏼 विकल्प

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आरोग्यवर्धिनी

रसगंधकलोहाभ्रशुल्बभस्मसमांशकम् ।

त्रिफला द्विगुणा योज्या त्रिगुणं तु शिलाजतु ॥

चतुर्गुणं पुरं शुद्धं चित्रमूलं च तत्समम् ।

तिक्ता सर्वसमा ज्ञेया (देवा) सर्वं संचूण्यं यत्नतः ।

निंबवृक्षदलांभोभिर्मर्दयेत् द्विदिनावधि ।

ततस्तु गुटिका कार्या क्षुद्रकोलफलोपमाः ।।

मंडलं सेविता सैषा (ह्येषा) हन्ति कुष्ठान्यशेषतः।

वातपित्तकफोद्भूताञ्ज्वरान्नानाप्रकारजान् ॥

देया पञ्चदिने जाते ज्वरे रोगे वटी शुभा ।

पाचनी दीपनी पथ्या हृद्या मेदोविनाशिनी ॥

मलशुद्धिकरी नित्यं दुर्धर्षक्षुत्प्रवर्तिनी । 

बहुनाऽत्र किमुक्तेन सर्वरोगेषु शस्यते ॥

आरोग्यवर्धनी नाम्ना गुटिकेयं प्रकीर्तिता । 

सर्वरोगप्रशमनी श्रीनागार्जुनयोगिना


आरोग्यवर्धिनी यह सभी आयुर्वेद प्रॅक्टिशनर वैद्यों के उपयोग मे आनेवाला, सूतशेखर के बाद, दूसरा लोकप्रिय कल्प है.

इसका रोग अधिकार रसरत्नसमुच्चय में कुष्ठ है 

इसके प्रथम पांच कंटेंट =घटक द्रव्य ये, भस्म स्वरूप है जिसमें से रस अर्थात पारद का भस्म असंभव हि है. इसलिए उसका "शोधित पारद" इतना ही प्रॅक्टिकली लिया जा सकता है.

दूसरा गंधक , जिसका फिर से भस्म नहीं होता है, वह भी शुद्ध गंधक के रूप में लेना है 

लोह अभ्रक और ताम्र इनका भस्म "बनाया जाता" है, किंतु ऐसे भस्मों की व्यावहारिक स्थिति क्या है, इसके लिए निम्नोक्त लेख अवश्य पढ़े

https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/01/blog-post.html

इसके पश्चात त्रिफला त्रिगुण मात्रा में उल्लेखित है. लोकप्रिय रसकल्प विवरणकारी, आयुर्वेदीय औषधि गुण धर्म शास्त्र, इस पुस्तक के लेखक, आदरणीय गुणे शास्त्री ने हरीतकी आमलकी बिभीतक ये तीनों द्विगुण मात्रा में लेने के लिए कहे हैं, जो अनुचित है. कुल मिलाकर त्रिफला द्विगुण मात्रा में लेनी है. अगर हरीतकी बिभीतकी आमलकी तीनों भी दुगुनी मात्रा में लेंगे, तो त्रिफला द्विगुण की बजाय, 6 गुना हो जाएगी!!! जो इस कल्प के पाठक के अनुसार नहीं है. 


आगे शिलाजीत तीन भाग या त्रिगुण लेने के लिए कहा है , किंतु रस शास्त्र में जो अपेक्षित है या संहिता में जो अपेक्षित है, ऐसा शिलाजीत तो, आज व्यवहार में प्राप्त होता ही नहीं है. रस शास्त्र में , शिलाजीत की परीक्षा "सलिले अपि अविलीनं" अर्थात जल में अविलेय अर्थात वाॅटर इनसोल्युबल water insoluble, ऐसी लिखी है और आज व्यवहार में शिलाजीत का शोधन त्रिफला के क्वाथ में "घोलकर" 😇यानी "डिझाॅल्व्ड् 🙃 इन त्रिफला क्वाथ". तो ऐसे आज का व्यावहारिक शिलाजीत वॉटर सॉल्युबल है, ना कि वाटर इनसोल्युबल 😆🤣... "जो मूल ग्रंथ की शिलाजीत ग्राह्यता परीक्षा के संपूर्णतः विपरीत है".

वैसे तो संहितोक्त शिलाजीत 4 प्रकार का चरक में और 6 प्रकार का सुश्रुत में, किंतु रस रत्न समुच्चय में तो ऐसे 4 या 6 प्रकार ना होते हुए, केवल 2 ही प्रकार है ... जिसमें से गोमूत्र गंधी शिलाजीत है, जो जैसे ऊपर बताया वाटर इनसोल्युबल के रूप में वैसे, आज अस्तित्व में ही नहीं है और कर्पूर शिलाजीत का शिलाजीत से कोई संबंध नहीं है, वह कलमी सोरा= पोटॅशियम नाइट्रेट है.

आगे गुग्गुल चार गुणा लिखा है ... जितनी चंद्रप्रभा और आरोग्य वर्धिनी भारत में बनती है , उसके लिए जितना गुग्गुल आवश्यक है, उतना तो पूरे विश्व में भी नहीं बन सकता है , उपलब्ध नहीं हो सकता है😖😩 ... ऐसी स्थिति में सभी की चंद्रप्रभा और आरोग्यवर्धिनी एक ही रंग की हो, इसलिए यह टैबलेट्स काले रंग की बनाई जाती है, क्योंकि उसमें गुग्गुल तो मिलता नहीं है, जितना चाहिए उतना, इसलिए गम ॲकेशिया= बब्बूल का गोंद और चारकोल अर्थात कोयले का चूर्ण डाला जाता है 😳😱... 


तो इस प्रकार से आप देखेंगे तो , त्रिफला नामक कंटेंट बाजू को रखेंगे , तो रस से लेकर गुग्गुल तक के कंटेंट, यह व्यावहारिक & शास्त्रीय इस प्रकार से, असंभव है अनुपलब्ध है अशास्त्रीय है विसंगत है अनुचित है अयोग्य है अहितकारी है ⛔️🚫❌️


चित्रक जैसा अत्यंत उष्ण वीर्य द्रव्य, कुष्ठ रोग में उपयोगी कल्प में होना , अत्यंत अनुचित है ... वैसे भी देखा जाए तो, यह संपूर्ण कप अत्यंत रूक्ष है , इसमें त्रिफला गुग्गुलु कटुकी निंब ऐसे अत्यंत रूक्ष द्रव्य है और कुष्ठ में इतनी रूक्षता योग्य नहीं है !!!


चित्रक तो साक्षात् अग्नि है , इसलिए वह उष्ण और रूक्ष दोनों हैं , जो कुष्ठ के लिए अत्यंत हानिकारक है. 


अगर आप देखेंगे तो "कुष्ठ का उल्लेख" चरक सूत्र स्थान 28 विविधाशितपीतीय , इस अध्याय में "रक्त प्रदोषज" विकारों में हुआ है और कुष्ठ में जो धातुओं की स्थिति होती है, वह "क्लेद और कोथ" इस प्रकार की होती है और "क्लेद और कोथ" यह दोनों भी चरक सूत्र 20 तथा अष्टांगहृदय सूत्र स्थान 12 में, "प्रकुपित पित्त के कर्म" लिखे हैं अर्थात जहां कुष्ठ की संप्राप्ति होने के लिए "पित्त और रक्त की दुष्टि मूलभूत कारण" है , ऐसी स्थिति में , चित्रक का वहां पर प्रयोग करना, तो अशास्त्रीय अनुचित अयोग्य और पेशंट के दृष्टि से हानिकारक है.


वैसे भी आप अगर संहिता में कुष्ठ चिकित्सा देखेंगे, तो उसका प्रारंभ स्नेहपान से होता है. इसका अर्थ यह होता है की "कुष्ठ चिकित्सा का मूलाधार स्नेह चिकित्सा" है, इसलिए उसकी चिकित्सा में प्रारंभ में ही तिक्तक महातिक्तक वज्रक महावज्रक इन "घृतों" का उल्लेख हुआ है.


वैसे भी बहुत लोकप्रिय है ऐसे, महातिक्तक घृत में , घृत की द्विगुण मात्रा में आमलकी स्वरस है, किंतु आमलकी स्वरस में जल/द्रव की मात्रा अधिक होने के कारण, जब घृत सिद्ध हो जाता है, तो महातिक्तक के अन्य सभी तिक्त द्रव्य और आमलकी इनकी मिलकर जो रूक्षता है, इसका कंपनसेशन या अनुपद्रवता; घृत की उपस्थिति से हो जाता है.


संहिता में चित्रक का उल्लेख केवल कफज कुष्ठ में है, वह भी फिर से घृत सिद्ध करके ही देना है. इसलिए चित्रक जैसे उष्ण रूक्ष घटक द्रव्य का आरोग्यवर्धिनी नामक कुष्ठ अधिकार में उल्लेखित कल्प में होना अनुचित है.


आरोग्यवर्धिनी को परिवर्तित/ नामांतरित रूप में 50 टू लीव इस नाम से बाजार में मार्केट में पाया जाता है, जो कुष्ठ नहीं, अपितु लीवर की हेपेटाइटिस की जॉन्डिस की स्थिति में प्रायः दिया जाता है ... यह भी पित्त प्रधान रक्त प्रधान ही स्थिती है, तो ऐसी स्थिति में भी चित्रक जैसे द्रव्य का आरोग्यवर्धिनी या 50 टू लीव , इनमें होना अनुचित है.


अर्थात इसी प्रकार से पारद गंधक ताम्र ऐसे आत्यंतिक उष्ण और विष सदृश विष युक्त द्रव्यों का आरोग्यवर्धिनी में होना, वैसे भी असुरक्षित और अशास्त्रीय है.


मूलतः विचार किया जाए तो, यदि पारद गंधक लोह अभ्रक ताम्र शिलाजीत गुग्गुल चित्रक इन अयोग्य द्रव्यों को बाजू को रखेंगे, तो भी जो बाकी तीन (3) मुख्य द्रव्य इस कल्प में शेष रहते हैं ... "त्रिफला कटुकी और निंब" यह भी अत्यंत रूक्ष है और कुष्ठ की चिकित्सा स्नेह से होती है ... रूक्षता से नहीं! 


इसलिए मूलतः इस कल्प का फाॅर्म्युलेशन/ डिजाइन ही आप्त प्रमाण से विसंगत तथा अशास्त्रीय और अनुचित है


फिर भी जिनको दुराग्रह हट्टाग्रह करके आरोग्यवर्धिनी उपयोग में "लानी ही है", उन्होंने उपरोक्त असुरक्षित और अशास्त्रीय द्रव्यों को इस कल्प से हटाकर (अर्थात पारद गंधक लोह अभ्रक ताम्र शिलाजीत गुग्गुलु और चित्रक इनको हटाकर), केवल त्रिफला व कटुकी उनके चूर्ण को निंब पत्र स्वरस की भावना देकर, उस कल्प का प्रयोग करना उचित होगा !!


आगे ... यह आरोग्य"वर्धनी या वर्धिनी" नाम का कल्प निर्माण करने के बाद , उसकी वटी का प्रमाण क्षुद्र कोल और राज कोल ऐसे दोनों शब्दों में लिखा गया है तो यह कन्फ्यूजिंग है.


कोल का अर्थ = अर्ध कर्ष अर्थात 5 (या 6.15) ग्राम होता है , तो आपने कभी भी, किसी भी फार्मेसी की आरोग्यवर्धिनी वटी 5 या 6 ग्राम की देखी तक नहीं होगी !!!

प्राय यह वटी 250 मिलीग्राम की मात्रा में ही आती है. और अगर शास्त्रोक्त मात्रा कोल प्रमाण देना हुआ, तो इस वटी के 20 वटिया/टॅबलेट्स देना, एक समय में, आवश्यक होगा, जो प्रॅक्टिकली इंपॉसिबल है ...

और जो लोग 250 मिलिग्राम वटी देकर, उसके "रिजल्ट आते हैं" , ऐसा कहते हैं, यह एक बुद्धि भ्रम है या इल्यूजन डिलूजन है.😇🙃


त्रिफला और निंबपत्र यह दोनों नेत्र्य है चक्षुष्य 👁👁 है, फिर भी आरोग्यवर्धिनी की फलश्रुती में इस प्रकार का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है , यह आश्चर्यकारक है


आगे ... यह एक ही वटी वात पित्त कफ ऐसे "तीनों / कई/विविध/नाना प्रकार के ज्वर" का नाश करती है , ऐसा लिखा है ... जो इसके कंटेंट देखकर शास्त्रसुसंगत नहीं लगता है


ज्वर के लिए यह वटी पांचवें दिन देने के लिए कहा है, यह भी शास्त्र के विरोध में है , क्योंकि ज्वर के लिए जो औषध देना है , वह सातवें दिन देना है , वस्तुतः अगर ठीक से कॅलक्युलेट करें तो लंघन स्वेदन कालो ... इस श्लोक के अनुसार औषध देने की बात तो 7 दिन के भी बहुत बाद आती है ... तो यहां पर पांचवें दिन ज्वर के लिए आरोग्यवर्धिनी वटी देना यह शास्त्रविसंगत है 


और थोड़ा व्याकरण की दृष्टि से अलग देखा जाए ... और कोई कहे कि पांचवें दिन नहीं देना है , अपितु 5 वटियां देनी है, तो यह भी अनुचित है , क्योंकि आगे वटी यह शब्द एक वचन में है ... अगर पंच वटी ऐसा अभिप्रेत होता यानी पांच वटियां देनी है ऐसा अभिप्रेत होता तो, वटी शब्द का बहुवचन वट्यः आना आवश्यक था.


आत्यंतिक उष्ण द्रव्य इसमें होने के कारण दीपनी पाचनी यह तो ठीक है , किंतु पथ्या कहना शास्त्रविसंगत है , इतनी रूक्ष उष्ण वटी पथ्या है, ऐसा कहना ठीक नहीं.


आगे हृद्य ऐसा इसका गुणधर्म लिखा है, जो फिर से शास्त्रविसंगत है, इतना रूक्ष द्रव्य हृदय जैसे त्रिमर्म में उल्लेखित अवयव के लिए हानिकारक ही होगा 


और हृद्य का अर्थ "रुचि कारक" लेंगे तो इतनी कड़वी जिसकी टेस्ट है, वह रुचिकर हो या मन के लिए प्रिय हो, हृद्य के अर्थ में यह भी संभव नहीं है 


मेदोविनाशिनी लिखा है, यह ठीक है ... किंतु आरोग्यवर्धिनी की कितनी मात्रा कितनी कालावधी तक देने के बाद , अपेक्षित मेदोनाश होगा , यह करके देखने की बात है ... किंतु प्रायः इस प्रकार का व्यवहार आरोग्यवर्धिनी के संदर्भ में देखा सुना नहीं है की यह वटी मेदो नाश के लिए दी गई है 


अगर इसमें त्रिफला और कटुकी इतनी बड़ी मात्रा में है तो , विरेचन के द्वारा मल शुद्धिकरी होना , यह सामान्य सी बात है 


दुर्धर्ष क्षुत् प्रवर्तनी यह विसंगत है , क्योंकि आरोग्यवर्धिनी से क्षुत् = क्षवथु = छींके आना यह असंभव है 


क्षृत् शब्द का अर्थ क्षुधा लेना, यह यहां पर व्याकरण की दृष्टि से संभव नहीं है, क्योंकि क्षुध् ऐसा शब्द है, तो ध् का द् होगा (झलां जशोऽन्ते) इसलिए क्षुद्प्रवर्तिनी होना चाहिए था क्षुत्प्रवर्तिनी नहीं ... क्षुत्प्रवर्तिनी यह शब्द क्षुधा को बोधित नहीं करता 


आगे ... "सर्वरोगेषु शस्यते" कह कर, फिर से, "सर्वरोगप्रशमनी" कहा है यह पुनरुक्ति दोष है ... 

और कोई एकही कल्प व भी ऐसे उटपटांग शास्त्रविसंगत अयोग्य असुरक्षित विष सदृश जिसके घटक द्रव्य है, ऐसा एकही कल्प सभी रोगमे प्रशस्त है या सभी रोगों का प्रशमन करेगा यह वाक्य ही दोषयुक्त है असंभव है


इतने उष्ण तीक्ष्ण रूक्ष कंटेंट्स है , यह सभी रोगों को नष्ट करेंगी, यह शास्त्रविसंगत है


अभी, जैसे पहले स्पष्ट किया, वैसे इस कल्प के पारद गंधक लोह अभ्रक ताम्र शिलाजीत और गुग्गुल चित्रक ये घटक द्रव्य शास्त्रविसंगत है ... इसलिए शेष बचे त्रिफला और कटुकी , इनके चूर्ण को यदि निम्ब पत्रों की भावना दी जाए , तो भी यह कल्प, स्नेह के साथ या स्निग्ध अनुपान के साथ उचित और शास्त्रसुसंगत होगा!!! 


किंतु इतना करने की आवश्यकता ही नहीं 🙂

... अगर आप "कल्पशेखर भूनिंबादि" देखेंगे , तो इसमें त्रिफला कटुकी और निंब इनका समावेश पहले से ही है ... साथ में वासा गुडूची पटोल पर्पट और मार्कव इनका भी इसमें समावेश होने के कारण यह "कल्पशेखर भूनिंबादि", आरोग्यवर्धिनी के सुसंगत और शास्त्रीय घटक द्रव्य त्रिफला कटुकी नंबर इनकी तुलना में भी, अधिक उपयोगी सुरक्षित और श्रेष्ठ कल्प है, यह निश्चित!!!✅️👍🏼


✍🏼 कल्प'शेखर' भूनिंबादि एवं शाखाकोष्ठगति, छर्दि वेग रोध तथा ॲलर्जी 👇🏼

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इसलिए अत्यंत कॉस्टली (रसकल्प होने के कारण), आरोग्यवर्धिनी का , शास्त्रोक्त मात्रा में प्रयोग किए बिना, मनघडन व्यवहार = प्रॅक्टिस में इर्लीव्हन्ट उपयोग करने की जगह, यदि शास्त्रीय सुरक्षित इस प्रकार के "कल्पशेखर भूनिंबादि" का यहां पर उपयोग किया जाए, तो यह अत्यंत योग्य और पेशंट के हित में होगा!!! ... साथ ही पेशंट एवं वैद्य, दोनो के लिए भी यह अफॉर्डेबल है 


अगर ठीक से कुष्ठ रोग अधिकार देखा जाए तो,

माधव निदान में कुष्ठ के पहले नाडीव्रण भगंदर उपदंश शूकदोष का वर्णन है , "जो क्लेदप्रधान रोग" है और कुष्ठ के पश्चात ... पुनः "क्लेदप्रधान" ही अम्लपित्त शीतपित्त विसर्प विस्फोट मसूरिका इनका वर्णन आता है ...

अर्थात यह सारे "क्लेद प्रधान व्याधियों का संप्राप्ति मार्ग है", इसी कारण से कुष्ठ में उल्लेखित आरोग्यवर्धिनी की जगह , यदि कुष्ठ के समान ही क्लेद प्रधान संप्राप्ति जिसमें है ऐसे अम्लपित्त अधिकार में उल्लेखित कल्प शेखर भूनिंबादि का प्रयोग कुष्ठ के संप्राप्ति में करना, वह भी स्निग्ध अनुपान के साथ, यह अत्यंत उचित शास्त्र सुसंगत और पेशंट के लिए हितकारक तथा वैद्य के लिए अफॉर्डेबल होगा


वटी की मात्रा एक कर्ष है अर्थात 10 (या 12) ग्राम है. तो 250 मिलीग्राम की 40 टैबलेट देना आवश्यक है. किंतु यदि जिस चूर्ण की टॅबलेट बन रही है, उस चूर्ण को उसी चूर्ण की 7 भावनाएं दी जाए, तो यह मात्रा एक सप्तमांश 1/7 अर्थात 14% तक नीचे आती है ... इसी कारण से 250 mg की 40 गोली देने के बजाय, केवल 6 गोलियों में इच्छित कार्य परिणाम कारक रूप से हो सकता है. ✅️👍🏼


आरोग्यवर्धिनी की शास्त्रोक्त मात्रा कोल प्रमाण है. कोल का अर्थ = अर्ध कर्ष होता है = जो 5 ग्राम के बराबर आता है , तो 250 मिलीग्राम की 20 टॅबलेट देना, एक समय में, आवश्यक है... जो प्रॅक्टिकली इंपॉसिबल है पेशेंट के लिए असुविधा कारक है तथा नॉन अफॉर्डेबल है, कॉस्टली है , रसकल्प पर होने के कारण !!!


इन सभी मुद्दों का अगर आप शास्त्र , व्यवहार , पेशंट का हित तथा ॲफॉर्डेबिलिटी (पेशंट और वैद्य दोनों के लिए) इन सभी बातों का विचार करें, तो आरोग्यवर्धिनी जैसे शास्त्रविसंगत अत्यंत रूक्ष कल्प की जगह, यदि क्लेद जन्य संप्राप्ति में उल्लेखित, अम्लपित्त अधिकार में उल्लेखित, कल्पशेखर भूनिंबादि का प्रयोग करेंगे, तो आपको आपकी अपेक्षा से भी अधिक अच्छे रिजल्ट्स, कम समय में प्राप्त होंगे.


आरोग्यवर्धिनी के लिए लिखा गया है कि, 42 दिन अर्थात एक मंडल = 6 सप्ताह में सभी कुष्ठ का नाश 🤔⁉️करती है ... 

कुष्ठं दीर्घ रोगाणाम् ऐसा चरकोक्त अग्रे संग्रह है

कुष्ठ यह एक दीर्घरोग है ... दीर्घरोग का अर्थ यह क्रॉनिक होता है, जिसमें रिकरंस फ्लेअर्स यह बात बहुत ही सामान्य है, तो ऐसी स्थिति में केवल 6 सप्ताह में आरोग्यवर्धिनी से सभी कुष्ठ नष्ट हो जाएंगे , यह एक अशास्त्रीय और आगम प्रमाण से विसंगत विधान है!!! 


इसलिए प्रॅक्टिकल, व्यावहारिक स्तर पर जो संभव है, ऐसी अपेक्षा रखकर , कुष्ठ में कल्पशेखर भूनिंबादि का, स्निग्ध अनुपान के साथ, यदि 3 से 6 मास तक आहार के पथ्यपालन के साथ, प्रयोग किया जाए , तो निश्चित रूप से सभी प्रकार के कुष्ठ में त्वचा रोगों में रक्त पित्त दुष्टि में "कल्पशेखर भूनिंबादि" अत्यंत कार्यकारी सिद्ध हो सकता है.


अर्थात "औषध अन्न और विहार" इन तीनों का समन्वय👍🏼 ही पेशंट को आरोग्य की प्राप्ति ✅️करा सकता है ...

इसलिए "कल्पशेखर भूनिंबादि" देते समय, पेशंट के आहार में अम्ल वर्ग के पदार्थ ,अति नमकीन पदार्थ, जमीन के नीचे आने वाले अंडरग्राउंड पदार्थ , मैदा और कॉर्नफ्लोअर से बनने वाले पदार्थ जैसे की बेकरी पिझ्झा इत्यादि तथा कुकर में पकने वाले अन्न पदार्थ, सभी पल्प और फ्लुईड वाले अन्न पदार्थ वर्ज्य रखेंगे ; जैसे यह निगेटिव्ह पथ्य है या अपथ्य है, ...


वैसे ही पॉझिटिव पथ्य के रूप में ...

सुबह के नाश्ते में मूंग मसूर चवळी ...

दोपहर के भोजन मे फुलके, वेलवर्गीय लंबी फल वाली सब्जियां = गॉर्ड्स, कुकर में ना पकाया हुआ चावल, मांड/स्टार्च निकालकर और

रात्रि के भोजन में ... हो सके तो केवल लाजा या मूंग से बने पदार्थ या मूंग की खिचड़ी इतना ही आहार करेंगे ... 

तो निश्चित रूप से व्याधि की क्राॅनिसिटी के अनुसार और रुग्ण के वय के अनुसार ... 3 से 6 महीने में सभी कुष्ठ/ त्वचा रोगों में "कल्पशेखर भूनिंबादि" के उपयोग से पेशंट को आरोग्य की प्राप्ति निश्चित रूप से हो सकती है.

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Tuesday, 11 March 2025

डायबिटीस टाईप टू में, औषध अन्न विहार + रिपोर्ट इनका प्रशस्त नियोजन, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda के अनुसार

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औषधान्नविहाराणाम् उपयोगं सुखावहम्॥

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अन्न 


नाश्ता = ब्रेकफास्ट

सुबह के नाश्ते मे मूग मसूर चवळी उडीद इन से बने हुए चीला डोसा उसळ धिरडं पिठलं आप्पे (वडे अगर लिपिड्स नॉर्मल हो तो ... वडे छोटे छोटे तलना, अपने अंगुली के पर्व के आकार के, जैसे मूंग भजी होते है वैसे, बडे बडे बडे नही तलना, मेदुवडा की तरह) अर्थात प्रोटीन =हर्बल प्रोटीन= नैसर्गिक रूप मे आहार के रूप मे सुबह नाष्टे मे देना.


चिकन अंडे मच्छी ऐसी प्रोटीन वाली चीजे नही देना


पनीर मे भी प्रोटीन होता है, किंतु बाजार के पनीर मे कॉर्नफ्लोअर होता है और घर मे बने हुए पनीर मे भी दूध के फॅट = लिपिड तथा लॅक्टोज अर्थात शुगर होती है.


तो सर्वाधिक अच्छा है कि हप्ते मे पाच 5 बार मूंग मसूर चवळी उडीद से बने हुए व्यंजन 


एखाद बार नॉनव्हेज = बकरे अजा goat का मटन देना (अवि मेंढी लॅम्प शीप बोल्हाई का नहीं)  किंतु वह भी बोनलेस खिमा गर्दन मांडी यहा का न देते हुए , सीना+चाॅप के रूप मे देना 


और एकादबार पनीर (घर मे बना हुआ) देना ... ठीक रहेगा.


दोपहर का भोजन = lunch  

इसमें पूरा/संपूर्ण/complete भोजन अर्थात 

1. मूंग की दाल (या मसूर की चवली की उडद की)

2. चावल (कुकर मे पकाया हुआ नही ... मांड निकाला हुआ = स्टार्च स्ट्रेन आउट किया हुआ, चावल के दानो को शुद्ध देसी घी पर भून के रखा हो, तो जादा अच्छा) 

3. रोटी के बदले फुलके और 

4. लंबी वेलवर्गीय फल वाली सब्जी या अर्थात Gourds = पडवळ दुधी भोपळा घोसाळ गिलक दोडका गवार भेंडी वांग शिमला मिरची शेवगा कोहळा ... 10 सब्जियां व्हरायटी के लिए काफी है, ये भी मूंग डाल डालकर पकाये 


सॅलड खाना ही है तो कम मात्रा मे खाये ... मूली काकडी ये ठीक है ... गाजर बीट कोबी ये न खाये


मुख्य रूप से भोजन के जो चार अंग है 

अर्थात कार्बोहाइड्रेट = फुलके और (कुकर के बिना पकाया हुआ) चावल 

प्रोटीन = मूंग या उसकी की दाल या मसूर चवळी उडद इन से बनी सब्जी = उसळ वरण आमटी पिठलं. 

मूंग या मसूर चवळी उडद ये कभी भी अंकुरित स्प्राऊटेड करके न खाये

फायबर के रूप मे लंबी वेलवर्गीय फल वाली सब्जीयां अर्थात गॉर्ड्स और इन सबको यथा संभव , कम से कम तेल या शुद्ध देसी घी का तडका आवश्यकता नुसार 


रात का भोजन अर्थात डिनर 

यह डायबिटीस टाईप टू तथा ओबेसिटी कोलेस्टेरॉल इनका मुख्य कारण है 

डिनर इस द कल्प्रिट dinner is the culprit 

डिनर ही सर्वदोषकारी है 

प्रायः 30 35 40 उमर के पश्चात्, हमारे शरीर मे तारुण्य यौवन की तरह शीघ्र धातु वृद्धी नही होती है 

और इसी उमर मे हमारा लाइफस्टाईल , सभी का जीवनशैली इस प्रकार का होता है ... हम बेडसे उठते है, कमोड पर बैठते है, बाद मे डायनिंग चेअर पर बैठकर नाश्ता करते है, फिर टू व्हीलर बस रिक्षा कार इसमे बैठकर हमारे कार्यस्थळ ऑफिस बिजनेस दुकान स्कूल कॉलेज यहा जाते है, वहा पर भी चेअर बेंच इस पर बैठते है, फिर वापस किसी ना किसी वाहन की सीट पर बैठकर घर आते है, फिर सोपे पर बैठकर टीव्ही/ मोबाईल या लॅपटॉप देखते है, फिर डायनिंग चेअर पर बैठकर डिनर करते है और फिर बेड पर सो जाते है ... ऐसी जीवनशैली मे, अगर हम डिनर मे ... फिरसे दाल चावल सब्जी रोटी ऐसा "संपूर्ण आहार" लेंगे और उसके बाद छ से आठ घंटे तक, बिना कोई चलन वलन करे बिना मूव्हमेंट करे हालचाल किये बिना, बेड पर पडे रहेंगे ... तो डिनर के समय, शरीर मे जाने वाला कार्बोहाइड्रेट शुगर ग्लुकोज जल पृथ्वी क्लेद , इसका कोई भी उपयोग नही होता है ... और यह रोज रात्री के भोजन मे रोज के डिनर मे शरीर मे अनावश्यक रूप मे संचित होने वाला, जिसका कभी भी उपयोग नही होता है, ऐसा अन्न, शरीर मे आगे जाकर , दीर्घकाल संचित होकर ... शुगर कोलेस्टेरॉल ओबीसीटी डायबेटीस और अन्य कई तरह की संतर्पण जन्य विकारों का मुख्य निदान बनता है ... इसलिये डिनर इज द कल्प्रिट डिनर सर्व दोष प्रकोपक है 


इसलिये डिनर मे ऐसा भोजन करे की ... जो उदर की पूर्ती करे क्षुधा का शमन करे ... किंतु शरीर मे नये रूप मे अनावश्यक रूप मे अधिक रूप मे एक्स्ट्रा रूप मे अनुपयोगी रूप मे फिरसे , शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज जल पृथ्वी क्लेद इनका संवर्धन डिपॉझिशन ना करे 


इसलिये सबसे आदर्श है की डिनर मे लाजा = साळीच्या लाह्या खाये ... राईस फ्लेक्स कुरमुरे चिरमुरे मुरमुरे नही. लाजा= जो हम लक्ष्मी पूजन मे प्रसाद के रूप मे लक्ष्मी जी को चढाते है ये साळीच्या लाह्या जिसे कई जगह खील कहा जाता है. उपर इसका चित्र लेखके आदि और अंत मे दिया है. साळीच्या लाह्या उपलब्ध न हो तो, ज्वारी लाह्या बनाये, इसके कई व्हिडिओ युट्युब पर उपलब्ध है 

मखाना न खाये , पॉपकॉर्न ना खाये 

ये लाजा अगर खाने मे अरुचिकारक लगे , तो उस को टेस्टी बनाने के लिए, धना जीरा अजवायन बडीशोप हलदी मिर्च नमक इनका शुद्ध देसी घी मे तडका लगाकर खाये.

किन्तु, इसमे कांदा फरसाण टमाटा शेंगदाणा ना मिलाये. 

ना ही इस लाजा को, जो रुक्ष है ... शोषणे रुक्षः ... शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज जल पृथ्वीक्लेदको शोषण करने वाला है , इस लाजा में दूध या दाल/ आमटी वरण रस्सा सांबार या अन्य कोई लिक्विड नही मिलाना है ... रुक्ष शुष्क रूप मे हि इसको खाना है ... आवश्यकता पडे तो टेस्ट के लिए उपर सुझाया वैसे उसको तडका देना है (फोडणी द्यायची आहे)


दिन मे दो बार दूध और शक्कर वाला चाय पियेंगे तो भी चलता है ... नही पियेंगे तो जादा अच्छा है ✅️


1. नाष्टे मे मूग मसूर चवळी का बनाया हुआ पदार्थ 


2. दोपहर मे पूर्ण भोजन (कुकर के बिना पकाया हुआ) और 


3. रात के भोजन मे लाजा खाना 



यह आदर्श आहार है ✅️👍🏼


लाजा एक बार खाने के बाद , यदि फिर से भूक लगे तो फिर से लाजा खाना है , 23 घंटे मे 46 बार भी भूक लगे तो फिर से लाजाही खाना है ... ऐसा संयम निर्धार रखेंगे तो रिझल्ट शीघ्र निश्चित रूप से आता है 


लाजा खाने का अगर उद्वेग आ जाये तो ... मूग मसूर चवळी से बने हुए चीला के साथ, फल वाली सब्जी अर्थात गॉर्ड्स खाने है, जिससे की पेट मे फिर से प्रोटीन और फायबर जायेंगे ...


रात के भोजन मे किसी भी स्थिति मे गेहू चावल बाजरा ज्वार बटाटा साबुदाणा दूध फल ... ऐसा कार्बोहायड्रेट शुगर ग्लुकोज जल क्लेद पृथ्वी बढाने वाला आहार नही लेना है 


विहार 


विहार एक्सरसाइज व्यायाम जीवनशैली के रूप मे 

1. 70 मिनिट तक चलना और 

2. 10p बार स्पायनल ट्विस्ट और 

3. 100 बार एअर सायकलिंग करना 

यह अत्यंत आवश्यक है 


🚫⛔️❌️

किसी भी स्थिती मे दिन मे सोना नही हे 

दिवास्वाप नही करना है 

❌️🚫⛔️

अगर दिन मे नींद आये तो बैठ कर सोना है 

जैसे हम फ्लाइट मे कार मे बस मे बैठकर सोते है वैसे ... किसी कुर्सी या सिंगल सोफे पर बैठकर सामने दूसरी कुर्स पर उस पर पैर रखकर , दीवार पर सर लगाकर सो सकते है 

या स्कूल में जैसे बच्चों को हेड डाऊन करने के लिए बोलते है वैसे डायनिंग चेअर पर बैठकर सामने वाले टेबल पर माथा रख कर सो सकते है 


किंतु 180° मे दिन मे बेड पर सोपे पर लेट कर नही सोना है 

ज्यादा से ज्यादा 120 °or 135° में कर सोना है 


जादा अच्छा है कि दिन मे बिलकुल ही ना सोये 


रिपोर्ट: ब्लड टेस्ट 

हर 15 दिन बाद (ग्लुकोमीटर पर घर मे नही, अपितु ... ) लॅबोरेटरी मे व्हीनस ब्लड के साथ फास्टिंग पीपी ब्लड शुगर रिपोर्ट करे 

और हर 90 दिन के बाद, BSL F PP, Hba1c, Lipid Profile, LFT, RFT, Electrolytes, Calcium, Vit D, VitB12 , (& TSH अगर डिस्टर्ब है तो) रिपोर्ट अवश्य करे 


👍🏼 90 दिन के ट्रीटमेंट के बाद एचबीएवनसी 5.4 आ ही जाता है ✅️

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साधारण नियम ऐसा है की जितना एचबीएवनसी होता है इसमे से 5.4 मायनस करेंगे, तो जो उत्तर आयेगा, उतने महिने ट्रीटमेंट की आवश्यकता होती है


Articles about a few medicines that we manufacture

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वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक 

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Thursday, 6 March 2025

खुर्चीवर बसून किंवा बेडवर झोपून, घरच्या घरी करण्याचा ... तरीही चालणे आणि सूर्यनमस्कार यासारखाच परिणामकारक लाभदायक सर्वांगीण व्यायाम

खुर्चीवर बसून किंवा बेडवर झोपून, घरच्या घरी करण्याचा ... तरीही चालणे आणि सूर्यनमस्कार यासारखाच परिणामकारक लाभदायक सर्वांगीण व्यायाम

लेखक : ©️ © Copyright

वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. 

एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.

आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक.

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एअर सायकलिंग करण्याचे विविध लाभ आपण पूर्वी पाहिलेत ...

https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/12/complete-exercise.html


Air cycling

Spinal twist

Toe touch

https://youtu.be/5FGcJ4k0ZZA

या व्हिडिओ मध्ये 8 मिनिटे 10 सेकंद पासून पुढे करून दाखवलेले व्यायाम करावेत

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https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/12/do-dont.html

एअर सायकलिंग करण्याचा अजून एक विशेष लाभ असा होतो की ... पाऊल, घोटा, पिंडऱ्या/पोटऱ्या, गुडघा, मांडी आणि कमरेचा खुबा हे सर्व सांधे आणि त्याला जोडलेले मसल्स; या कमरे खालच्या शरीराच्या भागातील सर्व अवयवांना विशेष करून तत्केंद्रित व्यायाम निश्चितपणे होतो. (LOWER BODY COMPLETEEXERCISE). त्यामुळे थाईज आणि सीट (मांड्या आणि नितंब) येथील मेद फॅट चरबी कमी होते आणि अवघ्या पंधरा दिवसात तेथील इंच घेर परीघ circumference कमी झाला आहे, (inch loss upto 5%) असे अनुभवायला येते... सीट नितंब येथे साठलेला मेद फॅट चरबी अवघ्या 15 दिवसात, 5 टक्के पर्यंत (inch loss upto 5%) घेर परिघ सर्कम्फरन्स इंच कमी होतात ... म्हणजे 40 इंच सीटचा टमीचा घेर असेल तर तो पंधरा दिवसात दोन इंच (2 inch) कमी होऊन 38 इंच पर्यंत येऊ शकतो

एअर सायकलिंगच्या व्यायामामुळे पहिल्या पाच-सात दिवसातच , प्रत्यक्षात जमिनीवर चालताना ज्यांना , त्यातही विशेषतः स्त्रियांना , मांड्या घासल्या गेल्यामुळे , थाय रब thigh rub मुळे लाली आणि खाज (रॅश आणि इचिंग rash & itching) बंद होते.  ते बंद झालेले अनुभवाला आल्यामुळे खरोखरच मांडया thighs इथला मेद कमी झाला आहे, हा आनंद आत्मविश्वास वाढवणारा ठरतो.

याचप्रमाणे नितंबा वरचा = सीटवरचा मेद कमी झाल्याने, व्यक्ती पाच वर्ष यंग तरुण फ्रेश दिसू लागते ... सध्याचे कपडे सैल होतात, जुने कपडे पुन्हा फिट होऊ लागतात, साईज ही डबल एक्सएल (XXL) वरून एल (L) आणि एक्सेल (XL) वरून एम (M) पर्यंत खाली येते ... "रूप तेरा ऐसा ... दर्पण में ना समाये" अशा "अवाढव्य" आकारातून आपण हळूहळू का होईना, पण सुडौल शेप (shape) मध्ये येत आहोत , असे जाणवायला लागते. आपल्या व्यक्तिमत्त्वात शरीरयष्टीत आणि एकूणच सौंदर्यात ही सकारात्मक भर पडल्यामुळे, प्रत्येकाचा आनंद आणि आत्मविश्वास दुणावतो, हे पंधरा दिवसातच सुरुवातीला जाणवते ... आणि सातत्याने दीड महिना केल्यास हा फरक सर्वांच्याच नजरेत भरण्याजोगा स्पष्ट ठळक ठसठशीत असा होतो.

आणि हे सातत्य 90 दिवस टिकले तर , आपणच आपल्याला नव्याने सापडतो ... यु विल फाइंड अ न्यू यु You will find a "New You" ... एकाच या जन्मी जणू फिरुनी नवे जन्मेन मी


दुसरे असे की ... सातत्याने श्रोणी म्हणजे पेल्विस = कटी या भागातील सांधे विशिष्ट गतीने उलटपालट दिशेने हलल्यामुळे, तेथील गती संवर्धन =अपान वायूचे कार्य कुशलता ही चांगल्या पद्धतीने सुधारते आणि याच भागामध्ये मलप्रवृत्ती= संडासला होणे =मोशन्स, मूत्रप्रवृत्ती =लघवी =युरीन आणि रजप्रवृत्ती= पाळी= मेंसेस या बाबी असतात आणि शिवाय गर्भधारणा ही याच भागात होते ; त्यामुळे या चारही शारीर भावांसाठी म्हणजे 1संडास 2लघवी 3पाळी आणि 4गर्भ यांच्यासाठी एअर सायकलिंग हा व्यायाम अतिशय सुरक्षित उपयोगी उपकारक हितकारक असा आहे.


एअर सायकलिंग चा अजून एक चांगला भाग म्हणजे ...

कमी वेळात, अधिक परिणामकारक व्यायाम ... यामुळे होतो.


आपण जन्माला आल्यानंतर अकराव्या महिन्यापासून उभे राहून एकेक पाऊल टाकायला सुरू करतो आणि प्रायः मरेपर्यंत आपण पायांवरती चालत असतो. त्यामुळे "चालणे" ही एक "सहज प्रवृत्ती" मानवी जीवनात आहे , त्यामुळे ठरवलं तर माणूस रोज पाच ते सहा किलोमीटर सहज ... आणि थोडे अधिक प्रयत्न केले तर दहा किलोमीटर पर्यंत ... आणि अगदी जिद्दीने ठरवलं तर 20 40 किलोमीटर पर्यंत सुद्धा चालू शकतो!!! त्यामुळे चालण्याचा व्यायाम हा तितकासा परिणामकारक होत नाही, जरी तो अतिशय लोकप्रिय व्यायाम असला तरी !!!

आज प्रत्येक शहरांमध्ये अनेक ठिकाणी जॉगिंग ट्रॅक तयार झालेले आहेत आणि त्याच्यावर लोक "घरातली काम करायचं सोडून", तिथे येऊन चालण्याचे राउंड मारत बसतात !!! 

चालताना आपल्या मित्रपरिवार किंवा सोबत असलेल्या व्यक्तीबरोबर गप्पा मारतात... बाहेर आलं की तिथे ठेवलेले कसले कसले ज्यूस पितात ... त्याचा आरोग्य शास्त्राशी व केलेल्या व्यायामाने होऊ शकणारे लाभ याच्याशी कसलाही संबंध सुतराम नसतो


शिवाय समूहाने आलेले असल्यास घरी जाताना कुठल्यातरी टपरीवर चहा आणि प्रायः शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज फॅट चरबी मेद वाढवणारा = पोहे इडली उपमा सामोसा वडा असा नाष्टा करतात!!! 


त्यामुळे चालण्याच्या व्यायामाचे अपेक्षित परिणाम दिसलेत , अशी माणसं नगण्य असतात.


म्हणूनच वर्षानुवर्षे चालून सुद्धा थुलथुलित ढेरी कमी होत नाही. 


याउलट ...

जर पाठीवर झोपून, एअर सायकलिंग करताना, कमरेच्या खालचा संपूर्ण शरीर भाग, साधारणतः 45° पर्यंत, हवेत उचलून, पायांनी क्लॉकवाईज आणि अँटी क्लॉकवाईज = पुढच्या आणि मागच्या दिशेने, एअर सायकलिंगचा व्यायाम केला ... तर सर्वसामान्य माणूस सहजपणे जितकं चालू शकतो, त्याच्या वीस पंचवीस टक्के (20%-25%) सुद्धा वेळा करता, एअर सायकलिंग करणे शक्य होत नाही !!!

कारण तेवढ्यात तुमचे पायाचे, कमरेपर्यंत स्नायू भरून येतात, थकतात, दमतात!

याचाच अर्थ त्यांना आवश्यक असलेला व्यायाम पूर्ण होतो ... अतिशय कमी वेळात... चालण्याच्या व्यायामाच्या तुलनेत अवघ्या वीस ते पंचवीस टक्के वेळात एक तास चालण्याच्या व्यायामाचे लाभ निश्चितपणे मिळतात 

अर्थात एक तास = 60 मिनिटे चालण्याऐवजी, घरच्या घरी बेडवर किंवा जमिनीवर झोपून केलेल्य, केवळ 12 ते 15 मिनिटांच्या एअर सायकलिंगच्या व्यायामाने लोअर बॉडी एक्सरसाइजचे सर्वांगीण लाभ मिळतात

आणि कुठल्याही प्रकारचा धोका / इजा न होता !!


म्हणजे एअर सायकलिंग मुळे कमरेखालच्या शरीराचा संपूर्ण व्यायाम पुरेशा प्रमाणात होतो ... शिवाय देहाचा अतिरिक्त भार गुडघ्यावर न पडल्यामुळे, गुडघे दुखणे सुजणे असे होत नाही, घोटा पाऊल लचकणे असे होत नाही, पिंडऱ्यांना पोटऱ्यांना क्रॅम्प येणे असे होत नाही ... अनेक स्त्रियांना होत असलेला मांड्यांना खाज सुटणे असा भाग होत नाही, कंबर दुखत नाही ... कारण कमरेला बेडवर किंवा जमिनीवर झोपलेले असल्यामुळे, पुरेसा आधार असतो!!! 


त्यामुळे ह्या दोन बाबी लक्षात घेता, 

एअर सायकलिंग हे कंबरेच्या वरील शरीराच्या ओझ्याचा भाराचा वजनाचा दुष्परिणाम, कंबर मणके गुडघे घोटा पाऊल , यावर नुकसानकारक रित्या होऊ न देता , 

शिवाय आपल्या अपान क्षेत्रातील म्हणजे कटी क्षेत्रातील म्हणजे पेल्विस या एरियातील मल मूत्र शुक्र रज गर्भ या सर्व बाहेर उत्सर्जित होणाऱ्या शारीरभावांची स्थिती अत्यंत चांगली राहील, 

याची व्यवस्था, ह्या एअर सायकलिंग मुळे निश्चितपणे होते


अशा प्रकारे ... एअर सायकलिंग हा शरीराच्या खालच्या भागाचा, कमरेच्या खालच्या शरीराचा (Lower Body Exercise) सर्वांगीण व्यायाम करण्या साठी, अतिशय निर्धोक, सोपा, घराबाहेर न पडता, बेडवर झोपल्या झोपल्या करण्याचा, अतिशय परिणामकारक लाभदायक खात्रीशीर उपाय आहे


स्थिर सायकल किंवा प्रत्यक्ष सायकलिंग करणे, हा मात्र तितकासा चांगला व्यायाम नाही, कारण अशा प्रकारच्या सायकलिंग मध्ये शरीराचा कमरेच्या वरचा सर्व भाग हा "स्थिर" असतो आणि सायकलचे हँडल धरण्यासाठी आपण आयुष्यभर जसे बसलेलो आहोत तसाच पुन्हा "फॉरवर्ड वेंडिंग"= पुढे वाकणे या स्थितीतच शरीर राहते.

शिवाय हातांना दुसरे काहीही काम नसल्यामुळे, हात खांदा हे आखडणे असे होऊ शकते. शिवाय सायकलिंग करताना केवळ पाऊल आणि पोटऱ्या गुडघे यांनाच सर्वाधिक कष्ट होतात, तर मांडी आणि कमरेचा सांधा यांना मध्यम व्यायाम होतो ... परंतु एकदा सायकल ला गती आली की हे सर्व पॅडल मारणे आणि त्यामुळे होऊ शकणारा व्यायाम हा थांबतो ... शिवाय अत्याधुनिक सायकल गिअर सहित असल्या तर, खरोखरच व्यायाम होतो असे नसून, फक्त स्टाईल मध्ये, स्टेटस साठी, चित्रविचित्र कपडे घालून, फेरफटका मारून आले, एवढेच होते... किंवा अति सायकलिंगच्या हौसेमुळे , पुढे जाऊन मणके कंबर मांडीचा खुबा गुडघे घोटा आणि याला जोडलेले सर्व स्नायू मसल यांना दुखापत होणे शक्य असते ...

शिवाय रस्त्यावरती असुरक्षितपणे सायकलिंग करत असल्यामुळे, अपघाताचा/ स्वतःहून पडण्याचा किंवा इतरांकडून धडक बसण्याचा धोका संभवतो.


याव्यतिरिक्त चढावर सायकल चालवणे किंवा उतारावर सायकल चालवणे या दमछाक होणे किंवा तोल जाणे= संतुलन न राहणे, यामुळे अनेकांना हृदयविकाराचा त्रास किंवा पडझडीचे प्रसंग अनुभवाला आलेले आहेत.


म्हणून असा अतिशय धोकादायक आणि फारसे लाभ न देणारा महागडा ... सायकलिंगचा व्यायाम, तोही असुरक्षित वातावरणात करण्यापेक्षा ... घरच्या घरी बेडवर किंवा जमिनीवर झोपून, कितीतरी जास्त लाभ, कमीत कमी वेळात निश्चितपणे देणारा, एअर सायकलिंग हा व्यायाम करणे, सुरक्षित आणि इष्ट आहे✅️ 


एअर सायकलिंग हा कमरेच्या खालच्या भागातील शरीराचा (Lower BodyExercise) सर्वांगीण व्यायाम आहे.


चालणे आणि सूर्यनमस्कार यापेक्षा सुद्धा...

एअर सायकलिंग आणि स्पायनल ट्विस्ट ही जोडगोळी शरीराचा सर्वांगीण व्यायाम करण्यासाठी, कमी वेळात अधिक परिणामकारक व उपयोगी आहे... तेही घराबाहेर न पडता!!!

सूर्यनमस्कार करण्यासाठी थोडेफार का होईना, पण कौशल्य आवश्यक असते ... आणि मुख्य म्हणजे कंबर मनगट खांदा गुडघे घोटा हे सर्व सांधे व स्नायू मजबूत आणि वेदना रहित असणे, आवश्यक असते!

एअर सायकलिंग आणि स्पायनल ट्विस्टच्या बाबतीत मात्र या सर्व सांध्यांच्या ठिकाणी पुरेशी शक्ती नसली आणि थोड्याफार वेदना असल्या, तरीही हे दोन व्यायाम निश्चितपणे करता येतात

... ... ...


स्पायनल ट्विस्ट ... हा कमरेच्या वरच्या शरीर भागाचा (Upper BodyExercise) सर्वांगीण व्यायाम आहे...

कारण स्पायनल ट्विस्ट म्हणजेच खुर्चीवर बसून किंवा पाय पसरून L शेपमध्ये जमिनीवर बसून पाठीचा कणा 18 ते 270° अंशामध्ये पिळणे,

जणू अर्धमत्स्येंद्रासन... न थांबता, उभय बाजूने करत राहणे म्हणजेच स्पायनल ट्विस्ट !!!


यामध्ये कमरेपासून वरती खांद्यापर्यंत म्हणजे पेल्विक गर्डल ते शोल्डर गार्डन यामध्ये असणारे सर्व स्नायू सर्व मसल्स हे पुरेशा/ मॅक्झिमम प्रमाणात पिळले जातात, वापरले जातात, त्यामुळे त्यांचा चांगला व्यायाम होतो.

यामुळे पोट आणि दोन्ही कुशी (= टमी आणि टायर्स Tummy & Tyres) येथे लोंबकळत (loose suspended) असलेला मेद फॅट चरबी अवघ्या 15 दिवसात, 5 टक्के पर्यंत (inch loss upto 5%) घेर परिघ सर्कम्फरन्स इंच कमी होतात ... म्हणजे 40 इंच पोटाचा टमीचा घेर असेल तर तो पंधरा दिवसात दोन इंच (2 inch) कमी होऊन 38 इंच पर्यंत येऊ शकतो

जुने शर्ट , जुने ड्रेस , जुने टी-शर्ट विशेषतः ... पुन्हा फिट बसू लागतात ... आपले पोट आकाराने कमी झाल्यामुळे, आपल्या चेहऱ्यावरचे आरोग्याचे आत्मविश्वासनचे आनंदचे उत्साहाचे तेज ग्लो & ग्लोरी Glow & Glory वाढत जाते

 दुसरे असे की दोन्ही बाजूला पाठ पिळली जात असल्यामुळे, आपल्या शरीरात, पुढच्या बाजूने असलेले, मोठे आतडे, पक्वाशय, लार्ज इंटेस्टाइन आहेत , यातून वहन होणारा मल पदार्थ = पुरीष =विष्ठा फीकल मटेरिअल व गॅसेस यांचे संचरण पुढे जाणे= पुरःसरण , हे सहजपणे होते. 


दुसरे असे की ...

उजव्या कुशीला यकृत, डाव्या कुशीला प्लीहा आणि पॅन्क्रियाज तसेच जठर =आमाशय =स्टमक या बाबी आहेत आणि संपूर्ण पोटामध्ये लहान आतडे, इंजिनिअरिंगची कमाल या अर्थाने चोपून चापून व्यवस्थित बसवलेले आहे ... या सर्व पचनसंस्थेची संबंधित असलेल्या अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवयवांना योग्य त्या प्रकारचा ताण पडल्यामुळे आणि तो ताण दुष्परिणामकारक नसल्याने, सुरक्षित असल्याने, त्यांची कार्य कुशलता निश्चितपणे वाढते अर्थात स्पायनल ट्विस्ट चा व्यायाम हा त्यासाठी सातत्याने किमान सहा आठवडे केलेला असेल तर त्याचा अशा प्रकारचा लाभ दिसून येतो ... 


भूक न लागणे, पोट जड होणे, अन्न किंवा पित्त किंवा आंबट कडू तिखट वरती वरती छातीपर्यंत घशापर्यंत येणे, गॅसेस होऊन पोट गच्च होणे, पित्ताशयात खडे होणे, पोटामध्ये वारंवार दुखत राहणे, पोट साफ न होणे, पाळीच्या वेळी पोटामध्ये ओटी पोटामध्ये कमरेमध्ये क्राईम्प येणे, दुखणे कंबर धरणे, पाठीला उसण भरणे, खांदे दुखणे , दोन्ही हात वरती न जाणे, एक हातमागे न जाणे , फ्रोजन शोल्डर , सर्वायकल स्पाॅण्डिलोसिस लंबर स्पाॅण्डिलोसिस सायटिका डिस्क बल्ज एल फाईव्ह एस वन डी जनरेशन (L5 S1 Degeneration) अशा आतडे , आमाशय लिव्हर पक्वाशय,  मानेचे पाठीचे कमरेचे मणके, पाठीचा कणा, स्पाईन , शोल्डर गर्डल , पेल्विक गर्डल यांच्याशी संबंधित, बहुतेक प्राथमिक तक्रारी , स्पायनल ट्विस्ट केले असता, होत नाहीत...


सगळ्यात महत्त्वाचे की ...

माणूस गर्भावस्थेपासून तर मरेपर्यंत प्रायः, पुढे वाकून फॉरवर्ड सी C बेंडिंग या परिस्थितीत बसतो. मग ते कमोड वर बसणं असो, डायनिंग चेअर वर बसणं असो, जमिनीवर पाटावर जेवायला बसणं असो, डायनिंग टेबलवर चेअरवर बसणं, टू व्हीलर फोर व्हीलर मध्ये बसणं असो, रिक्षा बस मध्ये बसणं असो, आपल्या कॉलेज ऑफिस व्यवसायाची जागा येथे खुर्ची बेंच याच्यावर बसणं असो ... या सगळ्यांमध्ये माणूस फॉरवर्ड C सी बेंडिंग पुढे वाकणे पुढे झुकणे या स्थितीतच असतो !

त्यामुळे कंबर ते खांदा यातील पाठीचे स्नायू कधीच सहजपणे मागच्या दिशेने वाकत नाहीत, बॅकवर्ड बेंडिंग होत नाहीत, ते चांगल्या पद्धतीने सूर्यनमस्कारांमध्ये होते पण सूर्यनमस्कार करणे हा एक कौशल्याचा भाग आहे आणि ज्यांना मनगट कोपर खांदा पाठ कंबर गुडघा घोटा पाऊल या ठिकाणी वेदना सूज झिजणं असं आहे, त्यांना सूर्यनमस्कार करणे शक्य होत नाही! 


विशेषतः अलीकडच्या काळात डेंग्यू चिकनगुनिया नंतर या सर्वसांध्यांच्या बाबतीत वेदना , जखडल्यासारखे होणे अशा तक्रारी ज्यांना आहेत , त्यांना सूर्यनमस्कार करणे, इच्छा असून सुद्धा होत नाही! 

त्यामुळे कंबर ते खांदा (पेल्विक गर्डल ते शोल्डर गर्डल) यातील सर्व मसल्स , सर्व मणके , सर्व बरगड्या यांना उचित प्रकारचा व्यायाम व्हावा , बॅकवर्ड बेंडिंग नाही, तर ... किमान साईड टू साईड बेंडिंग तरी व्हावं , या दृष्टीने स्पायनल ट्विस्ट हा अतिशय चांगला व्यायाम आहे


त्यामुळे *स्पायनल ट्विस्ट आणि एअर सायकलिंग*, हे संपूर्ण शरीराच्या , सर्वांगीण व्यायामासाठी ,अतिशय सुरक्षित , घरातल्या घरात करता येण्याजोगे , अगदी झोपून किंवा बसून करता येण्याजोगे, कुठल्याही प्रकारची पळवाट एक्सक्युज निमित्त कारणे नखरे नाटकं न करता, प्रतिदिनी व्यायाम , घरच्या घरी नियमितपणे , निश्चितपणे लाभदायक रीत्या करता येईल यासाठी ही जोडी , *"एअर सायकलिंग + स्पायनल ट्विस्ट"* ही अतिशय उपयोगी आहे.


स्पायनल ट्विस्ट मध्ये कमरेच्या वरच्या भागाचा ( Upper Body Exercise) आणि एअर सायकलिंग मध्ये कमरेच्या खालच्या भागाचा (Lower Body Exercise)  असा शरीराच्या दोन अर्ध्या अर्ध्या भागांचा मिळून, संपूर्ण शरीराचा सर्वांगीण व्यायाम, पुरेशा प्रमाणात सुरक्षित रित्या निश्चितपणे होऊ शकतो ...


फक्त याला सातत्य हवे, किमान सहा आठवड्यांचा हा व्यायाम प्रतिदिनी , रोज शंभर सीटिंग = काऊंटिंग, इतक्या प्रमाणात केल्यास, त्याचे अतिशय चांगले, अपेक्षेपेक्षा अधिक लाभ देणारे , परिणाम प्रत्येकाला मिळू शकतात !!!

व्यायाम ... कोणत्या प्रकारचा? कुणी? कधी? ... करावा? आणि करू नये? व्यायामाविषयक विधी निषेध डूज डोन्ट्स फॉर एक्झरसाइज Do's & Don'ts for Exercise 

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लेखक : ©️ © Copyright 

वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. 

एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.

आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक.

9422016871

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Friday, 28 February 2025

सूतशेखर : वास्तविक मूल्यांकन

सूतशेखर : वास्तविक मूल्यांकन

सभी वैद्यों के आयुर्वेदिक चिकित्सकों के प्रॅक्टिस मे प्रायः हा सर्वाधिक लोकप्रिय सर्वाधिक उपयोग मे आने वाला रसकल्प सूतशेखर है.

इसका रोगाधिकार अम्लपित्त है 

और इसका उल्लेख योग रत्नाकर मे है 

जहा पर योग रत्नाकर ने यह सार संग्रह से लिया है ऐसा संदर्भ स्वयं लिखा है 

अथ सूतशेखर रसः सारसंग्रहात्

शुद्धं सूतं मृतं स्वर्ण टङ्कणं वत्सनागकम् ।

व्योषमुन्मत्तबीजं च गन्धकं ताम्रभस्मकम् ॥ १ ॥

चतुर्जातं शङ्खभस्म बिल्वमज्जा कचोरकम् । 

सर्व समं क्षिपेत्खल्वे मर्छ भृङ्गरसैर्दिनम् ॥ २ ॥

गुञ्जामान्नां वीं कृत्वा द्विगुञ्ज मधुसर्पिषी ।

भक्षयेदम्लपित्तघ्नो वान्तिशूलामयापहः ॥ ३॥

पञ्च गुल्मान्पञ्च कासान्ग्रहण्यामयनाशनः ।

त्रिदोषोत्थातिसारघ्नः श्वासमन्दाग्निनाशनः ॥ ४ ॥

उग्रहिक्कामुदावतं देहयाप्यगदापहः ।

मण्डलान्नात्र संदेहः सर्वरोगहरः परः ।

राजयक्ष्महरः साक्षाद्रसोऽयं सूतशेखरः ॥५॥

इति सूतशेखरो रसः ।

अम्लपित्त रोगाधिकार मे आनेवाला यह, तीन रसकल्प मे से, अंतिम कल्प है.

तीनो रसकल्प मे पारद गंधक है 

दो मे ताम्र है 

पहला कल्प लीला विलास में त्रिफला और भृंगराज दोनों की 25 भावना है 

दूसरा कल्प रसामृत में भावना नही है 


और यह तिसरा और अंतिम कल्प सूतशेखर इसमे भृंगराज की अकेले के भावना है 


अम्लपित्त यह कफ पित्त, जल अग्नि, क्लेद इस प्रकार की स्थिति है ... तो अर्थात इसका चिकित्सा तत्त्व, कफ पित्त हर, जल अग्नी हर, क्लेदनाशक क्लेदशोषक रूक्ष इस प्रकार का होता है. इसमे आदर्श रूप मे तिक्त रस की औषधिया योग्य होती है


समान मात्रा मे सुवर्णभस्म कोई भी इस कल्प मे प्रयोग नही करता है. जिन लोगो ने सुवर्ण सूतशेखर इस प्रकार से अधिकृत मान्यता ली हुई है, वे भी एक शतांश इतनेही प्रमाण मे 1% इतनेही अत्यल्प = नगण्य प्रमाण में, सुवर्ण भस्म का कल्प मे समावेश करते है, फिर भी उन्हे ग्रंथोक्त अधिकृत सुवर्ण सूतशेखर ऐसी संज्ञा प्रयोग करने की "शासकीय अनुमती" प्राप्त है, किंतु यह "शास्त्रीय नही है", यह कोई भी जान/समझ सकता है. 


समान मात्रा मे स्वर्ण भस्म कल्प में समाविष्ट करना किसी के भी लिये, कॉस्ट की दृष्टि से संभव नही है. यह अत्यंत एक्सपेन्सिव्ह काॅस्टली महार्ह हो जायेगा! इसलिये सुवर्ण सूतशेखर "कहना तो है", किंतु उतनी मात्रा में स्वर्ण भस्म तो डालना ही नही है.


केवळ 1% डालकर, "शास्त्रीय संज्ञा का लाभ लेना" है यह ॲड्जस्टमेंट और दुर्दैव से "अनैतिक व्यापार" ही है!!!


अभी सामान्य रूढी ऐसी है की यद्यपि सूतशेखर का मूल पाठ मे सुवर्ण भस्म का उल्लेख है, तथापि मार्केट मे प्रॅक्टिस मे *सादा सूतशेखर* के नाम से *सुवर्ण भस्म विरहित, सूतशेखर* का बहुशः प्रयोग होता है, क्योंकि "वह सस्ते मे मिलता है".


अभी प्रथम प्रश्न यह है की, सूतशेखर मे मूल पाठ मे 14/17 घटकद्रव्य है जिनका समसमान प्रमाण लेना है 14/17 मे से यदि स्वर्णभस्म को हटा दिया जाये, "और तो भी प्रॅक्टिस मे तथाकथित अच्छे रिझल्ट आते रहते है", तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि यदि सुवर्णभस्म जैसे महत्वपूर्ण घटक को हटाकर भी, यदि रिझल्ट मिलते है, तो पारद गंधक ताम्र वत्सनाभ टंकण ऐसे विष सदृश और जिनका प्रायः है शरीर मे शोषण, पचन , धातू में रूपांतर होना , असंभव दुष्परिणामकारक है, ऐसे घटकों को निकाल दिया जाये तो त्रिकटु बिल्वमज्जा कचोरक और शंख भस्म ये मूल घटकद्रव्य, चूर्ण के रूप मे और भ्रंगराज रस भावनाद्रव्य के रूप मे शेष रहता है ... यह शेष रहने वाले घटक द्रव्य, जिनको हटा देना उचित है ऐसे विशेष केमिकल घटक द्रव्य की तुलना मे, सुरक्षित और आरोग्यकारक है , और उन का निश्चित रूप से शरीर की धातू मे परिणमन, शरीर मे शोषण / एबसॉर्पशन , पचन होता है.


पहला घटक द्रव्य , "शुद्ध सूत" अर्थ "शोधन किया हुआ पारद" इतना ही पर्याप्त है. वस्तूतः केमिस्ट्री के दृष्टि से पारद यह एक मेटल है, जो सामान्य तापमान में भी द्रव अवस्था मे होता है, किंतु यदि यह मेटल है, तो इसका भस्म होना मारण होना अत्यावश्यक है, क्योंकि पारद की तुलना मे , जो अन्य मेटल= धातू= लोह है, इनका प्रयोग तो *सम्यक मारण के पश्चात ही= उत्तम भस्म परीक्षा के बाद ही* कल्प में या चिकित्सामे किया जाता है. ऐसे स्थिती मे उस समय के विश्व में, सुवर्ण से थोडाही कम जिसका स्पेसिफिक ग्रॅव्हिटी =गुरुत्व है, ऐसे विषसमान पारद को मारण किये बिना, भस्म किये बिना, केवल शोधन करके काम चलाना यह मूलतः अशास्त्रीय है.


इसका एक मुख्य कारण यह है की, यद्यपि *"सिद्धे रसे करिष्यामि निर्दारिद्र्यम् इदं जगत्"* यह रसशास्त्र की प्रतिज्ञा है और *"लोहाना मारणम् श्रेष्ठं सर्वेषां रसभस्मना"* यह मूल सिद्धांत है, फिर भी रस अर्थात सूत अर्थात पारद का मारण पारद का भस्म यह रसशास्त्र के लिए एक असंभव ऐसी बात है!!! इसलिये कभी भी पारद का भस्म कोई बना ही नही पाया!!! इसलिये सूतशेखर मे मृत स्वर्ण है स्वर्ण भस्म है मारण किया हुआ स्वर्ण है... किंतु पारद का मारण पारद का भस्म बनाना यह किसी की क्षमता मे है ही नही!! इस कारण से मेटल होकर भी मृत रस के बजाय मृत सूत के बजाय रसभस्म सूतभस्म के बजाय, शुद्ध सूत = शुद्ध पारद इस से ही "काम चलाया" जाता है. यह ऍडजेस्टमेंट है, यह स्पष्ट है और इसमे कोई संदेह नही है की, जिन लोगों को पारद का भस्म बनाना आया ही नही , जो रसभस्म की जगह रस सिंदूर को चलाते आये, ऍडजेस्ट करते आये, उत्तम की जगह दुय्यम का प्रयोग करते आये है, "शुद्धं सूतम्" के नाम से "काम चलाते" आये है, उत्तम से नीचे के स्तर के कल्पो का निर्माण करते रहे है ... पारद का भस्म नही बना पाते है, इसलिये शुद्ध सूत = केवल शोधन किया हुआ पारद "चल सकता है", तो बाकी भी सभी धातु का मारण = धातुओं का भस्म करने का इतना महार् costly expensive दुष्कर उद्योग, एनर्जी रिसोर्सेस पैसा और समय की बरबादी , धातुओं के भस्म = धातुओं के मारण मे करने की आवश्यकता ही क्या है?

वैसे भी चरक संहिता वाग्भट संहिता सुश्रुत संहिता मे धातुओं के चूर्ण का ही प्रयोग लिखा है ... ये भस्म निर्माण = धातु का मारण, यह रिसोर्स समय काल & धन का अपव्यय है


जिस अम्लपित्त अधिकार में ये सूतशेखर आता है, उस अम्लपित्त मे पहले से ही ... पित्त है तेज है कटु उद्गार है दाह है, ऐसे स्थिती मे यह अत्यंत तीव्र वीर्य अग्नि समान विष सदृश पारद ... तो आग में और तेल डालने का ही काम करेगा अर्थात लक्षण वृद्धी रोग वृद्धी का ही कारण बनेगा ...


वही बात, दूसरा घटक गंधक की है, गंधक का भस्म नही हो सकता, क्योंकि वह मेटल नही है, इसलिये उसको शोधन करके प्रयोग करना है ... किंतु अम्लपित्त यह विदग्धाजीर्ण सदृश स्थिती है, ऐसी स्थिती मे, जिस गंधक का शोधन, दुग्ध या घृतमें किया गया है, यह और भी रोगवृद्धिकारक क्लेदकारक अग्नि मान्द्य कारक सिद्ध होगा ... इसलिये यह गंधक नाम का घटक द्रव्य भी अम्लपित्त रोगाधिकार मे जो दोष स्थिती होती है या आशय की स्थिति होती है, उसके लिए निश्चित रूप से हानिकारक है आरोग्य नाशक रोगवर्धक हे


टंकण, फिरसे एक क्षारद्रव्य है, मूलतः पित्त प्रधान स्थिती मे ऐसा करना अनुचित ही है, हां, यह हो सकता है कि केमिस्ट्री की दृष्टि से अम्ल को ॲसिड और टंकण को अल्कली/ बेस माने, तो इसका टायट्रेशन होना संभव है , उसके के बाद फिरसे जल अर्थात क्लेद का ही वर्धन होगा, जो पुन्हा रोग के लक्षण और तीव्रता दोनों को बढायेगा.


बचनाग = वत्सनाभ अत्यंत हानिकारक विष है, उष्णवीर्य है, ऐसे द्रव्य का अम्लपित्त जैसे पित्तजन्य विकार मे कोई प्रयोजन नही और तो और वत्सनाभ की शुद्धी गोमूत्र से होती है , मूत्र अत्यंत उष्ण और क्षारयुक्त है , जो फिर से अम्लपित्त मे अनुपयोगी है.


आम्लपित्त मे पहले से ही दाह कटू उद्गार इस प्रकार की स्थिति होती है, ऐसे स्थिती मे व्योष = का वहा पर क्या प्रयोजन है, यह समजना दुष्कर है.


आगे फिरसे एक उपविष = विशेष सदृश्य घटक द्रव्य, उन्मत बीज अर्थात धत्तुर है, इसमे पहले तो संदेह है, की कौन से धत्तुर का प्रयोग करे. वैसे तो संदिग्ध और विष सदृश द्रव्य का प्रयोग करना, रुग्ण के हित मे नहीं है.


बिल्वमज्जा : यह घटक द्रव्य अत्यंत अस्थिर और शीघ्र कृमियोंको आश्रय देने वाला होता है. अगर यह घटक द्रव्य , शास्त्र आदेश के अनुसार कच्चे बिल्व का = आम बिल्व फल का लिया जाये, तो कुछ दिनों में, इसमे कृमी निर्माण होते है, ऐसा सभी का अनुभव है. अगर बिल्व मज्जा का चूर्ण क्लिनिक मे रखेंगे, तो एक दो हप्ते में ही, उसमे अपने आप, कृमी निर्माण होता है, तो ऐसे घटकद्रव्य का अम्लपित्त मे क्या प्रयोजन है , यह समजना दुष्कर है.


दूसरा ...

अम्लपित्त का सूत्र है, *"अम्लपित्ते तु वमनं पटोलारिष्टवारिणा"*, इस धोरण के अनुसार बिल्व मज्जा कही पर भी जस्टिफाय नही होती है. अगर वमन नही हो पाया, तो इस विदग्धाजीर्ण को कम से कम अधो दिशा से विरेचन के द्वारा तो बाहर निकालना चाहिए. किन्तु बिल्व मज्जा तो ग्राही है 😇


कचोरक का अर्थ शठी, शठी जैसे फिरसे उष्णद्रव्य का अम्लपित्त जैसे पित्तजन्य दाह कटु उद्गार लक्षण वाले विकार मे प्रयोजन नही है 


चातुर्जात के चारों द्रव्य उष्ण है , केसर त्वक पत्र एला ... इनका फिरसे पित्तजन्य कटूद्गार दाह ऐसे लक्षणे वाले अम्लपित्त मे कोई प्रयोजन नही है.


इन सभी घटक द्रव्य से निर्माण होने वाले चूर्ण को, जिसकी भावना है, वह भृंगराज , यह एक तिक्तद्रव्य है और अम्लपित्त मे तिक्त द्रव्य का ही सर्वत्र यशस्वी उपयोजन, उपयोगी है लाभदायक हे परिणामकारक है रोगनाशक आरोगयरक्षक उपशमकारक है और यही इसकी मूल चिकित्सा भी है ...


अम्लपित्त मे ...

पित्त और कफ, अग्नि और जल यह क्लिन्न क्लेद ऐसी स्थिति मे रहते है, इस कारण से इस जल अग्नि प्रधान रोगकारक घटकों का उत्क्लेश कटू उद्गार अरुची ऐसे लक्षण निर्माण करणे का सामर्थ्य होता है. ऐसे जल अग्नि प्रधान रोगकारक घटकों का "शोषणे रूक्षः" और वह भी कटु और दाह के विपरीत शीत गुण के साथ होना उपयोगी है, इसी कारण से वमन भी पटोल (= तिक्त रस स्कंध का सर्वश्रेष्ठ द्रव्य) से देने के लिए कहा है.


इसी दिशा मे आगे शमन देखेंगे तो वह भी तिक्त रस प्रधान का है. इसलिये अम्लपित्त का सर्वोत्कृष्ट कल्प लोकप्रिय कल्प शीघ्र फलदायी कल्प ऐसा जिसे कह सकते है वह *"कल्प शेखर भूनिंबादि"* इसमे सभी द्रव्य, तिक्त कषाय ऐसे शीत गुण और कफ पित्तनाशक जल शोषक, अग्नि शामक, द्रवशोषक इस प्रकार के ही है, तो यही "अम्लपित्त की चिकित्सा का मुख्य धोरण = guideline" है ... यशस्वी दिशा है


इसी दिशा मे, सुतशेखर मे समाविष्ट 17 के 17 घटक निरुपयोगी है !!! केवल इन घटकों का जो चूर्ण बनता है, उस चूर्ण को "जिसकी भावना है", यह अकेला "*भृंगराज*", अम्लपित्त के संप्राप्ति लक्षण रोगकारक दोष स्थिती इन सभी का समूलनाश करने में समर्थ होता है.


कल्पशेखर भूनिंबादि में भी मार्कव = भृंगराज, सर्वात अंतिम द्रव्य के रूप मे समाविष्ट है. इसी कारण से सातारा के प्रसिद्ध ज्येष्ठ वैद्य प्राचार्य दिवंगत गो आ फडके गुरुजी, सूतशेखर का कभी भी प्रयोग नही करते थे, केवल भृंगराज स्वरस को छाया शुष्क करके, उसका चूर्ण बनाकर प्रयोग करते थे.


इसका सरल अर्थ यह है की सूतशेखर का विनाकारण प्रयोग करने की बजाय,

इतने महार्ह काॅस्टली महंगी और "फिर भी निष्प्रयोजन" औषधी द्रव्य को, पेशंट को देने के बजाय, यदि इस कल्प का जो सर्वाधिक कार्यकारी घटकद्रव्य है, उस भृंगराज का, या भृंगराज को सप्तधा बलाधान वटी के रूप मे या भृंगराज स्वरस का छाया शुष्क चूर्ण करके, उपयोग किया जाये, तो सूतशेखर से भी अधिक अच्छा, शीघ्र परिणामदायक, चिरकाल लाभदायक बने रहने वाला, लॉन्ग लास्टिंग रिझल्ट निश्चित रूप से प्राप्त होता है.


यही बात, दूसरा जो सर्वाधिक लोकप्रिय व उपयोग मे आनेवाला तथा बेचा जानेवाला, L*I*V 5*2 नाम से मॉडर्न मे भी लोकप्रिय, हायब्रीड संकरीत रसकल्प का मूलाधार, जो आरोग्यवर्धिनी है, जो कुष्ठ अधिकार से आती है, उसमे से भी सारे मेटलिक कंटेंट, विष कन्टेन्ट निकाल दिये जाये, उष्ण रक्तपित्तवर्धक रक्तपित्त दुष्टीकर अग्नि = उष्ण गुण वृद्धिकर ऐसे घटक द्रव्य निकाल दिये जाये, तो केवल *"कटुकी और निंब"* इन मुख्य मात्र दो द्रव्यों के संयोग से, आरोग्यवर्धिनी मे जो फलश्रुती लिखी है, उस फलश्रुती को सार्थ सिद्ध करना निश्चित रूप से संभव है. कर के देखिये !!! 


किंतु यदि हम इस दिशा मे विचार ही नही करेंगे, केवल गतानुगतिक रूप मे, जैसे वहा लिखा है, वैसे भेड बकरीयों की तरह गढ्ढे मे गिरकर, वही चीजे करते रहेंगे, तो इसमे सुधार बदलाव और एक अभिनव कार्मुक कल्प हमारे हाथ में कभी नही आ सकता.


सूतशेखर इसी कारण से एक ओव्हर एस्टीमेटेड (over estimated) कल्प है. इसमे से केवल कार्मुक द्रव्य = भृंगराज का भी प्रयोग करेंगे, तो "उतना ही" अच्छा रिझल्ट आता है, ऐसा मेरा विश्वास और अनुभव है.


अम्लपित्त के अधिकार मे अम्लपित्त ऐसे निदान मे अम्लपित्त जन्य या अम्लपित्तबोधक लक्षण अवस्था मे , जहां सूतशेखर देने की इच्छा हो, ऐसे स्थिति में, *"कल्पशेखर भूनिंबादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट"* के रूप मे, अत्यंत सुनिश्चित शीघ्र परिणामदायक चिरस्थायी रोग उपशमकारी लाभ देता है, इसमे कोई संदेह नही है, क्यूंकी कल्पशेखर भूनिंबादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट, पाच लाख से भी अधिक संख्या में, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda और उनके सन्मित्र तथा विद्यार्थी वैद्योंने प्रयोग करके, इसका अनुभव लिया हुआ है


सूतशेखर को जो भृंगराज की भावना देनी है, वह "दिनम्" इतना ही लिखा है अर्थात एक दिन मे कितनी भावना देनी/हो सकती है, वो नही लिखा है.


दूसरा ... इतने सारे चूर्ण को कितने भृंगराज स्वरस का प्रमाण उपयोगी है, इसका भी स्पष्ट निर्देश नही.


तीसरा ... इस कल्प की गुड्डी एक गुंजा तयार करने के लिए लिखी है किंतु इस कल्प की मात्रा 2 गुंजा लिखी है ... तो यह मात्रा एक समय की मात्रा है या पूरे दिन की मात्रा है, इसका कोई दिग्दर्शन यहा पर प्राप्त नही होता है.


मधु घृत संयोग स्वयं विरुद्ध है, विष सदृश ऐसा अनुपान यदि, अम्लपित्त जैसे पित्त कफ अग्नि जल क्लेद ऐसे स्थिति में दिया जाये, तो यह उपशम कार्य न होकर, उलटा रोगवर्धक होगा, इसमे कोई संदेह नही है.


इसलिये आम्लपित्त मे सालो तक सूतशेखर लेने के बाद भी, पेशंट का आम्लपित्त ठीक नही होता है, उसको यह सूतशेखर बार-बार लेना ही पडता है. 


तो इससे अधिक अच्छा है कि, मूलगामी लक्षवेधी कल्प के रूप मे कल्पशेखर भूनिंबादि का मात्र छ सप्ताह = 42 दिन तक उपयोग करना तथा पेशंट को उसके आहार में और विहार में बदलाव करने का मार्गदर्शन करना उपयोगी होता है.

पेशंट के आहार से अम्ल, जमीन के नीचे आने वाले पदार्थ, मैदे से और काॅर्न फ्लोअर से बनाये हुए पदार्थ (बेकरी पिझ्झा पास्ता नूडल्स), कुकर में पके पदार्थ, पत्तो वाली सब्जीया, जागरण, उपवास, क्रोध, धूप मे जाना, हॉटेलिंग, चाट, फास्ट फूड, मोमो, चायनीज... ऐसे अग्नि पित्त कफ जल क्लेद, इनको बढाने वाले आहारों का निषेध परिहार त्याग करना आवश्यक है, यह भी ध्यान मे रखना आवश्यक है


सूतशेखर की जो फलश्रुती है यह अत्यंत अविश्वसनीय व्यवहार्य इम्प्रॅक्टिकल और इम्पॉसिबल है


फलश्रुती मे उल्लेखित रोगों के आगे "नाशन हर अपह:" असे शब्द लिखे है, किंतु कास गुल्म उग्र हिक्का उदावर्त इन रोगों के आगे "कोई भी शब्द/ क्रियापद नही है", जिससे की सूतशेखर से इन रोगों का नाश होता है, ऐसा बोध हो!


आगे देहयाप्यगदापह: यह अशास्त्रीय वचन है. कोई भी याप्य रोग कभी नष्ट नही हो सकता, इसलिये याप्यगदापहः, ऐसे लिखना यह अशास्त्रीय है.


देहयाप्यगद इस शब्द का शास्त्र मे कोई अर्थ नही बनता है. देहयापी ऐसा अर्थ कहे और आगे अगदापहः ऐसा शब्द समझे, तो उसका भी बोध दुष्कर है !


राजयक्ष्मा को किसी भी ग्रंथ मे साध्य नही कहा गया है, ऐसे स्थिती मे केवल सूतशेखर से राजयक्ष्मा रोग हरण हो जाएगा यह असंभव है


सेकंड लास्ट लाईन मे "सर्वरोगहर" कहने के बाद फिरसे अंतिम लाईन मे राजयक्ष्मा रोग को हरण करता है, ऐसा कहना यह पुन्हा पुनरुक्ती आत्माश्रय स्वस्कंधारोहण इस प्रकार का दोष है.


मंडलात् नाऽत्र संदेहो सर्वरोगहरः परः

यह अर्थ वाद है, यह वस्तुस्थिती नही हो सकती 


मात्र, 1 मंडल = 42 दिन मे सभी रोग या कोई भी रोग सुतसे करके प्रयोग से ठीक होगा शास्त्र नही हो सकता


शाब्दिक बाते व्याकरण की बाते निकाल दि जाये तो भी एक कल्प जिसके उपर दिये हुए उटपटांग घटक द्रव्य है, वे पाच विभिन्न प्रकार की गुल्मो का नाश करते है, का जिसमे रक्त गुल्म का भी समावेश है... पाच विभिन्न प्रकार के कास जिसमे क्षतज और क्षयज कास इनका भी समावेश है, ऐसे रोगों को नष्ट करता है यह अशास्त्रीय असंभव है!!! 


5 हिक्कामेसे अंतिम 2 हिक्का अरिष्ट स्वरूप है, जिसका ठीक होना असंभव है.

पहिली 2 हिक्का तो अपने आप ठीक होती है और बीच वाली तीसरी यमला हिक्का उग्र हिक्का नही है, तो ऐसे स्थिती मे उग्रहिक्का सूतशेखर से नष्ट होती है, ऐसा कहना यह शास्त्रीय है


उदावर्त की चिकित्सा अनुलोमन है, ऐसी स्थिती मे जिस कल्प के घटक द्रव्यों में एक भी अनुलोमक द्रव्य नही है, ऐसा कल्प उदावर्त का शमन करेगा, यह अशास्त्रीय है.


ग्रहणी यह मूलतः अवारणीय=सुदुस्तर=महारोग (अहृनि8) रोगो मे उल्लेखित हे वाग्भट निदान आठ के अंत मे!

इस कारण से,

ग्रहणी रोग का नाश करता है ऐसी सूतशेखर की फलश्रुती होना, यह आप्त प्रमाण के विरुद्ध है 

और ना ही प्रॅक्टिस मे ऐसा कोई ग्रहणीनाशन इस प्रकार का रिजल्ट किसी को प्राप्त भी होता है.


श्वास जैसे उरःस्थ वातकफजन्य विकार मे काम करे, ऐसा एक भी घटक द्रव्य जिसमे नही है, ऐसा सूतशेखर श्वास का नाशन करेगा यह विसंगत है.


केवल 42 दिन के प्रयोग से सभी रोगों का नाश होना, अशास्त्रीय है.


यही बात आरोग्यवर्धिनी मे कुष्ठ केले लिखिए, जो कुष्ठरोग दीर्घ रोग नाम श्रेष्ठ हा ऐसे अग्रेसर के रूप मे चरक सूत्र 25/ 40 मे उल्लेखित है और जहा चरक मे सुश्रुत मे कुष्ठ के लिये छह छह मास के बाद रक्त मोक्षण लिखा है और 15 दिन महीने के बाद वमनविरेचन लिखा है , ऐसे कुष्ठ को केवल 42 दिन मे आरोग्यवर्धिनी ठीक करती है, यह भी अशास्त्रीय अविश्वसनीय और असंभव है और वैसे भी प्रत्यक्ष प्रॅक्टिस मे ऐसा कोई अनुभव नही आता है, इस कारण से अत्यंत लोकप्रिय ऐसे जो सुतशेखर और आरोग्यवर्धिनी यह कल्प है, यह विनाकारण ओव्हर एस्टिमेटेड कल्प है.


इनके निर्मिती मे इनके कॉस्टली expensive महार्ह महंगे घटक द्रव्यों को पर्चेस करके, इनका निर्माण करने की बजाय, इन से भी अच्छे ... ऐसे जो कल्पशेखर भूनिंबादि और पंचतिक्त ये कल्प है, इनका प्रयोग करना उचित है ...


या सूतशेखर आरोग्यवर्धिनी इन कल्पों मे से मेटॅलिक केमिकल विषद्रव्य, रोग की संप्राप्ती से विसंगत घटकद्रव्यों को निकाल कर ... केवल भावना द्रव्य के सप्तधा बलाधान वटी ...


या आरोग्यवर्धिनी के बारे मे , *"मुख्य द्रव्य कटुकी और भावनाद्रव्य निम्ब"*, इन दोनो का ही यादी सप्तधा बलाधान टॅबलेट बनाये तो, निश्चित रूप से, अपेक्षित परिणाम प्राप्त होते है ... करके देखिये !!!


कही सुनी बातो पर विश्वास ना करे ...

पहले इस्तेमाल करे , फिर विश्वास करे !!!


सब लोग कहते है ... कई सालो से कहते है ... अनेक लोक प्रयोग करते है ... इसलिये, मै भी इन कल्पोको शरण जाऊंगा! ऐसे गतानुगतिक बुद्धी से काम न करे. 


केवल निर्देश है इसलिये काम नही करना, अपने स्वयं की बुद्धी से तर्क से भी, ऊहन अर्थात सोच विचार करना है, ऐसे चरक सिद्धी अध्याय 2 के अंत मे लिखते है


तो ... कुल मिलाकर, सारांश के रूप मे, यह कह सकते है कि ;

सूतशेखर यह एक ओव्हरेस्टीमेटेड कल्प है 

... जिसमे रोग से विसंगत घटक द्रव्य संमेलन है. इससे अधिक अच्छा है कि केवल जो भावना द्रव्य है वह मार्कव=भृंगराज ... या मार्कव जिसमे एक घटकाद्रव्य है , ऐसे सूतशेखर के ही अम्लपित्त अधिकार मे उल्लेखित, कल्पशेखर भूनिंबादि यह अधिक सुसंगत शास्त्रीय परिणामदायक लाभकारक और सुयोग्य कल्प है , यह निश्चित!!!


म्हेत्रे आयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा *"कल्पशेखर भूनिंबादि"* यह कल्प सप्तधा बलाधान टॅबलेट के रूप मे मॅन्युफॅक्चर किया जाता है ... जो एफ डी ए (FDA) द्वारा ॲप्रूव्ह्ड् है और जीएमपी (GMP) सर्टिफिकेट के अनुसार इसका निर्माण किया जाता है. इसका आयुर्वेद चिकित्सक वैद्य सन्मित्रों के लिये उपलब्धता और वितरण किया जाता है, 

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Thursday, 27 February 2025

उष्ण जल, औषधि सिद्ध उष्ण जल & शर्करा ग्रॅन्युल्स युक्त उष्ण जल : वातकफजन्य रोग लक्षण अवस्था का उत्तम औषध

उष्ण जल, औषधि सिद्ध उष्ण जल & शर्करा ग्रॅन्युल्स युक्त उष्ण जल : वातकफजन्य रोग लक्षण अवस्था का उत्तम औषध


लेखक : ©️ © Copyright वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. 

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दीपनं पाचनं कण्ठ्यं लघूष्णं बस्तिशोधनम्॥

हिध्माध्मानानिलश्लेष्मसद्यःशुद्धिनवज्वरे। 

कासामपीनसश्वासपार्श्वरुक्षु च शस्यते॥

अष्टांग हृदय सूत्रस्थान 5 द्रव द्रव्य विज्ञानीय 


उपरोक्त श्लोक मे उष्ण जल के कर्म दिये है.


उष्ण है, अर्थात यह शीत के विपरीत है, अर्थात यह वातकफके विपरीत है, अर्थात वातकफजन्य विकार लक्षण अवस्था इनमे यह उपयोगी है , यह इसका मूलभूत तत्त्व या सिद्धांत है.

इसी सूत्र पर इसी सिद्धांत पर इसी तत्त्व के अनुसार, इसकी बाकी की फलश्रुति समझना सुकर होता है.


दीपन : अग्नि का सामर्थ्य बढाने वाला 

पाचन : शेष आमका पाचन करने वाला 

कंठ्य : कंठ के लिए अर्थात स्वर के लिये हितकारी 


जब वातकफजन्य समस्या के कारण से कंठ ग्रस्त हो तब ! अर्थात कंठपाक फेरीन्जाइटिस उष्णताजन्य कंठ विकार पित्त जन्य कंठ विकार इसमे उष्ण जलका निषेध ही होगा. 


लघु : लघु गुणका होता है उष्ण जल .... जल को उष्ण करने के लिए अग्निपर उबालना आवश्यक है और केवल उबालना ही नही, अपितु ¼, ½ या ¾ औटाना (=boil to reduce) है. तो इतने अग्नि संस्कार के पश्चात् इस मे लघुत्व आता है. सामान्य जल की तुलना मे , या शीतजल की तुलना मे , उष्ण जल या तप्तजल या क्वथित जल या उबाला हुआ जल, लघु है.


बस्तिशोधन : अर्थात मूत्रशोधन है. इसमे भी पुन्हा वातकफजन्य बस्ति विकारो मे बस्ति/मूत्र शोधन की अपेक्षा हो, तब उष्ण जल उपयोगी है. अन्यथा रक्त पित्त उष्णता अग्नि जन्य बस्ति विकारो मे उष्ण जल का कोई प्रयोजन नही है.


यह तत्व ध्यान मे रखना आवश्यक है.

आगे के दिये हुये सभी विकार अवस्था लक्षण ये भी इसी प्रकार से वातकफजन्य है. ऐसे स्थिती मे उष्ण जल मे उपयोगी है इंडिकेटेड है परिणामकारक हे लाभदायक है 

हिक्का/हिध्मा वात कफ जन्य विकार है 

आध्मान वात कफ जन्य विकार है 

आगे स्वयं वातकफ में उष्ण जल उपयोगी है ये लिखा है 


अगर अष्टांग हृदय उत्तर तंत्र अध्याय 40 श्लोक क्रमांक 48 से 58 देखेंगे तो उसमे *"अभया अनिल कफे"* ऐसा अग्रे संग्रह आता है. अभया अर्थात हरीतकी भी उष्ण है, इसी कारण से वातकफ मे उपयोगी है.


इसी प्रकार से यह उष्ण जल वात/कफ/वातकफ जन्य लक्षण अवस्था रोग इनमे उपयोगी है.


सद्यशुद्धी अर्थात अभी अभी जिनका वमन या विरेचन हुआ है, उनके लिये उष्ण जल उपयोगी है. क्योंकि वमनविरेचन पश्चात्, कोष्ठ क्षोभ/ स्थान क्षोभ से, अग्नि का मंदत्व होता है, और अग्नि का सामर्थ्य बढाने के लिए, दीपन हेतु उष्ण जल उपयोगी है.


दीपन यह कर्म दो प्रकार से होता है 

एक मे "त्यक्तद्रव्यत्व" और 

दूसरे मे "पाकादि कर्मणा" 


पाकादिकर्मणा के लिये, उष्ण गुण अग्नि तेज इनका सद्भाव आवश्यक है.


साथ मे त्यक्तद्रवत्व के लिए, द्रवगुण का क्षपण होने के लिए , जल के विपरीत , अग्नि वायु आकाश प्रधान रूक्ष द्रव्य का गुणों का सद्भाव आवश्यक है, इसलिये तिक्त रस, यह भी तेज उष्ण गुण के अभाव मे भी, दीपन करत है.


उष्ण जल मे तो साक्षात जल ही है अर्थात द्रवप्राधान्य है, फिर भी उष्ण जल, दीपन है ... अग्नी का बलवर्धन करता है, क्योंकि यहा द्रव प्रधान जल, उष्ण अग्नि तेज, इनका वाहक है ... इसलिये दीपन होने के लिए, या तो पाकादिकर्मणा अर्थात अग्नि तेज उष्ण गुण इनका सद्भाव, या त्यक्तद्रवत्व... इसके लिए तिक्त रस जैसे आकाश वायु प्रधान, उष्ण गुणविरहित भी द्रव्य / गुण सद्भाव से दीपन संभव है!


नवज्वर : जिसमे आम का प्राधान्य हेतुत्व रहता है , इसमे आम के पाचन के लिए उष्ण जल उपयोगी है.


कास : जब वातकफजन्य हो तो उसमे उष्ण जल उपयोगी है.


आम : आम जन्य सभी विकारो मे उष्ण जल उपयोगी है 


पीनस : पीनस प्रतिश्याय नासानाह नासास्राव इन सभी वात कफ वातकफजन्य नासाविकारों में उष्ण जल उपयोगी है.


रसाला जयति प्रतिश्यायम् ... ऐसा अग्रे संग्रह है, इसमे रसाला यह दधि का सर है अर्थात घन भाग है , जिसमे से जलांश को पूर्णतः निष्कासित करके, उसमे एला मरिच शुंठी केसर ऐसे उष्णद्रव्यों को मिलाकर निर्माण किया जाता है,रसाला का


श्वास : जब वात कफ जन्य हो तो उसमे उष्ण जल उपयोगी है 


पार्श्व रुक् : यद्यपि श्लोक के अंत में *पार्श्वरुक्षु* च ऐसे शब्द आये है तथापि पार्श्व और रुक्ष ऐसा कुछ शब्द यहां नही है. पार्श्व रुक् इस शब्द मे क् (हलन्त) है , इसके आगे सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय षु आ गया, इस कारणसे, क् + षु = क्षु हो गया. इस कारण से रुक्षु ऐसा शब्द दिखाई देता है. किंतु यह ऐसा न होकर, कास से लेकर पार्श्व रुक् तक सभी रोग के नाम के आगे, सप्तमी बहुवचन कारक प्रत्यय षु लगा है हलन्त क् और षु मिलके क्षु होता है, इस कारण से रुक्षु ऐसा शब्द दिखाई देता है, तो अंतिम शब्द का अर्थ हुआ पार्श्व रुक् अर्थात पार्श्व रुजा अर्थात पर्शुकाओं के क्षेत्र में या लंग = फुफ्फुस = उरस् के क्षेत्र में होने वाले वातज कफज वातकफज विकार में उष्ण जल उपयोगी है.


यह हुआ इसका सामान्य शब्दार्थ एवं वाक्यार्थ ... सरल सुबोध अर्थ 


किंतु इसका applied विस्तार, क्लिनिकल प्रॅक्टिस मे बहुत ही उपयोगी होता है !


उष्ण जल यह केवल औषधियों का कल्पों का अनुपान है , ऐसे न होकर , उष्ण जल स्वयं ही एक श्रेष्ठ औषध है.

यदि उष्ण जल को किसी भी उचित योग्य विकार लक्षण रोग अवस्था के अनुसार , सिद्ध करके दिया जाये , तो यह अत्यंत परिणामकारक और अनेको बार अपुनर्भवकारक होता है.


जैसे की दीपन के लिए, जिनको क्षुधा का अनुभव नही होता है, अरुची है, अनन्नाभिलाषा है ... ऐसे अग्नि के क्षीण सामर्थ्य में , दीपन अत्यंत उपयोगी है.


दीपन, यह ऐसा शमन कर्म है, जिसका उल्लेख चरक मे नही है ... यह smart वाग्भट ने अपनी बुद्धि से जोडा हुआ है, वाग्भट सूत्र 14 मे ! चरक मे दश प्रकार के लंघन में, दीपन यह शमन कर्म और रक्त मोक्षण शोधन कर्म उल्लेखित नही है. अस्तु. 


तो दीपन यह एक स्वावलंबन की चिकित्सा है और पाचन यह परावलंबन की चिकित्सा है.


दीपन का अर्थ है कि, अपने शरीर के देवदत्त निसर्गदत्त अग्नि की क्षमता का पुनःस्थापन और पाचन का अर्थ है कि अग्नि के निरपेक्ष = अग्नि को बाजू में रखके, अग्नि का जो काम है, अग्नि से जो शेष रहे गया है ऐसे आम पचन दोष पचन के काम को, औषधियों के वीर्य से करवाना.


तो इस तरह का परावलंबी कार्य बहुत दिनो तक नही किया जा सकता. इसलिये वाग्भट सूत्र 13 के अंत मे चिकित्सा का आरंभ पाचन से करे ऐसा लिखा है ... पाचन करने के बाद, जब शेष आम शेष दोष का पचन हो जाये, जो पहले अग्नी के क्षीण सामर्थ्य के कारण नही हो सका था , वह काम पूरा होने के बाद , पाचन की बजाय, दीपन का ही प्रयोग करे, जिससे की औषध के वीर्य के द्वारा पाचन की पुन्हा आवश्यकता न पडे. और दीपन अर्थात अपने शरीर के निसर्ग दत्त देवदत्त अग्नि का सामर्थ्य पुनःप्रस्थापित होकर, किसी भी रोगकारक दोष या आमकी पुनर्निर्मिती ना हो सके! 


इसलिये पाचन के बाद, दीपन & दीपन पण के पश्चात्, स्नेहन स्वेदन शोधन इस क्रम से वाग्भट सूत्र स्थान 13 के अंत में चिकित्सा लिखी है ... 

पाचनैर्दीपनैः स्नेहैस्तान् स्वेदैश्च परिष्कृतान्॥ 

शोधयेच्छोधनैः काले यथासन्नं यथाबलम्। 

शोधन के पश्चात क्या करना है, यह वाग्भट सूत्रस्थान 4 मे लिखा है

भेषजक्षपिते पथ्यमाहारैर्बृंहणं क्रमात्। 

हृद्यदीपनभैषज्यसंयोगाद्रुचिपक्तिदैः। 

तथा स लभते शर्म सर्वपावकपाटवम्। 

धीवर्णेन्द्रियवैमल्यं वृषतां दैर्घ्यमायुषः॥

यह चिकित्सा क्रम है, जो हर वैद्य ने हर आयुर्वेद चिकित्सक ने हर विद्यार्थी ने , पहले समझ लेना चाहिये ... और उसके पश्चात् ही यथा अवस्था इस प्रकार के चिकित्सा क्रम के, कौन से सोपान पर, इस समय पेशंट है, यह देखकर उस प्रकार के चिकित्सा तत्त्व का प्रयोजन सिद्ध करे , ऐसे कल्प या कल्पना का उपयोजन करना चाहिए.


इसलिये जब उष्ण जल, दीपन के रूप में औषध के लिए उपयोग मे लाना है, तब दीपन हेतु, उष्ण जल सिद्ध करते समय, उसमे मिशि अर्थात बडीशोप/सौंफ, दीप्यक अर्थात अजवायन अजमोदा & जीरक इनका समावेश जल को उबालते समय करना उचित होगा! और ऐसे जल को उबालते हुए उसमे 25, 50 या 75% शेष होगा अर्थात ¼, ½ या ¾ इतना रिडक्शन करके बाकी बचे, उष्ण जल का औषधी कल्प के रूप मे प्रयोग करना, उचित होगा !!!


इस प्रकार के औषधी उष्ण जल का प्रयोग दिन मे तीन या चार बार या यथावस्था या उसे भी अधिक मुहुर्मुहुः रूप मे 7 दिन 14 दिन या अधिकतम 42 दिन = 6 weeks = 1.5 महिने तक करे, तो जिस विकार के लिए, इस प्रकार का सिद्ध उष्ण जल, पेशंट को दिया गया है, वह विकार उपशम होकर, अपुनर्भव की स्थिति तक आ जाता है, *ऐसा 27 साल की प्रॅक्टिस का अनुभव है !!!*


औषध यह कुछ दिन तक देने की बात है, किंतु आहार और विहार (अर्थात अन्न और व्यायाम या जीवनशैली मे बदलाव), यह निरंतर चलने वाली उपयोगी बाते है, जो उपस्थित विकार को निःशेष नष्ट करती है और उसका पुनर्भव ना हो, ऐसे समर्थ धातुओं का शरीर मे निर्माण करती है.


पाचन यह एक अत्यंत उपयोगी तथा लोकप्रिय चिकित्सा है, जो आमजन्य तथा वातजन्य कफजन्य वातकफजन्य ऐसे सभी रोगों का प्रथम उपचार है, इसलिये पाचन के द्रव्य मे जो श्रेष्ठ है, ऐसे आर्द्रक लशुन तुलसी मरिच पिप्पली हरी मिरची या लाल मिरची तथा वचा हरिद्रा मुस्ता इन द्रव्यों से अगर, उष्ण जल सिद्ध किया जाये, तो आम का अल्पकाल मे, शीघ्रता से और यथावश्यक रूप मे पूर्ण होता है.


मैने कुछ ऐसे पेशंट ट्रीट किये है, की जो ज्येष्ठ नागरिक है, 60 से आगे जिनका वय है और जो पिछले 10 या 12 15 साल से अपने संधियों के शोथ शूल वेदना के कारण, कुछ भी दैनंदिन गतिविधिया करने में समर्थ सक्षम नही है. उनको अपने कपडे भी पहना दुष्कर है, साडी के बजे उनको केवल गाऊन पर रहना पडता है, ईधर उधर जाना चलना दुष्कर होने के कारण, व्हीलचेअर पर रहना पडता है , इनको जमीन पर बैठना दुष्कर है , ऐसे भी पेशंट मे इस प्रकार के आर्द्रक सिद्ध लसूण सिद्ध या उभयसिद्ध उष्ण जल से दीर्घकालीन उपशम मिला है , जो अपुनर्भव के रूप मे आज तक वे अनुभव कर रहे है. जिन्हें संधि वक्रता है, संधियोंमे शोथ शूल स्पर्शासहत्व है आरक्तता है, जिनका RA factor 3600 इतना ज्यादा है, जो चलने मे बैठने मे उठने मे सक्षम नही है, ऐसे रुग्ण भी आज पनवेल से अंधेरी तक दो लोकल ट्रेन बदल कर जाते है, प्लॅटफॉर्म बदलने के लिए रेल्वे के ब्रिज चढते उतरते है, दिन भर जॉब करते है और सुबह जाने से पहले और घर को रात को आने के बाद अपने हाथों से रसोई बनाते है ... इतनी सुस्थिती में आ सकते है ... और औषध बंद करने के बाद भी, सालो तक उसे सुस्थिती मे अपुनर्भव रूप मे रहते है. किसी भी रसकल्प का गुगुल का आसव अरिष्ट का प्रयोग किये बिना, केवल वचाहरिद्रा सप्तधा बलाढान टॅबलेट सिद्ध उष्ण जल थर्मास मे रख कर, 90 दिन तक प्रयोग किया था!!! अभी जॉब के कारण आयटी मे होने के कारण हर वक्त पानी उबालकर ले जाना संभव नही होता है, तो इसलिये हमने इन्ही पाचन द्रद्रव्यों , जो आहारीय द्रव्यों के स्वरूप मे है, इनका शर्करा ग्रॅन्यूल्स के रूप में म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurved ने, निर्माण किया है , जो सभी वैद्यों के आयुर्वेदिक प्रॅक्टिशनर के उपयोग के लिए उपलब्ध भी है अधिक जानकारी के लिए 9422016871 इस नंबर पर "granules" यह मेसेज, व्हाट्सअप करे. 

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जिसमे एक चमचा शर्करा ग्रॅन्यूल्स, 150 ml ग्लास उष्ण जल मे मिलाने से, सिद्ध उष्ण जल का परिणाम आयेगा , ऐसा उसका बलाधान हो, इतना फार्मास्युटिकल प्रपोर्शन रखा हुआ है, जिससे की उबालना औटाना छानना आवश्यक नही होता है, जहा पर भी पेशंट है, वहा पर मशीन से या कॅन्टीन से या हॉट कॅटल का उपयोग करके, केवल गरम पानी 1 कप लेकर, उसमे यह एक चमचा रसोन आर्द्रक ग्रॅन्युल्स मिलाकर , उसी प्रकार का उपशम प्राप्त हो सकता है. या जिनको उबालना संभव है और दिनभर के लिए थर्मास ले जाना सुकर है, उनके लिये, केवल पानी उबालकर, उसमे यह रसोन आर्द्रक ग्रॅन्युल्स मिलाकर, वही परिणाम प्राप्त करना संभव होता है ! अर्थात नैसर्गिक रूप मे रसोन आर्द्रक, स्वयं घर मे पानी मे उबालकर, उसको ½, ¼ या ¾ ऐसे औटाकर, प्रयोग करना, कभी भी अधिक परिणामकारक है ही !!!


कंठ के सक्षमीकरण के लिए, सिद्ध जल करना है, तो उसमे यष्टी सारिवा सप्तधा बलाधान टॅबलेट, तीन या चार प्रमाण मे, मिलाने से यह अत्यंत लाभदायक होता है और इसको एक बार उष्ण जल मे मिलाकर टॅबलेट घुल जाये तो शीत स्थिती मे भी यह पित्त रक्त अग्निजन्य रुक्षताजन्य लक्षण अवस्था विकारो में उपयोगी होता है.


बस्ति शोधन या मूत्रशोधन जहां आवश्यक हो, ऐसे स्थिती मे उष्णजल मे, कूष्मांड ग्रॅन्यूल्स या शतावरी गोक्षुर ग्रॅन्युल्स या यष्टी गुडूची ग्रॅन्युल्स इनका एक चम्मच, 150 ml या एक कप उष्ण जल में घोलकर प्रयोग करे, प्राग्भक्त = भोजनपूर्व रूप मे , तो यह मूत्र मे जो रक्त पित्त अग्नि उष्णता जन्य लक्षण विकार अवस्था इसमे भी उपयोगी होता है.


हिक्का यह मुहुर्मुहुः औषधी प्रयोग करने का विकार है. जिनको यह वारंवार या दीर्घकालीन (क्रॉनिक अँड फ्रिक्वेंट री करंट) इस प्रकार का हिक्का का समस्या है, उनके लिये एला सिद्ध उष्ण जल या एला सिद्ध उष्ण जल को शीत करके प्रयोग करना उपयोगी होता है. इसी प्रकार से यष्टी & सारिवा ये दोनो कंठ्य है, तो ये भी रक्त पित्त अग्नि उष्णता जन्य स्थिती में, तीन या चार टॅबलेट सप्तधा बलाधान, उष्ण जल में घोलकर प्रयोग करे, तो यह भी परिणामकारक होता है.


आध्मान निवारण के लिए, सामान्यतः घर मे उपलब्ध टेबल सॉल्ट या उपलब्ध हो तो सेंधव या फिर वृक्षाम्ल अर्थात कोकम अर्थात आमसूल यह भी , यदि उष्ण जल मे घोलकर या मंथ बनाकर दिया जाये , तो आध्मान मे उपयोगी होता है. यदि बिना दूध का चाय बनाकर उसमे नींबू निचोडकर मुहुर्मुहुः या sip by sip पिया जाये तो यह आध्मान के साथ साथ , सामान्य से मध्यम तीव्रता (mild to moderate) के उदर शूल मे भी उपयोगी होता है और यह 2 मिनिट से लेकर 20 मिनिट तक के कालावधी मे तुरंत उपशम दे देता है.


वातकफजन्य सभी विकारो मे, उष्ण जल उपयोगी होता है. वात और कफ यह दोनो शीत गुण के होने के कारण, उसमे उष्ण जल परिणाम देता है. 


इसका वीर्य बढाने के लिए तथा उपचार कालावधी कम करने के लिए केवल उष्ण जल की बजाय, यदि उसमे उचित प्रकार का वातहर कफहर वातकफहर औषधी सिद्ध जल दिया जाये, तो यह अधिक उपयोगी होता है. वात और कफ दोनो मे उपयोगी हो, परिणामकारक हो किसी भी विकार अवस्था लक्षण में लाभदायक परिणामकारक हो ऐसा करना है तो ... वचाहरिद्रादि सप्तधा बलाधान 4 टॅबलेट के साथ 150 ml उष्ण जल देना, यह निश्चित रूप से उपकारक & शीघ्र परिणामदायक होता है , क्यूकी वचाहरिद्रादि के सभी द्रव्य यह वातकफनाशक है.


सद्यशुद्धी के बाद अग्नि का बल क्षीण होता है, इसलिये दीपन हेतु सर्वप्रथम बताये ऐसे मिशी अर्थात मिश्रेया अर्थात बडीशेप और ओवा अजवायन तथा जीरक का उष्ण जल मे प्रयोग करना उपयोगी होता है.


नवज्वर, यह आम प्रधान अवस्था होने के कारण, इसमे पाचन के लिए, उपर उल्लेखित द्रव्य से सिद्ध उष्ण जल का प्रयोग शीघ्र परिणामदायक होता है ... जिसमे आर्द्रक लशुन जीरक तुलसी मरिच हरिद्रा यह घर मे उपलब्ध द्रव्य परिणामकारक होते है. इन्ही द्रव्यों के शर्करा ग्रॅन्युल्स म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurved ने बनाकर, सभी आयुर्वेद चिकित्सक वैद्य सन्मित्र उपयोग के लिए उपलब्ध किये है.


पार्श्वरुक् = पार्श्व रुजा ! इसका अर्थ पार्श्व का अर्थ पर्शुकाओं का प्रदेश अर्थात लंग एरिया उरस् प्रदेश! इसमे जो वात &/or कफ प्रधान विकार होते है, इसमे एला पिप्पली आर्द्रक रसोन तुलसी रजनी पुष्करमूल कंटकारी असे उरोगामी द्रव्य से सिद्ध उष्ण जल का या इन द्रव्यों के शर्करा ग्रॅन्यूस का उष्ण जल के साथ प्रयोग करना लाभदायक होता है.


नागर पुष्करमूल गुडूची और कंटकारी यह वातकफ प्रधान कास श्वास और पार्श्वरुजा तथा ज्वर मे उपयोगी योग है. इसके सप्तधा बलाधान टॅबलेट तीन या चार मात्रा मे 150ml उष्ण जल के साथ दिया जाये, तो पार्श्व प्रदेश में उरः प्रदेश मे होने वाले वातकफजन्य रोग अवस्था लक्षण में परिणामकारक होता है


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Wednesday, 26 February 2025

चरकोक्त प्रसिद्ध श्लोक का योग्य अर्थ : ओषधीर्नामरूपाभ्यां जानते ह्यजपा वने । अविपाश्चैव गोपाश्च ये चान्ये वनवासिनः ॥

ओषधीर्नामरूपाभ्यां जानते ह्यजपा वने ।

अविपाश्चैव गोपाश्च ये चान्ये वनवासिनः ॥१२०॥

न नामज्ञानमात्रेण रूपज्ञानेन वा पुनः ।

ओषधीनां परां प्राप्तिं कश्चिद्वेदितुमर्हति ॥१२१॥

यो१गवित्त्वप्यरूपज्ञस्तासां तत्त्वविदुच्यते ।

किं पुनर्यो विजानीयादोषधीः सर्वथा भिषक् ॥१२२॥


उपरोक्त श्लोकों का अर्थ आयुर्वेद के कुछ विद्वान् (?) ऐसा बताते है की, ओषधीयों का ज्ञान चरवाह , गोपालक या अन्य वनवासी लोगो से लेना चाहिए ... किंतु इन श्लोकों का अर्थ ऐसा है "ही" नही.


ओषधीयों को नाम से और रूप से अजपा अविपा अर्थात अजा या अवि का पालन करने वाले अर्थात भेड बकरी मेंढी शिप लॅम्ब का पालन करने वाले (जिसको हम मराठी मे मेंढपाळ धनगर ऐसा भी कहते है), तथा गोपा अर्थात गो = गाय का पालन करने वाले, एवं च, ये च अन्य वनवासिनः अर्थात इन दोनों को छोडकर जो अन्य कोई वन मे जंगल = अरण्य मे रहने वाले लोग है, ये सभी औषधियों को नाम से &/or रूप से जानते है. 

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इस श्लोक मे "इनसे जानना चाहिए" ऐसा कही भी नही लिखा है , ना ही अभिप्रेत है.


आगे के श्लोक मे लिखा है की ...

केवल नाम ज्ञान से या रूप ज्ञान से ओषधीयों की उत्तम जानकारी कोई पा नही सकता 


और अंतिम श्लोक मे लिखा है कि ...

जिसे ओषधीयों के योग का ज्ञान है, उसे चाहे ओषधी के रूप का या नाम का या नाम और रूप का ज्ञान नही हो, फिर भी उसे औषधियों का तत्त्ववित् = तत्त्व जानने वाला कहा जाता है 

और फिर अगर कोई ओषधी को नामरूप और गुण इन तीनो से भी जानता हो, तो उसकी तो बात ही क्या है ऐसा गौरवोद्गार चरक ने किया है


ओषधी से जो बनता है वह औषधी! ओष अर्थात तेज वीर्य शक्ती सामर्थ्य बल ओष = उषा, जो प्रत्यक्ष तेज अग्नि सूर्य के पूर्व हमे दिखाई देता है! ऐसे ओष अर्थात तेज या वीर्य या सामर्थ्य का ... धी अर्थात भंडार संचय अधिष्ठान साठा जिसमे है वह ओषधी और इन ओषध से जो कल्प डेरीवेटीव्ह तज्जन्य उत्पादन बनता है , वह औषधी!!!

Tuesday, 25 February 2025

महाशिवरात्र उपवास रताळं बटाटा साबुदाणा कंद साळीच्या लाह्या

 महाशिवरात्रीला रताळे का खाल्लं जाते? कारण रताळं हा एक कंद आहे. कंद हे पचायला अत्यंत जड असतात. एकदा हे कंद खाल्ले की पुढे बराच काळ भूक लागत नाही. म्हणजे दिवसात दोन वेळा किंवा तीन वेळा खाण्यासाठी आणि स्वयंपाक करण्यासाठी वेळ द्यावा लागत नाही, डिस्टर्ब होत नाही. म्हणून ऋषीमुनी त्याकाळी कंदमुळे खात असत, की जेणेकरून लवकर भूक लागणार नाही आणि अखंड तपःसाधना आराधना जप हे करता येईल! आज आपण गृहस्थाश्रमामध्ये कंदमूळ म्हणजे रताळा बटाटा साबुदाणा हे खातो; ते पचायला अत्यंत जड असतं! त्यामुळे पुढील दोन-तीन दिवस पचनसंस्थेचे वाट्टोळे होते! ॲसिडिटी होते, कॉन्स्टिपेशन होतं, पोट साफ होत नाही, गॅसेस होतात, जळजळ मळमळ उलटी भूक न लागणे डोकं दुखणे अशा तक्रारी होतात.


 ज्याला खरंच उपवास करायचा आहे , त्याने उप म्हणजे जवळ, वास म्हणजे राहणे, म्हणजे देवाच्या जवळ राहणे, असे आचरण करायला हवे !!

त्याचा आपण काय खाल्लं, याच्याशी काही संबंध नाही !!


अनेक लोक असे म्हणतात की गीतेमध्ये सात्विक राजस तामस आहार दिलेले आहेत ... असं काहीही गीतेमध्ये दिलेलं नाही. ते आहार हे सात्विक राजस तामस "अशा लोकांना प्रिय असणारे आहार" आहेत ! प्रत्यक्षात आहार सात्विक राजस तामस नसतो , तो त्या त्या प्रकृतीच्या लोकांना प्रिय असलेला आहार असतो, इतकंच!!

त्यामुळे उद्याच्या महाशिवरात्रीला अकारण आपले पोट बिघडेल असे प्रचंड जड, न पचणारे अन्न म्हणजे रताळे साबुदाणा बटाटे यापासून बनलेले पदार्थ खाऊ नयेत!!


 अर्थात ज्यांना हे स्वतःच्या टेस्टसाठी चेंज साठी व्हरायटीसाठी चवीसाठी रुचिपालट म्हणून खायचेत, त्यांच्यासाठी ही पोस्ट नाही !!!


ज्यांना आरोग्य शास्त्र यातलं काहीतरी कळतं , बुद्धी शाबूत आणि जागृत आहे , त्यांच्यासाठी ही पोस्ट लिहिलेली आहे!!


अर्थात हे पटलं नाही तर समाजात रूढी म्हणून जे चालतं, त्याच्यामागे गतानुगतिकपणे अगतिकपणे जात राहा. 


बुद्धी जागृत असेल आणि हे पटलं तर नेहमीचाच आहार करावा, त्याच्या पेक्षा हलका आहार करणे याचा अर्थ साळीच्या लाह्या खाणे हे योग्य होय !!

साळीच्या लाह्या हा उपासाचा सर्वोत्तम पदार्थ आहे!! 

म्हणून नागपंचमीला आपण साळीच्या लाह्या, लक्ष्मीपूजनाला साळीच्या लाह्या हा नैवेद्य किंवा प्रसाद म्हणून वापरतो !!!


शास्त्राभ्यास नको श्रुति पढुं नको *तीर्थासि जाऊं नको* । 


योगाभ्यास नको व्रतें मख नको तीव्रें तपें तीं नको । 


काळाचे भय मानसीं धरुं नको दुष्टांस शंकूं नको ।


*ज्याचीया स्मरणें पतीत तरती तो शंभु सोडू नको* ॥ श्रीशिवस्तुति ॥


यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि


आटापिटा करून प्रवास करून तीर्थयात्रा करण्यापेक्षा मनापासून पंचाक्षरी किंवा षडाक्षरी नाम जप करणे हे अधिक श्रेयस्कर आहे


मन चंगा ... तो कठौती मे गंगा


क्यू पानी में मल मल नहाये

मन की मैल उतार , ओ प्राणी


शंकर हा नीलकंठ म्हणजे फक्त गळा काळा निळा असलेला असा आहे 

तो सर्वांगाने निळा नाही 


शंकराची आरती करताना "कर्पूर गौर" असं म्हटलं जातं ... म्हणजेच तो कापराप्रमाणे शुभ्र गोरा आहे ... स्नो व्हाईट = हिमगौर

लेखक : ©️ © Copyright वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. 

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