Saturday, 25 November 2023

क्षीरपाक बनाने की विधि से छुटकारा, अगर शर्करा कल्प को स्वीकारा

 *क्षीरपाक बनाने की विधि से छुटकारा, अगर शर्करा कल्प को स्वीकारा*

*Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे.

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क्षीरपाक बहुत ही प्रभाव शाली परिणामकारक औषधी कल्पना है.

1

शालिपर्णी क्षीरपाक

चरक संहिता मे वातव्याधि के चिकित्सामें हृदयगत वात में *शालिपर्णी क्षीरपाक* तथा 

2

गर्भ शोष और बाल शोष में *यष्टी काश्मरी सिद्ध क्षीरपाक* इनका उल्लेख आया है. 


वैसे भी कई अन्यान्य संदर्भों में क्षीरपाक कल्पना का प्रयोग होता है. 


3.

अस्थिक्षय मे भी *तिक्त क्षीरपाक कल्पना* हि है.


4.

किंतु क्षीरपाक बनाना , प्रॅक्टिकली उतना सुकर नही होता है.

यह टाईम कन्झ्युमिंग भी है और थोडा टिडियस tidious भी है.


अगर पानी थोडा कम उड जाये , तो दूध डायल्यूट हो जाता है. 


बाष्पीभवन अगर ज्यादा हो जाये, तो दूध की मात्रा कम हो जाती है. 


तो यह प्रोपाॅर्शनेट क्षीरपाक बनाना और उसके लिए पर्याप्त समय और अवधान देना, इतना सुकर नही है. 


5.

और तो और, क्षीरपाक यह भैषज्य कल्पना; आसव अरिष्ट तैल घृत लेह टॅबलेट गुग्गुल की तरह… या प्रिझर्वेटिव्ह डालकर, पॅक करके, ट्रान्सपोर्ट करके, मार्केट करना, यह भी संभव नही है.

क्षीरपाक यह पंचविध कल्पनाओं जैसी हि *सद्य प्रयोग* करने की कल्पना है. 


6.

क्षीरपाक की परिणामकारकता अत्यंत प्रभावशाली है. जैसे कि, मैंने उपर उल्लेख किया, ऐसे कई हृदयरोग के बलक्षीण पेशंट्स मे इसका, मात्र एक सप्ताह मे हि प्रभाव/परिणाम दिखाई देता है ... और तात्कालिक उपशम तो दो तीन दिन मे ही आ जाता है. 


LVEF केवल बीस परसेंट (20%) होने के बावजूद, जो दादीमां अस्सी (80) साल के वय में, चार कदम भी चलते हुए, सांस फूल रही थी, वह मात्र तीन-चार दिन बाद सौ मीटर चल के जा सकती है और डेढ महीने के बाद एक किलोमीटर तक चलती है , वो भी अपनी युवा नाती से भी अधिक गती से!!! किंतु आश्चर्य की बात यह है कि, अगर फिरसे टूडी इको 2D ECHO रिपीट किया जाये, तो एल व्ही इ एफ LVEF जैसे का तैसे, 20% हि दिखाई देता है!!! तो क्लिनिकली शीघ्र इम्प्रूवमेंट, यह क्षीरपाक से इस प्रकार के अनेक पेशंट मे अनुभव की जा सकती है.


7.

तिक्त क्षीरपाक से कई अस्थिक्षय के पेशंट [जैसे कि एल5एस1 (L5-S1) डीजनरेशन स्लिप डिस्क डिस्क बल्ज AVN सायटिका स्पाॅण्डिलाॅसिस knee degeneration ACL osteoarthritis] में लाभ होता हुआ, सभी ने अनुभव किया होता है. यह लाभ, *बस्ति दिये बिना हि*, मात्र एक मंडल अर्थात 42 दिन अर्थात सप्ताह मे ही प्राप्त होता है. यष्टी गुडूची क्षीरपाक या पंचतिक्त क्षीरपाक से ऐसे शीघ्र परिणाम प्राप्त हो सकते है, ऐसा पिछले पच्चीस वर्षों का अनुभव है और ये परिणाम no recurrence अर्थात अपुनर्भव , इस प्रकार के होते है.


पिछले पच्चीस सालो मे ऐसे 1800+ से ज्यादा केसेस का अनुभव है, जिन मे से कईयों की सर्जिकल ऑपरेशन टल चुके है और जो पेशंट बीस बाईस साल पहले ठीक हुये है, वो आज भी वैसे हि ठीक है और आज भी वो पेशंट, अन्य दूसरे नये पेशंट को निरंतर रेफर करते रहते है

जो पेशंट बेड पर पडे हुए है , जिनका अपान क्षेत्र का व्यवहार (शौच और मूत्र) बेड पर हि, अन्य व्यक्तियों के सहाय्यता से चल रहा है, वे भी बयालीस (42) दिन या ज्यादा से ज्यादा चौरासी (84) दिन मे (6 to 12 weeks), अपने पांव पर चलकर, एक दो मंजिला स्टेप चढकर उतर कर आते है ... और अपने दैनंदिन सारे व्यवहार सुकरता से पूर्ववत करने लगते है. ऐसे अनेकों पेशंट के अनुभव हमारे पास कई सालों से आ रहे.


8.

तथा जिन बच्चों की स्वास्थ्य की कुछ ना कुछ कंप्लेंट रहती है, या भारवृद्धी नही होती, दुबलापन होता है, मांसक्षय होता है एवं च आय यु जी आर IUGR गर्भ शोष है, ऐसी अवस्था मे *यष्टी काश्मरी क्षीरपाक* अत्यंत अल्पकाल मे अपेक्षित लाभ देता है. चार या छ सप्ताह के बाद की जाने वाली अगली सोनोग्राफी मे ही अपेक्षित रिझल्ट दिखाई देते है.


9.

इतना हि नही, ऐसे दुष्कर अवस्था मे भी गुडूची क्षीरपाक अत्यंत सुखकारक काम करता है. अगर सातवे महिने मे आठवे महिने मे गर्भवती के कुक्षि में गर्भ की मूव्हमेंट quickening स्थिर हो जाये / अल्प/कम/बंद हो जाये, ऐसा माता को प्रतीत हो , तो भी *यष्टी सारिवा कल्प / यष्टी काश्मरी कल्प* मात्र 24 घंटे मे, फिर से गर्भस्थ शिशु की अंतर्गत मूवमेंट को पुन्हा शुरू कर देते है, ऐसा अनुभव कई गर्भिणियों को हमारे पेशंट के रूप मे प्राप्त है. इसमे से एक गर्भिणी की माता स्वयं गायनॅकॉलॉजिस्ट है, जिसका प्रसूती का हॉस्पिटल है!


9A

Placental insufficiency जैसी गर्भाशयांतर्गत स्थिती में भी क्षीरपाक जैसे मृदू किंतु वीर्यवान कल्पना से शीघ्र ट्रीट करके अपेक्षित अनुकूल परिणाम प्राप्त होते है, क्योंकि गर्भिणी यह मृदू औषध से ट्रीट करना आवश्यक है, ऐसे शास्त्र कहता है.


निम्नलिखित फेसबुक लिंक पर देखे , इसके बीटी एटी रिपोर्ट (BT & AT Reports) या प्लेसेंटल इन्सफिशियन्सी (Placental insufficiency) ऐसा फेसबुक सर्च करके posts में MhetreAyurved की पोस्ट देखे

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid0iTj1xCY85Qr2xXnSoTiVywSaArPCxDB9EMiY9RLaJY66Amv2AT1JuLHzuax4272Zl&id=100002080068773&mibextid=lOuIew


10.

भग्न मे भी *यष्टी क्षीरपाक* लाक्षा के साथ या यष्टी लाक्षा टॅबलेट के साथ बहुत परिणामदायक होता है


भग्न मे *यष्टी क्षीरपाक* के साथ हि, *यष्टी गुडूची क्षीरपाक* या *केवल गुडूची क्षीरपाक* या *पंचतिक्त क्षीरपाक* ये सभी यथा अवस्था अत्यंत लाभदायक सिद्ध होते है 


11.

किंतु जैसे पहले कहा, ऐसे उचित मात्रा मे, क्षीर का शेष रहकर, अचूक समय पर हि, अग्नि देना बंद करके, पूरा पानी उड जाये व केवल औषधी द्रव्य के एक्स्ट्रॅक्ट वाला दूध हि पूर्णतः शेष रहे, यह एक कलात्मक, टेक्निकल तथा समय व्ययकारक विधी है. 


12.

इसलिये "क्षीरपाक" इस अमृततुल्य औषधी कल्पना के लाभ तो प्राप्त हो , किंतु उसके लिए जो दुष्कर विधी है और उसमे ट्रान्सपोर्टेबिलिटी नही है; इन दोषों को एलिमिनेट करते हुए, एक नये विचार के साथ यह लेख लिख रहे है, कि जिस प्रमाण मे औषधी का एक्स्ट्रॅक्ट क्षीरपाक मे 100 ml दुग्ध मे आता है, उतने ही प्लेन / सामान्य दूध मे, अगर जिस द्रव्य का क्षीरपाक बनाना है, उसका शर्करा कल्प (जैसे शतावरी कल्प बनता है, वैसे) उचित मात्रा मे (ग्राम या व्हॉल्युम की यथायोग्य proportionate परिमाण मे) मिला दिया जाये, तो उतने हि द्रव्य का एक्स्ट्रॅक्ट दुग्ध मे आयेगा, इसकी व्यवस्था कर सकते है.


13.

यह एक फार्मास्युटिकल कॅल्क्युलेशन है, जिसमे क्षीरपाक से (1:16:16 या 1:8:32 दोनो विकल्पों से करके) कितना औषधी एक्स्ट्रॅक्ट आता है, उसी हिसाब से उसी प्रपोर्शन से, द्रव्य : पानी : शर्करा की मात्रा का उचित गणन/ संगणन / कॉम्प्युटेशन/ कॅल्क्युलेशन /गणित करके, यह निर्धारित किया गया है ; कि 100ml दुग्ध मे अगर पाच ग्राम 5gms का औषधी कल्प, शर्करा कल्प granules या क्यूब के रूप मे उसे मिला दिया जाये, तो उतनी ही क्षीरपाक की प्राप्ती, औषधी वीर्य के साथ, हो जायेगी.


14.

आज इस प्रकार से शालिपर्णी, गुडूची, गुडूची यष्टी, शतावरी गोक्षुर, यष्टी सारिवा, पंचतिक्त इनके संगणकीकृत computational प्रपोर्शन के साथ शर्कराकल्प granules उपलब्ध किये है.

ये कोई, फिर से, मेरी इन्वेंशन डिस्कवरी रिसर्च पेटंट नही है. इन शर्करा कल्पोंका भी महाराष्ट्र एफडीआय में म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा रजिस्ट्रेशन किया हुआ है. आप भी इस प्रकार से, उचित मात्रा मे, संगणन करके computation करके, लिए हुये, उचित मात्रा मे शर्करा कल्प का निर्माण कर सकते है. पानी मे विद्राव्य वॉटर सोल्युबल वनस्पती एक्स्ट्रॅक्ट का स्थानांतरण/ ट्रान्सफॉर्मशन या ट्रान्सपोर्टेशन "शर्करा पर" करके, उसको ग्रॅन्युलस के रूप मे , अगर तैयार किया जाये , तो वह आसानी से कोष्ण दुग्ध मे विलयन होकर, हमे शीघ्र क्षीरपाक / इन्स्टंट क्षीरपाक प्राप्त हो सकता है, जिससे की पेशंट को ये सुविधा जनक हो और वैद्य के लिए ये ट्रान्सपोर्टेबल भी हो और इसके साथ ही या सारा समय बचाने वाला तथा इकॉनोमिकल भी है और सर्वतो मुख्य अपेक्षित परिणामकारक लाभदायक भी है!


15.

पंचतिक्त कल्प, गुडूची कल्प और गुडूची यष्टी कल्प यह तीनो कल्प तिक्तक्षीरपाक के रूप मे उपयोगी है. तिक्तक्षीरपाक अस्थिक्षमे उल्लेखित है, साथ हि अगर हम भग्न अधिकार देखेंगे, तो मधुर औषधसिद्धं *लाक्षा युतम्*, इस तरह से संदर्भ आता है. इसलिये यष्टी के साथ गुडूची को यहां पर समाविष्ट किया है, जिससे की मधुर और तिक्त दोनो रसों का क्षीरपाक यहां पर प्राप्त हो सके. और भी अगर आगे जाना है, तो *पंचतिक्त कल्प* अधिक उपयोगी होता है. मन्या कटी जानु शूल, तथा अस्थिक्षयात्मक संप्राप्ति के ए सी एल ACL, एव्हीएन, ऑस्टिओ अर्थराइटिस, सायटिका, एल फाईव्ह एस वन डीजनरेशन L5-S1, लंबर &/or सर्वाइकल स्पोंडीलोसिस... इन सभी मे इन तीनों में से कोई भी एक क्षीरपाक यष्टी लाक्षा टॅबलेट के साथ अपेक्षित परिणाम देता है.


16.

पंचतिक्त कल्प का उपयोग अस्थिभग्न के साथ साथ, त्वचारोगो मे भी कार्यकारी है! यह शर्करा कल्प नाम की अभिनव कल्पना अगर दुग्ध के साथ या गरम पानी के साथ दी जाये, तो किसी भी औषध को बालक के लिए लेना सुग्राह्य होगा. यह शर्करा कल्प होने के कारण, जैसे दुग्ध या पानी के साथ दे सकते है, वैसे हि इस शर्कराकल्प भेषज को चाय कॉफी के साथ तथा रोटी पर ग्रॅन्यूल्स फैला कर, घी लगाकर रोल बनाकर भी दे सकते है. तो इसकी "*बहुकल्पना* बहुगुणता संपन्नता और योग्यता", इसके साथ साथ हि इकॉनाॅमिकली अफोर्डेबल है.


अगर यह शर्करा कल्प की संकल्पना, बहुत सारे लोगोंने अनुकरण की, अनुसरण की, उपयोग में लायी तो ... और भी कई योगो के शर्कराकल्प Granules, इस प्रकार से प्रस्तुत करने का संकल्प है. जिसमे वासागुडूच्यादि, भूनिंबादि, रास्नादि, रास्नापंचक, रास्नासप्तक, महातिक्तक, महाकल्याणक, ब्राह्मी, पंचगव्य, दाडिमादि, नागरादि, पुनर्नवादि, पुनर्नवाष्टक, अभयामुस्तात्रिफलागुडूची, वचाहरिद्रादि गण, रोध्रादि गण, आरग्वधादिगण, मुस्तादि गण, सुरसादि गण, सारिवादि गण ... ये सारे आगामी संकल्पित शर्करा कल्प आयुर्वेद के सेवा मे शीघ्र हि उपस्थित होंगे

*Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम डी आयुर्वेद एम ए संस्कृत 

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Monday, 20 November 2023

English Chyavanprasha Formulation Doubts and Queries

English Chyavanprasha Formulation Doubts and Queries 
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 Disclaimer: The author does not represent that the views expressed in this activity are always correct or infallible. Since this article is a personal opinion and understanding, it is possible that there may be some shortcomings, errors and defects in this article. 

 Juicy amla has arrived in the market. Many Ayurvedic groups are preparing to produce a few hundred kilos of Chyawanprash. 

Discussions are going on in such a wide range from science to practice, whether to add Ashtavarga or not, whether the original is available or not. 

 But I have some preliminary doubts about the formulation/preparation of Chyavanprash and the ambiguity of Amlaki

 In fact, to have any doubts about the two very famous Ayurvedic medicines Chyavanprash and Amlaki is to show my ignorance of Dravyaguna  Bhaishajyakalpana and Ayurveda as a whole. 

 Even though Knowing this, still I would like to present the following points to expert, experienced, active Ayurvedics.

 'Amalki' is the second drug mentioned/described in both, Charak Chikitsa 1 and Bhavprakash Nighantu. 

 1. In Bhavprakash, the weight of Haritakiphala is said to be 'Dvikarsha'. 

 2. Charaka Chi. 1, Here it reads 
'eka haritaki yojya, dvau cha yojyau bibhitkau / chatvaryamalkanyevam triphala'. 

 3. In Triphala Yoga, all the three substances are in equal proportion by volume/weight. 

 Can it be said from these three statements? 

 1 Haritaki = 2 Karsh = 2 Bibhitaka = 4 Amlaki = 2 Karsh 

 1 Bibhitaka = 1 Aksha = 1 Karsha (Aksha = Karsha, A.Hr. Kalpa. 6) 

 From this, 1 amlaki = 1/2 half karsha ; Is this statement correct? ... 

 yes, it is correct. 

 Basically, what should be the equivalent measurements of Pala, Karsha today in grams? There are many differences in this regard. Still 1 pala is considered to be 40 to 50 grams. So 1 karsh is 10 to 12.5 grams. 

 Therefore *half karsha is meant to be 5 to 6.25 gm*. 

 That means 200 to 160 Amalaki fruits should be there in 1 kg. 

 Does the fruit we use today pass this test? 

In the era of 'Samkhya Syad Ganitam' or 'Objective Numeratics', are we using Amalakifala, just by assumption / custom? 

 Chyawanprasha clearly says to take 500 Amalkee falas. 

Then if we take 500 Amalkiphals in use today, their total weight is 14 to 17 kg. 

No one takes that much amla for a given scriptural amount to prepare Chyavanprasha. 

 Today's practice is usually 500 amalkee phalas means 5 kg. 

 Is this a bold statement? 

 Well basically, 1 Amlaki = 1/2 half a karsha' ie 5 to 6.25 grams.

 if the statement is true, then The weight of 500 Amalkiphal is only 2.5 to 3 kg. 

 And on the other hand, today's amla, if 5 kg is taken, it comes to 150 to 175 fruits Only, not 500. (According to 30 to 35 fruits in 1 kg) 

 *Then where does 'classical Chyavanprasha' gets prepared?

 *In no way do we come close to the literalness of 'Amlaki or Chyavanprasha' in terms of fruit numbers (numbers) or phala rashi bhaara (total weight).

 * The same thing about the amount of sugar in Chyawanprasha. 

'Matsyandika Tulardhen' is the original reference. 

 Ardha Tulaa = 100 ÷ 2 = 50 Pala = 2000 to 2500 grams = 2 to 2.5 kg. 

 I don't think anyone is adding so little sugar. 

 It is common practice to add 5 kg of sugar to 5 kg of Amalkiphal.

 Shastrokta/Granthokta Chyavanprash Yoga says 500 Amalkeefala and 2 to 2.5 kg of sugar ...

but But in normal practice, thousands of kilos of Chyawanprash is made everywhere with 5 kilos of amla and the same amount of sugar. 

 No one is preparing as scriptural / textual / Samhitaa ...

and still, while printing the label, mention in bold type such as scriptural / textual / Shaastrokta … !!!😇🙃

 What/why is this fraud for?🤔⁉️ 

 'Rudhiryogadapi Baliyasi' … ok. This is accepted. 

but on other hand modern science/ modern medicine Determines the dose in mg milligrams and aren't we committing offense/crime in the calculation of kilos & tonnes !? 

 "Oh why are you drilling our brain? Aren't the results coming?" 

 Does that mean to surrender to utilitarianism everywhere? 

 'Well, any answer, alternative to this question of authentication of amalaki and proportion of sharkara? 

Why just drill thebrain unduly? 

 Well, look at this… 

 1. A small amla is available in the market, let's weigh it. 
Oh, really! Its average weight is 5 to 6 grams. ... 
So will you prepare Chyavanprasha using these?! 

 These small Amalkiphal are to be taken 500 in number as per samhitaa and sugar is 2 to 2.5 kg. 

 2. use market available 500 regular big Amlaki phalas, but sugar is only 2 to 2.5 kg… not 5kg. 

 3. Take 500 small amlakee phalas. Weigh those. Take market available regular big Amlaki phalas as that same weight 500 small Amalkiphalas. and take 2 to 2.5 kg of sugar. 

 Amalkiphal is variable in these 3 alternatives. So let's keep the amount of sugar constant. 

 Today, a few thousand kilos of Chyawanprash is “manufactured” in *traditional (not scientific … not samhitokta)* manner in Entire Bharata. 

 Let us Just make 1 to 5 kg of Chyawanprasha in the above suggested 3 ways. 

 To avoid 'business loss' the rest of the Chyawanprasha should be made 'sweet chocolaty delicious' as usual. 

 If the results of using the above 3 types of Chyawanprash on thousands of patients of hundreds of vaidyas are collected, next year it will be 'officially' standardized and can be presented to the public. 

 And those who make abrupt Chyavanprash recipes can be firmly stopped on 'scientific' basis.

Should we do this for science? 

 Let us come together for the cause of Ayurveda.

'Sangachchadhvam samvadhvam ... 
 'asadvadipryuktanam vakyananam pratishedhanam’ 
and 
'svavakyasiddhi: api ...

We all have to prove the purpose of Tantrayukti. 
Even though the Tantrayukti is given at the very end of both the syllabus and the Samhitaa. 

 'Perhaps the patients will get a more beneficial and financially more affordable 'Yoga'. 

 Some time again in near future let us discuss about other ambiguous matters in Chyawanprasha... Like maatra/dose, Ashtavarga, Dashamul, Matsyandika, Kesar etc. 

 Hopefully, all the successful Vaidyas, all the teachers of Dravyaguna and Bhaishajyakalpa, all the amateur students who prepare Chyavanprasha and the famous pharmacy all over bharata will think constructively and give 'Ethical response' (not reaction, but response) to this proposal. 

 Copyright ©Vaidya Hrishikesh Balkrishna Mhetre. 
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हिंदी : ययाति च्यवन अर्थवाद च्यवनप्राश

ययाति च्यवन अर्थवाद च्यवनप्राश Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत. आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. सर्व अधिकार सुरक्षित म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/ Mhetreayurveda@gmail.com Disclaimer/अस्वीकरण: लेखक यह नहीं दर्शाता है, कि इस गतिविधि में व्यक्त किए गए विचार हमेशा सही या अचूक होते हैं। चूँकि यह लेख एक व्यक्तिगत राय एवं समझ है, इसलिए संभव है कि इस लेख में कुछ कमियाँ, दोष एवं त्रुटियां हो सकती हैं। चरकसंहिता मे चवनप्राश के फलश्रुती मे लिखा है आईये इस पर कुछ विचार विमर्श करते है 1. बालानां चाङ्गवर्धनः 2. अस्य प्रयोगाच्च्यवनः सुवृद्धोऽभूत् पुनर्युवा ययाति के पिता नहुष. नहुष के पिता आयुष और आयुष का गुरु च्यवन ऋषी. अगर सुवृद्ध च्यवन ऋषी, अश्विनी कुमार का च्यवनप्राश खाकर, पुन्हा युवा बन गया ... तो च्यवन के शिष्य आयुष और उसका पोता ययाति पुन्हा तरुण बनने के लिये , अपना वृद्धत्व , अपने पुत्र पूरु के साथ क्यूं एक्स्चेंज करता है ??? अगर वृद्धत्व को टालकर, पुन्हा युवा बनना च्यवनप्राश खाने से संभव होता और च्यवन हमारे लिए जैसे आज आख्यायिका है, कोई पौराणिक व्यक्ति है ... वैसे ययाति के लिए नही था. ययाती के दादा/ पितामह, च्यवन के साक्षात शिष्य थे अर्थात अगर सुवृद्ध च्यवन फिरसे युवा बन गया होता, अश्विनी कुमार का च्यवनप्राश खाकर, तो ययाति को भी वह इस प्रकार से पुन्हा युवा बना सकता था. ययाती को अपने पुत्र के साथ यौवन और वार्धक्य इनका एक्स्चेंज करने की आवश्यकता हि नही होती. इस कारण से, ये जो हमे बताया जाता है की अश्विनी कुमार के च्यवनप्राश को खाकर, जो बहुत बूढा च्यवन था, वह फिरसे युवा बन गया, यह केवल दंतकथा/ आख्यायिका/ कहने सुनने की बात/ वाग्वस्तुमात्र है, *जिसे शास्त्रीय परिभाषा मे अर्थवाद कहते है, इतना ही है... निंदा-प्राशस्त्य-परं वाक्यम् अर्थवादः* ... ये प्रायः अतिशयोक्तिपूर्ण पूर्ण होता है, जिसे आज हम ॲडव्हर्टाइज कहते है. च्यवनप्राश खाकर सुवृद्ध च्यवन फिरसे युवा हो गया, यह वास्तविकता न होकर, केवल उस कल्प की महत्ता बताने के लिए, लिखा हुआ *अर्थवादात्मक* प्रसंग है, जैसे शार्ङ्गधर संहिता पे हस्तीदंत मषी का प्रयोग लेपात् पाणितलेष्वपि = हात के तलवे पर भी बालों को उगा सकता है, ऐसा *अशक्य विधान* किया गया है, जो *वास्तविकता न होकर, अर्थवाद होता है*, जैसे चरक के वाजीकरण के लोगो की फलश्रुती में, "शतं नारीणां भुङ्क्ते" = सौ नारियों को संभोग कर सकता है, जो किसी भी मनुष्य के लिए अत्यंत अशक्यप्राय है, किंतु ऐसा विधान लिखने का अर्थ, *कल्प की महत्ता बढाने के लिए, अर्थ वादात्मक विधान करना, इतना हि होता है, ये वास्तविक नही होता है. ठीक वही बात, च्यवनप्राश खाने से, सुवृद्ध च्यवन फिरसे युवा हो गया, इस बारे मे जाननी चाहिए, ये वास्तविकता न होकर, केवल एक आख्यायिका है और शास्त्रीय परिभाषा मे अर्थवाद ही है* फिर दूसरी बात ... च्यवनप्राश खाकर, च्यवन ऋषी जो सुवृद्ध था, बहुत बूढा हुआ था, वो फिरसे युवा हो गया ... *अगर ये कहानी वास्तविक है, सत्य है* ... तो इसका दूसरा अर्थ होता है, कि आज जो हम च्यवनप्राश बना रहे है ... उसके या तो कंटेंट्स गलत है या उसकी मात्रा एवं कालावधी (dose & duration) जो हम देते है, वो गलत है. मात्राकालाश्रया युक्तिः, सिद्धिर्युक्तौ प्रतिष्ठिता 👆🏼 अगर ये दोनो सही है ... कंटेंट और मात्रा, जो आज हम दे रहे है ... तो फिर च्यवन की कहानी जो सुवृद्ध से पुनः युवा बन गया ... ये सत्य नही हो सकती! क्यूकी फिर जो च्यवन को अनुभव आया, वह ययाती को भी आना चाहिए था, क्यूंकि च्यवन और ययाती के जीवित होने का काल, एक दूसरे से बहुत हि निकट है. और चक्रवर्ती राजा होने के कारण ययाति के लिये, इस प्रकार के उपाय को प्राप्त करना, दुर्लभ नही हो सकता था. इन दो मे से एक विकल्प को स्वीकार करना चाहिए कि ... 1. हमारे पूर्वजों के सामर्थ्य पर दृढ विश्वास रखकर, हमारी परंपराओं को सत्य मानकर, हमे मानना चाहिए है कि, सचमुच अश्विनी कुमार से बनाया गया च्यवनप्राश खाकर, च्यवन जो सुवृद्ध हो गया था, वह पुन्हा युवा हो गया... तो, हमे दूसरा विकल्प मान्य करना पडेगा कि जो च्यवनप्राश हम आज बना रहे है, या तो उसके कंटेंट्स या फिर उसकी मात्रा हमसे उचित रूप मे नही दी जा रही है, वो गलत हो रहा है क्यूंकि, जो लिखा है कि च्यवनप्राश को खाकर सुवृद्ध व्यक्ती पुन्हा युवा बन सकता है, ऐसा तो अनुभव आज किसी को भी नही आता है. या फिर च्यवनप्राश की फलश्रुती मे लिखा है. अगर , *गर्भ शुष्क हो रहा है (IUGR) या बालक शुष्क हो रहा है, तो "यष्टी काश्मरी सिद्ध क्षीरपाक से/ शर्कराकल्प(granules)" से, उसे ठीक किया जा सकता है, जो हम हमारी प्रॅक्टिस मे अनेक बार देख चुके है.* इसी प्रकार से, *अंगवर्धनः*, यह जो च्यवनप्राश की फलश्रुती है, ये सत्य प्रतीत होती हुयी अगर किसी ने च्यवनप्राश देकर किसी पेशंट में देखा है, तो सुवृद्ध को पुन्हा युवा बनाना भी संभव होगा. लेकिन मेरे 35 साल के आयुर्वेदिक क्षेत्र के अनुभव में, किसी भी बालक को या किसी भी कृश को फिर से बृंहित / स्थूल होते हुए, 'अंगवर्धन' होते हुये, *केवल च्यवनप्राश खाकर*, ऐसा परिणाम होते हुए कभी नही देखा. क्या आपने से किसी ने देखा है अकेले चवनप्राश का हि उपयोग करके किसी बालक का अंगवर्धन होते हुए?! यदि च्यवनप्राश खाकर, कृश बालक (या गर्भ इन-) की जो शुष्कता है, या वृद्धि में मंदता IUGR है, वह हमे ठीक होता हुआ, दिखाई देता है, तो सुवृद्ध से पुनर्युवा होना भी संभव होना हि चाहिये. किन्तु वैसे व्यवहार में, प्रॅक्टिस में, ये दोनो भी नही होता है. *इसलिए ये दो विकल्प है*, की या तो 1. हमारा च्यवनप्राश का आज का कंटेंट और मात्रा गलत है या फिर 2. अश्विन कुमार का च्यवनप्राश खाकर , सुवृद्ध च्यवन का फिर से युवा होना वास्तविक नही है. अगर, च्यवनप्राश खाकर सुवृद्ध से पुनर्युवा होना यह बात वास्तविक नही है, तो च्यवनप्राश आज केवल एक व्यवहार / विक्री की वस्तु , saleble item मार्केटिंग की चीज बन कर रही है और हम आयुर्वेदिक के वैद्य मेडिसिन के व्यापारी/ बनिया नही है ... तो वास्तविकता को स्वीकार कीजिए और च्यवनप्राश का त्याग कीजिए. मैं आप्त प्रमाण के विरोध मे नही हूं ... किंतु, न शास्त्र मात्र शरणः , न च अनालोचित आगमः ... इसके बीच में सुवर्ण मध्य हमे सिद्ध करना, आना हि चाहिए ... अनुयायात् प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम् ... टेलिव्हिजन पर ॲडव्हर्टाईज देखते है कि, उठा उठा दिवाळी आली ... मोती स्नानाची वेळ झाली ... तो केवल मोती साबण को बेचने के लिए दिवाली नही होती है. वैसे हि उठा उठा दिवाळी आली च्यवनप्राश बनवण्याची वेळ झाली केवल च्यवनप्राश को बेचने के लिए, इस प्रकार की कहानिया, हम पिढी दर पिढी बताते आ रहे है, वो कही तो रुकना चाहिए. सत्य के प्रकाश को स्वीकार करे और भ्रम के अंधःकार का नाश करे ... इस शुभ दीपावली पर तमसो मा ज्योतिर्गमय ... इस विषय पर मेरा एक मराठी/हिंदी/English तीनों भाषाओं मे लिखा हुआ पूर्व प्रकाशित लेख है, साथ मे इसकी लिंक दि हुई है उत्सुक एवं जिज्ञासू सन्मित्र वैद्य इसे अवश्य पढे. जिसमे आज के च्यवनप्राश के जो मुख्य कंटेंट है, आमलकी एवं मत्स्यण्डिका = शर्करा, वे कैसे गलत है और आज के च्यवनप्राश की पेशंट को सजेस्ट की जाने वाली मात्रा कैसे गलत है, ये स्पष्ट किया हुआ है. उत्सुक और जिज्ञासू वैद्य उसे अवश्य पढे और उसके अनुसार अपने प्रॅक्टिस मे उचित स्वरूप का बदलाव लाये. जैसे दिवाली पर अनेक वैद्य सुगंधी तेल अभ्यंग तैल केश्यतैल उद्वर्तन / उबटन बेचते है या पुष्य नक्षत्र पर स्वर्णप्राशन बेचते है या पूरे साल भर शतावरी कल्प बेचते है ... वैसे हि थंडी के मौसम मे च्यवनप्राश बेचते है .. ऐसे औषध *बेचने वाले बनिया* मत बनो. पेशंट का स्वास्थ्य बनाने वाले, रोग का नाश करने वाले, सक्षम वैद्य है हम! बाजार मे खडे रहकर, पैसा कमाने वाले बनिया व्यापारी ट्रेडर्स नही है, इस वास्तविकता का हमेशा स्वयं के मन मे जागर रखे!!!🙏🏼 पेशंट हमारा ग्राहक कस्टमर क्लायंट नही है, सुश्रुताचार्य कहते है वैसे, पेशंट हमारा पुत्र भी नही है. पेशंट हमारे लिए हमारा अन्नदाता अर्थात ईश्वर भगवान है ... तो उस पेशंट रुपी भगवान की प्रति हमारा आचरण/ व्यवहार यह अत्यंत शुचियुक्त और प्रामाणिक होना चाहिए. इसलिये उसे औषध बेचिये नहीं, उसके स्वास्थ्यरक्षण और रोगनाशन के लिए कन्सल्टिंग फिजिशियन अर्थात प्राणाभिसर वैद्य बने🪔 Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत. आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. सर्व अधिकार सुरक्षित म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/ Mhetreayurveda@gmail.com Disclaimer/अस्वीकरण: लेखक यह नहीं दर्शाता है, कि इस गतिविधि में व्यक्त किए गए विचार हमेशा सही या अचूक होते हैं। चूँकि यह लेख एक व्यक्तिगत राय एवं समझ है, इसलिए संभव है कि इस लेख में कुछ कमियाँ, दोष एवं त्रुटियां हो सकती हैं।

च्यवनप्राश व आमलकी : काही प्राथमिक शंका ?

च्यवनप्राश व आमलकी : काही प्राथमिक शंका ? Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत. आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. सर्व अधिकार सुरक्षित म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/ Mhetreayurveda@gmail.com _(डिस्क्लेमर : या उपक्रमात व्यक्त होणारी मतं, ही सर्वथैव योग्य अचूक बरोबर निर्दोष आहेत असे लिहिणाऱ्याचे म्हणणे नाही. हे लेख म्हणजे वैयक्तिक मत आकलन समजूत असल्यामुळे, याच्यामध्ये काही उणीवा कमतरता दोष असणे शक्य आहे, ही संभावना मान्य व स्वीकार करूनच, हे लेख लिहिले जात आहेत.)_ बाजारात रसरशीत आवळे आलेत . काहीशे किलो च्यवनप्राश करण्याची बऱ्याच 'आयुर्वेदिक ग्रुप्सची तयारी चाललीये . अष्टवर्ग टाकायचा की नाही, यावर 'ओरिजिनल मिळतो का ते 'परवडत नाही अशा 'शास्त्र ते व्यवहार इतक्या वाइड रेंज(wide range)मध्ये चर्चा सुरू आहेत . *पण मला जरा च्यवनप्राशची कृती व आमलकीची संदिग्धता याबाबतच काही प्राथमिक शंका आहेत .* खरंतर च्यवनप्राश व आमलकी या दोन अतिप्रसिद्ध आयुर्वेदोक्त औषधांबद्दल काही शंका घेणे म्हणजे 'द्रव्यगुण भैषज्यकल्पना व एकूणच आयुर्वेदाबाबतचें माझे अज्ञान दाखवणे होय, हे जाणूनही मी पुढील बाबी तज्ज्ञ, अनुभवी, कृतीशील आयुर्वेदीयांसमोर मांडू इच्छितो. चरक चिकित्सा 1 व भावप्रकाश निघण्टु यातील या दोहोंतील दुसरे दव्य 'आमलकी' 1.भावप्रकाशात हरीतकीफलाचा भार 'द्विकर्ष' सांगतात . 2. च . चि . 1 येथे 'एका हरीतकी योज्या, द्वौ च योज्यौ बिभीतकौ / चत्वार्यामलकान्येवं त्रिफला' असे आहे . 3. त्रिफला या योगात तीनही द्रव्ये भारतः समप्रमाणात असतात . 'या तीनही विधानांवरून असे म्हणता येईल का ? 1 हरीतकी = 2 कर्ष = 2 बिभीतक = 4 आमलकी = 2 कर्ष 1 बिभीतक = 1 अक्ष = 1 कर्ष ( अक्ष = कर्ष, अ.हृ. क. 6) यावरून 1 आमलकी = 1/2 अर्धा कर्ष ; असे विधान बरोबर आहे का ? ... बरोबरआहे मुळात पल, कर्ष यांची आजची समतुल्य मापे ग्रॅममध्ये काय असावीत ? याबाबत खूप मतभेद आहेत . (पहा भेषज्यकल्पना : सिद्धिनंदन मिश्र व आयुर्वेद व्यासपीठ दैनंदिनी 2002) तरीही 1 पल म्हणजे 40 ते 50 ग्रॅम मानले जाते . म्हणून 1 कर्ष हा 10 ते 12.5 ग्रॅमचा होय . अर्थात् *आमलकीफल भार 5 ते 6.25 गॅम असणे अभिप्रेत आहे* . म्हणजे 1 किलोमध्ये 200 ते 160 फळे सामावली पाहिजेत . आज आम्ही जे फल वापरतो ते या कसोटीला उतरते का ? 'संख्या स्याद गणितम्' किंवा 'ऑब्जेक्टीव्ह न्युमरॅटिक्स objective nuemeratics च्या जमान्यात मनानेच / रूढीनेच आम्ही आमलकीफल वापरतोय का ? च्यवनप्राशात स्पष्टपणे 500 आमलकीफले घ्यायला सांगितलीत . मग आज वापरात असलेले आमलकीफल 500 संख्येने घेतले तर त्यांचा एकूण भार 14 ते 17 किलो होतो . इतके आवळे कोणीच दिलेल्या ग्रन्थोक्त प्रमाणासाठी घेत नाही. . प्रायः 500 आमलकीफले म्हणजे 5 किलो असा आजचा व्यवहार आहे . हे धाडसी विधान आहे का ? बरे मूलतः 1 आमलकी = 1/2 अर्धा कर्ष' म्हणजे 5 ते 6.25 ग्रॅम असे विधान सत्य मानल्यास 500 आमलकीफलांचा भार 2.5 ते 3किलो इतकाच होतो . आणि उलट आजचा आवळा 5 किलो घ्यावा तर तो 150 ते 175 फळे इतकाच येतो . (1 किलोत 30 ते 35 फळे या हिशोबाने ) *मग 'शास्त्रीय च्यवनप्राश कुठे होतो ?* *फलसंख्या ( नग) किंवा फलराशिभार (एकूण वजन) या कोणत्याच प्रकारे आपण 'आमलकी किंवा च्यवनप्राश' यांच्या ग्रंथोक्तपणाच्या जवळपासही फिरकत नाही.* * तीच बाब च्यवनप्राशातल्या साखरेच्या प्रमाणाची . 'मत्स्यण्डिका तुलार्धेन' असा शब्दप्रयोग आहे . तुलार्ध म्हणजे 100 ÷ 2 = 50 पल म्हणजे 2000 ते 2500 ग्रॅम्स म्हणजे 2 ते 2.5किलो .एवढीशी इतकी कमी साखर कुणी घालत असेल असं वाटत नाही. प्रायः समभाग म्हणजे 5किलो आवळ्यांना 5किलो साखर घालणेची रूढी आहे. शास्त्रोक्त / ग्रंथोक्त च्यवनप्राश योग हा 500 आमलकीफले व 2 ते 2.5 किलो साखर असे सांगतो पण रूढ व्यवहारात मात्र 5 किलो आवळे आणि तितकीच साखर या हिशोबात हजारो किलो च्यवनप्राश सर्वत्र बनतो . शास्त्रोक्त / ग्रंथोक्त तर काही करायचं नाही आणि लेबल छापताना मात्र तसा जाड टाईपमध्ये शास्त्रोक्त / ग्रंथोक्त असा उल्लेख करायचा , ही प्रतारणा कशासाठी ? 'रूढीर्योगादपि बलीयसी' हे मान्य पण एकीकडे मॉडर्न सायन्स मिग्रॅ mg. मध्ये डोस ठरवतं आणि आपण मात्र किलोच्या हिशोबात अपराध करायचे !? "ओ का उगा डोकं खाताय ? रिझल्ट येतात नं ?" म्हणजे सगळीकडे उपयुक्ततावादालाच शरण जायचं का ? 'बरं, या प्रश्नावर काही उत्तर, पर्याय ? का नुसतंच भुंगा सोडून द्यायचा ? बरे असं पहा ... 1.एक छोटा आवळा मिळतो बाजारात, त्याचं वजन करूयात . अरे, खरंच की ! याचं सरासरी वजन 5 ते 6 ग्रॅम भरतंय. ... मग कराल याचा च्यवनप्राश ?! ही छोटी आमलकीफळे 500 आणि साखर 2 ते 2.5 किलोच . 2. खरंच सध्या वापरतो तेच 500 आवळे पण साखर मात्र 2 ते 2.5 किलोच हं 3. छोटी आमलकीफले 500 घेऊन त्यांचे वजन जितके होते, तेवढ्या वजनाचे सध्या वापरतो ते आवळे घेऊन 2 ते 2.5 किलोच साखर घेऊन 'या 3 पर्यायात आमलकीफल हे द्रव्य variable होय . म्हणून साखरेचं प्रमाण स्थिर ठेवूया . आज काही हजार किलो च्यवनप्राश महाराष्ट्रात *रूढ पद्धतीने* बनतो . उपरोक्त 3 प्रकारे अगदी थोडा 1 ते 5 किलो च्यवनप्राश बनवावा . 'व्यावसायिक नुकसान' टाळण्यासाठी बाकीचा च्यवनप्राश नेहमीप्रमाणेच 'गोड चॉकलेटी स्वादिष्ट' बनवावा . शेकडो वैद्यांच्या हजारो रूग्णांवर जर उपरोक्त 3 प्रकारचे च्यवनप्राश वापरून त्याचे परिणाम संकलित केले तर पुढील वर्षी 'अधिकृतपणें याचे 'प्रमाणित स्वरूप ( स्टॅन्डायझेशन standardization) जनतेसमोर मांडता येईल . आणि उठसूट च्यवनप्राश पाककृती बनवणारांना 'शास्त्रोक्त' आधारावर 'ठामपणे रोखता येईल शास्त्रासाठी करूयात का एवढं ? 'संगच्छध्वं संवदध्वं ... शेवटी 'असद्वादिप्रयुक्तानां वाक्यानां प्रतिषेधनम्ं आणि 'स्ववाक्यसिद्धिः अपि च' हे तंत्रयुक्तिचे प्रयोजन आपण सर्वांनीच सिद्ध करायचं आहे . भले मग तंत्रयुक्ति ही सिलॅबस आणि संहिता या दोहोत अगदी शेवटी दिली असली तरी . 'कदाचित् रूग्णांना अधिक लाभदायक व आर्थिकदृष्ट्या अधिक परवडणारा 'योग' हाती येईल . च्यवनप्राशातील अन्य संदिग्ध बाबींबद्दल पुनः केव्हातरी . जसे सेवनमात्रा, अष्टवर्ग, दशमूल, मत्स्यण्डिका, केसर इ . आशा आहे, संपूर्ण महाराष्ट्रातील सर्व यशस्वी वैद्य, द्रव्यगुण व भैषज्यकल्पनेचे सर्व अध्यापक, च्यवनप्राश निर्मिती करणारे सर्व हौशी विद्यार्थी व ख्यातनाम फार्मसी हे सर्वजण यावर विधायक दृष्टीने विचार करून 'आचारात्मक प्रतिकिया' (रिॲक्शन reaction नव्हे, रिस्पॉन्स response) देतील . Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत. आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. सर्व अधिकार सुरक्षित म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/ Mhetreayurveda@gmail.com _(डिस्क्लेमर : या उपक्रमात व्यक्त होणारी मतं, ही सर्वथैव योग्य अचूक बरोबर निर्दोष आहेत असे लिहिणाऱ्याचे म्हणणे नाही. हे लेख म्हणजे वैयक्तिक मत आकलन समजूत असल्यामुळे, याच्यामध्ये काही उणीवा कमतरता दोष असणे शक्य आहे, ही संभावना मान्य व स्वीकार करूनच, हे लेख लिहिले जात आहेत.)_

हिंदी : च्यवनप्राश निर्मिती कुछ प्रश्न एवं संदेह

हिंदी : च्यवनप्राश निर्मिती कुछ प्रश्न एवं संदेह Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत. आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. सर्व अधिकार सुरक्षित म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/ Mhetreayurveda@gmail.com Disclaimer/अस्वीकरण: लेखक यह नहीं दर्शाता है, कि इस गतिविधि में व्यक्त किए गए विचार हमेशा सही या अचूक होते हैं। चूँकि यह लेख एक व्यक्तिगत राय एवं समझ है, इसलिए संभव है कि इस लेख में कुछ कमियाँ, दोष एवं त्रुटियां हो सकती हैं। बाजार में आ गया है रसीला आंवला. कई आयुर्वेदिक समूह कुछ सौ पांचसौ किलो च्यवनप्राश का उत्पादन करने की तैयारी कर रहे हैं। उसमें अष्टवर्ग जोड़ें या न जोड़ें, मूल / असली रूप उपलब्ध है या नहीं, कीमत की दृष्टि से ॲफाॅर्ड होगा कि नहीं, इस विषय पर विज्ञान से लेकर, व्यवहार तक व्यापक स्तर पर चर्चा चल रही है। लेकिन मुझे तो, च्यवनप्राश बनाने की प्रक्रिया और आमलकी की अस्पष्टता/संदिग्धता के विषय में हि कुछ प्रारंभिक संदेह हैं। वास्तव में, दो बहुत प्रसिद्ध आयुर्वेद औषध: च्यवनप्राश और आमलकी के विषय में कोई भी संदेह रखना, द्रव्यगुण भैषज्यकल्पना और समग्र रूप से आयुर्वेद के विषय में मेरी अज्ञानता को दर्शाता है। यह जानकर भी मैं विशेषज्ञ, अनुभवी, सक्रिय आयुर्वेदज्ञों के सामने निम्नलिखित बातें रखना चाहूंगा। 'आमलकी' चरक चिकित्सा 1 और भावप्रकाश निघण्टु इन दोनों ग्रंथों में वर्णित द्वितीय द्रव्य है। 1. भावप्रकाश में हरीतकी फल का भार 'द्विकर्ष' कहा गया है। 2. च चि. 1 में, लिखा है एका हरीतकी योज्या, द्वौ च योज्यौ बिभीतकौ / चत्वार्यामलकान्येवं त्रिफला 3. त्रिफला योग में तीनों पदार्थ समान (भार) मात्रा में होते हैं। क्या इन तीन कथनों से यह कहा जा सकता है? 1 हरीतकी = 2 कर्ष = 2 बिभीतक = 4 आमलकी = 2 कर्ष 1 बिभीतक = 1 अक्ष = 1 कर्ष (अक्ष = कर्ष, अ हृ क. 6) इससे 1 आमलकी = 1/2 आधा/अर्ध कर्ष ; क्या यह कथन सही है? हां ... सही है ✅️ मूलतः, आज पल, कर्ष का समतुल्य मापन/भार, ग्राम gms में कितना होना चाहिए? इस संबंध में कई मतभेद हैं. फिर भी, 1 पल 40 से 50 ग्राम माना जाता है। तो 1 कर्ष 10 से 12.5 ग्राम होता है। अर्थात *आमलकी फल भार अर्ध कर्ष = 5 से 6.25 ग्राम* माना जाता है। अर्थात 1 किलो में 200 से 160 फल शामिल होने चाहिए. क्या आज हम जो फल खाते हैं या च्यवनप्राश में या अन्य आयुर्वेदीय औषध में प्रयोग में लाते है, क्या वह इस परीक्षा में उत्तीर्ण होता है? 'सांख्य स्याद् गणितम्' या 'ऑब्जेक्टिव न्यूमॅरेटिक्स' के युग में क्या हम आमलकीफल का प्रयोग मन/रूढी से किंतु अशास्त्रीय रूप में कर रहे हैं? च्यवनप्राश में स्पष्ट रूप से 500 आमलकीफल लेने को कहा है। फिर, यदि हम, आज उपयोग में आने वाले 500 आमलकीफल को लें, तो उनका कुल वजन 14 से 17 किलोग्राम होता है। शास्त्रोक्त मात्रा में इतना आँवला कोई नहीं लेता। आज का व्यवहार प्रायः 500 आमलकीफल = 5 किलोग्राम आंवले, ऐसा होता है। क्या यह एक साहसिक विधान है? वैसे मूलतः 1 आमलकी = 1/2 आधा कर्ष अर्थात 5 से 6.25 ग्राम, यदि यह कथन सत्य है, तो 500 आमलकीफल का वजन मात्र 2.5 से 3 किलोग्राम होता है। वहीं, आज का आंवला अगर 5 किलो लिया जाए, तो 150 से 175 फल आता है। (1 किलो में 30 से 35 फल के हिसाब से) *तो फिर 'शास्त्रीय च्यवनप्राश' कहां बनता है?* *फलों की संख्या या फल राशिभार (कुल वजन) के संदर्भ में, हम किसी भी तरह से, 'आमलकी या च्यवनप्राश' की शास्त्रीयता के निकट नहीं पहुंचते हैं।* * यही बात च्यवनप्राश में चीनी/शर्करा की मात्रा के बारे में भी है। 'मत्स्यण्डिका तुलार्धेन' = अर्ध तुला = 100 ÷ 2 = 50 पल = 2000 से 2500 ग्राम = 2 से 2.5 किलो। मुझे नहीं लगता कि कोई इतनी कम चीनी डालता है च्यवनप्राश में. 5 किलो आमलकीफल में 5 किलो शर्करा मिलाना सामान्य व्यवहार है। शास्त्रोक्त/ग्रन्थोक्त च्यवनप्राश योग कहता है 500 आमलकीफल और 2 से 2.5 किलो शर्करा लेकिन सामान्य व्यवहार में प्रायः 5 किलो आंवला और उतनी ही समान मात्रा में शर्करा से हजारों किलो च्यवनप्राश बनाया जाता है. शास्त्रोक्त/पाठ्यानुरूप कुछ भी नहीं करना है और लेबल छापते समय शास्त्रोक्त/पाठ्यानुरूप जैसे मोटे/bold टाइप में ही उल्लेख करते है। यह प्रतारणा किस लिए है? 'रूढिः योगादपि बलीयसी' यही मान्य करना है? आधुनिक विज्ञान मॉडर्न मेडिसिन mg में मात्रा/dose निर्धारित करता है और हम किलो/टनों की गणना में अपराध करते हैं!? "अरे, तुम हमारा दिमाग क्यों खा रहे हो? परिणाम/रिजल्ट आ रहे हैं नं?" क्या इसका अर्थ, हर जगह उपयोगितावाद के सामने आत्मसमर्पण करना है? 'अच्छा, इस प्रश्न का कोई उत्तर, विकल्प है भी? या केवल ब्रेन को ड्रिल करते रहना है? अच्छा यह देखो… 1. बाजार में एक छोटा सा आंवला मिलता है, उसका वजन कर लेते हैं. सच में! इसका औसत वजन 5 से 6 ग्राम होता है. ... तो क्या आप करेंगे?! ये छोटे आमलकीफल 500 संख्या में और शर्करा 2 से 2.5 किलो लेनी है. 2. या सामान्य रूप मे जो आवले मिलते है बाजार में वही 500 आंवले लेकर च्यवनप्राश बनाये किंतु शर्करा 2 से 2.5 किलो ही लेनी है, 5 kg नहीं. 3. 500 छोटे आमलकीफल लें और उनका कुल वजन जितना है, उतने ही वजन की जितनी हम वर्तमान में उपयोग करते हैं, वे बडे आंवले ले ले और 2 से 2.5 किलोग्राम हि शर्करा लें. इन 3 विकल्पों में आमलकीफल परिवर्तनशील variable है। तो शर्करा की मात्रा स्थिर रखें। आज देश में कुछ हजार किलो च्यवनप्राश *पारंपरिक* पद्धती से बनाया जाता है। उपरोक्त 3 तरीकों से केवल 1 से 5 किलो मात्र हि च्यवनप्राश बनाएं। 'बिजनेस लॉस' से बचने के लिए बाकी च्यवनप्राश को हमेशा की तरह 'मीठा चॉकलेटी स्वादिष्ट' बनाए. यदि सैकड़ों वैद्यों के हजारों पेशंट पर उपरोक्त 3 प्रकार के च्यवनप्राश के प्रयोग के परिणाम एकत्र किए जाएं, तो अगले वर्ष इसे 'अधिकृत रूप में मानकीकृत करके (Standardized) को जनता के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है। और सेलेबल बाजारू च्यवनप्राश रेसिपी बनाने वालों को 'वैज्ञानिक' आधार पर मजबूती से रोका जा सकता है. हमे विज्ञान के लिए आयुर्वेद के लिये ऐसा करना आवश्यक है. 'संगच्छध्वं संवदध्वं… अंत में 'असद्वादिप्रयुक्तानां वाक्यानां प्रतिषेधनम् एवं 'स्ववाक्यसिद्धि: अपि' हम सभी को तंत्रयुक्ति के इस उद्देश्य को सिद्ध करना होगा। यद्यपि तंत्रयुक्तियां संहिता तथा सिलॅबस दोनो मे सबसे अंत में दी गई है। संभवता हा पेशंट्स को अधिक लाभकारी और आर्थिक रूप से अधिक लाभदायक 'योग' मिलेगा। च्यवनप्राश के अन्य अस्पष्ट विषयों पर निकट भविष्य मे हि फिर कभी चर्चा करेंगे। जैसे सेवनमात्रा, अष्टवर्ग, दशमूल, मत्स्यण्डिका, केसर आदि। आशा है, सभी यशस्वी वैद्य, द्रव्यगुण और भैषज्यकल्प के सभी शिक्षक, च्यवनप्राश बनाने वाले सभी उत्सुक जिज्ञासू नवयुवक छात्र और पूरे देश मे में प्रसिद्ध फार्मेसी, चवनप्राश संबंधित इस प्रस्तुत विषय पर रचनात्मक रूप से सोचेंगे और उचित नैतिक प्रतिसाद (प्रतिक्रिया reaction नहीं, response प्रतिसाद) देंगे। Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत. आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. सर्व अधिकार सुरक्षित म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/ Mhetreayurveda@gmail.com Disclaimer/अस्वीकरण: लेखक यह नहीं दर्शाता है, कि इस गतिविधि में व्यक्त किए गए विचार हमेशा सही या अचूक होते हैं। चूँकि यह लेख एक व्यक्तिगत राय एवं समझ है, इसलिए संभव है कि इस लेख में कुछ कमियाँ, दोष एवं त्रुटियां हो सकती हैं।

English : Yayaati Chyavana Arthavaada Chyavanaprasha

Yayaati Chyavana Arthavaada Chyavanaprasha ✍️🏼 Copyright ©Vaidya Hrishikesh Balkrishna Mhetre. MD Ayurveda, MA Sanskrit. ✍️🏼 Ayurveda Clinics @Pune & Nashik. ✍️🏼 All rights reserved ✍️🏼 MhetreAyurveda ✍️🏼 9422016871 ✍️🏼 www.MhetreAyurveda.com ✍️🏼 www.YouTube.com/MhetreAyurved/ ✍️🏼 Mhetreayurveda@gmail.com ✍️🏼 Disclaimer: The author does not represent that the views expressed in this activity are always correct or infallible. Since this article is a personal opinion and understanding, it is possible that there may be some shortcomings, errors and defects in this article. ✍️🏼 It is written in the Phalshruti of Chavanprash in Charaksamhita. 1. Baalaanaam Cha angavardhana 2. अस्य प्रयोगात् च्यवनः सुवृद्धोऽभूत् पुनर्युवा ✍️🏼 Let us have some discussion on this. ✍️🏼 Yayati's father Nahusha. Nahusha's father Ayush and Ayush's guru Chyavan Rishi. ✍️🏼 If the old sage Chyavan, after eating the Chyavanprash of Ashwini Kumar, became young again… then why did Chyavan's disciple Ayush whose grandson Yayati exchange his old age with his son Puru to become young again??? ✍️🏼 If it was possible to postpone old age and become young again by eating Chyawanprash and Chyawan is like a historical person for us today, a pauranika person... it was not so, for Yayati. Yayati's grandfather was a direct disciple of Chyavan, that is, if the old Chyavan had become young again by eating Chyavanprash of Ashwini Kumar, then he could have made Yayati also young again in this way. Yayati does not need to exchange youth and old age with his son. ✍️🏼 For this reason, what we are told that by eating the Chyavanaprash of Ashwini Kumar, the very old Chyavana became young again, is just a myth/story/hearing/saying/vaagvastumaatra, *which in the classical definition is Arthavaada. It is said, this is all… Ninda-Praashastya-Param Vaakyam Arthvaada*… It is often full of exaggeration, which today we call advertisement. ✍️🏼 After eating Chyavanprash, the aged Chyavan became young again, this is not at all any reality, it is a *arthavaadaatmaka* incident written only to show the importance of that Kalpa, ✍️🏼 Like the use of Hastidanta Mashi on palm, in Sharngdhar Samhita, Lepat Panitaleshvapi = can grow hair even on the sole of the hand = palm, such an *Aashakya Vidhana = mission impossible* has been made, which is *not a reality, but an arthavaada only*!!! ✍️🏼 It is similar to exaggerated claims of results in Shlokas of Charaka's Vajikarana yogas. In this, "Shatan Narinaam Bhunkte" = one can have sexual intercourse with a hundred women, which is extremely impossible for any human being, but the meaning of writing such a statement, to increase the importance of *Kalpa, i.e. to make arthavaadaatmaka statement is only, this is not REAL or Factual. ✍️🏼 Exactly the same thing, by eating Chyawanprash, the old Chyawan became young again, you should know about this, this is not a reality, it is only a story and in the classical definition it is Arthavaada only. ✍️🏼 Then second thing… after eating Chyavanaprash, sage Chyavana, who was very old, became young again… *if this story is real, true*… then its second meaning is that today The Chyawanprash we are making... ✍️🏼 either its contents are incorrect Or the dose and duration we give is wrong. matrakālāśraya yuktiḥ, siddhiryuktau pratishthitā ✍️🏼 If both of these are true... the content and quantity, which we are giving today... then the story of Chyavan who became young again from old age... this cannot be true! Because whatever experience Chyavan experienced, Yayati should also have experienced it, because the time when Chyavan and Yayati were alive is very close to each other. And being a Chakravarti king, it could not have been rare for Yayati to achieve such a solution. ✍️🏼 One of these two options must be accepted… 1. Having strong faith in the power of our ancestors, and considering our traditions as true, we should believe that, indeed, by eating Chyawanprash prepared by Ashwini Kumar, Chyawan, who had grown old, became young again… ✍️🏼 So, we have to accept the second option that the Chyawanprash we are making today, either its contents or its quantity, is not being given to us in the proper form/dose/duration, that is going wrong because, what is written is that by eating Chyawanprash, one will get healthy. A person can become young again, no one gets such experience today. Or it is written in the Phalshruti of Chyawanprash. ✍️🏼 If the womb is becoming dry = garbha shushka (IUGR) or the baby is becoming dry baala shosha, then it can be cured with "Yashti Kashmiri Siddha Ksheerapaaka / Sharkarakalpa (granules)", which we have seen many times in our practice. ✍️🏼 Similarly, *Angavardhana*, the results of Chyawanprash seem to be true, if someone has seen in a patient by giving Chyawanprash only/alone, then ALSO it will be possible to make an old person young again. But in my 35 years of experience in Ayurvedic field, I have never seen any child or any skinny person becoming big/fat/nourished again, getting 'Angavardhana', *just by eating Chyawanprash*, & getting such results. Have anyone of you seen a child's body getting improved by using Chavanprash ALONE/ONLY?! ✍️🏼 If by consuming Chyawanprash, the dryness of an emaciated child (or in-utero) or the slow growth in IUGR is seen to be getting cured, then it should be possible to transform from an old age to a young one. But in practice, both of these do not happen. ✍️🏼 *Therefore, there are two options*, that either … 1. Our present content and quantity/duration/dose of Chyawanprash is wrong … or 2. It is not real for the old Chyawan to become young again by consuming Ashwin Kumar's Chyawanprash. ✍️🏼 If by consuming Chyawanprash it is not real to change from old to young, then Chyawanprash is today becoming only a marketable item and saleable material and we are not Ayurvedic medicine traders/shopkeepers… then… Accept the reality and give up/quit Chyawanprash. ✍️🏼 I am not against Aapta Pramana… But, neither Shastra Maatra Sharanah, nor na Cha Analochita Aagamah… We have to prove, come to the golden middle suvarnamadhya… ✍️🏼 Anuyayat pratipadam sarvadharmaeshu madhyamam… We see advertisements on television saying, Utha utha Diwali aali… Moti snanachi vel jhali… So Diwali is not celebrated just to sell moti soap. ✍️🏼 In the same way wake up wake, diwali is here… It's time to make Chyawanprash!! We have been telling such stories from generation to generation just to “sell” Chyawanprash, it should stop somewhere. ✍️🏼 Accept the light of truth and destroy the darkness of illusion... Tamaso Ma Jyotirgamaya on this auspicious Diwali… ✍️🏼 I have a previously published article on this subject written in all three languages, Marathi/Hindi/English, its link is also given. Interested and inquisitive Sanmitra Vaidya should read it. In which the main contents of today's Chyawanprash, Amalaki and Matsyandika = sugar, are incorrect and how the quantity suggested to the patient of today's Chyawanprash is wrong, it has been explained. An eager and inquisitive vaidya should read it and make appropriate changes in his practice accordingly. ✍️🏼 Just like many Vaidyas sell aromatic oil, Abhyanga oil, Keshaya oil Udvartan / Ubtan on Diwali or Swarnaprashan on Pushya Nakshatra or Shatavari Kalp throughout the year... similarly many sell Chyawanprash during winter season.. ✍️🏼 Don't become a dealer/trader by *selling* such medicines. We are capable vaidyas, who improve the health of patients and destroy diseases. We are not Traders who earn money by standing in the market, always keep this reality in your mind!!!🙏🏼 ✍️🏼 The patient is not our customer/client, though Sushrutacharya says, however, the patient is not even our son either. ✍️🏼 For us, the patient is our provider of food annadaataa i.e. God… so our conduct/behavior towards our God in the form of that patient should be very pure and authentic. Therefore, do not sell him medicines, become a consulting physician i.e. Pranabhisara Vaidya for his health protection and disease eradication. ✍️🏼 Copyright ©Vaidya Hrishikesh Balkrishna Mhetre. MD Ayurveda, MA Sanskrit. Ayurveda Clinics @Pune & Nashik. ✍️🏼 All rights reserved MhetreAyurveda 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/ Mhetreayurveda@gmail.com ✍️🏼 Disclaimer: The author does not represent that the views expressed in this activity are always correct or infallible. Since this article is a personal opinion and understanding, it is possible that there may be some shortcomings, errors and defects in this article.

Friday, 3 November 2023

वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट : डायबेटिस टाईप टू तथा अन्य भी संतर्पणजन्य रोगों का सर्वार्थसिद्धिसाधक सर्वोत्तम औषध

An innovative, Unique, Pioneer, Never before, wonderful, outstanding contribution to Ayurveda Fraternity by MhetreAyurveda 
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वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट : डायबेटिस टाईप टू तथा अन्य भी सभी संतर्पणजन्य रोगों का सर्वार्थसिद्धिसाधक सर्वोत्तम औषध 
✍️🏼लेखक : Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे.
सर्वाधिकार सुरक्षित. All rights reserved. म्हेत्रेआयुर्वेद. MhetreAyurveda 
 ✍️🏼आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक मोबाईल नंबर 9422016871

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वचाजलददेवाह्वनागरातिविषाभयाः। हरिद्राद्वययष्ट्याह्वकलशीकुटजोद्भवाः॥ वचाहरिद्रादिगणावामातीसारनाशनौ। मेदःकफाढ्यपवनस्तन्यदोषनिबर्हणौ॥ 

 वाग्भटोक्त इस गण द्वय के संबंध में ये लेख है. 

 केवल वचाहरिद्रादि गण का हि प्रयोग करके, डायबिटीस टाईप टू पेशंट मे, Hba1c को 9,10,11 से *5.4 तक लाना, 90 से 120 दिनो मे संभव होता है*, 
ऐसा केवल म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda का हि नही, अपितु यह योग प्रयोग मे लाने वाले अनेक सन्मित्र वैद्यों का और स्टुडंट का अनुभव है. 

साथ हि पीसीओएस, स्थौल्य/obesity, हायपोथायरॉईड, कोलेलिथिॲसिस, सायनुसायटिस adenoids, श्वास, शीतपित्त, कंडू, adenomyosis, शोथ, श्वेतस्राव (white discharge luecorrhoea), tonsillitis, कफज कास, स्तनग्रंथि ... 
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ऐसे कई अन्यान्य संतर्पणजन्य पृथ्वी जल प्रधान क्लेदप्रधान गुरु स्निग्ध द्रव स्थूल गुण वृद्धि जन्य रोगों / अवस्थाओं मे ;
वचाहरिद्रादि का लाभदायक परिणाम प्राप्त होता है. 

मेरे तो एक स्टुडंट ने यहां तक लिखके भेजा है , कि मेरी 70% प्रॅक्टिस वचाहरिद्रादि गण से हि चलती है. 

औषध + अन्न + विहाराणाम् उपयोगं सुखावहम्॥
औषध के साथ ही, योग्य आहार नियोजन और नियमित व्यायाम इनकी भी चिकित्सा साफल्य के लिए अत्यंत आवश्यकता होती है.
यह लेख किसी भी ड्रग अँड डिसीज इस प्रकार की विधा की पुष्टी नहीं करता है.
इसीलिए म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा प्रसृत सप्तधा बलाधान टॅबलेट का किसी भी व्याधी मे आत्मविश्वासपूर्वक प्रयोग करते समय, उस व्याधी के लिए आवश्यक आहार नियोजन (=पथ्यपालन + अपथ्य त्याग) तथा उस व्याधी के लिए आवश्यक व्यायाम + विहार + जीवनशैली में बदलाव इनका भी चिकित्सा के साफल्य मे उपयोग निश्चित रूप से रहता है.
केवल म्हेत्रे आयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा प्रसृत सप्तधा बलाधान टॅबलेट देने से ही व्याधी मे उपशम या चिकित्सामे यश प्राप्त होगा ऐसे नही है. उसके लिये उस व्याधी के अनुसार उचित आहार व विहार का मार्गदर्शन, पेशंट को करना, यह वैद्य के लिए आवश्यक है.

 वचादि + हरिद्रादि अर्थात् वचाहरिद्रादि गण का सफल प्रयोग सर्वप्रथम डायबिटीस टाईप टू (इन्सुलिन डिपेंडंट तथा नॉन इन्शुलिन डिपेंडंट) दोनो स्थितियों में प्राप्त हुआ, किंतु टाइप वन में इसका परिणाम उतना उत्साहवर्धक नही होता है. 

औषधान्नविहाराणाम् उपयोगं सुखावहम्
औषध अन्न विहारा णाम् उपयोगं सरिपोर्टम्॥


औषध अन्न विहार & रिपोर्ट इन चारों के साथ ही अगर ट्रीटमेंट करेंगे तो ही अपेक्षित परिणाम प्राप्त होते है ...

औषध 
वचाहरिद्रादि 6 टॅबलेट दिन मे 3 बार ,
यदि एच बी ए वन सी  Hba1c 9 तक हो तो!

वचाहरिद्रादि 6 टॅबलेट दिन मे 4 बार अगर 
एचबीएवनसी HBA1C 10 or 10+ हो 

अन्न 

नाश्ता = ब्रेकफास्ट
सुबह के नाश्ते मे मूग मसूर चवळी उडीद इन से बने हुए चीला डोसा उसळ धिरडं पिठलं आप्पे (वडे अगर लिपिड्स नॉर्मल हो तो ... वडे छोटे छोटे तलना अपने अंगुली के पर्व के आकर के जैसे मूंग भजी होते है वैसे, बडे बडे बडे नही चलना मेदुवडा की तरह) अर्थात प्रोटीन =हर्बल प्रोटीन= नैसर्गिक रूप मे आहार के रूप मे सुबह नाष्टे मे देना.

चिकन अंडे मच्छी ऐसी प्रोटीन वाली चीजे नही देना. 

पनीर मे भी प्रोटीन होता है, किंतु बाजार के पनीर मे कॉर्नफ्लोअर होता है और घर मे बने हुए पनीर मे भी दूध के फॅट = लिपिड तथा लॅक्टोज अर्थात शुगर होती है.

तो सर्वाधिक अच्छा है कि हप्ते मे पाच बार मूंग मसूर चवळी उडीद से बने हुए व्यंजन 

एखाद बार नॉनव्हेज = बकरे का मटन देना किंतु वह भी बोललेस खिमा गर्दन मांडी यहा का न देते हुए सीनाचौप के रूप मे देना 

और एकादबार पनीर घर मे बना हुआ देना ... ठीक रहेगा.

दोपहर के भोजन = lunch  
इसमें पूरा भोजन अर्थात 
मूंग की दाल 
चावल (कुकर मे पकाया हुआ नही ... मांड निकाला हुआ = स्टार्च स्ट्रेन आउट किया हुआ, चावल के दानो को शुद्ध देसी घी पर भून के रखा हो तो जादा अच्छा) 
रोटी के बदले फुलके और 
लंबी वेलवर्गीय फल वाली सब्जी या अर्थात Gourds =  पडवळ दुधी भोपळा घोसाळ गिलक दोडका गवार भेंडी वांग शिमला मिरची शेवगा कोहळा ... द सब्जी या व्हरायटी के लिए काफी है, ये भी मूंग डाल डालकर पकाये 

सॅलड खाना ही है तो कम मात्र मे खाये मुली काकडी ये ठीक है 

मुख्य रूप से भोजन के जो चार अंग है 
अर्थात कार्बोहाइड्रेट फुलके और कुकर मे बिना पकाया हुआ चावल 
प्रोटीन मूंग या उसकी की दाल मसूर चवळी इन से बनी सब्जी 
फायबर के रूप मे लंबी वेलवर्गीय फल वाली सब्जी या अर्थात गॉर्ड्स और इन सबको यथा संभव कम से कम तेल या शुद्ध देसी घी का तडका आवश्यकता नुसार 

रात का भोजन अर्थात डिनर 
यह डायबिटीस टाईप टू तथा ओबेसिटी कोलेस्टेरॉल इनका मुख्य कारण है 
डिनर इस द कल्प्रिट dinner is the culprit 
डिनर ही सर्वदोषकारी है 
प्रायः 30 35 40 उमर के पश्चात्, हमारे शरीर मे तारुण्य यौवन की तरह शीघ्र धातु वृद्धी नही होती है और इसी उमर मे हमारा लाइफस्टाईल , सभी का जीवनशैली इस प्रकार का होता है ... हम बेडसे उठते है, कमोड पर बैठते है, बाद मे डायनिंग चेअर पर नाश्ता करते है, फिर टू व्हीलर बस रिक्षा कार इसमे हमारे कार्यस्थळ ऑफिस बिजनेस दुकान स्कूल कॉलेज यहा जाते है, वहा पर भी चेअर बेंच इस पर बैठते है, फिर वापस किसे ना किसी वाहन की सीट पर बैठकर घर आते है, फिर सोपे पर बैठकर टीव्ही देखते है, फिर डायनिंग चेअर पर डिनर करते है और फिर बेड पर सो जाते है ... ऐसी जीवनशैली मे, अगर हम डिनर मे ... फिरसे दाल चावल सब्जी रोटी ऐसा "संपूर्ण आहार" लेंगे और उसके बाद छ से आठ घंटे तक, बिना कोई चलन वलन करे बिना मूव्हमेंट करे हालचाल किये बिना, बेड पर पडे रहेंगे ... तो डिनर के समय, शरीर मे जाने वाला कार्बोहाइड्रेट शुगर ग्लुकोज जल पृथ्वी क्लेद , इसका कोई भी उपयोग नही होता है ... और यह रोज रात्री के भोजन मे रोज के डिनर मे शरीर मे अनावश्यक रूप मे संचित होने वाला, जिसका कभी भी उपयोग नही होता है, ऐसा अन्न, शरीर मे आगे जाकर , दीर्घकाल संचित होकर ... शुगर कोलेस्टेरॉल ओबीसीटी डायबेटीस और अन्य कई तरह की संतर्पण जन्य विकारों का मुख्य निदान बनता है ... इसलिये डिनर इज द कल्प्रिट डिनर सर्व दोष प्रकोपक है 

इसलिये डिनर मे ऐसा भोजन करे की ... जो उदर की पूर्ती करे क्षुधा का शमन करे ... किंतु शरीर मे नये रूप मे अनावश्यक रूप मे अधिक रूप मे एक्स्ट्रा रूप मे अनुपयोगी रूप मे फिरसे , शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज जल पृथ्वी क्लेद इनका संवर्धन डिपॉझिशन ना करे 

इसलिये सबसे आदर्श है की डिनर मे लाजा = साळीच्या लाह्या खाये ... राईस फ्लेक्स कुरमुरे चिरमुरे मुरमुरे नही. लाजा= जो हम लक्ष्मी पूजन मे प्रसाद के रूप मे लक्ष्मी जी को चढाते है ये साळीच्या लाह्या जिसे कही जगह खील कहा जाता है. उपर इसका चित्र लेखके आदि और अंत मे दिया है. साळीच्या लाह्या उपलब्ध न हो तो, ज्वारी लाह्या बनाये, इसके कई व्हिडिओ युट्युब पर उपलब्ध है 




मखाना न खाये पॉपकॉर्न ना खाये 

ये लाजा अगर खाने मे अरुचिकारक लगे , तो उस को टेस्टी बनाने के लिए, धना जीरा अजवायन बडीशोप हलदी मिर्च नमक इनका शुद्ध देसी घी मे तडका लगाकर खाये.

किन्तु, इसमे कांदा फरसाण टमाटा शेंगदाणा ना मिलाये. 

नाही इस लाजा को, जो रुक्ष है ... शोषणे रुक्षः ... शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज जल पृथ्वीक्लेदको शोषण करने वाला है , इस लाजा में दूध या दाल/ आमटी वरण रस्सा सांबार या अन्य कोई लिक्विड नही मिलाना है ... रुक्ष शुष्क रूप मे हि इसको खाना है ... आवश्यकता पडे तो टेस्ट के लिए उपर सुझाया वैसे उसको तडका देना है फोडणी द्यायची आहे 

दिन मे दो बार दूध और शक्कर वाला चाय पियेंगे तो भी चलता है ... नही पियेंगे तो जादा अच्छा है 

नाष्टे मे मूग मसूर चवळी का बनाया हुआ पदार्थ 

दोपहर मे पूर्ण भोजन कुकर के बिना पकाया हुआ 

और रात के भोजन मे लाजा खाना 

यह आदर्श आहार है 

लाजा एक बार खाने के बाद , यदि फिर से भूक लगे तो फिर से लाजा खाना है , 23 घंटे मे 46 बार भी भूक लगे तो फिर से लाजाही खाना है ... ऐसा संयम निर्धार रखेंगे तो रिझल्ट शीघ्र निश्चित रूप से आता है 

लाजा खाने का अगर उद्वेग आ जाये तो ... मूग मसूर चवळी से बने हुए चीला के साथ, फल वाली सब्जी अर्थात गॉर्ड्स खाने है,  जिससे की पेट मे फिर से प्रोटीन और फायबर जायेंगे ...

रात के भोजन मे किसी भी स्थिति मे गेहू चावल बाजरा ज्वार बटाटा साबुदाणा दूध फल ऐसा कार्बोहायड्रेट शुगर ग्लुकोज जल क्लेद पृथ्वी बढाने वाला आहार नही लेना है 

विहार 

विहार एक्सरसाइज व्यायाम जीवनशैली के रूप मे 
1. 70 मिनिट तक चलना और 
2. 10p बार स्पायनल ट्विस्ट और 
3. 100 बार एअर सायकलिंग करना 
यह अत्यंत आवश्यक है 

किसी भी स्थिती मे दिन मे सोना नही हे 
दिवास्वाप नही करना है 

अगर दिन मे नींद आये तो बैठ कर सोना है 
जैसे हम फ्लाइट मे कार मे बस मे बैठकर सोते है वैसे ... किसी कुर्सी या सिंगल सोफे पर बैठकर सामने दूसरी कुर्स  पर उस पर पैर रखकर , दीवार पर सर लगाकर सो सकते है 
या स्कूल में जैसे बच्चों को हेड डाऊन करने के लिए बोलते है वैसे डायनिंग चेअर पर बैठकर सामने वाले टेबल पर माथा रख कर सो सकते है 

किंतु 180° मे दिन मे बेड पर सोपे पर लेट कर नही सोना है 
ज्यादा से ज्यादा 120 °or 135° में कर सोना है 

जादा अच्छा है कि दिन मे बिलकुल ही ना सोये 

रिपोर्ट: ब्लड टेस्ट 
हर 15 दिन बाद (ग्लुकोमीटर पर घर मे नही अपितु) लॅबोरेटरी मे व्हीनस ब्लड के साथ फास्टिंग पीपी ब्लड शुगर रिपोर्ट करे 
और हर 90 दिन के बाद,  BSL F PP, Hba1c, Lipid Profile, LFT, RFT, Electrolytes, Calcium, Vit D, VitB12 , (& TSH अगर डिस्टर्ब है तो) रिपोर्ट अवश्य करे 

90 दिन के ट्रीटमेंट के बाद एचबीएवनसी 5.4 आ ही जाता है 

साधारण नियम ऐसा है की जितना एचबीएवनसी होता है इसमे से 5.4 मायनस करेंगे, तो जो उत्तर आयेगा, उतने महिने ट्रीटमेंट की आवश्यकता होती है

आज डायबिटीस का जो निदान/diagnosis होता है, वह पॉलीपेप्सीया पॉलिफॅजिया, पॉली युरिया ऐसे लक्षण के स्थान पर, बीएसएल फास्टिंग पीपी bsl f pp इस ब्लड investigation द्वारा ही प्रायः होता है. 

*मैं डायबेटीस को प्रमेह नहीं समझता.
जिस प्रकार से आज ब्लड शुगर टेस्टिंग के द्वाराही डायबिटीस का डायग्नोसिस कन्फर्म होता है, उसे देखते हुए उसे प्रमेह कहना यह दुष्कर है. 

प्रमेह का निदान/डायग्नोसिस प्रभूत आविल मूत्रता इस तरह से अर्थात, क्लेद का जब तक बस्ती द्वारा मूत्र के साथ निष्कासन नही होता है, तब तक उसे प्रमेह नही कह सकते
और आज के दौर में मुझे नही लगता है, कि प्रमेह इस प्रकार का निदान किसी रुग्णका केस पेपर पर लिखते समय, आयुर्वेद का कोई भी प्रॅक्टिशनर, पेशंट के मूत्र का प्रत्यक्ष परीक्षण करके ये लिखता होगा

और अगर प्रत्यक्ष मूत्रपरीक्षण करता भी होगा, तो मुझे ये उत्सुकता है कि प्रभूत मूत्र किसे कहेंगे ? 

क्वांटिटी (मूत्र निष्कासन की, एक दिन की) कितनी होनी चाहिये, ये शास्त्र मे नही लिखा है, 

और एक दिन मे मूत्र कितनी बार होना चाहिये (फ्रिक्वेन्सी), ये भी नहीं लिखा है. 

अंजली प्रमाण मे मूत्र का प्रमाण चार अंजली लिखा है, जो अधिक से अधिक 160 या 200 मिली × 4 = 640 to 800 इतना हो सकता है. किंतु यह शरीरस्थ मूत्र का प्रमाण है, न कि प्रतिदिन जो मूत्र शरीर से बाहर आता है उसका. क्योंकि अगर 640 to 800 ml इतनाही मूत्र प्रवृत्ती का प्रमाण मानेंगे, तो यह तो प्रमेह न होकर मूत्रक्षय मूत्राघात समझना पडेगा. क्योंकि यह तो मूत्र की अत्यल्प मात्र है, प्रतिदिन की. आज मॉडर्न मेडिसिन ने जो निरीक्षण किया है, उसके अनुसार एक दिन मे 24 घंटे मे मूत्र विसर्जन की मात्रा 60kg वजन के प्रौढ व्यक्ती मे 1500 से 2000 ml इतनी होनी चाहिये. 

तो इस कारण से जिस मूत्र की प्राकृत प्रमिती शास्त्र मे निर्धारित नही है, उसका प्रभूतत्व कैसे निर्धारित करेंगे??? यह मूत्र प्रमाण volume क्वांटिटी के बारेमे स्थिती है, जो जिसमे कुछ भी निश्चित ज्ञात नही है, आयुर्वेद की दृष्टि से; किस आधार पर प्राकृत क्या है प्रभूत क्या है इसका निर्धारण, संख्या / ऑब्जेक्टिव्हली कर सके. 

 अभी प्रमाण वोल्युम की जगह, अगर फ्रिक्वेन्सी से प्रभूतता का आकलन करना चाहेंगे, तो भी एक दिन मे कितनी बार मूत्र प्रवृत्ती होनी चाहिये, ये भी शास्त्र मे कही पर भी उल्लेखित नही है.

पर एक रेफरन्स है, जो आयुर्वेद शास्त्र का संभवतः नही है, उसमे *षण्मूत्री द्विपुरीषक:* ऐसे लिखा है, जिसका अर्थ है कि एक दिन मे छह (6)बार मूत्र प्रवृत्ती होनी चाहिये और अगर दो बार भोजन करते है, तो दो बार उसका पचन होकर, दो बार पुरीष प्रवृत्ती (मल विसर्जन) होनी चाहिये. किंतु पुरीष यह आज के लेख का विषय नही है. 

तो एक दिन मे 6 बार मूत्र प्रवृत्ति होना अगर प्राकृत है, तो क्या आज तक हमने किसी पेशंट का (या स्वयं का भी) एक दिन मे मूत्र प्रवृत्ती संख्या फ्रिक्वेन्सी कितनी है, ये कभी निरीक्षण करने का प्रयास भी किया है? अगर नही किया है, तो पेशंट या स्वस्थ व्यक्ती एक दिन मे कितनी बार मूत्र प्रवृत्ती करता है, इसका प्राकृत प्रमाण/संख्या/frequency भी हमे बता नही है, तो प्राकृत प्रमाण प्राकृत संख्या प्राकृत फ्रिक्वेन्सी ज्ञात नही है, निश्चित नही है निर्धारित नही है सर्व स्वीकृत नही है, तो किसके आधार पर हम *प्रभूत मूत्र* इस तरह से कह पायेंगे? 

 यही स्थिती आविलता के संदर्भ मे है. कितने लोगो ने आविलत्व की प्राकृतता और विकृती की ग्रेड / श्रेणी पूर्वानुभव से निश्चित करके रखी है ? किसे आविल कहेंगे, इसका कोई सुनिश्चित मापदंड, सभी प्रॅक्टिशनर्स फॉलो कर सके , ऐसा सर्व स्वीकृत क्रायटेरिया , प्रॅक्टिस मे , आसेतुहिमाचल उपलब्ध नही है. 

 इस कारण से आयुर्वेद शास्त्र मे लिखे हुए, *प्रभूत आविल मूत्रता* इस लक्षण से, प्रमेह का निर्धारण होता हि नही है. 

तो जो लोग प्रमेह या मधुमेह ऐसा निदान लिखते है, वे डायबिटीस का / बीएसएल का रिपोर्ट देखकर , उसके भाषांतर के रूप में , उसे लिखते है और प्रमेह का भाषांतर डायबिटीस या डायबिटीस का भाषांतर प्रमेह करके, आयुर्वेद के ग्रंथो मे प्रमेह मे लिखे हुए योगों/कल्पों/औषधों से बीएसएल कम होगी, इस आशा से, प्रमेह अधिकार के औषधों से / कल्पों से शुगर को ट्रीट करने का विफल प्रयास करते रहते है ... और स्वयंको हम प्रमेह की चिकित्सा कर रहे है या डायबिटीस की आयुर्वेदिक चिकित्सा कर रहे है, ऐसा भ्रांतियुक्त समाधान में रहने देते है. 

मधुमेह लिखना तो और भी अशास्त्रीय है. मधुमेह का लक्षण है की मूत्र मे ओज निष्क्रमित होता है. तो मधुमेह निदान लिखने वाले किसी भी आयुर्वेद प्रॅक्टिशनर ने, पेशंट के मूत्र मे ओज का दर्शन कभी किया भी है. ओज का वर्ण गंध रस इनका वर्णन संहिता में उपलब्ध है, परंतु क्या किसी ने आज तक मधुमेह के पेशंट के मूत्र मे ओज को देखा भी है?? अगर नही, तो मधुमेह निदान लिखना कितना शास्त्र विसंगत है यह स्वयं सोचने की बात है

 हाइपरग्लायसीमिया से, वृद्धिंगत हुई बीएसएल फास्टिंग पीपी रिपोर्ट से, जिस प्रकार से डायबेटीस का (प्रमेह का नही) निदान, निश्चित तथा निर्भ्रांत रूप से होता है , उस प्रकार के विधी का या तज्जन्य लक्षण का उल्लेख आयुर्वेद में नही है. 

 प्रमेह में मूत्रसहित अत्यधिक मात्रा मे क्लेद का बस्ती द्वारा निष्कासन होना, यह *स्थान संश्रय* स्थिती से आगे होने वाली घटना है. 

जब की बीएसएल फास्टिंग पीपी का अत्यधिक होना या एव्हरेज नॉर्मल रेंज से अधिक होना, स्थान संश्रय स्थिती से पहले यह *प्रसर* स्थिती का निदर्शक है. 

*रसरक्तगत क्लेद = ब्लड शुगर* यह अगर आगे जाकर स्थान संश्रय की स्थिती मे, बस्ती द्वारा क्लेद के रूप मे मूत्र के साथ निष्क्रमित होता है. तो वह आयुर्वेदोक्त प्रमेह है.

 जैसे चरक निदान 4 मे कहा गया है, वैसे क्लेद, मूत्र से मिश्रित होकर बस्ती से निष्कासित होने की जगह अगर यह मांसमेदसे मिश्रित होता है, तो पूती मांस अर्थात दुष्टव्रण = रिकरंट नॉन हीलिंग डायबिटीस वूंड इस प्रकार से परिणमन हो सकता है. इस प्रकार के रिकरंट नॉन हीलिंग डायबिटीस वूंड का वर्णन शास्त्र मे प्रमेह की अध्याय मे न होकर यह कुष्ठ के पूर्व रूप मे है व्रणानामधिकं शूलं शीघ्रोत्पत्तिश्चिरस्थितिः। रूढानामपि रूक्षत्वं निमित्तेऽल्पेऽपि कोपनम्॥ अर्थात क्लेद प्रधान दोष संचिती अगर त्वचा रक्त मांस इत्यादि कुष्ठ दूष्य मे जाने से पूर्वही ज्ञात होती है, तो वह कुष्ठ की पूर्वरूप की स्थिती है और यही क्लेद प्रधान दोष संचिती पूती मांस अर्थात रिकरंट नॉन हीलिंग डायबिटीक वूंड के रूप मे व्यक्त होती है. इसी कारण से यह रीकरिंग नॉन हीलिंग डायबिटीक वूंड यह प्रमेह जन्य या प्रमेह अधिकार से न होकर, यह कुष्ठ के पूर्वरूप मे है अर्थात कुष्ठ के दूष्य त्वचा रक्त मांस इनमें स्थान संश्रय होने से भी पूर्व जो प्रसर की स्थिती है ऐसी स्थिती मे जो क्लेद प्रधान दोष संचिती है, उसके द्वारा व्यक्त होने वाली पूती मांस सदृश नॉन हीलिंग रिकरिंग डायबिटीक वूंड की आयुर्वेदिक आकलन व्यवस्था है. 

और यह केवल शाब्दिक तात्त्विक थेरॉटिकल आकलन न होकर, कई पेशंट जो नॉन हीलिंग रिकरिंग डायबिटीक वूंड है, जिनको गँगरीन हुआ है, जिनको ॲम्पुटेशन के लिए पोस्ट किया गया है, ऐसे रुग्णों के ॲम्पुटेशन को टालकर सर्जरी को टालकर उनके दीर्घकालीन क्रॉनिक नॉन हीलींग रीकरिंग डायबिटीस वूंड को अपुनर्भव स्थिती मे पूर्णतः उपशमित करने के बाद उस अनुभव के आधार पर यह आकलन आयुर्वेदिक परिभाषा मे यहा पर प्रस्तुत किया है

ऐसे नॉन हीलिंग रीकरंट डायबिटीस वूंड के, बीटी और एटी दोनो फोटोग्राफ्स उपलब्ध है. यहा पर उसका प्रस्तुतीकरण संभव नही है. आप उसे हमारे वेबसाईट तथा फेसबुक या इन्स्टा या ब्लॉग पर देख सकते है. 

यह स्थिती जो रिकरिंग नॉन हीलिंग डायबिटीक वूंड के रूप में जानी जाती है, यह भी क्लेद प्रधान दोष संचिती हि है और वचाहरिद्रादि गण से उपचार कर के ठीक होता है.

 नॉन हीलिंग रिपेरिंग वूंड मे आभ्यंतर औषधी के रूप मे जैसे वचाहरिद्रादि उपयोगी है, वैसे ही बाह्य उपचार के रूप मे, स्थानिक चिकित्सा के रूप मे, व्रणकी शीघ्र शुद्धी तथा रोपण की गती बढाने के लिए, व्रणगत स्राव शोषण करणे के लिये, स्थानिक वेदना दाह शोथ कंडू इनके शीघ्र निवारण के लिए, assured healthy granulation के लिये; *धूपन* यह अत्यंत उपकारक लाभदायक परिणामकारक विधि है इस पर कभी निकट भविष्य मे सविस्तर लिखेंगे 

 शरीरस्थ क्लेद का कितने प्रकार का मॅनिफेस्टेशन = अविर्भाव हो सकता है, यह अष्टांगहृदय निदान स्थान में 9 से 16 तक क्रमशः देखा जा सकता है

 अगर क्लेद बस्ती मे मूर्तीमंत कठिनीभूतत्व को प्राप्त हो तो अश्मरी (9) 

 क्लेद अगर मूत्र के साथ द्रवीभूत होकर निष्कासित हो बस्ती के द्वारा , तो प्रमेह (10) 

 अगर क्लेद शरीर मे प्रसृत हो जाये, मेद के साथ, तो प्रमेह पिटिका (11) 

 वही क्लेद अगर कोष्ठ में संग्रहित हो जाये, तो गुल्म (11) 

 अगर कोष्ठ के त्वचा और मांस के बीच मे द्रवीभूत हो जाये , तो उदर (12) 

 यही क्लेद अगर कोष्ठ की बजाय, शाखा मे त्वचा मांस के बीच मे द्रवीभूत होकर संग्रहित हो जाये, तो पांडू (13) 

 क्लेद अगर, एक जगह पर, उत्सेध / ॲक्युम्युलेशन रूप में संचित/स्थित हो जाये , तो शोथ (13). 

 शोथ उपलभ्यते, पुनश्चैक एव *उत्सेध* सामान्यात् 
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 इस प्रकार के स्थानिक दोष संचिती को / उत्सेध को / संहती को / accumulation को, चरक ने चिकित्सा स्थान 12 और चरकसूत्र 18, इन 2 अध्यायों में कई व्याधियों को, जो शल्यशालाक्य के है, उन्हे शोथ के रूप मे देखा है. इसमे भगंदर मसूरिका तथा शालाक्य के उपकुश रोहिणी आदि भी उल्लेखित है. 

 अगर क्लेद सरणशील होकर शरीर मे प्रसृत हो जाये तो विसर्प (13) 

 स्थिर हो जाये तो कुष्ठ (14) 

 अगर इसी कुष्ठ की स्थिति मे और भी क्लेदाधिक्य हो तो कृमी(24) 

... और यही क्लेद अगर संपूर्ण शरीर मे घूम फिरकर, शाखा के अंत मे संग्रहित हो जाये, तो वातरक्त(16) ... 
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 ऐसे क्लेद का विविध रोगों के रूप में, आविष्कृतम सद्भाव वाग्भट निदान स्थान अध्याय 9 से 16 तक विविध रूप मे उपलब्ध होता है, ऐसा निरीक्षण महागुरु वैद्य माधव कोल्हटकरजी ने हमे बताया था

 स एव ~कुपितो दोषः~ *संचितः क्लेदो* समुत्थानविशेषतः। 
 स्थानान्तराणि च प्राप्य विकारान् कुरुते बहून्॥ 

 किसी स्थान संश्रय के बिना, रुग्ण संवेद्य वैद्य संवेद्य लक्षण के बिना, क्लेद का शरीर मे कितना संचय है और अब की प्रसर की स्थिती मे, उस क्लेद का संभाव्य स्थान संश्रय, भविष्य में कहा पर होगा, यह बताना, आयुर्वेद शास्त्रोक्त लक्षण के अनुसार या वैयक्तिक मर्यादा के अनुसार थोडा दुष्कर है. 

 जब की मॉडर्न मेडिसिन की डायग्नोस्टिक्स के अनुसार, ब्लड शुगर अर्थात शरीरस्थ क्लेद = पृथ्वी जल प्रधान द्रवगुण प्रधान भाव पदार्थ की, "संचिती accumulation उत्सेध" यह, जब रसरक्त के साथ शरीर मे संचार/"प्रसर" कर रहा है, तो ऐसे प्रसर की स्थिति मे, उसका प्रमाण नॉर्मल और वृद्धिंगत स्थिती में , मॉडर्न मेडिसिन ने सुनिश्चित किया है, जिसे हम ब्लड शुगर फास्टिंग पीपी ऐसे समजते है. 


 तो आज रुग्ण संवेद्य या वैद्यसंवेद्य लक्षण पर आधारित डायबिटीस या प्रमेह का निदान निश्चित कन्फर्म नही होता है. 

डायबेटीस का डायग्नोसिस यह सामान्य रूप से ब्लड शुगर BSL का प्रमाण और स्पेसिफिक रूप मे एचबीएवनसी HBA1C की स्थिति पर निर्भर होता है. 

 बस्तीगत मूत्र सहित क्लेद यह प्रमेह की अवस्था है, 

जब कि मॉडर्न मेडिसिन का हायपरग्लायसेमिया, यह रसरक्तगतक्लेदकी स्थिती है, 

इसको समझने के लिए मै एक उदाहरण/दृष्टांत देता हूं कि, मुंबई से बेंगलोर जाने के लिए उद्यान एक्सप्रेस रेल्वे में कोई प्रवासी बैठ गया है... 

तो मुंबई = निदान सेवन दोष संचिती का आरंभ है.

 मूत्रसहित क्लेदाधिक्य को बस्ती द्वारा निष्कासित करती है, ऐसे संप्राप्ति की अंतिम स्थिती प्रमेह = बेंगलोर ऐसी है. 

 इस प्रवास मे अगर मुंबई से आरंभ किया हुआ व्यक्ती बीच मे हि, सोलापूर मे उतर जाये, तो यह रसरक्तगतक्लेद = हायपर ग्लायसेमिया = ब्लड शुगर फास्टिंग पीपी की वृद्धिंगत स्थिती ऐसा है. तो यह डायबिटीस = प्रमेह नही है. 

क्योंकि, प्रमेह अधिकार में उल्लेखित औषधों से ब्लड शुगर कम नही होती है, चाहे वंग त्रिवंग दे दो, वसंत कुसुमाकर दे दो, चंद्रप्रभा दे दो, चरक प्रमेह चिकित्सा से कोई कषाय दे दो या वाग्भटोक्त प्रमेहहर अग्रेद्रव्य धात्रीनिशा दे दो; ब्लड शुगर टस से मस नहीं होती है. 

 डायबिटीस = हायपरग्लायसेमिया और प्रमेह इनका स्थान ही अलग अलग है. 

 प्रमेह यह बस्तीगत संप्राप्ति है, 

जब की डायबेटीस टाइप टू = हायपरग्लायसीमिया = raised बीएसएल = रसररक्तगत क्लेद है. 

 चक्रपाणि ने संप्राप्ती का पर्यायी शब्द आगति का वर्णन *आगतिर्हि उत्पादकारणस्य व्याधिजननपर्यन्तं गमनम्*। 

 So this संप्राप्ती = आगती is a journey from निदान सेवन to व्याधीजन्म. मुंबई (=निदान सेवन = उत्पाद कारण = संप्राप्ती आरंभ) मे रेल्वे मे बैठकर, प्रवास का आरंभ किया हुआ व्यक्ती, बेंगलोर (= बस्ती मूत्रक्लेद = प्रमेह) तक जाने के बजाय, 

अगर बीच मे सोलापूर (= प्रसर = रसरक्तगतक्लेद = raised BSL = हायपरग्लायसीमिया) में हि उतरकर, 

वह व्यक्ती अगर वहा से ट्रॅक चेंज करके, मनमाड चला जाता है, तो यह रसरक्तगतक्लेद बस्ती (बेंगलोर) मे जाने की बजाय, विकृतो दुष्टेन मेदसोपहितः *शरीरक्लेदमांसाभ्यां संसर्गं गच्छति, क्लेदमांसयोरतिप्रमाणाभिवृद्धत्वात्; स मांसे मांसप्रदोषात् पूतिमांस* (पिडकाः शराविकाकच्छपिकाद्याः) सञ्जनयति ... पूतिमांस अर्थात दुष्टव्रण नॉन हिलिंग रिकरंट डायबिटीस वूंड हो जाती है. 

 इसी कारण से प्रमेह अधिकार के आयुर्वेदिक औषध, डायबेटीस टाईप टू हायपरग्लायसेमिया अर्थात ब्लड शुगर अर्थात रसरक्तगतक्लेद को कम नही कर सकते. 

उनका टार्गेट पाॅइंट हि अलग अलग है. 

 आप चाहे जिंदगीभर बेंगलोर(बस्ति) रेल्वे स्टेशन पर प्रतीक्षा करते रहे तो भी, जो व्यक्ती बीच में हि, सोलापूर(रसरक्त = BSL) मे हि उतर चुका है, उसको बेंगलोर में कभी भी रिसीव नही कर सकते. 

 संहिता या परवर्ती ग्रंथ या रसग्रंथों के प्रमेह अधिकार के कोई भी कल्प, raised BSL में अपेक्षित परिणाम नही देते है. 

 उत्पादकारणस्य अर्थात ब्लड शुगर अर्थात रसरक्तगतक्लेद का शोषण करने की क्षमता जिसमे है, ऐसे औषध द्रव्यों का निर्धारण करना आवश्यक है और यही वचाहरिद्रादि गण मे अत्यंत सक्षम रूप मे उपलब्ध है. 

वचाहरिद्रादि गणके द्रव्य का गुण कर्म आप सभी को ज्ञात है या किसी भी निघंटु से / द्रव्य गुण के पुस्तक से आप उसे देख सकते है. 

वचाहरिद्रादि गणके द्रव्य प्राय कटुतिक्त उष्ण इस प्रकार के, कुछ द्रव्य शीत वीर्य के, कुछ द्रव्य थोडे मृदु भी ... 

तो वचा शुंठी मुस्ता हरिद्रा ऐसे कंदात्मक उग्रवीर्य द्रव्य के साथ साथ, अन्यद्रव्यों का इस गण मे उपस्थित होना, इस गण को एक संतुलित औषध समूह के रूप मे प्रस्थापित करता है. 

 वचाहरिद्रादि गण की फलश्रुती मे ... मेद, कफ, आढ्यवात = मेदसावृत् वात = अर्थात स्थौल्य, अतिसार, आम तथा स्तन्यदोष अर्थात रस से रक्त तक जाने वाले सारे भाव पदार्थ = अर्थात यह पृथ्वी जल द्रव गुरु स्निग्ध इनके वृद्धी की स्थिती मे काम करता है. 

इसी कारण से वचाहरिद्रादि यह संतर्पणजन्य रोग पर सर्वार्थसिद्धी साधक औषध के रूप मे सर्वोत्तम है. 

 संतर्पणजन्यरोग मे यह कार्यकारी होता है, इस प्राथमिक निर्धारण के साथ इस संकल्प के साथ इस आकलन के साथ, सर्वप्रथम रसरक्तगतक्लेद अर्थात ब्लड शुगर पर इसका प्रयोग किया. 

 वचाहरिद्रादि गण की सप्तधा बलाधान टॅबलेट सर्वाधिक मात्रा मे अर्थात 6 टॅबलेट दिन में चार बार या सामुद्ग या तीन बार = भोजनोत्तर = व्यानउदान ऐसे देने से ...
360 के स्तर पर जो ब्लड शुगर हुआ करती थी , वो 15 दिन मे / तीस दिन मे 100 140 इस सामान्य fasting & PP स्तर पर आ गयी. अभी तो कई पेशंट ऐसे है कि, जिनको केवल वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट 6 संख्या मे दिन मे तीन या चार बार देने से, 90 से 120 दिनो मे Hba1c 11 के स्तर पर था , वह 5.4 इस आदर्श एचबीएवनसी की स्थिती मे आकर पहुंच गया , 

जब की इन 90/120 दिनो में उनकी ओएचए मॉडर्न मेडिसिन को *पादेनापथ्यमभ्यस्तं पादपादेन वा त्यजेत्।* इस विधी से क्रमशः टेपर आउट करके बंद किया गया. 

हर 14 दिन मे एक दिन मॉडर्न मेडिसिन बंद करते करते, 14×7=98 दिनो मे कम करते करते, बंद किया. 

तत्पश्चात् वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट प्रतिसप्ताह एक एक दिन बंद करते हुए 7×7=49 दिनों में पूर्णतः बंद कर दी गयी. 

*उसके बाद भी* Hba1c 5.4 ही रहता है

इसका अर्थ यह है कि शरीर मे जो निसर्ग दत्त जन्मजात इन नेट इन बिल्ट शुगर नियंत्रण व्यवस्थापन यंत्रणा है, उसका क्षमता का "पुनःप्रस्थापन" हो गया है. 

अर्थात शरीरने शुगर नियंत्रण व्यवस्थापन का जो उसका नैसर्गिक जन्म से लेकर डायबेटिस के डायग्नोसिस के दिन तक सुचारु रूप से चल रहा कार्य था,  वो फिरसे करने मे सक्षमता पुन्हा प्राप्त किया है. 

 अर्थात इसके साथ, सुसंगत आहार और व्यायाम इनका भी साथ आवश्यक होता है 

 औषध अन्न विहाराणाम् उपयोगं सुखावहम् 

 और ब्लड शुगर तो कोई वैद्यसंवेद्य लक्षणोंसे या नाडी नेत्र इत्यादी अष्टविध परीक्षा से जानने का भाव पदार्थ नही है, इस कारण से औषध आहार व्यायाम के साथ हि हर 15 दिन के बाद या हर महिने मे बीएसएल फास्टिंग पीपी का लॅब में टेसट रिपोर्ट कराते रहना और वो नॉर्मल है यह कन्फर्म करके, वचाहरिद्रादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट 6 संख्या मे दिन मे 3 या 4बार कंटिन्यू करना ...

 इस विधी से यह यश निश्चित रूप से प्राप्त हो सकता है ... 

अब जब एक बार यह सिद्ध हो गया, स्वीकार हो गया, मान्य हो गया, अनुभूत हो गया कि, 

जिन पेशंट का बीएसएल फास्टिंग पीपी यह मॉडर्न मेडिसिन की ओएचके सेवन के बाद या 

आयुर्वेद के तथाकथित प्रमेहघ्न औषधि जैसे कि, चंद्रप्रभा वसंत कुसुमाकर वंगभस्म आदिके सेवन के बाद भी टस से मस नही होती थी, 

वह केवल वचाहरिद्रादि 6 टॅबलेट्स दिन में 3/4 बार, ऐसा उपचार करने से BSL 100 140 इस स्तर पर बनी रहनी लगी. 

पहले केवल 15 या 30 दिनो मे हि, जो फास्टिंग पीपी 360 के स्तर पर होती है, 
वो 100 140 के स्तर पर आ जाती है. 

अब इस प्रकार से, *बीएसएल = हायपरग्लायसेमिया = रसरक्तगतक्लेद या पृथ्वीजलक्लेद द्रव गुरु स्निग्ध = संतर्पण* समझा गया; 

तो ऐसे संतर्पण जन्य पृथ्वी जलप्रधान द्रवस्निग्ध गुरु गुण प्रधान क्लेद प्रधान स्थितियां, जिनभी अन्य रोगों में है, 

वहा पर भी वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान का एकेरी अर्थात सिंगल ड्रग के रूप मे प्रयोग करके, उन्हे भी लाभ प्राप्त होता है, यह अनुभव म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda को और उनके सन्मित्र तथा स्टुडन्ट को आने लगा. 

जैसे लेखके प्रारंभ लिखा है वैसे डायबिटीस टाईप टू के साथ साथ हि,

पीसीओएस हायपरथायरॉइड पीनस स्रावी त्वचारोग नॉन हीलिंग रिकरंट डायबिटीक वूंड; 
ऐसे अन्याय पृथ्वीजलक्लेद स्निग्ध गुरु संतर्पण जन्य रोग या अवस्थाओं में यह वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट्स लाभकारी है, ऐसा निरंतर अनुभव, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda तथा उनके सन्मित्र वैद्य और स्टुडेंटट ने बहुशः और प्रायः प्राप्त किया है ... 

 जिस शुगर ग्लुकोज कार्बोहायड्रेट को, रुग्णका शरीर, उपयोग मे लाने की क्षमता नही है, उस शुगर को कन्झ्युम करने मे, ओएचए oral hypoglycemic agents अर्थात मॉडर्न मेडिसिन की डायबेटीस के टॅबलेट्स (उदाहरण के लिये मेटफॉर्मिन),सहाय्यता करते है. 

 देखा जाये, तो यह शुगर अर्थात क्लेद या पृथ्वी जल प्रधान भाव पदार्थ का पचन करना शरीरस्थ अग्नी को संभव नही हो रहा, 

तो ऐसी स्थिती मे ओएचए की तरह हि, हम भी अगर "पाचनद्रव्य" देंगे, अग्नि की दुर्बलता के स्थिती मे, किसी अन्य औषधी द्रव्य से, इस शुगर को रूपांतरित करेंगे, पाचित करेंगे , 

तो औषध पर होने वाली डिपेंडन्सी अवलंबित्व कभी भी समाप्त नही होगा और रोग औषध के सेवन पर निर्भर रहेगा याप्य रहेगा. 

इसी कारण से, इसकी मूल / मुख्य चिकित्सा ये होनी चाहिये की, जो अग्नी शुगर को रूपांतरित पाचित करने की स्थिति मे नही है, उसकी क्षमता बढायी जाये अर्थात *'दीपन"* 🔥 किया जाये ... 

और ध्यान में रहे , की दीपन यह कर्म वाग्भट द्वारा शमन मे बताया गया है, चरक मे शमन मे दीपन कर्म का उल्लेख नही है, तो यह वाग्भट की देन है , कि दीपन यह मूलचिकित्सा है, पाचन यह तात्कालिक प्रासंगिक चिकित्सा होनी चाहिये

अगर हम पाचन की चिकित्सा को हि प्रमुख मानकर बैठेंगे, तो अग्नी का जो मूल सामर्थ्य है, मूल क्षमता है, वो कभी भी प्राकृत स्थिती तक आ नही पायेगी , पुनः प्रस्थापित नही हो पायेगी. 

इस कारण से पाचन की बजाये, दीपन चिकित्सा यह महत्वपूर्ण है. उसके लिये तिक्त कटु उष्ण ऐसे औषध की आवश्यकता है, जो वचा हरिद्रा शुंठी और ज्वरमे कार्मुक होने के कारण मुस्ता ... यह कंद द्रव्य जो स्वयं उग्र वीर्य है तीक्ष्ण है, शीघ्र कार्यकारी है ... उनका उपयोग होता है

उग्रवीर्य तीक्ष्ण शीघ्र कार्यकारित्व इनसे शरीर धातु की सुरक्षा बनी रहे (to protect, to safeguard from), इसलिये इस गण मे इन चार अत्यंत वीर्यवान द्रव्यों के साथ हि, यष्टी पृश्निपर्णी इंद्रजव ऐसे द्रव्यों का भी समावेश है, इसलिये वचाहरिद्रादि यह एक वीर्यवान् और साथ ही अत्यंत संतुलित औषध समूह योग सिद्ध होता है.

वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट के उपचार का उद्देश्य यह नहीं है कि, जैसे ओएचए मॉडर्न मेडिसिन पूरे जीवन भर लेते रहना अनिवार्य होता है, वैसे ही OHA modern medicine की जगह, हमारा आयुर्वेद का कोई अन्य औषधी द्रव्य जीवनभर लेना पडे, तो उसमे कुछ विशेष श्रेय प्राप्ती हुई, ऐसा नही है. 

उलटा मॉडर्न मेडिसिन का टॅबलेट बहुत ही सस्ता अफोर्डेबल है, आयुर्वेद औषध के cost की तुलना में. 

तो उद्देश यह नही है कि, हम मॉडर्न मेडिसिन की टॅबलेट के, रिप्लेसमेंट के रूप मे, पर्याय के रूप मे कोई आयुर्वेदिक की टॅबलेट दे. 

 उद्देश यह है कि मॉडन मेडिसिन की OHA टॅबलेट लेने की आवश्यकता ना पडे और ना हि उसके स्थान पर पर्याय रूप मे/ रिप्लेसमेंट के रूप मे/ सब्स्टिट्यूट के रूप मे, जीवनभर कोई आयुर्वेद की टॅबलेट लेने की परिस्थिती बन जाये. 

 मॉडन मेडिसिन की टॅबलेट भी लेना ना पडे जिंदगी भर शुगर नियंत्रण के लिए और आयुर्वेद की औषधे भी जिंदगीभर लेने की आवश्यकता हि न हो. 

 डायबिटीस यह डायग्नोसिस होने के पहले, जो उसकी नैसर्गिक सामान्य जन्मजात निसर्गदत्त शुगर नियंत्रण प्राकृत रूप से करने की स्थिति थी, ऐसी स्थिति तक फिर से लेके आना है. 

 चिकित्सा क्या है? यावत् अग्नेः समीभावात् (च वि 6)... 

केवल लक्षण उपशम या दोष साम्य या धातु बलका पुनः स्थापन यह चिकित्सा का उद्देश नही है, 
अपितु अग्नी की जो क्षमता है , कि शरीर मे आने वाले भाव पदार्थों का , अग्नि अपने स्वयं के बल पर / क्षमता से, पचन करके , उसको शरीरस्थ भावों में, सार-किट्ट रूपमे परिणत करके, शरीर का आरोग्य दोष साम्य धातु बल इसकी संतती सातत्य निरंतरता बनाये रखे. 

 डायबिटीस में प्रायः बलमांसक्षय अर्थात प्रोटीन लॉस या मसल वेस्टिंग होने के कारण, वजन घटता चला जाता है हातपांव कृश होते है, किंतु टमी तोंद पेट इस पर का फॅट बना रहता है. तो इस प्रकार का एक विचित्र स्थौल्य चित्र पेशंट मे दिखाई देता है. 

वचाहरिद्रादि गण के प्रयोग से इस प्रकार का कोई भी मसल वेस्टींग प्रोटीन लॉस बलमांसक्षय अनैसर्गिक भारक्षय नही होता है. अपितु जो पेट तोंद बेली टमी यहा पर मेदस् संचय है वो क्रमशः कम होता चला जाता है

 फास्टिंग पीपी नॉर्मल आना यह डायबेटीसचे मुक्त होने का लक्षण नही है, अपितु एचबीएवनसी 5.4 स्तर पर आना और मॉडर्न मेडिसिन और आयुर्वेद दोनो औषध बंद करने के बाद भी, जब हम आगे एक साल तक, हर तीन महिने मे Hba1c को चेक करेंगे तब भी, अगर Hba1c 5.4 बना रहे, तो यह डायबेटीस मुक्त होने का निश्चित रूप से क्रायटेरिया है. Insulin Fasting & C Peptide ये भी अगर नॉर्मल व्हॅल्यूज में रहते है तो, यह और भी अधिक निश्चित रूप से निर्धारित होता है की पेशंट डायबिटीस मुक्त स्थिती मे आ गया है. 

 मूलतः डायबेटीस शुगर का रोग नही है, शुगर जिसे उपयोग मे लाना संभव नही हो रहा है, उसको डायबेटीस यह रोग है

तो मात्र शुगर को कम करना (किसी भी औषध से) यह चिकित्सा का धोरण नही होना चाहिए. 

जिस दिन तक डायबेटीस का डायग्नोसिस नही हुआ है, उस दिन तक अगर आपने आहार द्वारा लिया हुआ ग्लुकोज शुगर कार्बोहायड्रेट; आपके शरीर की यंत्रणा लिव्हर पॅनक्रियाज मसल्स यह उपयोग मे लाने ने सक्षम है ... 

और अचानक डायबेटीस के डायग्नोसिस के दिन से, आप इन शरीरस्थ जन्मजात निसर्गदत्त innate in-built शुगर नियंत्रक संस्था को रिटायर्ड करके, निवृत्त करके, बाजू को करके, 

उसका काम किसी बाह्य औषध को सौप देते हो, तो शरीरस्थ शुगर नियंत्रण यंत्रणा यह और भी अक्षम होना स्वाभाविक है, जिसे हम डिस्यूज ॲट्रॉफी कहते है. 

तो शुगर को कम करने की औषधी देने के बजाय ...

शुगर को नियंत्रित करने वाली जो शरीरस्थ नैसर्गिक जन्मजात व्यवस्था यंत्रणा है, उसकी क्षमता को पुनः प्रस्थापित करने के लिए औषध देना, चिकित्सा करना, आहार व्यायाम का नियोजन करना ; यह उचित चिकित्सा धोरण है

मेटफार्मिन जैसा मॉडर्न मेडिसिन दे दो या चंद्रप्रभा वसंत कुसुमाकर वंग त्रिवंग जैसा रसकल्प दे दो या चरकोक्त कोई प्रमेह का क्वाथ दे दो या वाग्भट (उत्तर 40 / 48 to 58) का प्रमेह अग्रद्रव्य धात्रीनिशा दे दो, शुगर कम होती भी है, तो ये शुगर कम करने वाले तात्कालिक औषध जीवनभर लेने पडते है. अगर एक दिन भी नही लिया तो, शुगर फिर से बढती है

क्योंकि शुगर का कम होना, इस औषध सेवन पर निर्भर है. 

 इसी कारण से 
अगर शुगर को कम करने वाले औषध लेने की बजाय,

शुगर को नियंत्रित व्यवस्थापित करने वाली जो निसर्ग दत्त जन्मजात व्यवस्था लिव्हर पॅनक्रियाज मसल्स के रूप मे शरीर मे है, 

उनकी क्षमता पुन प्रस्थापित करना, 

यही उचित चिकित्सा है, 

जो जीवनभर लेने की आवश्यकता न होकर, 

जब तक शुगर नियंत्रण यंत्रणा शरीरस्थ व्यवस्था की अपनी क्षमता जो जन्मजात निसर्ग दत्त है, 

वह पुन्हा प्रस्थापित नही होती है हि, 

तब तक हि ... ऐसी औषधियां देना आवश्यक रहेगा.

 उसके बाद जब यह शुगर नियंत्रण करने वाली शरीरस्थ व्यवस्था यंत्रणा अपनी क्षमता को पुनः प्राप्त करेगी, 

जो हमे इन्शुलिन फास्टिंग सी पेप्टाईड Hba1c इनके नॉर्मल व्हॅल्यू बने रहने से 

तथा बलमांस क्षय मसल वेस्टींग प्रोटीन लॉस नही हो रहा है, इन लक्षणोंसे ज्ञात होगा. 

अर्थात इस चिकित्सा धोरण से, जीवनभर औषध प्रति दिन लेते रहने की आवश्यकता नही रहेगी. 

जैसे की कभी फ्रॅक्चर होकर कोई अस्थिभग्न हो जाता है, 
तो उसके बाद कुछ दिन तक हम बिना किसी मूव्हमेंट के स्थिर रहते है, 
उसके बाद प्लास्टर निकाल क्रचेस या व्हील चेअर की सहायता से इधर उधर मूव्हमेंट करते है, 
उसके बाद सावधानी के साथ, किसी व्यक्ति का या दीवार का सहारा लेते हुए , 
एक एक कदम चलने का प्रयास करते है 
और कुछ दिनों के बाद हम नैसर्गिक रूप मे चल सकते है, दौड सकते है, जम्पिंग कर सकते 

अर्थात अस्थिभग्न से पुनः चलना कूदना ऐसी सामान्य क्षमता तक आने के लिए, 
कुछ कालावधी देना पडता है ... 

किंतु ऐसे भी नही होता है, कि एक बार अस्थिभग्न हो गया, तो जिंदगी भर प्लास्टर या क्रचेस या व्हीलचेअर पर हि बने रहो! 

यही बात है, डायबिटीस टाईप टू को भी लागू होती है कि, एक बार डायबिटीस टाईप टू डायग्नोस हो गया तो,

 जीवनभर औषध लेने की आवश्यकता न होकर, 

जब तक की डायबेटीस के डायग्नोसिस के पहले के काल तक, 

जन्म से लेकर उस दिन तक, 

शरीर मे आने वाले शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज का नियंत्रण व्यवस्थापन करने वाली हमारे शरीर की जन्मजात निसर्गदत्त व्यवस्था सक्षम थी, 

उसी क्षमता तक, उसको, 

डायबिटीस के डायग्नोसिस के बाद , 

पुन्हा लेकर आना है ... 

न कि जिंदगीभर शुगर कम करने के औषध देते रहने है. 

जैसे भग्न के बाद क्रमशः हम प्लास्टर क्रचेस व्हीलचेअर दिवार का सहारा लेकर या व्यक्ति का सहारा लेकर चलना सावधानी से एक एक कदम धीरे धीरे चलना बाद में सामान्य गति से चलना और बाद मे running jogging jumping तक पुन्हा क्षमता प्राप्त करना, ऐसे करते है ... 
उसके लिए जो बीच का समय लगता है, उतना हि समय / उसी प्रकार का कालावधी, डायबिटीस डायग्नोसिस के दिन के बाद, पुनः शरीरस्थ जन्मजात निसर्गदत्त शुगर नियंत्रण व्यवस्था को , उसकी क्षमता पुनः प्राप्त करने तक, चिकित्सा के लिए देने चाहिये. 

औषधी योजना के साथ ही आहार और व्यायाम इनका भी सातत्य नियोजन पूर्वक रूप से करना आवश्यक होता है. जैसे की कोई एक दीवार अगर हमे बांधनी है, तो ईटके उपर सिमेंट, सिमेंट के ऊपर ईट, ऐसे रखते हम बांधते है,  लेकिन एक दिन मे अगर दीवार बांधकर पूरी नही हुई, तो उसे वैसे ही आधा अधूरा गीला ऐसे स्थिति में छोडकर लेबर लोक चले जाते है. दूसरे दिन आते है और बाकी की दीवार बांधते है. लेकिन अगर आधी दिवार बांधी हुई है उसी दिन या उसी शाम, किसी छोटेसे भी लडके ने आकर उसको धक्का दिया तो गीली दिवार टूटकर नीचे गिर सकती है. किंतु अगर दीवार बांधकर पूरी हो गई, उस पर पानी मारा गया,  वो दृढ हो गई ... सात-आठ दिन बीत गये, तो उसके बाद एक क्या चार बडे प्रौढ व्यक्तिओने भी दीवार को कितने भी धक्के मारे,  तो भी दीवार टूटती नही. वह मजबूत की मजबूत बनी रहती है, सालो साल तक!!!

 उसी प्रकार से जब तक की शुगर नियंत्रण क्षमता को हम पूर्वस्थिती तक, जन्मजात निसर्गदत्त क्षमता की स्थिति तक लेकर नही आते है, Hba1c 5.4 तक पेशंट को ठीक नही करते है, तब तक उसने आहार और व्यायाम का बताया हुआ नियोजन पालन करना आवश्यक होता हि है.

इस संकल्पना के साथ वचाहरिद्रादि का प्रयोग सुचारु रूप से उपयोगी लाभदायक परिणामकारक सिद्ध होता है. 

कालावधी कितना लगेगा, 🤔⁉️

यह पेशंट का वय, उसकी Hba1c, उसकी पथ्य आहार लेने की और व्यायाम करने की धृती संयम सातत्य 

तथा हमारे पास चिकित्सा के लिये आने के पहले तक, कितना डायबिटीस का पुराणत्व है chronicity है ... इस पर यह कालावधी निर्भर करेगा. 

 9 तक एसबीएवनसी Hba1c हो तो , 120 दिनो मे 

और उसके आगे डबल फिगर मे दस (10) से उपर Hba1c हो तो, उससे भी अधिक कालावधी, इसके लिए आवश्यक होता है. 

तो इस दृष्टी से डायबेटीस को जीवनभर औषध लेने की आवश्यकता वाला रोग मानने की बजाये, 

कुछ निश्चित कालावधी तक की चिकित्सा से पुनः नॉन डायबिटीक नॉर्मल 5.4 Hba1c निश्चित रूप से संभव हो सकता है. 

इन्सुलिन डिपेंडंट डायबिटीस टाईप टू में इन्सुलिन टेपर करने के लिए और थोडा समय आवश्यक होता है. 

और जैसे की पहले स्वीकार किया कि टाईप वन डायबिटीस मे यह शरीरस्थ शुगर नियंत्रण यंत्रणा व्यवस्था जो जन्मजात निसर्ग दत्त उपलब्ध है, उसकी क्षमता पूर्णतः नष्ट होने के कारण, प्रायः ये पेशंट असाध्य होते है 
या उन्हे मॉडर्न मेडिसिन के द्वारा निर्मित इन्सुलिन इंजेक्शन पर निर्भर रहना पडता है. 

फिर भी अगर GAD 65, Insulin फास्टिंग, C Peptide ठीक रहते है तो, टाइप वन डायबिटीस मे भी, 100 से 1000 दिनो में, कुछ हद तक आशादायक परिणाम प्राप्त होते है, ऐसा कुछ रुग्णों में अनुभव प्राप्त है.  

*वचाहरिद्रादि गण : संतर्पणजन्य रोगों का सर्वार्थसिद्धिसाधक औषध* इस शीर्षक से, यह लेख लिख रहे है. 

 वचा जिस योग के आरंभ मे आती है, ऐसे कई अन्य भी वचादि नाम के योग संहिताग्रंथ मे / टीकाओं मे उपलब्ध है, जैसे कि स्वेदन के अध्याय सूत्रस्थान 17 मे वचाद्यैश्च ऐसा शब्द है, जो उसके पहले आये हुए वचाकिण्वशताह्वादेवदारुभिः योग का बोधक है. 

 स्पष्ट रूप से वचादि का तथा हरिद्रादि गण का उल्लेख कुछ संदर्भों में उपलब्ध होता है, उसके साथ ही षड्धरण योग उल्लेख है, जैसे उरूस्तंभ (= आढ्यवात) तथा आमाशयगत वात तथा स्तन्यदोष चिकित्सा ...

किंतु यह लेख ऐसे पूर्वज्ञात संदर्भों के लिये न होकर, जिसका विगत 6 साल मे पचास किलो से भी अधिक (50+ kg) अर्थात चार लाख+ (400000+) टॅबलेट का उपयोग करने के बाद, जो अनुभव संग्रहित हुए है, उस संदर्भ मे है.

वचादि गण में जो द्रव्य है, उनका योग आपको चरक संहिता के ग्रहणी चिकित्सा मे आम पाचन के लिए प्राप्त होता है ... 
नागरातिविषामुस्तक्वाथः स्यादामपाचनः । 
मुस्तान्तकल्कः पथ्या वा नागरं चोष्णवारिणा ॥ *देवदारुवचामुस्तनागरातिविषाभयाः
👆🏼 
इसमे से अंतिम पंक्ती एक्झॅक्टली वचादि गण हि है. 

 वचादि गण और हरिद्रादि गण इनका अलग अलग प्रयोग मैंने करके नही देखा है. 

वचादि और हरिद्रादि, इन दो गणों में जितने द्रव्य है, उन सभी का एक हि योग बनाकर, उसकी सप्तधा बलाधान टॅबलेट बनाकर, उसके प्रयोग के ये अनुभव है. 

 वचादि गण में अतिविषा का उल्लेख होता है. किंतु अतिविषा अत्यंत काॅस्टली होने के कारण, उसको निकाल कर, वहा पर मुस्ता द्विगुणमात्रा मे लिया गया है, क्योंकि अतिविषा यह मुस्ता का प्रतिनिधी द्रव्य है. 

 तथा, वाग्भट सूत्र स्थान 15, गणों के अध्याय के अंत मे, वाग्भट ने कहा है कि, 

... त्वलाभतः , युञ्ज्यात्तद्विधम् अन्यच्च, द्रव्यं जह्याद् अयौगिकम् 

अर्थात अगर कोई द्रव्य प्राप्त न हो सके (किसी कारण से) और जो अयोगकारी है, उसका त्याग करे. 

गण में उल्लेखित अगर सभी द्रव्य उपलब्ध नही है, तो जितने उपलब्ध है (यथालाभम् ), उतने से भी काम चल सकता है, ऐसे सुश्रुत मे कहा है. 

समस्तं वर्गमर्द्धं वा यथालाभम् अथापि वा। 
प्रयुञ्जीत भिषक् प्राज्ञो ...

तो इस कारण से मुस्ता का जो प्रतिनिधी द्रव्य अतिविषा है, वह काॅस्टली होने के कारण, गण मे उल्लेखित होकर भी, हम *वचाहरिद्रादि गण की सप्तधा बलाधान टॅबलेट* बनाते समय, अतिविषा का समावेश न करते हुए, मुस्ता को उसके स्थान पर लेते है. 

किंतु मुस्ता पहले हि इस गण मे उल्लेखित है, इसलिये अन्यद्रव्य की तुलना मे मुस्ता का प्रमाण द्विगुण हो जाता है.

अगर इन द्रव्यों का अवलोकन करे, तो इसमे वचा हरिद्रा मुस्ता और शुंठी ऐसे चार कंद द्रव्य (Rhizome) है. सुश्रुत कल्पस्थान 2 में, जहां स्थावर विष का वर्णन है, वहां पर कंद विष को उग्रवीर्य सर्वाधिक तीक्ष्ण कहा गया है, अर्थात कंद द्रव्य यह तीक्ष्ण एवम् उग्र वीर्य होते है अर्थात उनकी कार्मुकता शीघ्र और अतिपरिणामकारक होती है. 

 वचा यह प्रमाथि द्रव्य है अर्थात सूक्ष्म स्रोतस्स्थित दोष संचय को अपने वीर्य से निष्कासित करने का सामर्थ्य उसमे है ... 

तथा वचा संज्ञा स्थापन गण मे है , 

सद्य प्रज्ञाकरी इस नाम से विख्यात है, 

एवं च वचा बालकों के लिए नित्य धारणीय द्रव्य मे उल्लेखित है, अष्टांगहृदय उत्तर तंत्र एक में ... धारयेत् सततं वचाम् 

 मुस्ता ज्वर के अग्रद्रव्य मे एक है और ज्वर तो सभी रोगों का पति या सभी रोग ज्वर हि है या ज्वर सभी रोगों का प्रतिनिधित्व करता है, ज्वर रोग का पर्याय नाम है, इस कारण से मुस्ता सभी रोगों पर कार्यकारी है

वचा शुंठी और हरिद्रा ये उष्ण वीर्य है , किंतु मुस्ता शीत वीर्य होकर भी आमपाचन है ज्वरनाशक है. यह उसकी विशेषता है. 

निकट भविष्य में, मुस्तादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट का लेख लिखते समय मुस्ता के गुणकर्मों का और विस्तृत प्रकाशन करेंगे. 

 शुंठी तो विश्वभेषज है. अर्थात युनिव्हर्सल मेडिसिन है. 

कटु रस स्कंध द्रव्यों में शुंठी सर्वश्रेष्ठ है. 

आम पाचन के लिए तथा स्नेहाजीर्ण के लिए शुंठी का सर्वाधिक बार उल्लेख संहिता में है. 

Lipids वृद्धि में यह परिणामकारक है. स्नेहाजीर्णनाशक योग मे शुंठी धान्यक और जीरक ये तीन कंटेंट है, इस योग का Lipids वृद्धि में किस प्रकार से परिणामकारक लाभ होता है, इसके बारे मे निकट भविष्य मे लिखेंगे 

 हरिद्रा यह रजन्यादि चूर्ण का प्रथमद्रव्य है. रजन्यादि चूर्ण अष्टांग हृदय उत्तर तंत्र 2 में, बालकों के सर्व रोग हरण के लिए तथा ग्रहणीदीपन मूढवातानुलोमन एवं बलवर्णकारी है. रजन्यादि चूर्ण की सप्तधा बलाधान टॅबलेट म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda बनाते है, उस पर लेख लिखते समय इस बारे मे, और सविस्तर वर्णन किया जायेगा

 इन चार द्रव्यों के साथ हि इस गण में देवदार अभया दारुहरिद्रा यष्टी पृष्णिपर्णी और कुटज या इंद्रजव इनका समावेश है. 

ये द्रव्य प्रथम चार कंद द्रव्य की तीक्ष्णता या उग्रता का दुष्परिणाम शरीर धातू पर होने से बचाते है 

वैसे भी देवदार यष्टी अभया इंद्रजव इनका अपना भी स्वयं का कर्तृत्व मूल्यवान है हि. 

इन पर भी किसी गण या योग के अनुषंग से सविस्तर लिखेंगे.

अभी वचाहरिद्रादि गण, यह कोई मेरा एकाधिकार या मेरा अपना संशोधन /डिस्कवरी /रिसर्च /पेटंट ऐसा कुछ भी नही है. किंतु वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट का महाराष्ट्र एफडीआय में म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda ने रजिस्ट्रेशन विधिवत रूप से करके रखा है. जिन्हे इस प्रकार की सप्तधा बलाधान टॅबलेट का अनुभव लेना हो, तो वे स्वयं इस प्रकार का प्रयोग करके देखे. किंतु इसके चूर्ण के रिझल्ट नही आते है. आप सप्तधा बलाधान की टॅबलेट बनाकर हि इसका प्रयोग करे. जिन्हे प्रयोग के लिए / अभ्यास की दृष्टि से / शास्त्र अनुभव के रूप मे, इस प्रकार की टॅबलेट का उपयोग करके देखना है, वे हमे संपर्क कर सकते है या अपने यहां स्थानिक स्तर पर स्वयं सप्तधा बलाधान टॅबलेट का निर्माण करके उसका उपयोग करके इस अनुभव को स्वयं ले सकते है.

 डिस्क्लेमर/Disclaimer : उपरोक्त कल्प क्वाथ योग टॅब्लेट का परिणाम; उसमे सम्मिलित द्रव्यों की क्वालिटी, दी हुई मात्रा, कालावधी, औषधिकाल, ऋतु, पेशंट की अवस्था इत्यादि अनेक घटकों पर निर्भर करता है. डिस्क्लेमर Disclaimer एकतर व्यायाम आहार पाळले नाही तरी, औषधाने इष्ट परिणाम येत नाही आणि व्यायाम आहार पाळले तरीही , औषधाने इष्ट परिणाम येत नाही अशाही केसेस आहेत माझ्याकडे ट्रीटमेंट घेणाऱ्यांमध्ये असे दोन्ही प्रकारचे अनुभव आलेले काही पेशंट, MBBS MD Doctor, BAMS विद्यार्थी, वैद्य किंवा त्यांचे नातेवाईक आहेत . मी करतो ती Treatment केवळ एक शक्यता / प्रयत्न / possibility आहे फुलप्रूफ नाही 
Disclaimer/ डिस्क्लेमर/ अस्वीकरण : एक तो व्यायाम तथा आहार के किसी भी नियम का पालन न किया जाए, तो औषध वांछित परिणाम नही देता है और भले ही व्यायाम तथा आहार के नियम का पालन किया जाए, तो फिर भी, कुछ एक पेशंट में औषध वांछित परिणाम नहीं देता है,  ऐसे भी पेशंट्स/केसेस है. उपचार प्राप्त करने वालों के साथ मुझे दोनों प्रकार के अनुभव प्राप्त हुए हैं.  कुछ पेशंट एमबीबीएस एमडी डॉक्टर, बीएएमएस छात्र, चिकित्सक या उनके रिश्तेदार हैं। मैं जो उपचार करता हूं , वह केवल एक संभावना/प्रयास/संभावना है और फुलप्रूफ नहीं है। 

 डिस्क्लेमर Disclaimer ✅ अपुनर्भव (non recurrence) हे आहार विहार द्वारेच व्हावं. औषधाची डिपेन्डन्सी जावी म्हणून तर हा सगळा उद्योग !! अन्यथा स्वस्त मस्त OHA काय वाईट आहे? अपुनर्भव non recurrence यह आहार विहार द्वारा हि होना आवश्यकहै. औषध पर जो डिपेन्डन्सी है, वह समाप्त हो , यही तो इस उपक्रम का उद्देश है !! अन्यथा स्वस्त मस्त OHA में क्या बुरा है ? Though वचाहरिद्रादि गण 7 बलाधान tablets is main potent medicine, though most of patients yield expected results, though many other Vaidyas also get it from us & they do achieve astonishing results … still I DO NOT intend to endorse any Drug & Disease policy

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