Saturday, 16 November 2024

चतुर्विधा भजन्ते जना आयुर्वेदम् = 1.आर्तो/भक्तो 2.जिज्ञासुः 3.अर्थार्थी 4.ज्ञानी च

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो/भक्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च

यह श्रीमद् भगवद्गीता का प्रसिद्ध श्लोक बहुत लोगों को ज्ञात होता है ... 

इसमे आयुर्वेद की दृष्टी से देखा जाये तो आयुर्वेद मे भी यही चार प्रकार दिखाई देते है

1. 

आर्त या भक्त !!

इसमे जिन्होंने अभी अभी BAMS में ॲडमिशन लिया है, या जिनकी प्रॅक्टिस नही है, या नयी नयी है, ऐसे "आर्त" अर्थात परिस्थिती से पीडित या आयुर्वेद शास्त्र की महत्ता का "ओव्हर एस्टिमेशन" किसी से सुनने के कारण जो "भक्त" बने है, ऐसे लोग होते है, जिन्हें आयुर्वेद के प्रति अत्यंत प्रेम होता है, किंतु ज्ञान उतना नही होता है. 

इसलिये आयुर्वेद की प्रति वे श्रद्धालु "भक्त" की तरह जैसे भी, जहां भी, संभव हो सके, वैसे उसकी सेवा करते रहते है और ये "अत्यंत उग्रवादी कट्टर तीक्ष्ण" इस प्रकार के होते है. इनको आयुर्वेद के बारे मे या उनके साहित्य संहिता सिद्धांत तथा आयुर्वेद के समकालीन या पूर्वकालीन तथाकथित गुरु ग्रंथकार लेखक इनके बारे मे कुछ भी "प्रश्न या आक्षेप" पूछा जाये, तो ये अत्यंत क्रोधित हो जाते है और ये वैयक्तिक निंदा दूषण या कलह पर उतर आते है". 

इनको वस्तुतः शास्त्र के संदर्भ मतमतांतर तर्क ऊहापोह इसका वास्तविक धरातल पर, इसका प्रत्यक्ष मे उपयोग, इसके बारे मे कोई विशेष जानकारी नही होती है, किन्तु इनकी निष्ठा या इनकी भक्ती इतनी दृढ या "स्त्यान" होती है , कि ये लोग आयुर्वेद के विषय मे किसी भी प्रकार की "स्क्रुटीनी व्हॅलिडेशन व्हेरिफिकेशन" इस प्रकार की मांग करने वाले या "शंका प्रश्न संदेह आक्षेप" ऐसा पूछने वाले पर "टूट पडते है"... मानो उन्हें ऐसा लगता है कि, प्रश्न पूछने वालों ने इनकी "दोनो किडनीयां मांग ली है."


ये आयुर्वेद के भक्त होने के कारण और आत्यंतिक प्राथमिक स्तर पर इनका आयुर्वेद का ज्ञान होने के कारण, "आर्त = झट से वेदनाग्रस्त अर्थात हर्ट hurt हो जाते है, इनकी भावनायें तुरंत आहत हो जाती है और ये बिलबिला जाते है और ये दूसरों पर शाब्दिक शस्त्र चलाते है". इन्हे तर्क या संदर्भ के आधार पर कोई वाद संवाद प्रत्युत्तर करना तो आता नही, इसलिये सीधा "वैयक्तिक निंदा दूषण कलह" पर उतर आते है 


2.

जिज्ञासू !!

दूसरे ... जिज्ञासू प्रकार के लोग होते है.

ये जहां से मिले वहां से आयुर्वेद के "नाम पर" चलने वाली , "हर चीज" सीखने के लिए उमड पडते हे , दौड पडते है , जी जान लगाते है , पैसा समय रिसोर्स एनर्जी बरबाद करते रहते है ... जहां पर भी वेबिनार सेमिनार लेक्चर फ्री मे हो , पैसा दे कर हो, रजिस्ट्रेशन करके हो, बिना रजिस्ट्रेशन का हो , ये वहां पर लाईन मे लग जाते है, भीड मे घुस जाते है ... उन्हे लगता है की आयुर्वेद का "तिलक लगाने से" वहां पढायी(?) / "बतायी" जाने वाली हर चीज आयुर्वेद हि है. 😇 


ये अत्यंत अंधश्रद्ध लोग होते है और ये "आर्त / भक्त के प्रथम स्तर से थोडा ऊपर" होते है, क्योंकि ये केवल भावना से भरे हुए न होकर, ये कुछ हद तक, कुछ मर्यादा तक, थोडा बहुत प्रयत्न करनेवाले होते है, कृती करने वाले होते है ... किन्तु इनकी "दिशा प्रायः भ्रमित या अनुचित या गलत" होती है !!!


3. 

अर्थार्थी !!!

तीसरे प्रकार के आयुर्वेद के लोग होते हे ... अर्थार्थी !!!

अर्थात इनको "आयुर्वेद शास्त्र से कुछ भी लेना देना नही होता है", किंतु आयुर्वेद का "लेबल लगाकर" जो भी कुछ "बेच सकते" है, ये हर चीज "बेचने" पर आमादा होते है. इन्हें आयुर्वेद शास्त्र से, उसकी सत्यापना से, उसकी प्रगती से, उसकी नैतिकता से, कोई संबंध नही होता है ... किंतु आयुर्वेद का "टायटल लेबल चिपका कर" कोई भी चीज "बेचना" इन के लिए "योग्य , उपयोगी & फायदेमंद" होता है, इसलिये आयुर्वेद के "नाम पर" च्यवनप्राश उबटन अभ्यंग तेल दिवाली किट मेकप किट रबर कॅथेटर स्टीमबाॅक्स शिरोधारा यंत्र स्पा ट्रीटमेंट मालिश मसाज रिसॉर्ट हेल्थ टुरिझम ॲकॅडमिक टुरिझम सेमिनार वेबिनार ऑनलाईन कोर्स सुवर्णप्राशन काॅस्मेटिक्स गर्भसंस्कार किसी भी रोग की अवयव की सिस्टम की स्वयंघोषित सुपर स्पेशालिटी नाडी रसशास्त्र योग मंत्र वर्म मर्म मुद्रा जिव्हा थेरपी आसन प्राणायाम विविध प्रकार के स्वनिर्मित किट... ऐसा जो चाहे , जो मन मे आये , ऐसा कुछ भी ... "यू नेम इट, दे हॅव इट" ... इस तरह से ये "बेचते" रहते है, क्योंकि इनका नाम ही "अर्थार्थी" है. 


इनको आयुर्वेद के "नाम पर पैसा बनाना है" , इसलिये ये ऑन पेपर स्टुडन्ट "बेचते" है, ऑन पेपर लेक्चरर प्रोफेसर रीडर "बेचते" है, ऑन पेपर एमडी "बेचते" है, ऑन पेपर पीजी, ऑन पेपर थिसिस "बेचते" है, ऑन पेपर कॉलेज "बेचते" है ... हो सके तो ये लोग ऑन पेपर पूरी यूनिवर्सिटी भी "बेच" डालेंगे !!!


तो अर्थकारण के लिए पैसा मार्केट बाजार धंदा दुकान व्यवसाय ट्रेडिंग सेल, ऐसे बनियागिरी करने के लिए, "किसी भी चीज को" ये आयुर्वेद के "नाम पर" आराम से , आसानी से , बडी मात्रा मे, देश मे , परदेश मे, विदेश मे ... हो सके तो चांद पर भी "बेच" पायेंगे !!!


4. 

ज्ञानी !!!

और सबसे अंत मे होते है ... ज्ञानी !!! 

जिनको आयुर्वेद का वास्तविक ज्ञान = आयुर्वेद के शक्तिस्थान तथा आयुर्वेद की मर्यादा ... उसका भी वास्तविक ज्ञान होता है !!! 


ये लोग सत्यवचनी कटुवचनी प्रामाणिक नीतिमत्तापूर्ण होते है.


ऐसे लोग आयुर्वेद मे प्रायः दुर्लभ होते है और अगर होते है तो ये शांत होते है, अगर वे शांत नही होते है, तो उनको डरा धमका कर या अपमानित करके, निंदा करके शांत कराया जाता है! 


अगर ये ज्ञानी लोक कुछ बोलते है, तो ये प्रायः बहुसंख्य आयुर्वेद के लाभार्थियों के शत्रू होते है, अप्रिय होते है !!!

इन्हे प्रायः निंदा का भागी बनना पडता है.

इन्हें सोशल मीडिया पर बहिष्कृत किया जाता है, 

इन्हें ग्रुप पर गालिया दी जाती है, इन्हे ग्रुप से निकाल दिया जाता है ... ऐसे इनको आयसोलेट किया जाता है!!!


किन्तु, यही लोग है की जो सत्य मे शास्त्र के प्रति वास्तविक ज्ञान अपने पास संजोये हुए रहते है.

ये कभी भी अनैतिक अवास्तव असिद्ध असत्य टाॅल क्लेम नही करते है. 


इन्हे आयुर्वेद के पोटेन्शिअल का शक्तिस्थान का योग्य स्वरूप मे ज्ञान होता है और साथ ही आयुर्वेद की मर्यादा का आयुर्वेद के लिमिटेशन्स का भी ज्ञान और मान्यता = स्वीकार दोनो होता है.


इस तरह से श्रीमद्भगवद्गीता मे श्री भगवान् श्रीकृष्ण ने जो चार प्रकार के लोग बताये है, ठीक ... वैसे के वैसे, आयुर्वेद मे भी ... 

1.

आर्त, तडपने वाले तडपाने वाले ! अर्थात भक्त ! प्रायः अंधभक्त

2.

अर्थार्थी = पैसा बनाने वाले !!

3.

जिज्ञासू अर्थात क्या है, सत्य है या नहीं, इसकी परीक्षा किये बिना हि ... सीखने वाले पढने वाले भोला बनने वाले शिष्य बनने वाले अनुयायी बननेवाले भेड बकरीयों की तरह एक दूसरे के पीछे बिना सोचे समझे लाईन मे चलने वाले भीड बढाने वाले ...

4.

और अंत में अत्यंत दुर्लभ स्तर पर, अत्यंत दुर्लभ मात्रा में, किंतु आयुर्वेद के अन्य लाभार्थीयों के लिए प्रतिकूल शत्रू स्वरूप अप्रिय ऐसे कुछ "ज्ञानी लोग भी" इस शास्त्र मे होते है !!!


श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Friday, 15 November 2024

संभाव्य अभिनव भैषज्य कल्पना : लवण क्षार सॉल्ट

 "इस बारे" में ना सुनो, क्या कहते है चरक

इस "नयी पहल" से हो सकता है, बहुत बडा फरक!!


अथ खलु त्रीणि द्रव्याणि नात्युपयुञ्जीताधिकमन्येभ्यो द्रव्येभ्यः; तद्यथा- पिप्पली, क्षारः, लवणमिति ॥


दो तीन दिन पहले क्षार अम्ल लवण, सॉल्ट बेस ॲसिड इस विषय पर एक प्रश्न पूछने वाली पोस्ट भेजी थी. नित्य अनुभव के अनुसार कई ग्रुप्स मे भेजने के बावजूद , इस पर एक भी प्रतिसाद नही आया. वह तो अपेक्षित ही था , उसमे कुछ विशेष नही है.


पूछने का कारण यह था की या क्षार को कुछ क्षण के लिए लवण कह लिजिए, तो लवण को हमारे शास्त्र मे पंचविध कषाय कल्पना की योनी से अलग रखा है.


लवणरसं वर्जयित्वा मधुरादयो रसाः कषायसञ्ज्ञया व्यवह्रियन्ते


लवण छोडकर बाकी पाच रस इन को कषाय योनियां माना गया है.


कषाययोनयः पञ्च रसा लवणवर्जिताः। 


क्यूंकि बाकी पाच रसों के द्रव्य का स्वरस कल्क फाण्ट हिम क्वाथ यह बनता है. यह बात अलग है कि, आज के प्रॅक्टिस में स्वरस फाण्ट और हिम इनका, कुछ भी स्थान बाकी नही है. संहितोक्त सारी चिकित्सा चूर्ण एवं क्वाथ पर हि आधारित है. और क्वाथ से ही स्नेह लेह आसव यह संयुक्त कल्पनायें बनती है. किंतु , क्वाथ का शेल्फ लाइफ = सवीर्यता अवधी अत्यंत कम होने के कारण, क्वाथ का भी प्रचलन उतना नही है. सिद्धांतिक तौर पर संहितोक्त चिकित्सा यद्यपि क्वाथ प्रधान है, तथापि क्वाथ बनाने के लिए भी , सर्वप्रथम चूर्ण की ही आवश्यकता होती है. इसलिये व्यवहारतः देखा जाये तो चूर्ण स्वरूप औषध का ही अधिकतम प्रचलन है. या चूर्ण से बनने वाली गुटी वटी टॅबलेट कॅप्सूल का ही प्रचलन अधिक है. 


तो लवण का चूर्ण तो बनता ही है या लवण चूर्ण स्वरूपही होता है. इस कारण से, अगर हमारे शास्त्र मे लवण रस की या लवण संयुक्त द्रव्य की महत्ता समझी जाती, जानी जाती, मानी जाती और उचित रूप से उपयोग मे लायी जाती ... तो आज आयुर्वेदीय भैषज्य कल्पना शिखर पर होती!!! 


मॉडर्न मेडिसिन मे देखा जाये तो फिफ्टी पर्सेंट से अधिक (>50%) ड्रग यह लवण स्वरूप सॉल्ट स्वरूप होते है 


लवण होने के कारण सॉल्ट होने के कारण, जल मे अत्यंत आसानी से विलयनशील होते है और विलयनशील होने के कारण इसका सीधा रक्त मे प्रवेश और संपूर्ण शरीर मे वितरण प्रसरण व्यापकता अनायास संभव होती है.

यह aqueous एक्स्ट्रॅक्ट न होने के कारण उसका प्रिझर्वेशन भी आसानी से होता है और आज के रेफ्रिजरेटर या कोल्ड स्टोरेज कारण लिक्विड स्थिती मे भी लवण का जो द्रावण सोल्युशन रूप मे होता है, उसका भी प्रिझर्वेशन संभव होता है. 


तो यद्यपि संहिता मे लवण को कषाय कल्पना की योनी नही माना है, तथापि आज के मॉडर्न मेडिसिन के 50% से अधिक ड्रग यदि सॉल्ट है लवण है, तो हमने भी यह प्रयास करना चाहिए की, हमारी औषधों को हम लवणस्वरूप मे सॉल्ट स्वरूप मे बना सके, निर्माण कर सके. एक नयी कल्पना का इसमे समावेश अंतर्भाव introduce कर सके या लवण वैसे भी चूर्ण इस मूल भैषज्य कल्पना में ही अंतर्भूत होता है. तो कोई यह शास्त्रबाह्य भैषज्य कल्पना नही होगी. अभी तो जैसे सभी संयुक्त भैषज्य कल्पनाओं का आधार क्वाथ है और क्वाथ का भी मूलाधार चूर्ण है ... वैसे तो सभी भैषज्य कल्पनाओंका मूलाधार चूर्णही होता है और लवण भी चूर्ण स्वरूप मे ही प्राप्त होता है. इस तरह से अत्यंत शास्त्र सुसंगत इस प्रकार की ये लवण कल्पना हमारे शास्त्र के मूल स्वरूप के औषधों को अधिक तीव्र गति से और अधिक परिणामकारक फलदायी रूप मे सिद्ध होगी. वैसे भी साक्षात लवण को सूक्ष्म बंधविध्मापन व्यवायी कहा गया है.


यद्यपी चरकने पिप्पली, क्षार और लवण इनका अत्यधिक प्रयोग नही करना चाहिए, ऐसे चरक विमान 1 मे कहा है , तथापि उसने स्वयं पिपली का प्रयोग बहुत तर मात्र मे पूरी संहिता में यत्रतत्र, तथा सभी अवलेहोंमे और रसायन अधिकार में किया ही है. 


क्षार और लवण का यद्यपि आहार के रूप मे अत्यधिक प्रयोग नही करना चाहिए, किंतु क्षार और लवण या सॉल्ट इसकी सूक्ष्म व्यवायी शीघ्र परिणामकारकता अल्पमात्रोपयोगिता, ये सभी शक्तिस्थान देखकर इनका औषध मे तो उचित मात्रा मे प्रयोग करना हि चाहिए.


और वैसे भी अनेको लवण कल्प संहिता मे यत्र तत्र दिखाई देते है जैसे की कल्याणक लवण


औषध चतुष्कके प्रथम अध्याय मे विशिष्ट औषधों का निर्देश करते हुए लवणवर्ग का सविस्तर उल्लेख और वर्णन चरक सूत्र 1 मे प्राप्त होता ही है


कुष्ठ चिकित्सा में *"क्षारतंत्र विदां बलम्"* इस प्रकार का उल्लेख है. इसका अर्थ, इस प्रकार का कोई वैशिष्ट्यपूर्ण औषधी विधान, संभवतः उस समय मे प्रचलित भी था.


सुश्रुत मे भी अनेको रोगों के लिए आभ्यंतर प्रयोग के लिये पानीय क्षार का विधान उपलब्ध होता है


सुश्रुत के वातव्याधी चिकित्सामे अनेक क्षार और लवणोंका उल्लेख प्राप्त होता है


मदात्यय चिकित्सा मे अम्ल के विपरीत क्षार का, चरक मे उल्लेख है और यही श्लोक सुप्रसिद्ध पांचभौतिक चिकित्सा का मूल प्रेरणा आधार है


चरक स्वयं ही कहते है की

उत्पद्येत हि साऽवस्था देशकालबलं प्रति ।

यस्यां कार्यमकार्यं स्यात् कर्म कार्यं च वर्जितम् ॥


अर्थात ऐसा काल आ सकता है, जहाँ करने योग्य कही हुई बात, न करने की अवस्था हो और न करने के लिए कही हुई बात, करने की स्थिति उत्पन्न हो जाये


लवणयुक्त स्नेह को भी संहिताकारों ने सूक्ष्म और व्यवायि कहा है.


अगर हम देखेंगे की, मॉडर्न मेडिसिन के सॉल्ट स्वरूप मे आने वाले सभी औषध का डोस = मात्रा अत्यंत कम होती है, फिर भी उनका परिणाम शीघ्र और बहु कर्मकारी होता है.


चरकने स्वयं ही कहा है की शास्त्र का निर्देश चाहे कुछ भी हो, हमने अपने बुद्धी के अनुसार उचित निर्णय लेना चाहिये ... उस उस उसकाल के अवस्था के सुसंगती के अनुसार!!!


न चैकान्तेन निर्दिष्टेऽप्यर्थेऽभिनिविशेद्बुधः ।

स्वयमप्यत्र वैद्येन तर्क्यं बुद्धिमता भवेत् 

तस्मात् सत्यपि निर्देशे कुर्यादूह्य स्वयं धिया ।

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वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

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Thursday, 7 November 2024

सौंदर्य चिकित्सा आणि आयुर्वेद दैन्यदिन : डिमांड अँड नीड, दशा दिशा आणि समज

सौंदर्य चिकित्सा आणि आयुर्वेद दैन्यदिन !? : डिमांड अँड नीड, दशा दिशा आणि समज

सौंदर्य चिकित्सा ! ... आयुर्वेदीय सौंदर्य चिकित्सा !!

यह लेख आगे पढने से पहले, अगर उचित लगे और आवश्यक लगे, तो लेख के अंत मे दिया हुआ डिस्क्लेमर सर्वप्रथम पढे. सत्यं वच्मि !! ... ऋतं वच्मि !!

1.

खरोखरच हे एक नवीन दालन वैद्यांच्या व्यवसायासाठी एक उत्तम संधी म्हणून उपलब्ध झालेले आहे. विशेषतः तरुण वैद्यांना लवकर प्रॅक्टिस सेट करता यावी, या अर्थाने याचा हातभार लागणे शक्य आहे आणि डेडिकेटेड प्रॅक्टिस/ समर्पित व्यवसाय किंवा ज्याला अलीकडच्या भाषेत सुपर स्पेशलिटी, अशा प्रकारचे हे याचे स्वरूप असू शकणार आहे.

2.

हे सर्व या पद्धतीने व्यावसायिक मार्केटिंग करून प्रस्थापित करणाऱ्या अलीकडच्या काही वैद्यांचे आणि तरुण पिढीचे अभिनंदन व कौतुक करावे तेवढे थोडेच आहे.

3.

आयुर्वेदाने पोट भरले पाहिजे, आयुर्वेदाने वैभव मिळवता आले पाहिजे, यात अनैतिक असे काहीच नाही ... किंबहुना डॉक्टर होतानाच मुळात , आपण लाईफस्टाईल मध्ये, एक स्तर वरच्या लेवलला जाऊ, या उद्देशाने सामान्य मध्यम वर्गातील कुटुंबीय व त्यांचा होतकरू तरुण मुलगा मुलगी या विचारानेच वैद्यक क्षेत्रात येत असतो.

4.

आयुर्वेदामध्ये सुद्धा आठ अंगांपैकी रसायन आणि वाजीकरण ही तशी पाहिली, तर प्रत्यक्ष रोगाला न वाहिलेली, लाईफ व्हॅल्यू एडिशन = जीवनमूल्य सुधारणारी दोन अंगे आहेत ...

5.

परंतु तरीही रसायन आणि वाजीकरण ही स्पष्टपणे सौंदर्य चिकित्सा या बाबीला केंद्रीभूत प्राधान्याने ठेवणारी अशी नाहीत.

6.

त्यामुळे जसे स्वस्थ वृत्त रसशास्त्र भैषज्य कल्पना शारीर क्रिया शारीर रचना... इतकंच काय, तर संहिता असे आयुर्वेदाचे नवीन विभाग = विषय उदयाला आले.

7.

तसेच हे सौंदर्यशास्त्र हे नवे अंग =नवा विषय= नवा विभाग याअर्थी संबोधायला =ओळखायला =आयडेंटिफाय करायला हवे आहे.

8.

खरं तर जे जे विकलं जातं, ते ते "विकायला" हवेच... आणि जोपर्यंत नैतिकतेला मॉरल एथिक्सला बाधा येत नाही, तोपर्यंत त्यावर आक्षेप घ्यायला नको आहे.

9.

सौंदर्यचिकित्सा यामध्ये प्रामुख्याने केस आणि त्वचा ह्या प्रथमदर्शनी समोर येणाऱ्या अवयवांविषयी विचार केलेला असतो. याच बरोबरीने चेहऱ्याची त्वचा, चेहऱ्याचा गौरपणा, केसांची लांबी, केसांची गळती, केसांचा रंग, ओठांचा रंग, गालांचा रंग ... जमलंच तर मग हातापायावरचे रोम लोम, तळहात तळपायांची त्वचा, बोटे किंवा जे दृश्य अवयव आहेत त्यांचा उजळपणा ... याच्यासाठी विविध ... शक्यतो "बाह्य उपचार" आणि बरोबरीने "निदान होऊ शकले , पेशंटची तयारी असेल तर" काही आभ्यंतर उपचार असे याचे स्वरूप असते, असा "माझा समज आहे." 

10.

त्वचेचे, प्राधान्याने चेहरा हात गळा पाय येथील त्वचा यांचे उपचार आणि केसांचे उपचार व त्याचबरोबरीने नखे पोट भुवया यांचे उपचार ... यात, "बाह्य उपचार" या अर्थाने प्राधान्याने येतात, असा "माझा समज आहे".

11.

कॉस्मेटोलॉजी नावाची जी मॉडर्न मेडिसिन ची उपशाखा आहे किंवा ट्रायकॉलॉजी ही त्यातील अजून एक उप उप शाखा आहे त्याचे हे अनुकरण किंवा रुपांतरण किंवा आयुर्वेदीयीकरण आहे , असाही "माझा समज" आहे.

12.

त्यामुळे त्या शाखा उपशाखांमधील तंत्रे यंत्रे (टेक्निक्स & मशीन्स) "जसेच्या तसे" वापरून, त्या शाखा उपशाखातील, त्या त्या उपचार विधींचा औषधांचा "बेस" असलेली केमिकल्स "जशीच्या तशी" वापरून आणि तेथीलच मूळ उपचार संकल्पना विधी शैली उत्पादने यांचे स्वरूप "जसे आहे तसेच" ठेवून, केवळ त्यातील "काही किंवा थोडे घटक हे आयुर्वेदात उल्लेख केलेले काही वनस्पतीजन्य द्रव्य" किंवा खरंतर, आयुर्वेदीय नव्हे तर , "काही हर्बल प्रॉडक्ट्स" त्यात मिसळून , त्याला "आयुर्वेदीय सौंदर्यशास्त्र" असे नामकरण केले असावे, असा "माझा समज" आहे ...

13.

जसं ॲक्युपंक्चर ला "विद्ध असं नाव देऊन दत्तक" घेतलेले आहे... जसं फार पूर्वीच्या मासिका मध्ये जेम्स बॉण्ड ऐवजी जनू बांडे, किंवा आमच्या लहानपणी न्यूझीलँडच्या क्रिकेट कॅप्टन मार्टिन क्रो ला मारुती कावळे, बेसिक इन्स्टिंक्ट च्या त्याकाळच्या बोल्ड शेरॉन स्टोन ला सरू दगडे असे म्हणत असत ... "तसाच" काहीसा हा प्रकार!!!

14.

ही जी नवीन सौंदर्यशास्त्र नावाची शाखा अंग विभाग विषय विकसित होतो आहे, तो ही "अगदी याच प्रकारे"... 

15.

लोकांची भावनिक गरज, लोकांची भावना, भावनात्मक मार्केटिंग, मार्केटिंगची भावना, काय "विकलं जाऊ शकतं" , saleability सेलेबिलिटी ... या बाबी लक्षात घेऊन, अनेक "अशास्त्रीय ट्रीटमेंट उद्योग" सुरु आहेत.

16.

त्याने काय फरक पडतो ? त्याला काय होतंय ? सबकुछ चलता/बिकता है, थियरी सांगू नका, सिद्धांत सांगू नका, प्रॅक्टिकल बघा, व्यवहाराला महत्त्व द्या रिझल्ट येतात ना ?? पेशंटला समाधान आहे नं!? अशा अनेक प्रकारच्या "जस्टीफिकेशनच्या" मागे दडून किंवा त्यांना पुढे करून, त्या शिल्डच्या आधारे ... हे सगळं "रेटून" चालू आहे , याबद्दल कुणालाच काहीच गैर/आक्षेपार्ह वाटत नाही, हे खरोखरच आश्चर्याचे आहे!!! किंवा सोशली करेक्ट राहायचं म्हणून कोणीच काही बोलत नाही ... सगळ्यांचीच अळीमिळी गुपचिळी

17.

कितीही सौंदर्य चिकित्सा म्हटलं तरी, त्यात वापरले जाणारे सर्व घटक हे खरोखरच "100% आयुर्वेदीय"च आहेत का? आणि "आयुर्वेदीय भैषज्य कल्पने"नुसार आहेत का, याचा स्वतःशीच / स्वतःशी तरी विचार करावा.

जर ते तसे नसतील तर त्यांचे प्रमाण हे बाहुल्याने अधिक्याने उल्बणतेने भूयिष्ठतेने, अन्आयुर्वेदिक किंवा केमिकल किंवा कृत्रिम अशा भावांचे, अनपेक्षित अनअभिप्रेत कदाचित अहितकारक अशा घटकांकडे जाते आहे का, याकडे सावधानतेने पाहायला हवं!! अगदी सर्वसामान्यपणे वापरले जाणारे काही केमिकल कॉस्मेटोलॉजी घटक सुद्धा अलीकडे बॅन केले गेले आहेत कारण ते कार्सिनोजेनिक आहे, असे सिद्ध झाले आहे. 

18.

कदाचित असेही असू शकते की आपण सौंदर्य चिकित्सा या नावाखाली जी सौंदर्य उत्पादने = आयुर्वेदिक कॉस्मेटिक्स "विकू पाहतो" आहोत, ती वस्तुतः "आयुर्वेदीय नसून", ती केवळ "हर्बल प्रॉडक्ट्स" आहेत. फक्त "योगायोगाने" काही "हर्ब्स"चा 'आयुर्वेदात उल्लेख' आहे, म्हणून त्या ... (मॉडर्न मेडिसिन मध्ये किंवा कॉस्मेटोलॉजी मध्ये असणाऱ्या उत्पादनांना समांतर किंवा तत्सदृश अशा) "हर्बल प्रॉडक्ट्सना" आपण "दाबून रेटून आयुर्वेदिक सौंदर्यशास्त्र" असे "लेबल" चिकटवतो आहोत, "म्हणवतो" आहोत किंवा "भासवतो" आहोत

19.

शास्त्रामध्ये अगदी काही "तुरळक" उल्लेख हे मुखालेप केशपतन दारुणक खालित्य पालित्य युवानपिडका मुखदूषिका ॲक्ने नीलिका व्यंग तिलकालक यासाठी आलेले आहेत ... पण त्यांचे असलेले वर्णन हे "प्राधान्य किंवा विस्तार अशा स्वरूपाचे नसून ... अत्यल्प किंवा अति संक्षिप्त" असे आहे

20.

परंतु, एका विशिष्ट वयानंतर, हे सगळं "नैसर्गिकपणे(?)" आम्ही थांबवू आणि तुमचं सौंदर्य "बाह्यतः अबाधित" ठेवू, यासाठी हट्टाग्रहाने प्रयत्न उपचार खर्च वेळ हे दवडण्यापेक्षा, वय किंवा तुमचा आहार विहार विचार किंवा तुमची जीवनशैली किंवा तुम्हाला झालेले अन्य रोग, यामुळे तुम्हाला असणाऱ्या / वाटणाऱ्या सौंदर्य विषयक समस्या, ह्या "आहेत, त्या तशाच राहतील आणि त्या तुम्ही स्वीकाराव्यात", अशा प्रकारचे प्रबोधन, हे अधिक योग्य होईल, असे मला वाटते.

21.

Demand & Need:

आम्ही पेशंटची/ की ग्राहकाची कस्टमरची क्लायंटची(?) "डिमांड/मागणी" आहे, म्हणून सौंदर्य चिकित्सा, सौंदर्य प्रसाधने, अमुक तमुक किट, उबटन, अभ्यंग तेल, लिपस्टिक, शाम्पू, वेगवेगळ्या प्रकारचे साबण हे "विकणार" आहोत, की ...

पेशंटची✅️ "need/गरज" काय आहे, ते बघून त्याला आयुर्वेदीय "औषध, आहार व विहार" या "त्रिविध=तीन'ही' " प्रकारे "चिकित्सा देणार" आहोत, याबाबत स्वतःपुरती क्लॅरिटी = स्पष्टता असायला हवी

22.

साधारणतः 90 च्या दशकापर्यंत, प्रत्यक्ष पुण्यामध्ये सुद्धा, रंगरंगोटी करणारी ब्युटी पार्लर्स, ही हाताच्या बोटावर मोजण्या इतकी होती!

आज ब्युटी पार्लर ही कदाचित प्रत्येक गल्लीत दोन-चार निश्चितपणे सापडतील परंतु ...

23.

पण, आपण चिकित्सा व्यवसायिक आहोत की बाह्य रंगरंगोटी करणारे?? ... फक्त वेगळे म्हणजे ~आयुर्वेदीय~ "हर्बल सौंदर्यप्रसाधने" "विकणारे ट्रेडर्स सेलर्स" असे लोक आहोत, हा प्रश्न एकदा तरी , स्वतःला तरी विचारायला हवा

24.

सौंदर्यशास्त्र आम्ही "आयुर्वेदाप्रमाणे" करतो, असा कितीही दावा केला तरी ... सौंदर्यशास्त्रा(?)साठी येणारा पेशंट; खरंतर "गिऱ्हाईक", हे तुमच्याकडून "बाह्य औषधांची (? उत्पादनांची प्रॉडक्टची!) , अपेक्षा/मागणी/डिमांड करेल" ... की तुम्ही सुचवलेली + दिलेली "अत्यंत आवश्यक आभ्यंतर औषधे आणि सांगितलेली जीवनशैलीविषयक आहार विहाराची पथ्ये" याला महत्त्व देईल, याचाही विचार करावा. 

25.

आणि हो ... "तुम्हीही", तुमच्याकडे येणाऱ्या सौंदर्यशास्त्राच्या पेशंटला (= गिऱ्हाईकाला?), तुमच्याकडे निर्माण केलेली किंवा संग्रहित असलेली स्टॉक मध्ये असलेली "सौंदर्य विषयक उत्पादने देण्यासाठी वापरण्यासाठी वितरण करण्यासाठी अगदी साध्या आणि स्पष्ट शब्दात "विकण्यासाठी" अधिक प्राधान्य द्याल?? ... की त्याला आभ्यंतर औषधे देऊन त्याची जीवनशैलीतील सुधारणा करण्यासाठी प्राधान्य द्याल, याचाही विचार करावा 

26.

खरंतर आपल्याकडं रसायन आणि वाजीकरण ही दोन अंगे, प्राधान्याने रोग नसलेल्या गोष्टींसाठीची, जीवनमूल्य वाढवणारी = व्हॅल्यू एडिशन करणारी , दोन अंगे स्वतंत्रपणे अस्तित्वात असताना , सौंदर्यशास्त्र याला वाहिलेला एखादा "जाहिरात वजा" उपक्रम, आयुर्वेद शास्त्राला समर्पित असलेल्या एखाद्या संघटनेने, "विक्री" हा उद्देश ठेवून हाती घ्यावा, हे थोडेसे विसंगतच आहे

27.

अगदी यावर्षी अचानकच, सौंदर्यशास्त्र नावाची शाखा निर्माण झाली प्रस्थापित झाली असे नाही .

किमान गेले पाच ते दहा वर्ष याविषयीची व्यावसायिक प्रस्थापना हळूहळू मूळ धरायला लागलेली आहे, असे निश्चितपणे आहे 


या सर्व काळात आपण सौंदर्यशास्त्राच्या पेशंटला/ गिऱ्हाईकांना, जीवनशैली विषयक किती बदल करण्यात आपण यशस्वी ठरलो ??


आभ्यंतर औषधांनी त्यांच्या सौंदर्य विषयक समस्या किती प्रमाणात अपुनर्भवाने नष्ट करू शकलो ??


आणि वरील विकल्पांच्या ऑप्शनच्या तुलनेत कम्पॅरिझन मध्ये, सौंदर्य साधने या अर्थी आपण सौंदर्य "उत्पादने" ब्युटी "प्रॉडक्ट्स" ही किती प्रमाणात "विकली", यांचं परसेंटेज किंवा पाय चार्ट तयार केला असता, त्यातून काय निष्कर्ष समोर येऊ शकतील ?!

28.

एक आयुर्वेदीय म्हणून सौंदर्यशास्त्र या विषयाकडे पाहण्याचा आपला दृष्टिकोन काय असायला हवा ?!

29.

ज्या अत्यंत आधुनिक यंत्र व तंत्रांच्या साह्याने आजचे स्किन क्लिनिक चालतात किंवा ट्रायकॉलॉजीचे क्लिनिक चालतात, मॉडर्न मेडिसिन मध्ये ... तशी काही सैद्धांतिक व भैषज्य कल्पनांची मूळ आयुर्वेदीय स्वरूपातील पार्श्वभूमी आपल्याकडे उपलब्ध आहे का ???

30.

की केवळ त्यांच्याकडे त्या पद्धतीचे मार्केटिंग आता सुरू झालेले आहे आणि त्यांना त्या पद्धतीचे पेशंट/क्लायंट/कस्टमर मिळतात आणि त्यातून मिळणारे उत्पन्न हे "तोंडात बोट घालायला लावणारे" असू शकतं , हे पाहिल्यामुळे... आपण त्या पद्धतीचे "समांतर प्रयत्न" करतो आहोत, याही प्रश्नाचे प्रामाणिक उत्तर स्वतः पुरते तरी दिले पाहिजे !

31.

केवळ लेप उद्वर्तन वगैरेच नव्हे , तर यामध्ये काही मालिश मसाज यासारख्या उपचारांचाही समावेश सौंदर्यशास्त्र या नावाखाली केला जातो 

परंतु मसाज मालिश ही गोष्ट यासाठी अशा पद्धतीने करावी असं शास्त्राला खरंच अभिप्रेत आहे का ?

आणि मसाज मालिश या गोष्टी उपचार म्हणून वैद्याने न करता, त्या थेरपीस्टने करणे हे शास्त्रीय आणि नैतिक दोन्ही आहे का?? 

यामध्ये कळत नकळत आपण शास्त्र बाह्य लोकांवरती आपले अवलंबित्व वाढवत आहोत का?

आणि पेशंटच्या समोरथेरपीस्टचे महत्त्व अकारण वाढवत आहोत का??

आणि नको त्या लोकांच्या हातात शास्त्रातील चांगल्या गोष्टी चुकीच्या पद्धतीने देत आहोत का?

असे तीन प्रकारचे नुकसान / हानी शास्त्र या दृष्टीने होते आहे का ??

हेही पाहिलं पाहिजे. 

शास्त्रीय आयुर्वेदीय औषधी उपचारांच्या ऐवजी , आपण रिसॉर्ट स्पा हॅपनिंग थेरपी फील गुड अशा उद्देशाने पेशंटला मसाज मालिश अशा तथाकथित सौंदर्य उपचारांना बळी पाडतोय का ? किंवा त्यासाठीचं त्यांना गिऱ्हाईक कस्टमर क्लाइंट बनवतोय का? 

हाही प्रश्न स्वतःलाच विचारून त्याचे उत्तर देणे, ही आपलीच जबाबदारी आहे !

32.

याहूनही महत्त्वाचा प्रश्न असा की,

आपण जे आयुर्वेदाचे पदवीधर झालो डॉक्टर झालो वैद्य झालो ... ते बुद्धी वापरून पैसे मिळवण्यासाठी झालो आहोत की हात वापरून मजुरी करून हमाली करून लेबर काम करून शारीरिक कष्ट करून पैसे मिळवण्यासाठी आपण डॉक्टर वैद्य आयुर्वेदाचे पदवीधर झालेलो आहोत???

आपल्या आई-वडिलांनी फी भरून, त्यांच्या तारुण्यातले अतिशय मौल्यवान असे दिवस पणाला लावून, आपल्याला या शास्त्रातील पदवीधर आणि समाजाच्या दृष्टीने डॉक्टर आणि आपल्या दृष्टीने वैद्य बनवले आहे ते यासाठी बनवले आहे का की आपण बुद्धीचा वापर न करता हाताचा वापर करून शारीरिक कष्ट करून लेबर मजुरी हमाली करून पैसे मिळवावेत?

33.

सौंदर्य शास्त्रातील समस्या या अर्थी केस, चेहरा, शरीराची इतर भागातील त्वचा, स्थौल्य, कार्श्य गर्भारपणातील किक्विस, शरीरावरील सुरकुत्या याबाबत "काय चिकित्सा" याच मुख्य अंगाच्या अंतर्गत, योग्य ते "औषध, आहार आणि विहार" यांचे नियोजन त्या पेशंट बाबत करणे, हे अधिक श्रेयस्कर व योग्य दिशेने जाणारे आहे, असे मला वाटते 

34.

तरीही जर सौंदर्यशास्त्र या नावाखाली आपण केस त्वचा आणि अन्य काही विशिष्ट अवयवांपुरता सैद्धांतिक विचार, हेतु लक्षण विचार आणि त्याच्या बरोबरीने जीवनशैलीतील आहार विहारातील बदल, दोष धातु मल यानुसार आभ्यंतर उपचार "आणि सर्वात शेवटी बाह्य उपचार यांची सहाय्यता", या "प्राधान्य क्रमाने (preferential order)" जात असू, तर ते निश्चितपणे समर्थनीय व स्वागतार्ह आहे 

35.

परंतु हा "प्राधान्यक्रम जर उलटा होत असेल" तर निश्चितपणे आपले उद्देश आणि शास्त्राकडे पाहण्याची आपली दृष्टी, यात काहीतरी विसंगती होत आहे का?, याबाबत तपासणी करून पहायला हवी.

36.

आपल्यापैकी अनेक जण निश्चितपणे उत्तम यशस्वी प्रस्थापित आणि "कदाचित लोकप्रियही" व्यावसायिक आयुर्वेद "वापरकर्ते" आहोत ...

37.

पण सकाळी आरशात उठल्यानंतर स्वतःच्या नजरेला नजर देताना, स्वतःकडे पाहताना, मी खरोखरच अनैतिक असत्य असिद्ध अशास्त्रीय असं काही करत नाही ना, या प्रश्नाचे उत्तर ... "होय, तू काहीच चुकीचं करत नाहीस", असं येत असेल तर ... त्याबद्दल स्वतःचं निश्चितपणे अभिनंदन करून घ्यावं !!!

38.

परंतु या प्रश्नाचे उत्तर देता येत नसेल, हा प्रश्न स्वतःच स्वतःला विचारायला भीती लाज शंका वाटत असेल... तर एकदा तरी स्वतः पुरतं तरी आत्मपरीक्षण करायला हवं, असं मला वाटतं!!! 

39.

कोणी करत असलेल्या कुठल्याच प्रकारच्या व्यवसायाबद्दल, कसलीही हरकत घेण्याची, माझी योग्यता पात्रता इच्छा अधिकार नाही... 

40.

परंतु मी जे काही करतोय, ते करत असताना, मी स्वतः माझे शास्त्र माझा देव माझा समाज माझा अन्नदाता पेशंट यांच्याशी, मी कुठेही थोडीसुद्धा फसवणूक प्रतारणा वंचना दिशाभूल करत नाहीये ना!? इतकी तरी पडताळणी करून पाहायला हवी

41.

मी स्वतः आणि माझे कुटुंबीय = माझी मुलं, माझी बायको जे अन्न खात आहेत, ते खाताना त्यामध्ये शंभर टक्के प्रामाणिकपणा आहे ना!? हे फक्त एकदा सकाळी आंघोळ करून, देवासमोर बसून निरंजन लावून, हात जोडून स्वतःला प्रश्न विचारून, त्याचे उत्तर देव्हाऱ्यातल्या आपल्या आराध्य दैवताला प्रामाणिकपणे द्यावं ...

आणि जे उत्तर येईल, त्यानुसार पुढे आपलं आचरण/व्यवसाय सुरू ठेवावं किंवा "योग्य दिशेने बदलावं" , हे उचित होईल , असं मला वाटतं.

Disclaimer: यह लेख वैयक्तिक मत के रूप मे लिखा गया है. इस लेख मे उल्लेखित विषयों के बारे मे अन्य लोगों के मत इससे भिन्न हो सकते है. इस लेख मे लिखे गये मेरे मत, किसी भी अन्य व्यक्ती या संस्था पर बंधनकारक नही है तथा उन्होने मेरे ये मत मान्य करने हि चाहिये, ऐसा मेरा आग्रह नही है. उपरोक्त विषयों के बारे मे जो मेरी समझ, मेरा आकलन, मेरा ज्ञान है, उसके अनुसार उपरोक्त लेख मे विधान लिखे गये है. उन विषयों के बारे मे वस्तुस्थिती और अन्य लोगों के मत, मेरे मत से, मेरे आकलन से, मेरी समझ से, मेरे ज्ञान से अलग हो सकते है.

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Wednesday, 6 November 2024

बदलते/नये हेतु स्कंध एवं बदलते/नये लक्षण स्कंध के अनुसार नया अभिनव नूतन अपूर्व औषध स्कंध

बदलते/नये हेतु स्कंध एवं तज्जन्य बदलते/नये लक्षण स्कंध के अनुसार ... नया अभिनव नूतन अपूर्व औषध स्कंध!

आज कुछ "अच्छा" सुनते है !

आज कुछ "सच्चा" सुनते है !!


हेतु स्कंध के अनुसार हि लक्षण निर्माण होते है, 

यह कार्य करण भाव सिद्धांत है! 

जैसे हेतू बदलेंगे, वैसे लक्षण भी बदलेंगे. 


संहिता मे जो हेतु स्कंध था, 

वो आज वैसे के वैसे उपलब्ध नहीं है 

और 

आज का जो हेतु स्कंध है, 

उसका वर्णन संहिता में नही हो सकता! 

तो संहिता काल के हेतुजन्य लक्षण आज दिखाई नही देते, जैसे की गुल्म ऊरुस्तंभ ...

और आज के नये हेतु, एवं तज्जन्य जन्य नये लक्षण संहिता मे वर्णित नही हो सकते !

और 

*हेतु लक्षण के विपरीत हि, औषध स्कंध होता है*. 

तो ... बदलते/नये हेतु स्कंध एवं तज्जन्य बदलते/नये लक्षण स्कंध के अनुसार हि, नया औषध स्कंध होना, 

यही शास्त्र सुसंगत है.

किंतु नये औषधस्कंध की निर्मिती या डिझाईन के लिए उतनी बुद्धिमत्ता उतने अनुभव और *उतनी विश्वासार्हता* संभवतः आज किसी के भी पास नही है.

तो जो संहिता मे उल्लेखित या 100 200 300 वर्ष पूर्व लिखे हुए ग्रंथो मे उल्लेखित योग / कल्प है, 

वे "तत्कालीन" हेतुजन्य, "तत्कालीन" लक्षणों के लिए लिखे हुए, "तत्कालीन" औषध स्कंध है. 

इसलिये मेरा एक ऐसा भी मानना है, कि वह जो औषध स्कंध आज हम प्रयोग मे ला रहे है, वो "कालबाह्य" है.

हम आज के हेतुओं के विपरीत, "आज" के हेतु व "आज" के लक्षण के विपरीत, "तत्कालीन" ताप्यादि लोह, "तत्कालीन" कौटजादि शिलाजतु "तत्कालीन" च्यवनप्राश ऐसे औषध, आज के दौर/काल/युग मे प्रयोग कर रहे है.

ये आज के गन और बॉम्ब से जैसे शस्त्रों से सिद्ध/ युक्त शत्रुओं के साथ , "विगतकाल के कालबाह्य तत्कालीन" "तीर और तलवार" से युद्ध करने जैसा है. 

ये ई-मेल व्हाट्सअप के जमाने मे कबूतर द्वारा या घुडसवार द्वारा संदेश भेजने जैसा है.

तो "आज के नये" हेतुओं के लिए और "तज्जन्य आज के नये" लक्षण के लिए, "आज का नया औषध स्कंध" लिखना, यह "आज के वैद्यों" का, "आज के आयुर्वेद अनुयायीयों" का, "आज के आयुर्वेद अभ्यासकों" का काम है.

सिद्धांत त्रिकाला बाधित है इसका अर्थ यह नही होता है कि, उसके अनुसार लिखे हुए औषध कालबाह्य नही होंगे.

जैसे हमारे बचपन मे चौथी पाचवी छठी कक्षा मे गणित के मॅथ्स के कुछ प्रॉब्लेम्स सॉल्व करते थे, उसमे जो उदाहरण होते है, उस काल के थे. आज 30 40 साल के बाद, जब हम रोज के व्यवहार में बँक मे किराणा दुकान मे बस के ट्रॅव्हल मे हर क्षण हर व्यवहार मे जो गणित के प्रॉब्लेम्स सॉल्व करते है, वो बचपन की किताबों से नही है. बचपन के किताब मे गणित के जो 0 से 9 नंबर थे और जो मूलभूत मल्टिप्लिकेशन ॲडिशन सबट्रॅक्शन डिव्हायडेशन+×÷- ये गणित की प्रक्रियायें थी, "आज के प्रॉब्लेम के लिए भी, वैसे ही उपयोगी है".✅️

इस प्रकार से संहितोक्त या बाद के योगसंग्रह मे जो आज से 100 200 400 वर्ष पहले लिखे गये है, उन तत्कालीन ग्रंथो मे उल्लेखित औषध स्कंध / योग / कल्प "आज, कालबाह्य" हो गये है ... "क्योंकि" वे "तत्कालीन" हेतुस्कंध, "तत्कालीन" तज्जन्य लक्षण स्कंध के लिये, "तत्कालीन" हेतु लक्षण विपरीत औषध स्कंध है. उनका भी आकलन उन्हीं सिद्धांतोंपर उन्ही दोषरसगुणमहाभूत पर और मूलभूत मुस्ताशुंठीवचाहरिद्रा इन द्रव्यों के आधार पर हि सिद्ध होगा ... वैसे ही उन्ही दोष रस गुण महाभूत सिद्धांत पर और उन्हीं मुस्ता शुंठी वचा हरिद्रा इन्हीं द्रव्यों से हि आज के नये हेतुओं के लिए और आज के नये लक्षणे के लिये, आज का नया औषध स्कंध बनेगा.

शून्य से नऊ (0 to 9) अंक वही रहेंगे, मल्टिप्लिकेशन डिव्हायडेशन सब्ट्रॅक्शन ॲडिशन (+×÷-) यह प्रक्रियायें वही रहेंगी, किंतु बचपन के मॅथ्स के प्रॉब्लेम आज नही रहेंगे, आज के मॅथ्स के प्रॉब्लेम नये आयेंगे, जो फिर से उन्हे 0 से 9 नंबर के द्वारा और उन्हीं मल्टिप्लिकेशन डिव्हायडेशन सब्ट्रॅक्शन ॲडिशन +×÷- प्रक्रियायों द्वारा हि सॉल्व होंगे. 

सब कुछ बेसिकली वही रहेगा , लेकिन "कॉम्बिनेशन बदलेगा, अरेंजमेंट बदलेगी". 

आज के व्यवहार में, वैसे ही दोष रस गुण महाभूत वही रहेंगे, वचा शुंठी मुस्ता हरिद्रा वही रहेंगे, किंतु आज के हेतूओं के लिए, आज के लक्षणों के लिए , आज का औषध स्कंध इन्हीं सिद्धांतोंसे, इन्ही औषधी द्रव्यों से बनेगा ... किंतु "कॉम्बिनेशन = अरेंजमेंट नया होगा" ... इसलिये औषधी स्कंध अभिनव बनेगा , नूतन बनेगा , अपूर्व बनेगा!!!

प्रस्थापित औषधों से परे , कुछ अन्य नये अभिनव नूतन औषधी योग = औषधी कल्प प्रस्तुत करने का निरंतर प्रयास, स्वयं म्हेत्रेआयुर्वेद के और ... MhetreAyurveda के विद्यार्थी तथा सन्मित्र वैद्यों द्वारा उनका बहुतर मात्रा में प्रयोग करने के बाद जो अनुभव आता है , उसके अनुसार ये लेख लिखे जाते है. 

इसका उद्देश्य ये है की , आज के नये हेतू स्कंध के लिए और "तज्जन्य" आज के नये लक्षण स्कंध के लिए ... यह "नए औषध स्कंध" प्रयोग करके देखिये !!! 

हो सकता है की प्रस्थापित और पूर्वोक्त संहितोक्त और संभवतः कालबाह्य औषध कल्पों से "अधिक कार्यकारी, यह नए कल्प" है, ऐसा अनुभव आपको भी आयेगा!!! 

यह नये कल्प कोई म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda की अपनी प्रॉपर्टी पेटंट कॉपीराईट नही है! 

यह केवल एक नयी पहल है, की प्रस्थापित लोकप्रिय कल्पों को बाजू को रखके, कुछ नये कल्पों का रुग्णों पर उपयोग करके, आने वाले अनुभवोंको आपके सामने प्रस्तुत किया है. 

ये कल्प म्हेत्रेआयुर्वेद से ही पर्चेस करने चाहिये ऐसा नही है. ये कल्प स्वयं भी निर्माण करके आपके पेशंट पर उपयोग करके देख सकते है. हो सकता है की, हम आज के नये हेतुस्कंध के लिए, "तज्जन्य" नये लक्षण स्कंध के लिए, एक नया औषध कंध निर्माण कर पाये ... जो आनेवाले काल के लिए सुसंगत, परिणामकारक और लाभदायक होगा.

म्हेत्रेआयुर्वेद द्वारा जो लेख कल्पों के / गण के बारे मे लिखे जाते है, वे मार्केटिंग के लिए, व्यवसाय के लिए, व्यापार के लिए नही लिखे जाते! 

अपितु, नये हेतू स्कंध के अनुसार, निर्माण होनेवाले, "तज्जन्य" नये लक्षण स्कंध के लिए उपयोगी, ऐसे हेतू विपरीत &/or लक्षण विपरीत, "नये औषध स्कंध" प्रस्तुत करने के लिए, शास्त्र के लिए एक समर्पित योगदान करने के लिए , यह लेख निरंतर प्रस्तुत किये जाते है.

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Tuesday, 5 November 2024

ग्रे की जयंती, गायटन की पुण्यतिथी, हचीसन डेव्हिडसन के जन्मशताब्दी, हरीसन को श्रद्धांजली

 ग्रे की जयंती, गायटन की पुण्यतिथी, हचीसन डेव्हिडसन के जन्मशताब्दी, हरीसन को श्रद्धांजली

जब आप किसी क्षेत्र में कार्य कर रहे होते है, तब आपके सहकर्मियों का व्यवहार भी आपने देखना चाहिए. क्यूकी आपके सहकर्मी अर्थात उसीक्षेत्र में आपके जैसा कार्य करने वाले अन्य व्यक्ती संस्था समूह सिस्टीम ये आपके स्पर्धक competitor होते है. इसलिये ये क्या "कर रहे" है? ये क्या "नही कर रहे" है? इसके अनुसार आपको भी आपका व्यवहार उचित दिशा मे बदलना पडता है. 


जब आप किसी क्षेत्र में अकेले ही सेवादाता (सोल सर्विस प्रोव्हायडर) होते हो अर्थात आपकी मोनोपाॅली होती है, तब आपको इस प्रकार का अपने व्यवहार का निर्धारण आपके स्पर्धकों के व्यवहार के अनुसार बदलने की आवश्यकता नही होती है! 


आज से 150-200 साल पहले भारतीय समाज की आरोग्य व्यवस्था केवल आयुर्वेद के ही अधिकार में थी. तब आयुर्वेद शास्त्र का समाज के प्रति व्यवहार क्या है, इस पर प्रश्न उठाने वाला उसको व्हेरिफाय करने वाला व्हॅलिडेट करने वाला कोई नही था. 


लेकिन आज के काल मे जब 95% से ज्यादा लोग आयुर्वेद की आरोग्य व्यवस्था के बजाय, मॉडर्न मेडिसिन की आरोग्य व्यवस्था पर अवलंबित है, ऐसी स्थिती मे, आयुर्वेदिक चिकित्सा जगत ने ही अपने व्यवहार का उचित रूप मे दिशा परिवर्तन करने के लिए, अपना जो बलवान स्पर्धक है, उस मॉडर्न मेडिसिन के डॉक्टर्स का तथा स्वयं मॉडर्न मेडिसिन इस सिस्टीम का व्यवहार किस प्रकार का है, वो किस प्रकार से व्यवहार "करते है" और किस प्रकार का व्यवहार "टालते है", इसकी तरफ ध्यान देना आवश्यक हो जाता है.


अगर हम ऐसा नही करेंगे, तो यह अव्यवहार या असमंजसता या मूर्खता सिद्ध होगी.


क्या मॉडर्न मेडिसिन के लोगो ने कभी ग्रे की जयंती, गायटन की पुण्यतिथी, हचीसन डेव्हिडसन के जन्मशताब्दी, हरीसन को श्रद्धांजली ... ऐसे कार्यक्रम पूरे विश्व मे कही पर भी आयोजित करते हुए देखा है!? 


हर वर्ष की बात छोड दो , किंतु किसी की सेंटेनरी बर्थडे अर्थात जन्मशताब्दी या 100 वी स्मृतिदिन = पुण्यतिथी यह भी कभी मनाई हुई, पूरे विश्व मे दिखाई नही देती है.


तो क्या ऐसी जयंती पुण्यतिथी शताब्दी न मनाने से, मॉडर्न मेडिसिन के यश में, उनके शास्त्रीय व्यवहार में उनके सामाजिक स्वीकारता में कुछ हानी हुई है ?


अगर ऐसा नही है ... तो हम आयुर्वेद के लोग इस प्रकार के अशास्त्रीय भावनिक व्यवहारों में अपना समय एनर्जी रिसोर्सेस और पैसा क्यू व्यर्थ बर्बाद करते रहते है?? 


क्या इससे आयुर्वेद समाज को आयुर्वेद शास्त्र को या संपूर्ण सामान्य पेशंट वर्ग को कोई लाभ होता है!? 


हमारे स्पर्धकों का व्यवहार देखकर , जैसे हमने हमे क्या करना चाहिए , ये सीखना चाहिए ... उसी के साथ, हमने क्या "नही करना" चाहिए, यह भी सीखना चाहिए.

संहिताकार एवं टीकाकारों के जयंती स्मृतिदिन पुण्यतिथी जन्मस्थल देहत्यागस्थल , इनका संहिता और टीकाओं में स्पष्ट संदर्भ

संहिताकार एवं टीकाकारों के जयंती स्मृतिदिन पुण्यतिथी जन्मस्थल देहत्यागस्थल , इनका संहिता और टीकाओं में स्पष्ट संदर्भ


अभी इसी बात का दुसरा पहलू यह भी है की चलो छोड दीजिए की हमारा स्पर्धक हमारा समकालीन सहकर्मी हमारा कॉम्पिटिटर क्या कर रहा है, क्या नही कर रहा है, हम नही देखना चाहते ...

क्यूकी मॉडर्न मेडिसिन का औषध का सिद्धांत तथा वितरण (= प्रिन्सिपल्स & प्रॅक्टिस) यह आयुर्वेद से बहुत ही भिन्न = विलक्षण है ...!


किंतु यदि हम हमारा हि इतिहास देखेंगे, तो "प्रायः सभी" संहिताकारों ने एवं टीकाकारों ने प्रतिसंस्कर्ताओं ने , अपना संक्षिप्त या विस्तृत परिचय दिया है! 


उन्होंने कभी अपने स्थान का या राजा का या पिता का या बडे भाई का या आराध्य देवताओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है


किंतु, क्या किसी संहिता मे या किसी संहिता के किसी टीकाकार ने, आज तक कभी यह रेफरन्स दिया है, यह संदर्भ दिया है, यह कथन किया है, कि हमने धन्वंतरी की , चरक की , सुश्रुत की , वाग्भट की जयंती / पुण्यतिथी / जन्मशताब्दी ... अमुक "तिथी" पर अमुक "मास" मे मनानी चाहिए या अमुक "स्थान" पर चरकने, सुश्रुतने, वाग्भट ने, धन्वंतरीने, जन्म लिया था या देह त्याग किया था ... जहां पर जाकर हमने उस मंगल पवित्र दिन पर या उस मंगल पवित्र स्थल पर अध्ययन करना चाहिए !!!


आज हमे अमुक स्थान पर या अमुक दिन पर अमुक व्यक्ती की जयंती या देहत्याग हुआ था ... "यह नये से" पता चल रहा है ... किंतु क्या हम यह मान्य करेंगे की, हमारी तुलना मे, हमसे पहले जो 100 150 300 500 1000 वर्ष पूर्व, भूतकाल मे टीकाकार एवं संहिताकार थे , उनको इस प्रकार की तिथी और स्थल के बारे मे "अधिक निश्चित जानकारी" होगी , की कहां पर चरक सुश्रुत वाग्भट धन्वंतरि पुनर्वसु आत्रेय अग्निवेश इनका जन्मस्थल देहत्यागस्थल और कौन से दिन पर जन्म या मृत्यु हुआ होगा ... और ऐसी शक्यता होने पर भी , कही पर भी , एक भी संदर्भ , किसी भी संहिता मे किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन टीकामे नही मिलता है, की अमुक एक संहिताकार या अमुक एक टीकाकार का जन्म या मृत्यु का तिथी या स्थल यह है या यह था , ऐसा संदर्भ हमारे संहिता और टीका मे कही पर भी नही है ...


तो इसका यह स्पष्ट अर्थ होता है कि, इस प्रकार के भावनिक समारंभों का हमारे शास्त्र मे कोई उपयोग आवश्यकता उद्देश प्रयोजन संकेत रीती रूढी परंपरा है ही नही ...


तो इस प्रकार की अगर रुढी रीती परंपरा हमारे संहिताकारों ने टीकाकारों ने उनके ग्रंथो मे कही पर भी नही लिखी है ,


तो हम क्यू ऐसे अशास्त्रीय अबौद्धिक रुढी संकेतों को "नये से" स्थापित करने का निरुद्देश निष्प्रयोजन, प्रारंभ या प्रयास कर रहे है?!

गंधक रसायन व्हेरिफिकेशन & व्हॅलिडेशन

 गंधक रसायन 

✍🏼 वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक 

9422016871 

अथ गन्धक रसायनम्

शुद्धो बलिर्गोपयसा विभाव्य ततश्चतुर्जातगुडूचिकाभिः ।

पथ्याऽक्षधात्र्यौषधभृङ्गराजैर्भाव्योऽष्टवारं पृथगार्द्रकेण ॥

शुद्धे सितां योजय तुल्यभागां रसायनं गन्धकराजसंज्ञम् ।

कर्षोन्मितं सेवितमेति मर्त्यो वीर्यं च पुष्टिं दृढदेहवह्निम् ॥

यह गंधक रसायन नाम का कल्प ,

योग रत्नाकर नाम के ग्रंथ मे ,

सबसे अंतिम प्रकरण रसायन अधिकार में 

सेकंड लास्ट = उपान्त्य कल्प के रूप मे वर्णित है.


किंतु व्यवहार में इसका प्रयोग न जाने किस किस रोग मे करते है??


यह कल्प प्रायः त्वचारोग और व्रण इसमे उपयोग मे देने की प्रथा है 


अगर इस कल्प के घटकों का विचार किया जाये तो उसमे मूल घटक केवल एक मात्र है वह है, गंधक !


जिसे शुद्ध करके लेने के लिए कहा है, शुद्ध बली इस शब्द से 


इस कल्प मे या इस घटक द्रव्य को भावना हि भावनायें है. 


1.

पहली हि भावना गो दुग्ध की है. अगर गंध की शुद्धी हि घृतमे या दुग्धमे होती है, तो फिर से गोदुग्ध की हि भावना देने का प्रयोजन ही क्या है?


2.

अगला प्रश्न यह है कि गो दुग्ध की भावना देने के बाद इसमे जो स्नेह तथा लॅक्टोज/ शर्करा / माधुर्य का समावेश होगा, उससे फंगस निर्माण होगा ... आर्द्रता बनी रहना ... ह्युमिडिटी न जाना ... जलांश का पूर्णतः शोष न होना, यह दोष निर्माण हो सकते है


3.

गो दुग्ध की भावना के पश्चात इसमे चतुर्जात गुडूची त्रिफला शुंठी मार्कव एवं फिरसे आर्द्रक स्वरस की आठ भावनायें ... 


मूलश्लोक मे "भाव्यो अष्टवारं" ऐसा शब्द है, तो यह आठ भावना पहले के दुग्ध से लेकर मार्कव तक के सभी द्रव्यों के लिए है 

या 

आगे आने वाले प्रथम इस एकमात्र आर्द्रक स्वरस के लिये है ,

इसमे मत मतांतर है 


4.

चतुर्जात एक सुगंधी द्रव्य है और ये प्रायः अवलेहोंमें प्रक्षेप के रूप मे या चूर्ण कल्प के रूप मे हि प्रयोग हुआ है. इसका क्वाथ बनाने का विधान संहिता मे नही है. तथापि चतुर्जात जैसे सुगंधी द्रव्य के क्वाथ की भावना देने का विधान यहां पर आश्चर्यचकित करने वाला है. इसमे भी केसर जैसे सुगंधी द्रव्य का क्वाथ बनाना समझने से परे है.

आगे गुडूची त्रिफला के बाद औषध अर्थात शुंठी का और अंत मे फिर से आर्द्रक की भावना का उल्लेख है! अभी एक बार शुंठी के भावना दी है तो फिर से आर्द्रक की भावना का क्या अर्थ या प्रयोजन या उपयोग / उद्देश रह जाता है???


आज तो हम भावना देने के लिए मोटोराइज्ड रोटेटर और संतुलित नियंत्रित टेंपरेचर के ड्रायर का प्रयोग करते है ... उस काल में इतनी भावनाये, फंगस लगे बिना कैसे देते होंगे, यह एक संदेह की ही बात है. 


5

तो ठीक है, इतनी भावनाये दे भी दी और फिर से मूल घटकद्रव्य गंधक का चूर्ण शुष्क रूप मे पुनः प्राप्त हो भी गया, ऐसा मान के चलते है तो ...

उसमे अब समान मात्रा मे शर्करा को मिलाना है.

😇🤔⁉️


अभी जितने भी लोगो ने सितोपलादि तालीसादि समशर्कर ताप्यादि ऐसे शर्करायुक्त चूर्णकल्प का प्रयोग किया है, उनको ज्ञात है, कि 15 दिन से लेके 3 महिने के कालावधी मे, शर्करा की उपस्थिती के कारण, उस कल्प का संघटन /कन्सिस्टन्सी /परिस्थिती बहुत हि बिगड जाती है ... उनके चाहे टॅबलेट बना लो, उसकी भी स्थिति बदल हो जाती है, तो ऐसे स्थिती मे गंधक जैसे द्रव्य मे इतनी भावनायें देने के बाद ,

जिसमे एक भावना दुग्ध की भी है ,

उसमे अगर इतनी बडी मात्रा मे (50% मात्रा मे) शर्करा संमिश्र करेंगे ,

तो न जाने क्या हाल होगा ??


आज जो गंधक रसायन नाम की टिकडी वटी टॅबलेट बाजार मे मिलती है ,

उसमे न जाने ये किस प्रकार से मॅनेज किया जाता है!? ॲड्जस्ट किया जाता है!? 


इसके भावना द्रव्य और अत्यधिक मात्रा मे शर्करा का संयोग , उसके बारे मे आने वाले संदेह और समस्यायें है. 


इससे तो अधिक अच्छा यह है कि इसमे से गंधक एवं शर्करा इन दोनों घटकद्रव्यों को छोडकर, निकाल कर, हटाकर,

जो भावना द्रव्य है, उनमें से चतुर्जात को छोडकर, बाकी भावना द्रव्यों को एक साथ मिलाकर , उन भावना द्रव्यों के चूर्ण को, उन्हीं भावना द्रव्यों के क्वाथ की , भावना दे दी जाये, चाहे वो एक तीन पाच सात या जैसे इस कल्प मे कहा है ऐसे आठ भावनाये दी जाये ... और चतुर्जात का प्रक्षेप अंत मे मिलाया जाये , तो यह एक उचित कल्प संयोजन होगा!!!✅️


6.

इसके पश्चात इसका फलश्रुती का अवलोकन करेंगे.


सर्वप्रथम कुष्ठ और कंडु का उल्लेख हुआ है.

जिसमे इतनी बडी मात्रा मे शर्करा हो, ऐसा कल्प कुष्ठ और कंडु को शमन करेगा , यह आत्यंतिक दुष्कर है!


और तो और , गंधक को जितने द्रव्यों की भावना है, उसमे से 90% उष्णवीर्य के है ... अर्थात वे रक्त का प्रसादन नही करेंगे, वे तो रक्त का प्रक्षोभ करेंगे 


ऐसे स्थिती मे उससे कंडू कुष्ठ का शमन होगा. यह दुष्कर है 


कुष्ठ और कंडु के लिए जो कारणीभूत मूल हेतु है ... वह क्लिन्नता है , आर्द्रता है ... यह मानकर महातिक्तक घृत मे अत्यंत रूक्ष ऐसे आमलकी स्वरस का प्रमाण घृत से भी द्विगुण मात्रा मे आया हुआ है ...

कल्पकी संयोजना इस प्रकार से शास्त्रीय गुण सिद्धांत पर आधारित होती है, 

ऐसे स्थिती मे जिस कल्प में इतने उष्णद्रव्य हो, क्लेदकारक दुग्ध हो, आत्यंतिक क्लेदकारक मधुर रसयुक्त शर्करा का प्रमाण फिफ्टी पर्सेंट (50%) हो , उससे कंडु और कुष्ठ का निवारण होगा ...

या व्रण मे रोपण होगा ...

यह शास्त्र से अत्यंत विरुद्ध है.


जो भी इसका प्रयोग हमारे प्रायः अनेक कॉलेजेस की ओपीडी मे होता है या जो भी प्रॅक्टेशनल्स उनके प्रायव्हेट ओपीडी मे इसका उपयोग करते है, कि किसी भी व्रण मे और किसी भी त्वचारोग मे गंधक रसायन लिखा जाता है, यह एक रूढी या भ्रम मात्र है ...


या फिर ... हां, कुछ सल्फर युक्त ड्रग्स स्किन डिसीज में दिये जाते है, इस का आधार लेकर अगर त्वचारोग = कुष्ठ / कंडू इस रूप में इसका प्रयोग होता होगा, तो "इस प्रकार से" उपयोग करने वाले धन्य है.  😇


7.

यह गंधक रसायन नाम का कल्प ,

योग रत्नाकर नाम के ग्रंथ मे ,

सबसे अंतिम प्रकरण रसायन अधिकार मे सेकंड लास्ट = उपान्त्य कल्प के रूप मे वर्णित है.

और व्यावहारिक प्रयोग न जाने किस किस रोग मे करते है??


8.

अतिसार ग्रहणी ज्वर मेह और वातव्याधी ऐसे सभी अलग अलग दोषों से जनित होने वाले विविध रोग, एकही कल्प नष्ट करता है, 

यह एक शास्त्रीय विसंगती है


9.

प्रजाकर सोमरोग मुष्कवृद्धी ऐसे स्त्री और पुरुष दोनों के प्रजनन संस्था से संबंधित रोग एकही कल्प ठीक कर सकता है ,

यह भी शास्त्रीय दृष्ट्या अत्यंत विलक्षण है 


10.

और इस श्लोक मे ,

अगर इस कल्प का 6 मास तक भक्षण किया जाय तो ये अत्यंत कृष्ण केशकारी है , ऐसी फलश्रुती लिखी है और जिसकी मात्रा एक कर्ष अर्थात दस ग्राम है ...

क्या पूरे भारत वर्ष मे, पिछले 100 या 1000 वर्षों मे भी, आजतक किसी को, एकमात्र गंधक रसायन कल्प का 1 कर्ष इतनी मात्रा मे, उपयोग करके, 6 मास इतने कालावधी मे, इस "अत्यंत कृष्ण केशकारी" फलश्रुती की अनुभव/सार्थकता/प्रचिती आयी भी है???


11.

गंधक रसायन का मूल सेवन प्रमाण एक कर्ष अर्थात दस ग्रॅम है !!!

क्या पूरे भारत वर्ष मे, आज तक, किसी ने दस ग्राम इतनी मात्रा मे, गंधक रसायन का प्रयोग, एक भी पेशंट मे , एक बार भी करके देखा भी है, कभी किसी ने??!! 🤔⁉️


12.

इसके बाद तो अत्यंत चमत्कारी और अशक्य प्राय फलश्रुती लिखी है, की मृत सदृश नरों को भी दीर्घ आयुष्य को प्राप्ति करवाता है, देवों के जैसी कांती इससे प्राप्त होती है 

और इस गंधक रसायन के प्रयोग के बाद, 

सुवर्ण युक्त पारद "भस्म" देना है 😇🙃🧐🤔

और सभी को पता है की "पारद भस्म" नाम की चीज है, वह तो आश्रयासिद्ध आकाश पुष्प गगनारविंद, पुरुष शरीर मे गर्भाशय, इस तरह से "अशक्य असंभव एक कल्पनारम्य इमॅजिनरी मात्र" है ... तो कुछ भी लिखो ... क्या फरक पडता है !?!?

जो होना ही नही है, उसके लिए क्या ... कुछ भी फलश्रुती लिखेंगे, तो क्या फरक पडता है??? बंधी मुठ्ठी लाख की , खुली तो प्यारे खाक की!! (याला मराठीत, झाकली मूठ सव्वा लाखाची ... असं म्हणतात)


13.

इसके पश्चात, अंतिम परिच्छेद मे, अंतिम श्लोक समूह मे, फल श्रुती मे फिरसे पहले ही उल्लेख के हुए लाभों का या रोगों का पुनरुचार किया गया है!!!


इतने डायव्हर्स/विभिन्न रोगों में, इस प्रकार का एक हि कल्प उपशम देता होगा, यह विश्वास करने योग्य नही है, ये केवल लिखने की, कहने सुनने की बात है, वाग्वस्तुमात्र है, ये अर्थवादात्मक प्रशंसा है ... इसका वास्तविक धरातल से कोई संबंध नही है.


14.

तो सारांश के रूप में ...

पहली बात ये ध्यान मे रखनी होगी कि,

1. इसका अधिकार रसायन है 

2. दूसरा ... इसमे दुग्ध की भावना है 

3. तीसरा ... इसमे शर्करा का प्रमाण अत्याधिक है 

4. चौथा ... यह गंधक जैसा अत्यंत उष्णवीर्य मुख्य घटक है 

6. पाचवा ... इसमे भावना द्रव्य के बहुतांश द्रव्य यह उष्णवीर्य के है !!!


इसलिये ...

यह व्रण या कुष्ठ त्वचारोग इसमे "उपयोग न करने का" कल्प है ...

केवल रूढी परंपरा लोकप्रियता इसके आधार पर अंधानुकरण ना करे 


कुछ नया सोचे , जो शास्त्र मे लिखा है ... संहिता मे लिखा है ... रोगाधिकार मे लिखा है ... जो दोष रस गुण महाभूत इनके वैपरीत्य पर / सिद्धांत पर कार्य करता है ...

ऐसे सुसंगत द्रव्यों का / कल्पोंका अपने प्रॅक्टिस मे चयन/उपयोजन करे ...

बहुत सारे लोग करते है, गुरुजी करते है, ये करता है, वो करता है ... इसलिये किसी का गतानुगतिक रूप से अंधानुगमन ना करे 


अपने स्वयं की बुद्धि से चिंतन आकलन निर्णय और आचरण करने का प्रयास करे ✅️

सत्यम वच्मि ॥ ऋतं वच्मि ॥

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