An innovative, Unique, Pioneer, Never before, wonderful, outstanding contribution to Ayurveda Fraternity by MhetreAyurveda
वचाजलददेवाह्वनागरातिविषाभयाः।
हरिद्राद्वययष्ट्याह्वकलशीकुटजोद्भवाः॥
वचाहरिद्रादिगणावामातीसारनाशनौ।
मेदःकफाढ्यपवनस्तन्यदोषनिबर्हणौ॥
वाग्भटोक्त इस गण द्वय के संबंध में ये लेख है.
केवल वचाहरिद्रादि गण का हि प्रयोग करके, डायबिटीस टाईप टू पेशंट मे, Hba1c को 9,10,11 से *5.4 तक लाना, 90 से 120 दिनो मे संभव होता है*,
ऐसा केवल म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda का हि नही, अपितु यह योग प्रयोग मे लाने वाले अनेक सन्मित्र वैद्यों का और स्टुडंट का अनुभव है.
साथ हि पीसीओएस, स्थौल्य/obesity, हायपोथायरॉईड, कोलेलिथिॲसिस, सायनुसायटिस adenoids, श्वास, शीतपित्त, कंडू, adenomyosis, शोथ, श्वेतस्राव (white discharge luecorrhoea), tonsillitis, कफज कास, स्तनग्रंथि ...
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ऐसे कई अन्यान्य संतर्पणजन्य पृथ्वी जल प्रधान क्लेदप्रधान गुरु स्निग्ध द्रव स्थूल गुण वृद्धि जन्य रोगों / अवस्थाओं मे ;
वचाहरिद्रादि का लाभदायक परिणाम प्राप्त होता है.
मेरे तो एक स्टुडंट ने यहां तक लिखके भेजा है , कि मेरी 70% प्रॅक्टिस वचाहरिद्रादि गण से हि चलती है.
औषध + अन्न + विहाराणाम् उपयोगं सुखावहम्॥
औषध के साथ ही, योग्य आहार नियोजन और नियमित व्यायाम इनकी भी चिकित्सा साफल्य के लिए अत्यंत आवश्यकता होती है.
यह लेख किसी भी ड्रग अँड डिसीज इस प्रकार की विधा की पुष्टी नहीं करता है.
इसीलिए म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा प्रसृत सप्तधा बलाधान टॅबलेट का किसी भी व्याधी मे आत्मविश्वासपूर्वक प्रयोग करते समय, उस व्याधी के लिए आवश्यक आहार नियोजन (=पथ्यपालन + अपथ्य त्याग) तथा उस व्याधी के लिए आवश्यक व्यायाम + विहार + जीवनशैली में बदलाव इनका भी चिकित्सा के साफल्य मे उपयोग निश्चित रूप से रहता है.
केवल म्हेत्रे आयुर्वेद MhetreAyurveda द्वारा प्रसृत सप्तधा बलाधान टॅबलेट देने से ही व्याधी मे उपशम या चिकित्सामे यश प्राप्त होगा ऐसे नही है. उसके लिये उस व्याधी के अनुसार उचित आहार व विहार का मार्गदर्शन, पेशंट को करना, यह वैद्य के लिए आवश्यक है.
वचादि + हरिद्रादि अर्थात् वचाहरिद्रादि गण का सफल प्रयोग सर्वप्रथम डायबिटीस टाईप टू (इन्सुलिन डिपेंडंट तथा नॉन इन्शुलिन डिपेंडंट) दोनो स्थितियों में प्राप्त हुआ, किंतु टाइप वन में इसका परिणाम उतना उत्साहवर्धक नही होता है.
औषधान्नविहाराणाम् उपयोगं सुखावहम्॥
औषध अन्न विहारा णाम् उपयोगं सरिपोर्टम्॥
औषध अन्न विहार & रिपोर्ट इन चारों के साथ ही अगर ट्रीटमेंट करेंगे तो ही अपेक्षित परिणाम प्राप्त होते है ...
औषध
वचाहरिद्रादि 6 टॅबलेट दिन मे 3 बार ,
यदि एच बी ए वन सी Hba1c 9 तक हो तो!
वचाहरिद्रादि 6 टॅबलेट दिन मे 4 बार अगर
एचबीएवनसी HBA1C 10 or 10+ हो
अन्न
नाश्ता = ब्रेकफास्ट
सुबह के नाश्ते मे मूग मसूर चवळी उडीद इन से बने हुए चीला डोसा उसळ धिरडं पिठलं आप्पे (वडे अगर लिपिड्स नॉर्मल हो तो ... वडे छोटे छोटे तलना अपने अंगुली के पर्व के आकर के जैसे मूंग भजी होते है वैसे, बडे बडे बडे नही चलना मेदुवडा की तरह) अर्थात प्रोटीन =हर्बल प्रोटीन= नैसर्गिक रूप मे आहार के रूप मे सुबह नाष्टे मे देना.
चिकन अंडे मच्छी ऐसी प्रोटीन वाली चीजे नही देना.
पनीर मे भी प्रोटीन होता है, किंतु बाजार के पनीर मे कॉर्नफ्लोअर होता है और घर मे बने हुए पनीर मे भी दूध के फॅट = लिपिड तथा लॅक्टोज अर्थात शुगर होती है.
तो सर्वाधिक अच्छा है कि हप्ते मे पाच बार मूंग मसूर चवळी उडीद से बने हुए व्यंजन
एखाद बार नॉनव्हेज = बकरे का मटन देना किंतु वह भी बोललेस खिमा गर्दन मांडी यहा का न देते हुए सीनाचौप के रूप मे देना
और एकादबार पनीर घर मे बना हुआ देना ... ठीक रहेगा.
दोपहर के भोजन = lunch
इसमें पूरा भोजन अर्थात
मूंग की दाल
चावल (कुकर मे पकाया हुआ नही ... मांड निकाला हुआ = स्टार्च स्ट्रेन आउट किया हुआ, चावल के दानो को शुद्ध देसी घी पर भून के रखा हो तो जादा अच्छा)
रोटी के बदले फुलके और
लंबी वेलवर्गीय फल वाली सब्जी या अर्थात Gourds = पडवळ दुधी भोपळा घोसाळ गिलक दोडका गवार भेंडी वांग शिमला मिरची शेवगा कोहळा ... द सब्जी या व्हरायटी के लिए काफी है, ये भी मूंग डाल डालकर पकाये
सॅलड खाना ही है तो कम मात्र मे खाये मुली काकडी ये ठीक है
मुख्य रूप से भोजन के जो चार अंग है
अर्थात कार्बोहाइड्रेट फुलके और कुकर मे बिना पकाया हुआ चावल
प्रोटीन मूंग या उसकी की दाल मसूर चवळी इन से बनी सब्जी
फायबर के रूप मे लंबी वेलवर्गीय फल वाली सब्जी या अर्थात गॉर्ड्स और इन सबको यथा संभव कम से कम तेल या शुद्ध देसी घी का तडका आवश्यकता नुसार
रात का भोजन अर्थात डिनर
यह डायबिटीस टाईप टू तथा ओबेसिटी कोलेस्टेरॉल इनका मुख्य कारण है
डिनर इस द कल्प्रिट dinner is the culprit
डिनर ही सर्वदोषकारी है
प्रायः 30 35 40 उमर के पश्चात्, हमारे शरीर मे तारुण्य यौवन की तरह शीघ्र धातु वृद्धी नही होती है और इसी उमर मे हमारा लाइफस्टाईल , सभी का जीवनशैली इस प्रकार का होता है ... हम बेडसे उठते है, कमोड पर बैठते है, बाद मे डायनिंग चेअर पर नाश्ता करते है, फिर टू व्हीलर बस रिक्षा कार इसमे हमारे कार्यस्थळ ऑफिस बिजनेस दुकान स्कूल कॉलेज यहा जाते है, वहा पर भी चेअर बेंच इस पर बैठते है, फिर वापस किसे ना किसी वाहन की सीट पर बैठकर घर आते है, फिर सोपे पर बैठकर टीव्ही देखते है, फिर डायनिंग चेअर पर डिनर करते है और फिर बेड पर सो जाते है ... ऐसी जीवनशैली मे, अगर हम डिनर मे ... फिरसे दाल चावल सब्जी रोटी ऐसा "संपूर्ण आहार" लेंगे और उसके बाद छ से आठ घंटे तक, बिना कोई चलन वलन करे बिना मूव्हमेंट करे हालचाल किये बिना, बेड पर पडे रहेंगे ... तो डिनर के समय, शरीर मे जाने वाला कार्बोहाइड्रेट शुगर ग्लुकोज जल पृथ्वी क्लेद , इसका कोई भी उपयोग नही होता है ... और यह रोज रात्री के भोजन मे रोज के डिनर मे शरीर मे अनावश्यक रूप मे संचित होने वाला, जिसका कभी भी उपयोग नही होता है, ऐसा अन्न, शरीर मे आगे जाकर , दीर्घकाल संचित होकर ... शुगर कोलेस्टेरॉल ओबीसीटी डायबेटीस और अन्य कई तरह की संतर्पण जन्य विकारों का मुख्य निदान बनता है ... इसलिये डिनर इज द कल्प्रिट डिनर सर्व दोष प्रकोपक है
इसलिये डिनर मे ऐसा भोजन करे की ... जो उदर की पूर्ती करे क्षुधा का शमन करे ... किंतु शरीर मे नये रूप मे अनावश्यक रूप मे अधिक रूप मे एक्स्ट्रा रूप मे अनुपयोगी रूप मे फिरसे , शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज जल पृथ्वी क्लेद इनका संवर्धन डिपॉझिशन ना करे
इसलिये सबसे आदर्श है की डिनर मे लाजा = साळीच्या लाह्या खाये ... राईस फ्लेक्स कुरमुरे चिरमुरे मुरमुरे नही. लाजा= जो हम लक्ष्मी पूजन मे प्रसाद के रूप मे लक्ष्मी जी को चढाते है ये साळीच्या लाह्या जिसे कही जगह खील कहा जाता है. उपर इसका चित्र लेखके आदि और अंत मे दिया है. साळीच्या लाह्या उपलब्ध न हो तो, ज्वारी लाह्या बनाये, इसके कई व्हिडिओ युट्युब पर उपलब्ध है
मखाना न खाये पॉपकॉर्न ना खाये
ये लाजा अगर खाने मे अरुचिकारक लगे , तो उस को टेस्टी बनाने के लिए, धना जीरा अजवायन बडीशोप हलदी मिर्च नमक इनका शुद्ध देसी घी मे तडका लगाकर खाये.
किन्तु, इसमे कांदा फरसाण टमाटा शेंगदाणा ना मिलाये.
नाही इस लाजा को, जो रुक्ष है ... शोषणे रुक्षः ... शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज जल पृथ्वीक्लेदको शोषण करने वाला है , इस लाजा में दूध या दाल/ आमटी वरण रस्सा सांबार या अन्य कोई लिक्विड नही मिलाना है ... रुक्ष शुष्क रूप मे हि इसको खाना है ... आवश्यकता पडे तो टेस्ट के लिए उपर सुझाया वैसे उसको तडका देना है फोडणी द्यायची आहे
दिन मे दो बार दूध और शक्कर वाला चाय पियेंगे तो भी चलता है ... नही पियेंगे तो जादा अच्छा है
नाष्टे मे मूग मसूर चवळी का बनाया हुआ पदार्थ
दोपहर मे पूर्ण भोजन कुकर के बिना पकाया हुआ
और रात के भोजन मे लाजा खाना
यह आदर्श आहार है
लाजा एक बार खाने के बाद , यदि फिर से भूक लगे तो फिर से लाजा खाना है , 23 घंटे मे 46 बार भी भूक लगे तो फिर से लाजाही खाना है ... ऐसा संयम निर्धार रखेंगे तो रिझल्ट शीघ्र निश्चित रूप से आता है
लाजा खाने का अगर उद्वेग आ जाये तो ... मूग मसूर चवळी से बने हुए चीला के साथ, फल वाली सब्जी अर्थात गॉर्ड्स खाने है, जिससे की पेट मे फिर से प्रोटीन और फायबर जायेंगे ...
रात के भोजन मे किसी भी स्थिति मे गेहू चावल बाजरा ज्वार बटाटा साबुदाणा दूध फल ऐसा कार्बोहायड्रेट शुगर ग्लुकोज जल क्लेद पृथ्वी बढाने वाला आहार नही लेना है
विहार
विहार एक्सरसाइज व्यायाम जीवनशैली के रूप मे
1. 70 मिनिट तक चलना और
2. 10p बार स्पायनल ट्विस्ट और
3. 100 बार एअर सायकलिंग करना
यह अत्यंत आवश्यक है
किसी भी स्थिती मे दिन मे सोना नही हे
दिवास्वाप नही करना है
अगर दिन मे नींद आये तो बैठ कर सोना है
जैसे हम फ्लाइट मे कार मे बस मे बैठकर सोते है वैसे ... किसी कुर्सी या सिंगल सोफे पर बैठकर सामने दूसरी कुर्स पर उस पर पैर रखकर , दीवार पर सर लगाकर सो सकते है
या स्कूल में जैसे बच्चों को हेड डाऊन करने के लिए बोलते है वैसे डायनिंग चेअर पर बैठकर सामने वाले टेबल पर माथा रख कर सो सकते है
किंतु 180° मे दिन मे बेड पर सोपे पर लेट कर नही सोना है
ज्यादा से ज्यादा 120 °or 135° में कर सोना है
जादा अच्छा है कि दिन मे बिलकुल ही ना सोये
रिपोर्ट: ब्लड टेस्ट
हर 15 दिन बाद (ग्लुकोमीटर पर घर मे नही अपितु) लॅबोरेटरी मे व्हीनस ब्लड के साथ फास्टिंग पीपी ब्लड शुगर रिपोर्ट करे
और हर 90 दिन के बाद, BSL F PP, Hba1c, Lipid Profile, LFT, RFT, Electrolytes, Calcium, Vit D, VitB12 , (& TSH अगर डिस्टर्ब है तो) रिपोर्ट अवश्य करे
90 दिन के ट्रीटमेंट के बाद एचबीएवनसी 5.4 आ ही जाता है
साधारण नियम ऐसा है की जितना एचबीएवनसी होता है इसमे से 5.4 मायनस करेंगे, तो जो उत्तर आयेगा, उतने महिने ट्रीटमेंट की आवश्यकता होती है
आज डायबिटीस का जो निदान/diagnosis होता है, वह पॉलीपेप्सीया पॉलिफॅजिया, पॉली युरिया ऐसे लक्षण के स्थान पर, बीएसएल फास्टिंग पीपी bsl f pp इस ब्लड investigation द्वारा ही प्रायः होता है.
*मैं डायबेटीस को प्रमेह नहीं समझता.*
जिस प्रकार से आज ब्लड शुगर टेस्टिंग के द्वाराही डायबिटीस का डायग्नोसिस कन्फर्म होता है, उसे देखते हुए उसे प्रमेह कहना यह दुष्कर है.
प्रमेह का निदान/डायग्नोसिस प्रभूत आविल मूत्रता इस तरह से अर्थात, क्लेद का जब तक बस्ती द्वारा मूत्र के साथ निष्कासन नही होता है, तब तक उसे प्रमेह नही कह सकते.
और आज के दौर में मुझे नही लगता है, कि प्रमेह इस प्रकार का निदान किसी रुग्णका केस पेपर पर लिखते समय, आयुर्वेद का कोई भी प्रॅक्टिशनर, पेशंट के मूत्र का प्रत्यक्ष परीक्षण करके ये लिखता होगा,
और अगर प्रत्यक्ष मूत्रपरीक्षण करता भी होगा, तो मुझे ये उत्सुकता है कि प्रभूत मूत्र किसे कहेंगे ?
क्वांटिटी (मूत्र निष्कासन की, एक दिन की) कितनी होनी चाहिये, ये शास्त्र मे नही लिखा है,
और एक दिन मे मूत्र कितनी बार होना चाहिये (फ्रिक्वेन्सी), ये भी नहीं लिखा है.
अंजली प्रमाण मे मूत्र का प्रमाण चार अंजली लिखा है, जो अधिक से अधिक 160 या 200 मिली × 4 = 640 to 800 इतना हो सकता है. किंतु यह शरीरस्थ मूत्र का प्रमाण है, न कि प्रतिदिन जो मूत्र शरीर से बाहर आता है उसका. क्योंकि अगर 640 to 800 ml इतनाही मूत्र प्रवृत्ती का प्रमाण मानेंगे, तो यह तो प्रमेह न होकर मूत्रक्षय मूत्राघात समझना पडेगा. क्योंकि यह तो मूत्र की अत्यल्प मात्र है, प्रतिदिन की. आज मॉडर्न मेडिसिन ने जो निरीक्षण किया है, उसके अनुसार एक दिन मे 24 घंटे मे मूत्र विसर्जन की मात्रा 60kg वजन के प्रौढ व्यक्ती मे 1500 से 2000 ml इतनी होनी चाहिये.
तो इस कारण से जिस मूत्र की प्राकृत प्रमिती शास्त्र मे निर्धारित नही है, उसका प्रभूतत्व कैसे निर्धारित करेंगे??? यह मूत्र प्रमाण volume क्वांटिटी के बारेमे स्थिती है, जो जिसमे कुछ भी निश्चित ज्ञात नही है, आयुर्वेद की दृष्टि से; किस आधार पर प्राकृत क्या है प्रभूत क्या है इसका निर्धारण, संख्या / ऑब्जेक्टिव्हली कर सके.
अभी प्रमाण वोल्युम की जगह, अगर फ्रिक्वेन्सी से प्रभूतता का आकलन करना चाहेंगे, तो भी एक दिन मे कितनी बार मूत्र प्रवृत्ती होनी चाहिये, ये भी शास्त्र मे कही पर भी उल्लेखित नही है.
पर एक रेफरन्स है, जो आयुर्वेद शास्त्र का संभवतः नही है, उसमे *षण्मूत्री द्विपुरीषक:* ऐसे लिखा है, जिसका अर्थ है कि एक दिन मे छह (6)बार मूत्र प्रवृत्ती होनी चाहिये और अगर दो बार भोजन करते है, तो दो बार उसका पचन होकर, दो बार पुरीष प्रवृत्ती (मल विसर्जन) होनी चाहिये. किंतु पुरीष यह आज के लेख का विषय नही है.
तो एक दिन मे 6 बार मूत्र प्रवृत्ति होना अगर प्राकृत है, तो क्या आज तक हमने किसी पेशंट का (या स्वयं का भी) एक दिन मे मूत्र प्रवृत्ती संख्या फ्रिक्वेन्सी कितनी है, ये कभी निरीक्षण करने का प्रयास भी किया है? अगर नही किया है, तो पेशंट या स्वस्थ व्यक्ती एक दिन मे कितनी बार मूत्र प्रवृत्ती करता है, इसका प्राकृत प्रमाण/संख्या/frequency भी हमे बता नही है, तो प्राकृत प्रमाण प्राकृत संख्या प्राकृत फ्रिक्वेन्सी ज्ञात नही है, निश्चित नही है निर्धारित नही है सर्व स्वीकृत नही है, तो किसके आधार पर हम *प्रभूत मूत्र* इस तरह से कह पायेंगे?
यही स्थिती आविलता के संदर्भ मे है. कितने लोगो ने आविलत्व की प्राकृतता और विकृती की ग्रेड / श्रेणी पूर्वानुभव से निश्चित करके रखी है ? किसे आविल कहेंगे, इसका कोई सुनिश्चित मापदंड, सभी प्रॅक्टिशनर्स फॉलो कर सके , ऐसा सर्व स्वीकृत क्रायटेरिया , प्रॅक्टिस मे , आसेतुहिमाचल उपलब्ध नही है.
इस कारण से आयुर्वेद शास्त्र मे लिखे हुए, *प्रभूत आविल मूत्रता* इस लक्षण से, प्रमेह का निर्धारण होता हि नही है.
तो जो लोग प्रमेह या मधुमेह ऐसा निदान लिखते है, वे डायबिटीस का / बीएसएल का रिपोर्ट देखकर , उसके भाषांतर के रूप में , उसे लिखते है और प्रमेह का भाषांतर डायबिटीस या डायबिटीस का भाषांतर प्रमेह करके, आयुर्वेद के ग्रंथो मे प्रमेह मे लिखे हुए योगों/कल्पों/औषधों से बीएसएल कम होगी, इस आशा से, प्रमेह अधिकार के औषधों से / कल्पों से शुगर को ट्रीट करने का विफल प्रयास करते रहते है ... और स्वयंको हम प्रमेह की चिकित्सा कर रहे है या डायबिटीस की आयुर्वेदिक चिकित्सा कर रहे है, ऐसा भ्रांतियुक्त समाधान में रहने देते है.
मधुमेह लिखना तो और भी अशास्त्रीय है. मधुमेह का लक्षण है की मूत्र मे ओज निष्क्रमित होता है. तो मधुमेह निदान लिखने वाले किसी भी आयुर्वेद प्रॅक्टिशनर ने, पेशंट के मूत्र मे ओज का दर्शन कभी किया भी है. ओज का वर्ण गंध रस इनका वर्णन संहिता में उपलब्ध है, परंतु क्या किसी ने आज तक मधुमेह के पेशंट के मूत्र मे ओज को देखा भी है?? अगर नही, तो मधुमेह निदान लिखना कितना शास्त्र विसंगत है यह स्वयं सोचने की बात है.
हाइपरग्लायसीमिया से, वृद्धिंगत हुई बीएसएल फास्टिंग पीपी रिपोर्ट से, जिस प्रकार से डायबेटीस का (प्रमेह का नही) निदान, निश्चित तथा निर्भ्रांत रूप से होता है , उस प्रकार के विधी का या तज्जन्य लक्षण का उल्लेख आयुर्वेद में नही है.
प्रमेह में मूत्रसहित अत्यधिक मात्रा मे क्लेद का बस्ती द्वारा निष्कासन होना, यह *स्थान संश्रय* स्थिती से आगे होने वाली घटना है.
जब की बीएसएल फास्टिंग पीपी का अत्यधिक होना या एव्हरेज नॉर्मल रेंज से अधिक होना, स्थान संश्रय स्थिती से पहले यह *प्रसर* स्थिती का निदर्शक है.
*रसरक्तगत क्लेद = ब्लड शुगर* यह अगर आगे जाकर स्थान संश्रय की स्थिती मे, बस्ती द्वारा क्लेद के रूप मे मूत्र के साथ निष्क्रमित होता है. तो वह आयुर्वेदोक्त प्रमेह है.
जैसे चरक निदान 4 मे कहा गया है, वैसे क्लेद, मूत्र से मिश्रित होकर बस्ती से निष्कासित होने की जगह अगर यह मांसमेदसे मिश्रित होता है, तो पूती मांस अर्थात दुष्टव्रण = रिकरंट नॉन हीलिंग डायबिटीस वूंड इस प्रकार से परिणमन हो सकता है. इस प्रकार के रिकरंट नॉन हीलिंग डायबिटीस वूंड का वर्णन शास्त्र मे प्रमेह की अध्याय मे न होकर यह कुष्ठ के पूर्व रूप मे है
व्रणानामधिकं शूलं शीघ्रोत्पत्तिश्चिरस्थितिः।
रूढानामपि रूक्षत्वं निमित्तेऽल्पेऽपि कोपनम्॥
अर्थात क्लेद प्रधान दोष संचिती अगर त्वचा रक्त मांस इत्यादि कुष्ठ दूष्य मे जाने से पूर्वही ज्ञात होती है, तो वह कुष्ठ की पूर्वरूप की स्थिती है और यही क्लेद प्रधान दोष संचिती पूती मांस अर्थात रिकरंट नॉन हीलिंग डायबिटीक वूंड के रूप मे व्यक्त होती है. इसी कारण से यह रीकरिंग नॉन हीलिंग डायबिटीक वूंड यह प्रमेह जन्य या प्रमेह अधिकार से न होकर, यह कुष्ठ के पूर्वरूप मे है अर्थात कुष्ठ के दूष्य त्वचा रक्त मांस इनमें स्थान संश्रय होने से भी पूर्व जो प्रसर की स्थिती है ऐसी स्थिती मे जो क्लेद प्रधान दोष संचिती है, उसके द्वारा व्यक्त होने वाली पूती मांस सदृश नॉन हीलिंग रिकरिंग डायबिटीक वूंड की आयुर्वेदिक आकलन व्यवस्था है.
और यह केवल शाब्दिक तात्त्विक थेरॉटिकल आकलन न होकर, कई पेशंट जो नॉन हीलिंग रिकरिंग डायबिटीक वूंड है, जिनको गँगरीन हुआ है, जिनको ॲम्पुटेशन के लिए पोस्ट किया गया है, ऐसे रुग्णों के ॲम्पुटेशन को टालकर सर्जरी को टालकर उनके दीर्घकालीन क्रॉनिक नॉन हीलींग रीकरिंग डायबिटीस वूंड को अपुनर्भव स्थिती मे पूर्णतः उपशमित करने के बाद उस अनुभव के आधार पर यह आकलन आयुर्वेदिक परिभाषा मे यहा पर प्रस्तुत किया है.
ऐसे नॉन हीलिंग रीकरंट डायबिटीस वूंड के, बीटी और एटी दोनो फोटोग्राफ्स उपलब्ध है. यहा पर उसका प्रस्तुतीकरण संभव नही है. आप उसे हमारे वेबसाईट तथा फेसबुक या इन्स्टा या ब्लॉग पर देख सकते है.
यह स्थिती जो रिकरिंग नॉन हीलिंग डायबिटीक वूंड के रूप में जानी जाती है, यह भी क्लेद प्रधान दोष संचिती हि है और वचाहरिद्रादि गण से उपचार कर के ठीक होता है.
नॉन हीलिंग रिपेरिंग वूंड मे आभ्यंतर औषधी के रूप मे जैसे वचाहरिद्रादि उपयोगी है, वैसे ही बाह्य उपचार के रूप मे, स्थानिक चिकित्सा के रूप मे, व्रणकी शीघ्र शुद्धी तथा रोपण की गती बढाने के लिए, व्रणगत स्राव शोषण करणे के लिये, स्थानिक वेदना दाह शोथ कंडू इनके शीघ्र निवारण के लिए, assured healthy granulation के लिये; *धूपन* यह अत्यंत उपकारक लाभदायक परिणामकारक विधि है इस पर कभी निकट भविष्य मे सविस्तर लिखेंगे
शरीरस्थ क्लेद का कितने प्रकार का मॅनिफेस्टेशन = अविर्भाव हो सकता है, यह अष्टांगहृदय निदान स्थान में 9 से 16 तक क्रमशः देखा जा सकता है.
अगर क्लेद बस्ती मे मूर्तीमंत कठिनीभूतत्व को प्राप्त हो तो अश्मरी (9)
क्लेद अगर मूत्र के साथ द्रवीभूत होकर निष्कासित हो बस्ती के द्वारा , तो प्रमेह (10)
अगर क्लेद शरीर मे प्रसृत हो जाये, मेद के साथ, तो प्रमेह पिटिका (11)
वही क्लेद अगर कोष्ठ में संग्रहित हो जाये, तो गुल्म (11)
अगर कोष्ठ के त्वचा और मांस के बीच मे द्रवीभूत हो जाये , तो उदर (12)
यही क्लेद अगर कोष्ठ की बजाय, शाखा मे त्वचा मांस के बीच मे द्रवीभूत होकर संग्रहित हो जाये, तो पांडू (13)
क्लेद अगर, एक जगह पर, उत्सेध / ॲक्युम्युलेशन रूप में संचित/स्थित हो जाये , तो शोथ (13).
शोथ उपलभ्यते, पुनश्चैक एव *उत्सेध* सामान्यात्
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इस प्रकार के स्थानिक दोष संचिती को / उत्सेध को / संहती को / accumulation को, चरक ने चिकित्सा स्थान 12 और चरकसूत्र 18, इन 2 अध्यायों में कई व्याधियों को, जो शल्यशालाक्य के है, उन्हे शोथ के रूप मे देखा है. इसमे भगंदर मसूरिका तथा शालाक्य के उपकुश रोहिणी आदि भी उल्लेखित है.
अगर क्लेद सरणशील होकर शरीर मे प्रसृत हो जाये तो विसर्प (13)
स्थिर हो जाये तो कुष्ठ (14)
अगर इसी कुष्ठ की स्थिति मे और भी क्लेदाधिक्य हो तो कृमी(24)
... और यही क्लेद अगर संपूर्ण शरीर मे घूम फिरकर, शाखा के अंत मे संग्रहित हो जाये, तो वातरक्त(16) ...
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ऐसे क्लेद का विविध रोगों के रूप में, आविष्कृतम सद्भाव वाग्भट निदान स्थान अध्याय 9 से 16 तक विविध रूप मे उपलब्ध होता है, ऐसा निरीक्षण महागुरु वैद्य माधव कोल्हटकरजी ने हमे बताया था.
स एव ~कुपितो दोषः~ *संचितः क्लेदो* समुत्थानविशेषतः।
स्थानान्तराणि च प्राप्य विकारान् कुरुते बहून्॥
किसी स्थान संश्रय के बिना, रुग्ण संवेद्य वैद्य संवेद्य लक्षण के बिना, क्लेद का शरीर मे कितना संचय है और अब की प्रसर की स्थिती मे, उस क्लेद का संभाव्य स्थान संश्रय, भविष्य में कहा पर होगा, यह बताना, आयुर्वेद शास्त्रोक्त लक्षण के अनुसार या वैयक्तिक मर्यादा के अनुसार थोडा दुष्कर है.
जब की मॉडर्न मेडिसिन की डायग्नोस्टिक्स के अनुसार, ब्लड शुगर अर्थात शरीरस्थ क्लेद = पृथ्वी जल प्रधान द्रवगुण प्रधान भाव पदार्थ की, "संचिती accumulation उत्सेध" यह, जब रसरक्त के साथ शरीर मे संचार/"प्रसर" कर रहा है, तो ऐसे प्रसर की स्थिति मे, उसका प्रमाण नॉर्मल और वृद्धिंगत स्थिती में , मॉडर्न मेडिसिन ने सुनिश्चित किया है, जिसे हम ब्लड शुगर फास्टिंग पीपी ऐसे समजते है.
तो आज रुग्ण संवेद्य या वैद्यसंवेद्य लक्षण पर आधारित डायबिटीस या प्रमेह का निदान निश्चित कन्फर्म नही होता है.
डायबेटीस का डायग्नोसिस यह सामान्य रूप से ब्लड शुगर BSL का प्रमाण और स्पेसिफिक रूप मे एचबीएवनसी HBA1C की स्थिति पर निर्भर होता है.
बस्तीगत मूत्र सहित क्लेद यह प्रमेह की अवस्था है,
जब कि मॉडर्न मेडिसिन का हायपरग्लायसेमिया, यह रसरक्तगतक्लेदकी स्थिती है,
इसको समझने के लिए मै एक उदाहरण/दृष्टांत देता हूं कि, मुंबई से बेंगलोर जाने के लिए उद्यान एक्सप्रेस रेल्वे में कोई प्रवासी बैठ गया है...
तो मुंबई = निदान सेवन दोष संचिती का आरंभ है.
मूत्रसहित क्लेदाधिक्य को बस्ती द्वारा निष्कासित करती है, ऐसे संप्राप्ति की अंतिम स्थिती प्रमेह = बेंगलोर ऐसी है.
इस प्रवास मे अगर मुंबई से आरंभ किया हुआ व्यक्ती बीच मे हि, सोलापूर मे उतर जाये, तो यह रसरक्तगतक्लेद = हायपर ग्लायसेमिया = ब्लड शुगर फास्टिंग पीपी की वृद्धिंगत स्थिती ऐसा है. तो यह डायबिटीस = प्रमेह नही है.
क्योंकि, प्रमेह अधिकार में उल्लेखित औषधों से ब्लड शुगर कम नही होती है, चाहे वंग त्रिवंग दे दो, वसंत कुसुमाकर दे दो, चंद्रप्रभा दे दो, चरक प्रमेह चिकित्सा से कोई कषाय दे दो या वाग्भटोक्त प्रमेहहर अग्रेद्रव्य धात्रीनिशा दे दो; ब्लड शुगर टस से मस नहीं होती है.
डायबिटीस = हायपरग्लायसेमिया और प्रमेह इनका स्थान ही अलग अलग है.
प्रमेह यह बस्तीगत संप्राप्ति है,
जब की डायबेटीस टाइप टू = हायपरग्लायसीमिया = raised बीएसएल = रसररक्तगत क्लेद है.
चक्रपाणि ने संप्राप्ती का पर्यायी शब्द आगति का वर्णन
*आगतिर्हि उत्पादकारणस्य व्याधिजननपर्यन्तं गमनम्*।
So this संप्राप्ती = आगती is a journey from निदान सेवन to व्याधीजन्म.
मुंबई (=निदान सेवन = उत्पाद कारण = संप्राप्ती आरंभ) मे रेल्वे मे बैठकर, प्रवास का आरंभ किया हुआ व्यक्ती, बेंगलोर (= बस्ती मूत्रक्लेद = प्रमेह) तक जाने के बजाय,
अगर बीच मे सोलापूर (= प्रसर = रसरक्तगतक्लेद = raised BSL = हायपरग्लायसीमिया) में हि उतरकर,
वह व्यक्ती अगर वहा से ट्रॅक चेंज करके, मनमाड चला जाता है, तो यह रसरक्तगतक्लेद बस्ती (बेंगलोर) मे जाने की बजाय,
विकृतो दुष्टेन मेदसोपहितः *शरीरक्लेदमांसाभ्यां संसर्गं गच्छति, क्लेदमांसयोरतिप्रमाणाभिवृद्धत्वात्; स मांसे मांसप्रदोषात् पूतिमांस* (पिडकाः शराविकाकच्छपिकाद्याः) सञ्जनयति ...
पूतिमांस अर्थात दुष्टव्रण नॉन हिलिंग रिकरंट डायबिटीस वूंड हो जाती है.
इसी कारण से प्रमेह अधिकार के आयुर्वेदिक औषध, डायबेटीस टाईप टू हायपरग्लायसेमिया अर्थात ब्लड शुगर अर्थात रसरक्तगतक्लेद को कम नही कर सकते.
उनका टार्गेट पाॅइंट हि अलग अलग है.
आप चाहे जिंदगीभर बेंगलोर(बस्ति) रेल्वे स्टेशन पर प्रतीक्षा करते रहे तो भी, जो व्यक्ती बीच में हि, सोलापूर(रसरक्त = BSL) मे हि उतर चुका है, उसको बेंगलोर में कभी भी रिसीव नही कर सकते.
संहिता या परवर्ती ग्रंथ या रसग्रंथों के प्रमेह अधिकार के कोई भी कल्प, raised BSL में अपेक्षित परिणाम नही देते है.
उत्पादकारणस्य अर्थात ब्लड शुगर अर्थात रसरक्तगतक्लेद का शोषण करने की क्षमता जिसमे है, ऐसे औषध द्रव्यों का निर्धारण करना आवश्यक है और यही वचाहरिद्रादि गण मे अत्यंत सक्षम रूप मे उपलब्ध है.
वचाहरिद्रादि गणके द्रव्य का गुण कर्म आप सभी को ज्ञात है या किसी भी निघंटु से / द्रव्य गुण के पुस्तक से आप उसे देख सकते है.
वचाहरिद्रादि गणके द्रव्य प्राय कटुतिक्त उष्ण इस प्रकार के, कुछ द्रव्य शीत वीर्य के, कुछ द्रव्य थोडे मृदु भी ...
तो वचा शुंठी मुस्ता हरिद्रा ऐसे कंदात्मक उग्रवीर्य द्रव्य के साथ साथ, अन्यद्रव्यों का इस गण मे उपस्थित होना, इस गण को एक संतुलित औषध समूह के रूप मे प्रस्थापित करता है.
वचाहरिद्रादि गण की फलश्रुती मे ... मेद, कफ, आढ्यवात = मेदसावृत् वात = अर्थात स्थौल्य, अतिसार, आम तथा स्तन्यदोष अर्थात रस से रक्त तक जाने वाले सारे भाव पदार्थ = अर्थात यह पृथ्वी जल द्रव गुरु स्निग्ध इनके वृद्धी की स्थिती मे काम करता है.
इसी कारण से वचाहरिद्रादि यह संतर्पणजन्य रोग पर सर्वार्थसिद्धी साधक औषध के रूप मे सर्वोत्तम है.
संतर्पणजन्यरोग मे यह कार्यकारी होता है, इस प्राथमिक निर्धारण के साथ इस संकल्प के साथ इस आकलन के साथ, सर्वप्रथम रसरक्तगतक्लेद अर्थात ब्लड शुगर पर इसका प्रयोग किया.
वचाहरिद्रादि गण की सप्तधा बलाधान टॅबलेट सर्वाधिक मात्रा मे अर्थात 6 टॅबलेट दिन में चार बार या सामुद्ग या तीन बार = भोजनोत्तर = व्यानउदान ऐसे देने से ...
360 के स्तर पर जो ब्लड शुगर हुआ करती थी , वो 15 दिन मे / तीस दिन मे 100 140 इस सामान्य fasting & PP स्तर पर आ गयी. अभी तो कई पेशंट ऐसे है कि, जिनको केवल वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट 6 संख्या मे दिन मे तीन या चार बार देने से, 90 से 120 दिनो मे Hba1c 11 के स्तर पर था , वह 5.4 इस आदर्श एचबीएवनसी की स्थिती मे आकर पहुंच गया ,
जब की इन 90/120 दिनो में उनकी ओएचए मॉडर्न मेडिसिन को *पादेनापथ्यमभ्यस्तं पादपादेन वा त्यजेत्।* इस विधी से क्रमशः टेपर आउट करके बंद किया गया.
हर 14 दिन मे एक दिन मॉडर्न मेडिसिन बंद करते करते, 14×7=98 दिनो मे कम करते करते, बंद किया.
तत्पश्चात् वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट प्रतिसप्ताह एक एक दिन बंद करते हुए 7×7=49 दिनों में पूर्णतः बंद कर दी गयी.
*उसके बाद भी* Hba1c 5.4 ही रहता है.
इसका अर्थ यह है कि शरीर मे जो निसर्ग दत्त जन्मजात इन नेट इन बिल्ट शुगर नियंत्रण व्यवस्थापन यंत्रणा है, उसका क्षमता का "पुनःप्रस्थापन" हो गया है.
अर्थात शरीरने शुगर नियंत्रण व्यवस्थापन का जो उसका नैसर्गिक जन्म से लेकर डायबेटिस के डायग्नोसिस के दिन तक सुचारु रूप से चल रहा कार्य था, वो फिरसे करने मे सक्षमता पुन्हा प्राप्त किया है.
अर्थात इसके साथ, सुसंगत आहार और व्यायाम इनका भी साथ आवश्यक होता है
औषध अन्न विहाराणाम् उपयोगं सुखावहम्
और ब्लड शुगर तो कोई वैद्यसंवेद्य लक्षणोंसे या नाडी नेत्र इत्यादी अष्टविध परीक्षा से जानने का भाव पदार्थ नही है, इस कारण से औषध आहार व्यायाम के साथ हि हर 15 दिन के बाद या हर महिने मे बीएसएल फास्टिंग पीपी का लॅब में टेसट रिपोर्ट कराते रहना और वो नॉर्मल है यह कन्फर्म करके, वचाहरिद्रादि सप्तधा बलाधान टॅबलेट 6 संख्या मे दिन मे 3 या 4बार कंटिन्यू करना ...
इस विधी से यह यश निश्चित रूप से प्राप्त हो सकता है ...
अब जब एक बार यह सिद्ध हो गया, स्वीकार हो गया, मान्य हो गया, अनुभूत हो गया कि,
जिन पेशंट का बीएसएल फास्टिंग पीपी यह मॉडर्न मेडिसिन की ओएचके सेवन के बाद या
आयुर्वेद के तथाकथित प्रमेहघ्न औषधि जैसे कि, चंद्रप्रभा वसंत कुसुमाकर वंगभस्म आदिके सेवन के बाद भी टस से मस नही होती थी,
वह केवल वचाहरिद्रादि 6 टॅबलेट्स दिन में 3/4 बार, ऐसा उपचार करने से BSL 100 140 इस स्तर पर बनी रहनी लगी.
पहले केवल 15 या 30 दिनो मे हि, जो फास्टिंग पीपी 360 के स्तर पर होती है,
वो 100 140 के स्तर पर आ जाती है.
अब इस प्रकार से, *बीएसएल = हायपरग्लायसेमिया = रसरक्तगतक्लेद या पृथ्वीजलक्लेद द्रव गुरु स्निग्ध = संतर्पण* समझा गया;
तो ऐसे संतर्पण जन्य पृथ्वी जलप्रधान द्रवस्निग्ध गुरु गुण प्रधान क्लेद प्रधान स्थितियां, जिनभी अन्य रोगों में है,
वहा पर भी वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान का एकेरी अर्थात सिंगल ड्रग के रूप मे प्रयोग करके, उन्हे भी लाभ प्राप्त होता है, यह अनुभव म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda को और उनके सन्मित्र तथा स्टुडन्ट को आने लगा.
जैसे लेखके प्रारंभ लिखा है वैसे डायबिटीस टाईप टू के साथ साथ हि,
पीसीओएस हायपरथायरॉइड पीनस स्रावी त्वचारोग नॉन हीलिंग रिकरंट डायबिटीक वूंड;
ऐसे अन्याय पृथ्वीजलक्लेद स्निग्ध गुरु संतर्पण जन्य रोग या अवस्थाओं में यह वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट्स लाभकारी है, ऐसा निरंतर अनुभव, म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda तथा उनके सन्मित्र वैद्य और स्टुडेंटट ने बहुशः और प्रायः प्राप्त किया है ...
जिस शुगर ग्लुकोज कार्बोहायड्रेट को, रुग्णका शरीर, उपयोग मे लाने की क्षमता नही है, उस शुगर को कन्झ्युम करने मे, ओएचए oral hypoglycemic agents अर्थात मॉडर्न मेडिसिन की डायबेटीस के टॅबलेट्स (उदाहरण के लिये मेटफॉर्मिन),सहाय्यता करते है.
देखा जाये, तो यह शुगर अर्थात क्लेद या पृथ्वी जल प्रधान भाव पदार्थ का पचन करना शरीरस्थ अग्नी को संभव नही हो रहा,
तो ऐसी स्थिती मे ओएचए की तरह हि, हम भी अगर "पाचनद्रव्य" देंगे, अग्नि की दुर्बलता के स्थिती मे, किसी अन्य औषधी द्रव्य से, इस शुगर को रूपांतरित करेंगे, पाचित करेंगे ,
तो औषध पर होने वाली डिपेंडन्सी अवलंबित्व कभी भी समाप्त नही होगा और रोग औषध के सेवन पर निर्भर रहेगा याप्य रहेगा.
इसी कारण से, इसकी मूल / मुख्य चिकित्सा ये होनी चाहिये की, जो अग्नी शुगर को रूपांतरित पाचित करने की स्थिति मे नही है, उसकी क्षमता बढायी जाये अर्थात *'दीपन"* 🔥 किया जाये ...
और ध्यान में रहे , की दीपन यह कर्म वाग्भट द्वारा शमन मे बताया गया है, चरक मे शमन मे दीपन कर्म का उल्लेख नही है, तो यह वाग्भट की देन है , कि दीपन यह मूलचिकित्सा है, पाचन यह तात्कालिक प्रासंगिक चिकित्सा होनी चाहिये.
अगर हम पाचन की चिकित्सा को हि प्रमुख मानकर बैठेंगे, तो अग्नी का जो मूल सामर्थ्य है, मूल क्षमता है, वो कभी भी प्राकृत स्थिती तक आ नही पायेगी , पुनः प्रस्थापित नही हो पायेगी.
इस कारण से पाचन की बजाये, दीपन चिकित्सा यह महत्वपूर्ण है. उसके लिये तिक्त कटु उष्ण ऐसे औषध की आवश्यकता है, जो वचा हरिद्रा शुंठी और ज्वरमे कार्मुक होने के कारण मुस्ता ... यह कंद द्रव्य जो स्वयं उग्र वीर्य है तीक्ष्ण है, शीघ्र कार्यकारी है ... उनका उपयोग होता है,
उग्रवीर्य तीक्ष्ण शीघ्र कार्यकारित्व इनसे शरीर धातु की सुरक्षा बनी रहे (to protect, to safeguard from), इसलिये इस गण मे इन चार अत्यंत वीर्यवान द्रव्यों के साथ हि, यष्टी पृश्निपर्णी इंद्रजव ऐसे द्रव्यों का भी समावेश है, इसलिये वचाहरिद्रादि यह एक वीर्यवान् और साथ ही अत्यंत संतुलित औषध समूह योग सिद्ध होता है.
वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट के उपचार का उद्देश्य यह नहीं है कि, जैसे ओएचए मॉडर्न मेडिसिन पूरे जीवन भर लेते रहना अनिवार्य होता है, वैसे ही OHA modern medicine की जगह, हमारा आयुर्वेद का कोई अन्य औषधी द्रव्य जीवनभर लेना पडे, तो उसमे कुछ विशेष श्रेय प्राप्ती हुई, ऐसा नही है.
उलटा मॉडर्न मेडिसिन का टॅबलेट बहुत ही सस्ता अफोर्डेबल है, आयुर्वेद औषध के cost की तुलना में.
तो उद्देश यह नही है कि, हम मॉडर्न मेडिसिन की टॅबलेट के, रिप्लेसमेंट के रूप मे, पर्याय के रूप मे कोई आयुर्वेदिक की टॅबलेट दे.
उद्देश यह है कि मॉडन मेडिसिन की OHA टॅबलेट लेने की आवश्यकता ना पडे और ना हि उसके स्थान पर पर्याय रूप मे/ रिप्लेसमेंट के रूप मे/ सब्स्टिट्यूट के रूप मे, जीवनभर कोई आयुर्वेद की टॅबलेट लेने की परिस्थिती बन जाये.
मॉडन मेडिसिन की टॅबलेट भी लेना ना पडे जिंदगी भर शुगर नियंत्रण के लिए और आयुर्वेद की औषधे भी जिंदगीभर लेने की आवश्यकता हि न हो.
डायबिटीस यह डायग्नोसिस होने के पहले, जो उसकी नैसर्गिक सामान्य जन्मजात निसर्गदत्त शुगर नियंत्रण प्राकृत रूप से करने की स्थिति थी, ऐसी स्थिति तक फिर से लेके आना है.
चिकित्सा क्या है? यावत् अग्नेः समीभावात् (च वि 6)...
केवल लक्षण उपशम या दोष साम्य या धातु बलका पुनः स्थापन यह चिकित्सा का उद्देश नही है,
अपितु अग्नी की जो क्षमता है , कि शरीर मे आने वाले भाव पदार्थों का , अग्नि अपने स्वयं के बल पर / क्षमता से, पचन करके , उसको शरीरस्थ भावों में, सार-किट्ट रूपमे परिणत करके, शरीर का आरोग्य दोष साम्य धातु बल इसकी संतती सातत्य निरंतरता बनाये रखे.
डायबिटीस में प्रायः बलमांसक्षय अर्थात प्रोटीन लॉस या मसल वेस्टिंग होने के कारण, वजन घटता चला जाता है हातपांव कृश होते है, किंतु टमी तोंद पेट इस पर का फॅट बना रहता है. तो इस प्रकार का एक विचित्र स्थौल्य चित्र पेशंट मे दिखाई देता है.
वचाहरिद्रादि गण के प्रयोग से इस प्रकार का कोई भी मसल वेस्टींग प्रोटीन लॉस बलमांसक्षय अनैसर्गिक भारक्षय नही होता है. अपितु जो पेट तोंद बेली टमी यहा पर मेदस् संचय है वो क्रमशः कम होता चला जाता है.
फास्टिंग पीपी नॉर्मल आना यह डायबेटीसचे मुक्त होने का लक्षण नही है, अपितु एचबीएवनसी 5.4 स्तर पर आना और मॉडर्न मेडिसिन और आयुर्वेद दोनो औषध बंद करने के बाद भी, जब हम आगे एक साल तक, हर तीन महिने मे Hba1c को चेक करेंगे तब भी, अगर Hba1c 5.4 बना रहे, तो यह डायबेटीस मुक्त होने का निश्चित रूप से क्रायटेरिया है. Insulin Fasting & C Peptide ये भी अगर नॉर्मल व्हॅल्यूज में रहते है तो, यह और भी अधिक निश्चित रूप से निर्धारित होता है की पेशंट डायबिटीस मुक्त स्थिती मे आ गया है.
मूलतः डायबेटीस शुगर का रोग नही है, शुगर जिसे उपयोग मे लाना संभव नही हो रहा है, उसको डायबेटीस यह रोग है.
तो मात्र शुगर को कम करना (किसी भी औषध से) यह चिकित्सा का धोरण नही होना चाहिए.
जिस दिन तक डायबेटीस का डायग्नोसिस नही हुआ है, उस दिन तक अगर आपने आहार द्वारा लिया हुआ ग्लुकोज शुगर कार्बोहायड्रेट; आपके शरीर की यंत्रणा लिव्हर पॅनक्रियाज मसल्स यह उपयोग मे लाने ने सक्षम है ...
और अचानक डायबेटीस के डायग्नोसिस के दिन से, आप इन शरीरस्थ जन्मजात निसर्गदत्त innate in-built शुगर नियंत्रक संस्था को रिटायर्ड करके, निवृत्त करके, बाजू को करके,
उसका काम किसी बाह्य औषध को सौप देते हो, तो शरीरस्थ शुगर नियंत्रण यंत्रणा यह और भी अक्षम होना स्वाभाविक है, जिसे हम डिस्यूज ॲट्रॉफी कहते है.
तो शुगर को कम करने की औषधी देने के बजाय ...
शुगर को नियंत्रित करने वाली जो शरीरस्थ नैसर्गिक जन्मजात व्यवस्था यंत्रणा है, उसकी क्षमता को पुनः प्रस्थापित करने के लिए औषध देना, चिकित्सा करना, आहार व्यायाम का नियोजन करना ; यह उचित चिकित्सा धोरण है.
मेटफार्मिन जैसा मॉडर्न मेडिसिन दे दो या चंद्रप्रभा वसंत कुसुमाकर वंग त्रिवंग जैसा रसकल्प दे दो या चरकोक्त कोई प्रमेह का क्वाथ दे दो या वाग्भट (उत्तर 40 / 48 to 58) का प्रमेह अग्रद्रव्य धात्रीनिशा दे दो, शुगर कम होती भी है, तो ये शुगर कम करने वाले तात्कालिक औषध जीवनभर लेने पडते है. अगर एक दिन भी नही लिया तो, शुगर फिर से बढती है,
क्योंकि शुगर का कम होना, इस औषध सेवन पर निर्भर है.
इसी कारण से
अगर शुगर को कम करने वाले औषध लेने की बजाय,
शुगर को नियंत्रित व्यवस्थापित करने वाली जो निसर्ग दत्त जन्मजात व्यवस्था लिव्हर पॅनक्रियाज मसल्स के रूप मे शरीर मे है,
उनकी क्षमता पुन प्रस्थापित करना,
यही उचित चिकित्सा है,
जो जीवनभर लेने की आवश्यकता न होकर,
जब तक शुगर नियंत्रण यंत्रणा शरीरस्थ व्यवस्था की अपनी क्षमता जो जन्मजात निसर्ग दत्त है,
वह पुन्हा प्रस्थापित नही होती है हि,
तब तक हि ... ऐसी औषधियां देना आवश्यक रहेगा.
उसके बाद जब यह शुगर नियंत्रण करने वाली शरीरस्थ व्यवस्था यंत्रणा अपनी क्षमता को पुनः प्राप्त करेगी,
जो हमे इन्शुलिन फास्टिंग सी पेप्टाईड Hba1c इनके नॉर्मल व्हॅल्यू बने रहने से
तथा बलमांस क्षय मसल वेस्टींग प्रोटीन लॉस नही हो रहा है, इन लक्षणोंसे ज्ञात होगा.
अर्थात इस चिकित्सा धोरण से, जीवनभर औषध प्रति दिन लेते रहने की आवश्यकता नही रहेगी.
जैसे की कभी फ्रॅक्चर होकर कोई अस्थिभग्न हो जाता है,
तो उसके बाद कुछ दिन तक हम बिना किसी मूव्हमेंट के स्थिर रहते है,
उसके बाद प्लास्टर निकाल क्रचेस या व्हील चेअर की सहायता से इधर उधर मूव्हमेंट करते है,
उसके बाद सावधानी के साथ, किसी व्यक्ति का या दीवार का सहारा लेते हुए ,
एक एक कदम चलने का प्रयास करते है
और कुछ दिनों के बाद हम नैसर्गिक रूप मे चल सकते है, दौड सकते है, जम्पिंग कर सकते
अर्थात अस्थिभग्न से पुनः चलना कूदना ऐसी सामान्य क्षमता तक आने के लिए,
कुछ कालावधी देना पडता है ...
किंतु ऐसे भी नही होता है, कि एक बार अस्थिभग्न हो गया, तो जिंदगी भर प्लास्टर या क्रचेस या व्हीलचेअर पर हि बने रहो!
यही बात है, डायबिटीस टाईप टू को भी लागू होती है कि, एक बार डायबिटीस टाईप टू डायग्नोस हो गया तो,
जीवनभर औषध लेने की आवश्यकता न होकर,
जब तक की डायबेटीस के डायग्नोसिस के पहले के काल तक,
जन्म से लेकर उस दिन तक,
शरीर मे आने वाले शुगर कार्बोहायड्रेट ग्लुकोज का नियंत्रण व्यवस्थापन करने वाली हमारे शरीर की जन्मजात निसर्गदत्त व्यवस्था सक्षम थी,
उसी क्षमता तक, उसको,
डायबिटीस के डायग्नोसिस के बाद ,
पुन्हा लेकर आना है ...
न कि जिंदगीभर शुगर कम करने के औषध देते रहने है.
जैसे भग्न के बाद क्रमशः हम प्लास्टर क्रचेस व्हीलचेअर दिवार का सहारा लेकर या व्यक्ति का सहारा लेकर चलना सावधानी से एक एक कदम धीरे धीरे चलना बाद में सामान्य गति से चलना और बाद मे running jogging jumping तक पुन्हा क्षमता प्राप्त करना, ऐसे करते है ...
उसके लिए जो बीच का समय लगता है, उतना हि समय / उसी प्रकार का कालावधी, डायबिटीस डायग्नोसिस के दिन के बाद, पुनः शरीरस्थ जन्मजात निसर्गदत्त शुगर नियंत्रण व्यवस्था को , उसकी क्षमता पुनः प्राप्त करने तक, चिकित्सा के लिए देने चाहिये.
औषधी योजना के साथ ही आहार और व्यायाम इनका भी सातत्य नियोजन पूर्वक रूप से करना आवश्यक होता है. जैसे की कोई एक दीवार अगर हमे बांधनी है, तो ईटके उपर सिमेंट, सिमेंट के ऊपर ईट, ऐसे रखते हम बांधते है, लेकिन एक दिन मे अगर दीवार बांधकर पूरी नही हुई, तो उसे वैसे ही आधा अधूरा गीला ऐसे स्थिति में छोडकर लेबर लोक चले जाते है. दूसरे दिन आते है और बाकी की दीवार बांधते है. लेकिन अगर आधी दिवार बांधी हुई है उसी दिन या उसी शाम, किसी छोटेसे भी लडके ने आकर उसको धक्का दिया तो गीली दिवार टूटकर नीचे गिर सकती है. किंतु अगर दीवार बांधकर पूरी हो गई, उस पर पानी मारा गया, वो दृढ हो गई ... सात-आठ दिन बीत गये, तो उसके बाद एक क्या चार बडे प्रौढ व्यक्तिओने भी दीवार को कितने भी धक्के मारे, तो भी दीवार टूटती नही. वह मजबूत की मजबूत बनी रहती है, सालो साल तक!!!
उसी प्रकार से जब तक की शुगर नियंत्रण क्षमता को हम पूर्वस्थिती तक, जन्मजात निसर्गदत्त क्षमता की स्थिति तक लेकर नही आते है, Hba1c 5.4 तक पेशंट को ठीक नही करते है, तब तक उसने आहार और व्यायाम का बताया हुआ नियोजन पालन करना आवश्यक होता हि है.
इस संकल्पना के साथ वचाहरिद्रादि का प्रयोग सुचारु रूप से उपयोगी लाभदायक परिणामकारक सिद्ध होता है.
कालावधी कितना लगेगा, 🤔⁉️
यह पेशंट का वय, उसकी Hba1c, उसकी पथ्य आहार लेने की और व्यायाम करने की धृती संयम सातत्य
तथा हमारे पास चिकित्सा के लिये आने के पहले तक, कितना डायबिटीस का पुराणत्व है chronicity है ... इस पर यह कालावधी निर्भर करेगा.
9 तक एसबीएवनसी Hba1c हो तो , 120 दिनो मे
और उसके आगे डबल फिगर मे दस (10) से उपर Hba1c हो तो, उससे भी अधिक कालावधी, इसके लिए आवश्यक होता है.
तो इस दृष्टी से डायबेटीस को जीवनभर औषध लेने की आवश्यकता वाला रोग मानने की बजाये,
कुछ निश्चित कालावधी तक की चिकित्सा से पुनः नॉन डायबिटीक नॉर्मल 5.4 Hba1c निश्चित रूप से संभव हो सकता है.
इन्सुलिन डिपेंडंट डायबिटीस टाईप टू में इन्सुलिन टेपर करने के लिए और थोडा समय आवश्यक होता है.
और जैसे की पहले स्वीकार किया कि टाईप वन डायबिटीस मे यह शरीरस्थ शुगर नियंत्रण यंत्रणा व्यवस्था जो जन्मजात निसर्ग दत्त उपलब्ध है, उसकी क्षमता पूर्णतः नष्ट होने के कारण, प्रायः ये पेशंट असाध्य होते है
या उन्हे मॉडर्न मेडिसिन के द्वारा निर्मित इन्सुलिन इंजेक्शन पर निर्भर रहना पडता है.
फिर भी अगर GAD 65, Insulin फास्टिंग, C Peptide ठीक रहते है तो, टाइप वन डायबिटीस मे भी, 100 से 1000 दिनो में, कुछ हद तक आशादायक परिणाम प्राप्त होते है, ऐसा कुछ रुग्णों में अनुभव प्राप्त है.
*वचाहरिद्रादि गण : संतर्पणजन्य रोगों का सर्वार्थसिद्धिसाधक औषध* इस शीर्षक से, यह लेख लिख रहे है.
वचा जिस योग के आरंभ मे आती है, ऐसे कई अन्य भी वचादि नाम के योग संहिताग्रंथ मे / टीकाओं मे उपलब्ध है, जैसे कि स्वेदन के अध्याय सूत्रस्थान 17 मे वचाद्यैश्च ऐसा शब्द है, जो उसके पहले आये हुए वचाकिण्वशताह्वादेवदारुभिः योग का बोधक है.
स्पष्ट रूप से वचादि का तथा हरिद्रादि गण का उल्लेख कुछ संदर्भों में उपलब्ध होता है, उसके साथ ही षड्धरण योग उल्लेख है, जैसे उरूस्तंभ (= आढ्यवात) तथा आमाशयगत वात तथा स्तन्यदोष चिकित्सा ...
किंतु यह लेख ऐसे पूर्वज्ञात संदर्भों के लिये न होकर, जिसका विगत 6 साल मे पचास किलो से भी अधिक (50+ kg) अर्थात चार लाख+ (400000+) टॅबलेट का उपयोग करने के बाद, जो अनुभव संग्रहित हुए है, उस संदर्भ मे है.
वचादि गण में जो द्रव्य है, उनका योग आपको चरक संहिता के ग्रहणी चिकित्सा मे आम पाचन के लिए प्राप्त होता है ...
नागरातिविषामुस्तक्वाथः स्यादामपाचनः ।
मुस्तान्तकल्कः पथ्या वा नागरं चोष्णवारिणा ॥
*देवदारुवचामुस्तनागरातिविषाभयाः*
👆🏼
इसमे से अंतिम पंक्ती एक्झॅक्टली वचादि गण हि है.
वचादि गण और हरिद्रादि गण इनका अलग अलग प्रयोग मैंने करके नही देखा है.
वचादि और हरिद्रादि, इन दो गणों में जितने द्रव्य है, उन सभी का एक हि योग बनाकर, उसकी सप्तधा बलाधान टॅबलेट बनाकर, उसके प्रयोग के ये अनुभव है.
वचादि गण में अतिविषा का उल्लेख होता है. किंतु अतिविषा अत्यंत काॅस्टली होने के कारण, उसको निकाल कर, वहा पर मुस्ता द्विगुणमात्रा मे लिया गया है, क्योंकि अतिविषा यह मुस्ता का प्रतिनिधी द्रव्य है.
तथा, वाग्भट सूत्र स्थान 15, गणों के अध्याय के अंत मे, वाग्भट ने कहा है कि,
... त्वलाभतः , युञ्ज्यात्तद्विधम् अन्यच्च,
द्रव्यं जह्याद् अयौगिकम्
अर्थात अगर कोई द्रव्य प्राप्त न हो सके (किसी कारण से) और जो अयोगकारी है, उसका त्याग करे.
गण में उल्लेखित अगर सभी द्रव्य उपलब्ध नही है, तो जितने उपलब्ध है (यथालाभम् ), उतने से भी काम चल सकता है, ऐसे सुश्रुत मे कहा है.
समस्तं वर्गमर्द्धं वा यथालाभम् अथापि वा।
प्रयुञ्जीत भिषक् प्राज्ञो ...
तो इस कारण से मुस्ता का जो प्रतिनिधी द्रव्य अतिविषा है, वह काॅस्टली होने के कारण, गण मे उल्लेखित होकर भी, हम *वचाहरिद्रादि गण की सप्तधा बलाधान टॅबलेट* बनाते समय, अतिविषा का समावेश न करते हुए, मुस्ता को उसके स्थान पर लेते है.
किंतु मुस्ता पहले हि इस गण मे उल्लेखित है, इसलिये अन्यद्रव्य की तुलना मे मुस्ता का प्रमाण द्विगुण हो जाता है.
अगर इन द्रव्यों का अवलोकन करे, तो इसमे वचा हरिद्रा मुस्ता और शुंठी ऐसे चार कंद द्रव्य (Rhizome) है. सुश्रुत कल्पस्थान 2 में, जहां स्थावर विष का वर्णन है, वहां पर कंद विष को उग्रवीर्य सर्वाधिक तीक्ष्ण कहा गया है, अर्थात कंद द्रव्य यह तीक्ष्ण एवम् उग्र वीर्य होते है अर्थात उनकी कार्मुकता शीघ्र और अतिपरिणामकारक होती है.
वचा यह प्रमाथि द्रव्य है अर्थात सूक्ष्म स्रोतस्स्थित दोष संचय को अपने वीर्य से निष्कासित करने का सामर्थ्य उसमे है ...
तथा वचा संज्ञा स्थापन गण मे है ,
सद्य प्रज्ञाकरी इस नाम से विख्यात है,
एवं च वचा बालकों के लिए नित्य धारणीय द्रव्य मे उल्लेखित है, अष्टांगहृदय उत्तर तंत्र एक में ... धारयेत् सततं वचाम्
मुस्ता ज्वर के अग्रद्रव्य मे एक है और ज्वर तो सभी रोगों का पति या सभी रोग ज्वर हि है या ज्वर सभी रोगों का प्रतिनिधित्व करता है, ज्वर रोग का पर्याय नाम है, इस कारण से मुस्ता सभी रोगों पर कार्यकारी है.
वचा शुंठी और हरिद्रा ये उष्ण वीर्य है , किंतु मुस्ता शीत वीर्य होकर भी आमपाचन है ज्वरनाशक है. यह उसकी विशेषता है.
निकट भविष्य में, मुस्तादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट का लेख लिखते समय मुस्ता के गुणकर्मों का और विस्तृत प्रकाशन करेंगे.
शुंठी तो विश्वभेषज है. अर्थात युनिव्हर्सल मेडिसिन है.
कटु रस स्कंध द्रव्यों में शुंठी सर्वश्रेष्ठ है.
आम पाचन के लिए तथा स्नेहाजीर्ण के लिए शुंठी का सर्वाधिक बार उल्लेख संहिता में है.
Lipids वृद्धि में यह परिणामकारक है. स्नेहाजीर्णनाशक योग मे शुंठी धान्यक और जीरक ये तीन कंटेंट है, इस योग का Lipids वृद्धि में किस प्रकार से परिणामकारक लाभ होता है, इसके बारे मे निकट भविष्य मे लिखेंगे
हरिद्रा यह रजन्यादि चूर्ण का प्रथमद्रव्य है. रजन्यादि चूर्ण अष्टांग हृदय उत्तर तंत्र 2 में, बालकों के सर्व रोग हरण के लिए तथा ग्रहणीदीपन मूढवातानुलोमन एवं बलवर्णकारी है. रजन्यादि चूर्ण की सप्तधा बलाधान टॅबलेट म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda बनाते है, उस पर लेख लिखते समय इस बारे मे, और सविस्तर वर्णन किया जायेगा.
इन चार द्रव्यों के साथ हि इस गण में देवदार अभया दारुहरिद्रा यष्टी पृष्णिपर्णी और कुटज या इंद्रजव इनका समावेश है.
ये द्रव्य प्रथम चार कंद द्रव्य की तीक्ष्णता या उग्रता का दुष्परिणाम शरीर धातू पर होने से बचाते है
वैसे भी देवदार यष्टी अभया इंद्रजव इनका अपना भी स्वयं का कर्तृत्व मूल्यवान है हि.
इन पर भी किसी गण या योग के अनुषंग से सविस्तर लिखेंगे.
अभी वचाहरिद्रादि गण, यह कोई मेरा एकाधिकार या मेरा अपना संशोधन /डिस्कवरी /रिसर्च /पेटंट ऐसा कुछ भी नही है. किंतु वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट का महाराष्ट्र एफडीआय में म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda ने रजिस्ट्रेशन विधिवत रूप से करके रखा है. जिन्हे इस प्रकार की सप्तधा बलाधान टॅबलेट का अनुभव लेना हो, तो वे स्वयं इस प्रकार का प्रयोग करके देखे. किंतु इसके चूर्ण के रिझल्ट नही आते है. आप सप्तधा बलाधान की टॅबलेट बनाकर हि इसका प्रयोग करे. जिन्हे प्रयोग के लिए / अभ्यास की दृष्टि से / शास्त्र अनुभव के रूप मे, इस प्रकार की टॅबलेट का उपयोग करके देखना है, वे हमे संपर्क कर सकते है या अपने यहां स्थानिक स्तर पर स्वयं सप्तधा बलाधान टॅबलेट का निर्माण करके उसका उपयोग करके इस अनुभव को स्वयं ले सकते है.
डिस्क्लेमर/Disclaimer : उपरोक्त कल्प क्वाथ योग टॅब्लेट का परिणाम; उसमे सम्मिलित द्रव्यों की क्वालिटी, दी हुई मात्रा, कालावधी, औषधिकाल, ऋतु, पेशंट की अवस्था इत्यादि अनेक घटकों पर निर्भर करता है.
डिस्क्लेमर Disclaimer
एकतर व्यायाम आहार पाळले नाही तरी, औषधाने इष्ट परिणाम येत नाही
आणिव्यायाम आहार पाळले तरीही , औषधाने इष्ट परिणाम येत नाही
अशाही केसेस आहेत
माझ्याकडे ट्रीटमेंट घेणाऱ्यांमध्ये असे दोन्ही प्रकारचे अनुभव आलेले
काही पेशंट, MBBS MD Doctor, BAMS विद्यार्थी, वैद्य किंवा त्यांचे नातेवाईक आहेत. मी करतो ती Treatment केवळ एक शक्यता / प्रयत्न / possibility आहेफुलप्रूफ नाही
Disclaimer/ डिस्क्लेमर/ अस्वीकरण :
एक तो व्यायाम तथा आहार के किसी भी नियम का पालन न किया जाए, तो औषध वांछित परिणाम नही देता है
और भले ही व्यायाम तथा आहार के नियम का पालन किया जाए, तो फिर भी, कुछ एक पेशंट में औषध वांछित परिणाम नहीं देता है, ऐसे भी पेशंट्स/केसेस है. उपचार प्राप्त करने वालों के साथ मुझे दोनों प्रकार के अनुभव प्राप्त हुए हैं. कुछ पेशंट एमबीबीएस एमडी डॉक्टर, बीएएमएस छात्र, चिकित्सक या उनके रिश्तेदार हैं। मैं जो उपचार करता हूं , वह केवल एक संभावना/प्रयास/संभावना है और फुलप्रूफ नहीं है।
डिस्क्लेमर Disclaimer
✅ अपुनर्भव (non recurrence) हे आहार विहार द्वारेच व्हावं.औषधाची डिपेन्डन्सी जावी म्हणून तर हा सगळा उद्योग !!अन्यथा स्वस्त मस्त OHA काय वाईट आहे?
अपुनर्भव non recurrence यह आहार विहार द्वारा हि होना आवश्यकहै.औषध पर जो डिपेन्डन्सी है, वह समाप्त हो , यही तो इस उपक्रम का उद्देश है !!अन्यथा स्वस्त मस्त OHA में क्या बुरा है ?
Though वचाहरिद्रादि गण 7 बलाधान tablets is main potent medicine, though most of patients yield expected results, though many other Vaidyas also get it from us & they do achieve astonishing results …
still I DO NOT intend to endorse any Drug & Disease policy
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