Saturday, 14 October 2023

वेदनाशामक आयुर्वेदीय पेन किलर टॅबलेट : झटपट रिझल्ट, इन्स्टंट परिणाम

वेदनाशामक आयुर्वेदीय पेन किलर टॅबलेट : झटपट रिझल्ट, इन्स्टंट परिणाम

लेखक : Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम डी आयुर्वेद एम ए संस्कृत

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🌟 वेदना रुजा शूल तोद ऐसे अनेक पर्यायी शब्द शास्त्र में उल्लेखित है. आजकल के ट्रेंडी भाषा में, परिचित शब्दों में इसे पेन pain कहते है. और फिर आयुर्वेद मे ऐसे झटपट परिणाम इन्स्टंट रिझल्ट देने वाले पेन किलर्स है क्या, ऐसा प्रश्न सहजही आता है. 

 ✍️ किसी भी प्रकार की वेदना हो, तो हमारा विचार वात की दिशा से जाता है और स्नेहन एवं स्वेदन यह प्रथम उपचार पद्धती मन मे आती है. 

✍️🏼 परंतु स्नेहन स्वेदन यह कर्मात्मक विधी करना, यह पेशंट के लिए हर बार सुकर होगा संभव होगा, ऐसे नही. इसी कारण से जैसे मॉडर्न मेडिसिन मे ॲनल्जेसिक या पेन किलर्स होते है, ऐसा आयुर्वेद मे कुछ है क्या, ऐसा प्रश्न आयुर्वेद मे आने के बाद, विद्यार्थी दशा से लेकर, जीपी करने वाले आयुर्वेद के वैद्यों तक या सभी आयुर्वेदिक समाज को यह प्रश्न होता है. और फिर प्रायः विविध प्रकार के गुग्गुल कल्प जैसे की योगराज महायोगराज सिंहनाद त्रयोदशांग या फिर महावातविध्वंस को शरण जाना पडता है. 

✍️🏼 क्वचित् जिन वैद्य के पास पंचकर्म सुविधा है , वो बस्ति उपक्रम का भी पुरस्कार करते है. किंतु इन सब कल्पों को तथा पंचकर्मों को कितनी मर्यादायें है, ये हम सभी को ज्ञात है. 

✍️🏼 महावातविध्वंस अगर अच्छे क्वालिटी का नही मिला तो , या फिर उसका डोस थोडा बहुत ज्यादा हो गया , तो उसके कितने भयंकर दुष्परिणाम होते है, यह हम सभी के लिये आदरणीय है, ऐसे दो ज्येष्ठ वैद्योंने स्वयं अनुभव किया है. उन्हे पुणे के मॉडर्न मेडिसिन के हॉस्पिटल के आय सी यु मे ऍडमिट करके उपचार करने की स्थिती हो गई थी. 

✍️🏼 इसके साथ ही उपर सुझाये हुए, स्नेहन स्वेदन बस्ति गुग्गुल कल्प, इनका मूल्य / कॉस्टिंग और उनसे प्राप्त हो सकने वाली वेदनाशामकता की क्वालिटी लेवल, इनका आर्थिक समीकरण ठीक होता नही, ये भी सभी को मन ही मन मे मान्य होता है. इसी कारण से झटपट परिणाम इन्स्टंट रिझल्ट देने वाली वेदनाशामक आयुर्वेदिक टॅबलेट आज भी सभी के लिये सर्चेबल very wanted और बहुत हि मनचाही ऐसी वस्तु बनकर रह गई है

✍️🏼 साधारणतः 6 वर्ष के अनुभव के बाद और 12 किलो अर्थात 48000 टॅबलेट का प्रयोग करने के बाद , यह लेख मैं लिख रहा हूं. 

✍️🏼 ज्वर यह शब्द रोग का पर्यायी नाम है, ऐसे चरक एवं अष्टांगहृदय के निदान स्थान में लिखा हुआ है. इसलिये ज्वर के लक्षणों के लिए आनेवाली औषधी योजना प्रायः सभी रोगो मे उपयुक्त हो सकती है, ऐसा एक मेरा अभ्युपगम आकलन समझ वैयक्तिक मत एवं अनुभव है. 

✍️🏼 चरकने भी ज्वर के अध्याय के अंतिम श्लोक मे पुनरावर्तक ज्वर के लिए लिखे हुए क्वाथकल्प मे यह लिखा है, कि यह योग अन्य पुनरावर्तक व्याधियों मे भी उपयोगी हो सकता है.

✍️🏼 
यान्ति ज्वरमकुर्वन्तस्ते तथाऽप्यपकुर्वते ।
एवमन्येऽपि च गदा व्यावर्तन्ते पुनर्गताः । 
अनिर्घातेन दोषाणामल्पैरप्यहितैर्नृणाम् ॥ 
किराततिक्तकं तिक्ता मुस्तं पर्पटकोऽमृता । 
घ्नन्ति पीतानि चाभ्यासात् पुनरावर्तकं ज्वरम् ॥ 

इस पुनरावर्तक योग के विषय में अगले लेख मे सविस्तर लिखेंगे. ✍️🏼 

*आज का लेख यह झटपट परिणाम इन्स्टंट रिझल्ट देने वाली वेदनाशामक आयुर्वेदिक टॅबलेट के लिए है*. 

✍️🏼 वातज्वर के सभी लक्षण अगर देखे जाये, तो पांव से लेकर सिर तक, आपादमस्तक, विविध प्रकार की वेदनाओंका वर्णन उपलब्ध है. 

अष्टांगहृदय के ज्वर निदान के अध्याय मे इन वेदनात्मक लक्षणों का वैविध्य अधिक विस्तार से उपलब्ध है, जो उत्सुक एवं जिज्ञासू वैद्यमित्रोंने मूलग्रंथ से पढना उचित होगा. 

यह संदर्भ बताने का उद्देश यह है, की शरीर के किसी भी भाग मे आपादमस्तक कहीं पर भी वेदना रुजा शूल तोद ग्रह इस प्रकार की pain पेन अगर अनुभव को आती है, तो उस पर का एक यशस्वी उपचार अर्थात वातज्वर के लिए उल्लेखित वाग्भट कषायकल्प !!! 

✍️🏼 इसमे केवल चार वनस्पती द्रव्य समाविष्ट है. दुरालभा अमृता मुस्ता नागरम् वातजे ज्वरे = धमासा गुळवेल/गिलोय नागरमोथा व शुंठी इन चार औषधी द्रव्यों का सुकर स्वल्पकाय कल्प है

✍️🏼 इन चार द्रव्यों के द्रव्य गुण कर्म के डिटेल्स में नही जाता हूँ. इनका विवरण आप सभी को पूर्वज्ञात है. 

✍️🏼 मुझे इस क्वाथकल्प के विषय में कुछ अलग प्रस्तुती करनी है 

✍️🏼 अर्थात संहिता कालीन चिकित्सा विधीके अनुसार इन द्रव्यों का क्वाथ बनाकर देना अभिप्रेत है. किंतु आज के गतिमान जीवन मे काढा करके लेने के लिए पेशंट के पास समय और इच्छा दोनो उपलब्ध नही है. 

साथ ही काढा की टेस्ट एवं मात्रा ये दोनो भी सुविधा जनक नही होते है. 

इस पर उपाय के रूप मे, इन चार औषधों के चूर्ण को, इन चार औषधों के क्वाथ की सात भावनायें ... ॲक्च्युअली भावना न कहकर, सप्तधा शक्तिदान या बलाधान या अंग्रेजी शब्द मे फोर्टिफिकेशन करके, उसकी 250 mg की टॅबलेट बनाये. 

इस विधी मे 3 किलो चूर्ण को 21 किलो चूर्ण के काढा उसमे शोषित absorb/adsorb करवाया. इस प्रकार से *सप्तधा बलाधान* किये हुए तीन किलो चूर्ण से 12000 टॅबलेट बनते है, 250mg के !!! 

✍️🏼 ज्वर हो या ना हो, वातज्वर हो या ना हो, पेशंटने किसी भी प्रकार की वेदना का निवेदन किया, तो उस पर ये सप्तधा बलाधान की हुई टॅबलेट 2, 4 या 6 प्रमाण/संख्या में, दिन मे 2,3 या 4 बार गरम पानी के साथ, या चाय के साथ, या केवल चबाकर खाकर पानी पिया जाये, तो प्रायः पेशंट, 30 मिनिट से लेकर, 2 घंटे तक के कालावधी में, "वेदना का शमन हुआ" इस प्रकार का अनुभव करता है, ऐसी प्रचिती आती है. पेशंट के वेदना की इंटेन्सिटी और फ्रिक्वेन्सी के अनुसार, समय थोडा बहुत, कम अधिक हो सकता है. मॉडर्न मेडिसिन की पेन किलर की तरह, इस टॅबलेट के सेवन के बाद, ॲसिडिटी / उदर दाह आदि उपद्रव नही होते है. इसलिये साथ मे फिरसे antacid देने की आवश्यकता नही होती है. 

✍️🏼 संहिता मे जैसे कहा गया है, वैसे इस का क्वाथ बनाकर देना, प्रॅक्टिकली संभव नही होता है, क्योंकि क्वाथ का डिस्पेन्सिंग और ट्रान्सपोर्ट प्रॅक्टिकली सुविधा जनक नही है, 

इसीलिए चरक मे हि आये हुये आदेश के अनुसार ...

 भूयश्चैषां बलाधानं कार्यं स्वरसभावनैः । 
सुभावितं ह्यल्पमपि द्रव्यं स्याद्बहुकर्मकृत् ॥ स्वरसैस्तुल्यवीर्यैर्वा तस्माद्द्रव्याणि भावयेत् । 
👆🏼 
इस श्लोक के अनुसार, 
हमने *सप्तधा बलाधान* टॅबलेट का निर्माण, प्रचलन और प्रयोग/ उपयोग बहुतर मात्रा ने किया. 

ऐसे केवल वातज्वर के क्वाथ की हि नही, अपितु अलग अलग 33 कल्प/गण/क्वाथ का सप्तधा बलाधान टॅबलेट मे रूपांतरण, प्रस्तुतीकरण, प्रचलन, वितरण, उपयोग हम कर रहे है. 

✍️🏼जिसका प्रारंभ, जैसे की सभी को ज्ञात है, की हमने *वचाहरिद्रादि गण सप्तधा बलाधान टॅबलेट* से किया है. जिसका अधिकतर मात्रा मे प्रयोग हम डायबिटीस टाईप टू और स्थौल्य रुग्णों मे यशस्वी रूप से कर रहे है. विगत छ वर्ष मे व वचाहरिद्रादि गण की पचास किलो से भी अधिक अर्थात 2 लाख से अधिक टॅबलेट का हमने पेशंट पर प्रयोग किया है. 

✍️🏼 क्वाथ की मात्रा 2 पल अर्थात 80 से 100 ml तक होती है, 
उसके लिए 20-25 ग्राम चूर्ण को 16 गुना पानी में उबालकर एक चौथाई या एक अष्टमांश बचाकर छान लेना पडता है... 

✍️🏼 और अगर चूर्ण की मात्रा देखिये, तो वो 1 कर्ष अर्थात 10-12 ग्राम इतनी है. 

✍️🏼 20-25 या 10 ग्राम दोनो भी मात्रा, एक समय मे देना, प्रॅक्टिकली असुविधाजनक है. 

😇🙃 अगर 10 ग्राम चूर्ण भी देना है, तो 250mg की 40 टॅबलेट देनी पडेगी. क्योंकि 1 ग्रॅम मे 250mg की 4 टेबलेट्स आती है और 40 टॅबलेट अगर एक समय मे लेनी है, तो उसको कढाई मे डालकर तेल धना जीरा कांदा ऐसा तडका देकर सब्जी बनाकर खाना पडेगा😆😇🙃 

 ✍️🏼 इसी कारण से चूर्ण को संहितोक्त मात्रा में देना भी, आजकल प्रॅक्टिकली संभव नही है, किंतु अगर इस चूर्ण को सप्तधा बलाधान किया हुआ है, तो 40 टॅबलेट डिव्हायडेड बाय 7 (40÷7=6) अर्थात केवल 6 टॅबलेट देकर, उतनाही परिणाम प्राप्त हो सकता है. टॅबलेट को अगर चूर्ण करके / पावडर करके / क्रश करके लिया जाये, तो केवल 1.5 ग्राम इतनी ही मात्रा होती है, जो कोई भी पेशंट, किसी भी समय, और दिन मे तीन या चार बार, आसानी से ले सकता है.

✍️🏼 कुछ कंपनी 500mg & 750mg टॅबलेट बनाते है. अभी हाल मे तो एक कंपनी की एक ग्रॅम की भी कॅप्सूल के आकार की टॅबलेट देखी है. तो अगर टॅबलेट की साईज बढाई जाये तो 2 या 3 टॅबलेट में हि कार्य सफल हो सकता है

✍️🏼 ये 6 टॅबलेट गरम पाणी के साथ या चाय के साथ या केवल पानी के साथ भी अगर ली जाये , या चबाकर खाकर उस पर पानी पिया जाये, तो भी पेट मे जाकर, कुछ ही समय में , उसका संहिता को जैसे अभिप्रेत है, वैसे क्वाथ बन जायेगा. क्योंकि इन टॅबलेट्स की हार्डनेस और डिसिंटिग्रेशन टाईम उस प्रकार से निश्चित किया हुआ रहता है. 

✍️🏼 और जैसे पहले बताया, वैसे इस प्रकार की सप्तधा बलाधान टॅबलेट का सेवन उचित मात्रा मे करने के बाद, 30 मिनिट से 2 घंटे की कालावधी मे, पेशंट को वेदनाशमन (pain relief) का अनुभव प्रायः आता है. ऐसा हमे पिछले 6 सालो मे , 12 किलो = 48000 टॅबलेट के उपयोग के बाद ज्ञात हुआ है. 

✍️🏼 अभी वातज ज्वर वाग्भटोक्त क्वाथ (दुरालभा अमृता मुस्ता नागरम् वातजे ज्वरे) , यह कोई मेरा एकाधिकार या मेरा अपना संशोधन /डिस्कवरी /रिसर्च /पेटंट ऐसा कुछ भी नही है. म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda ने इस क्वाथ के सप्तधा बलाधान टॅबलेट का महाराष्ट्र शासन की औषध निर्माण रजिस्ट्री में विधीपूर्वक रजिस्ट्रेशन किया हुआ है
जिन्हे इस प्रकार की सप्तधा बलाधान टॅबलेट का अनुभव लेना हो, तो वे स्वयं इस प्रकार का प्रयोग करके देखे. किंतु इसके चूर्ण के रिझल्ट नही आते है. आप सप्तधा बलाधान की टॅबलेट बनाकर हि इसका प्रयोग करे. जिन्हे प्रयोग के लिए / अभ्यास की दृष्टि से / शास्त्र अनुभव के रूप मे, इस प्रकार की टॅबलेट का उपयोग करके देखना है, वे हमे संपर्क कर सकते है या अपने यहां स्थानिक स्तर पर स्वयं सप्तधा बलाधान टॅबलेट का निर्माण करके उसका उपयोग करके इस अनुभव को स्वयं ले सकते है. 

✍️🏼 डिस्क्लेमर/Disclaimer : उपरोक्त कल्प क्वाथ योग टॅब्लेट का परिणाम; उसमे सम्मिलित द्रव्यों की क्वालिटी, दी हुई मात्रा, कालावधी, औषधिकाल, ऋतु, पेशंट की अवस्था इत्यादि अनेक घटकों पर निर्भर करता है. 
✍️🏼 Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम डी आयुर्वेद एम ए संस्कृत. सर्वाधिकार सुरक्षित All rights reserved. 
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Friday, 26 May 2023

गुरुपादुकाष्टक भाग एक

गणाधीशो गुणाधीशो विद्यानिधिर्विनायकः कार्यारंभे सदा तस्मै गणेशाय नमो नमः नमस्कार 🙏🏼 ॐ 卐 श्रीगुरुपादुकाष्टक 卐 🪔 श्रीगुरुपादुकाष्टक ज्या संगतीनेंच विराग झाला । मनोदरींचा जडभास गेला । साक्षात् परात्मा मज भेटविला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ १ ॥ निरूपण लेखक : Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत. आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. 9422016871 गुरु पादुका अष्टक असे म्हटलेले असले तरी प्रत्यक्षात या रचनेमध्ये या स्तोत्रामध्ये 10 ओव्या किंवा श्लोक आहेत गुरु पादुका अष्टक अशी तीन मूळ पदे शब्द या शीर्षकात आहेत गुरु या विषयावर वाचनासाठी अभ्यासासाठी मननासाठी प्रचंड वाङ्मय साहित्य उपलब्ध आहे गुरु या शब्दाचा संज्ञेचा अर्थ हा दत्तगुरु इथपासून तर मला कोणतीही गोष्ट शिकवणारी व्यक्ती किंवा वस्तू किंवा पशुपक्षी प्राणी किंवा तंत्रज्ञान असा असू शकतो, त्यामुळे परात्पर गुरू आदिनाथ शंकर किंवा ब्रह्मदेव इथे पासून तर, आज अनेकांचा अमूर्त गुरु असलेला गुगल इथपर्यंत, गुरु या संज्ञेची व्याप्ती पसारा स्पेक्ट्रम कॅनव्हास आहे. गुरु पादुका अष्टक हे तिन्ही शब्द प्रत्येक श्लोकाच्या अंती येणारच आहेत, त्यामुळे या तीन शब्दांविषयी वेळोवेळी विविध पद्धतीने जे सुचेल ते तेव्हा मांडण्याचा प्रयत्न करीन. जे अन्यत्र सहजपणे वाचण्यासाठी उपलब्ध आहे ज्ञात आहे ; ते वगळून, जे चिंतनपर, थोडसं विलक्षण सुचेल (तेही गुरूंच्या प्रेरणेनेच) ते मांडण्यावर अधिक भर प्राधान्य प्राथमिकता देईन. जे अन्यत्र उपलब्ध आहे व वाचले गेले पाहिजे, असे वाटेल, ते संदर्भासहित किंवा त्याची उपलब्ध असलेली लिंक येथे देईन. पादुका हा शब्द उच्चारला वाचला की, प्रायः *खडावा* या प्रकारचे जे पादत्राण आहे ते डोळ्यासमोर येते. बालपणापासून आपण अनेक ठिकाणी मंदिरांमध्ये दत्त मंदिरांमध्ये स्वामी समर्थ गजानन महाराज अशा मठांमध्ये किंवा अगदी विठ्ठल सप्तशृंगी ज्योतिबा अशा मंदिरांच्या मध्येही डोके टेकवण्यासाठी म्हणून चांदीच्या पादुका पाहिलेल्या असतात. जसे श्री शंकरांची मूर्ती प्रायः पहायला किंवा पुजायला लाभत नाही, त्या ऐवजी त्या स्थानी शंकराचे आत्मलिंग म्हणून पिंडीचे पूजन दर्शन पूजा उपचार करण्याची रीत आहे ; तसे अनेक ठिकाणी प्रायः दत्तगुरूंची मूर्ती उपलब्ध नसून प्रमुख तीर्थक्षेत्रांच्या ठिकाणी पादुका स्थापना केलेली आहे, जसे गाणगापूर येथील निर्गुण पादुका, नरसोबाची वाडी येथील मनोहर पादुका. पादुकांचे पूजन करणे, हा अत्यंत विनम्र भाव आहे. आपल्या आराध्य दैवताचे गुरूंचे पूजन करताना, त्यांच्या नीचतम म्हणजे सर्वात खालच्या अशा अवयवाचे म्हणजे जमिनीला लागणाऱ्या पावलांचे पायांचे पूजन करणे, हा त्यातला विनयतेचा भाव आहे. म्हणूनच आपला सर्वोच्च म्हणजे सर्वात वरचा अवयव म्हणजे आपले डोके मस्तक हे आपल्या पूज्य दैवताच्या पायावर ठेवून नमस्कार करणे किंवा आराध्य पूज्य व्यक्तीचे चरण धरणे किंवा पाद्यपूजा करणे, पाय धुवून चरणतीर्थ घेणे, या रीती त्या आराध्य दैवताचे पूज्य व्यक्तीचे महात्म्य दर्शवणारे व भक्ताचे पूजकाचे साधकाचे नम्रत्व दर्शवणारे आहे, म्हणूनच श्री राम वनवासात गेल्यानंतर, त्याच्या पादुका सिंहासनावर ठेवून, भरताने त्याचा प्रतिनिधी सेवक या नात्याने 14 वर्षे राज्य केले. *ज्या संगतीनेंच विराग झाला ।* *ज्या संगतीनेच* म्हणजे *ज्या गुरु पादुकांच्या संगतीमुळे'च' ... संगत कशी, तर *अनन्य भाव* असणारी! अनन्य म्हणजे दुसरं काहीही ... नाही केवळ तेच एक ... एकाग्रता ! *अनन्य चिंतन* अर्थात इतर कशाचेही चिंतन न करता, सर्व विचारशक्ती तेथेच केंद्रित समर्पित करून एकवटून कॉन्सन्ट्रेट करून मुखाने नाम पण मनात मात्र अनेकविध विचार, हे अनन्य चिंतन नव्हे, ही संगत नव्हे ! संगत याचा अर्थ *पर्युपासन* परितः उपासना सर्व बाजूंनी उप म्हणजे जवळच असणे म्हणजे पर्युपासन! संगत म्हणजे *नित्य अभियुक्त* ... नित्य सतत नेहमी , अभियुक्त जोडलेले असणे, कधीही त्यापासून अलग वियोग नसणे ... अशी संगत ! अशा संगतीने म्हणजे अशा अनन्य चिंतनाने, अशा पर्युपासनाने, अशा नित्य अभियुक्तत्वाने काय साधते? तर विराग झाला ... विराग म्हणजे काय? ... राग. याचा अर्थ कुठलातरी रंग लागलेला असणे म्हणजे आपले मन हे काही पूर्व संस्कारांनी युक्त असते. रिकामा कोरा कागद असेल तर, त्यावर नवीन रंग नवीन चित्र नवीन अक्षर उमटणं आणि ती स्पष्ट दिसणं हे सहज शक्य असतं ... पण मूळचा कागद कोरा नसून जर आधीच बरबटलेला रंगलेला असेल, तर त्यावर नव्याने चित्र शब्द रंग उमटत नाहीत. म्हणून आधीचे डाग आधीचे रंग आधीचे संस्कार पुसून काढणे धुऊन काढणे याला विराग असे म्हणतात ... वि याचा अर्थ नसणे वियोग होणे ... कशाचा? राग म्हणजे रंजन ... म्हणजे रंग राग या शब्दाचा संस्कृत मधील अर्थ मराठीप्रमाणे क्रोध संताप असा होत नाही. उलट राग याचा अर्थ प्रेम असा होतो ... रागः-प्रीतिः।😊☺ अनुराग हा शब्द मराठीत प्रायः हा माहित असतो. अनुरागाचे थेंब झेलती प्रीतलतेची पाने तुझ्या नि माझ्या प्रीती मधून फुलती धुंद तराणे हे गाणं बहुदा ऐकलेलं असतं! शुद्धस्य चेतसो रजस्तमोभ्यां रञ्जनं रागः। जन्माच्या वेळी भगवंताने दिलेल्या शुद्ध मनावर रज आणि तम यांचे डाग पडणे म्हणजे राग! राग याचा अर्थ आसक्ती चिकटून बसणे गुंतणे अडकलेले असणे ... अध्यात्म तत्त्वज्ञान सोडले, तरीही कोणत्याही विषयाचा एकाग्रतेने अभ्यास करण्यासाठी, अन्य गोष्टींपासून विराग म्हणजे आसक्ति attachment सोडता आली पाहिजे, इतर अनावश्यक, कमी महत्त्वाच्या, दुय्यम बाबीतून ... स्वतःचं गुंतणं चिकटणं अडकणं हे सोडवता आलं पाहिजे, तरच स्वीकृत विषयाचं अध्ययन कौशल्यप्राप्ती संभवते. म्हणूनच प्रत्येक वेळेला गुरुपादुकाष्टक हे अध्यात्म तत्त्वज्ञान या अर्थी न पाहता, कोणतीही नवीन गोष्ट शिकणे किंवा शिकत असलेल्या गोष्टीत सर्वोच्च कौशल्या प्रत जाणे, या अर्थानेही गुरुपादुकाष्टक पाहावे. म्हणूनच योग्य गुरु असेल तर, तो प्रथमतः त्याच्या संगतीने त्याच्या प्रभावाने त्याच्या विचाराने आपल्याला अन्य विषयांपासून विराग देतो म्हणजेच अनासक्ती सोडवणूक मुक्ती मोकळीक बंधमुक्ती करून देतो! *मनोदरींचा जडभास/ जडभाग गेला ।* मनोदरीचा ... उदर म्हणजे पोट. मनाला पोट असू शकेल का ? तर, नाही. मनोदरीचा याचा अर्थ अंतर भागात, खोल मनाच्या तळाशी, ॲट द बॉटम ऑफ द हार्ट, तह ए दिल से, मनापासून, अंतर्मनात, असं जे वरवरच्या आपल्या व्यक्तिमत्त्वापेक्षा, आपल्या अंतकरणाच्या तळाशी पोचणारी ; अशी ही गुरु पादुकांची संगती असते, ती काय करते? तर जसे *विराग* करते ... तसेच *जडभाग* घालवते. जड भाग याचा अर्थ अज्ञानाचा अंश, अज्ञानाची राशी, अज्ञानाचा साठा, अज्ञानाची जळमटं कोळीष्टकं, अज्ञानाची अडगळ! जसे आपण घरातल्या एखाद्या अडगळीच्या खोलीत नको असलेल्या गोष्टी ठेवून देतो साठवून ठेवतो, तसे एखादा नवीन विचार विषय ज्ञान शिकत असताना, काही *अन लर्निंग unlearning* करावं लागतं , काही पूर्वी शिकलेल्या गोष्टी ह्या विसरून जाव्या लागतात, याला इंग्रजीमध्ये अनलर्न असे म्हणतात. पूर्वीच्या काही दृढमूल झालेल्या समजुती *खरवडून* काढल्या, तरच त्याच्यावर नव्याने चांगला रंग बसणे म्हणजे नवीन विषयाची जाण ठसवणे हे सुलभ होते. म्हणून नव्याने रंग देताना, आधीचा रंग घासून काढतात, त्याला जडभाग घालवणे, पूर्वीच्या अज्ञानाची पुटं काढणे असे म्हणतात. तरच नवीन विषय हा अनबायसली, prejudice पूर्वग्रह दूषितता सोडून, उत्साहाने शिकता येतो. म्हणून जडभाग घालवणे महत्त्वाचे. खरंतर गुरु आणि जड हे मराठीत एकाच अर्थाचे आहेत. गुरु म्हणजे जडच पण इथे मात्र गुरु हा ज्ञान देणारा शिक्षक आचार्य उपाध्याय या अर्थाने आहे आणि (ज आणि ज हे दोन वेगळे उच्चार आहेत) जड याचा अर्थ मूढ मूर्ख अज्ञानी असा होतो *साक्षात् परात्मा मज भेटवीला ।* परमात्मा असा शब्द असायला हवा , पण इथे परात्मा म्हणजे श्रेष्ठ आत्मा याचा अर्थ अध्यात्म तत्त्वज्ञान या क्षेत्रात ब्रह्मज्ञान असा होईल. लौकिक व्यवहारात जेव्हा आपण काही नवीन विषय शिकतो आहोत, तेव्हा परात्मा याचा अर्थ त्या विषयातील सर्वोच्च स्थिती, असा घेता येईल. त्या विषयातील तज्ञ व्यक्ती/ आचार्य/ कौशल्य असणारा माणूस, तो विषय शिकवत असताना, आपल्याला त्या विषयातील सर्वोच्च स्तरापर्यंत जाण्यासाठी , सहाय्य मार्गदर्शन करत असतो. 1 यालाच विराग होऊन 2 जडभाग जाऊन 3 परात्मा भेटवणे असे अध्यापनाचे स्तर जाणावेत *विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ १ ॥* अशा प्रकारे, बिगीनर असणाऱ्याला फ्रेशर असणाऱ्याला अजाणत्याला विषयाशी अपरिचित असणाऱ्याला साधकाला , तत्त्वज्ञान असो वा कोणताही विषय असो, त्याला आपल्या संगतीने म्हणजे आपल्या बुद्धी कौशल्याने आपल्या त्या विषयातील एक्सपर्टीजने आपल्या तपस्येने आपल्या आचरणाने आपल्या सहवासाने आपल्या तपोबलाने आधी *विराग* म्हणजे इतर विषयांपासून सोडवून एकाग्रता साधायला लावणे, नंतर *जड भाग घालवणे* म्हणजे मनामध्ये असलेल्या मूळच्या अज्ञानाचे शंकांचे संशयाचे संभ्रमाचे गोंधळाचे निरसन करणे आणि शेवटी *परात्मा भेटवणे* म्हणजेच त्या विषयातील सर्वोच्च स्थानी नेऊन पोहोचवणे; हे गुरूंचे काम असते, कार्य असते. गुरु सुद्धा *शिष्यात इच्छेद् पराजयम्* म्हणजे शिष्याकडून आपला पराभव व्हावा अशी इच्छा ठेवतात म्हणजे आपला शिष्य आपल्यापेक्षा श्रेष्ठ व्हावा म्हणजेच बाप से बेटा सवाई , या वृत्तीनेच त्यांचे अध्यापनाचे शिकवण्याचे ट्रेनिंग देण्याचे कार्य नि:स्वार्थीपणे करत असतात. अगदी एखाद्या क्षेत्रात शिकवण्याची फी घेतली जात असली तरी, फी ही काॅस्ट असते, पण दिले जाणारे ज्ञान कौशल्य हे मात्र व्हॅल्यू या स्वरूपात असल्यामुळे, ते ज्ञान हे अमूल्य अनमोल असेच असते. म्हणूनच अशा "गुरूंना मी कसा विसरू?" अशा प्रश्नाने म्हणजे *मी कधी विसरणारच नाही* असा निर्धार संकल्प कृतज्ञता भाव येथे व्यक्त होतो. कोणत्याही क्षेत्रात असलेल्या व्यक्तीला, त्याला त्या स्थानापर्यंत पोहोचवणाऱ्या गुरु बद्दल हीच भावना असते. मग धर्म पंथ देश वंश कुठला का असेना! या प्रकारची कृतज्ञता ही मानवी जीवनाची पायाभूत मूल्ये आहेत. त्वदीय वस्तु गोविंद तुभ्यम् एव समर्पये । तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा । श्रीकृष्णाsर्पणम् अस्तु । 🙏🏼 वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक. 9422016871 www.MhetreAyurveda.com www.YouTube.com/MhetreAyurved/

Thursday, 25 May 2023

गुरुपादुकाष्टक निरूपण प्रारंभ प्रस्तावना

गुरुपुष्यामृत गुरुवार निमित्त आजपासून गुरु पादुका अष्टक या दहा श्लोकी गुरुस्तुती वरती निरूपण प्रस्तुत करत आहे. केवळ तात्त्विक आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानात्मक अशी मांडणी न करता, व्यावहारिक लौकिक रोजच्या जीवनात नित्य उपयोगी, अशा प्रकारे गुरुपादुकाष्टक या रचनेची निरूपणात्मक प्रस्तुती सादर करीत आहे. निरूपण सुरू करण्यापूर्वी गुरुपादुकाष्टक काय आहे त्या दहा ओव्या येथे देत आहे आजचे निरूपण स्पष्टीकरण वाचण्यापूर्वी, एकदा गुरुपादुकाष्टक रचनेतील सर्व श्लोक म्हणूया ऐकूया ... मोठ्याने गजर करत, त्याचं भजन करून!! खूप सुंदर प्रासादिक शब्द आहेत , खूप समाधान मिळणारी हृदयंगम अनुभूती आहे ... श्रीगुरुपादुकाष्टक ज्या संगतीनेंच विराग झाला । मनोदरींचा जडभास गेला । साक्षात् परात्मा मज भेटविला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ १ ॥ सद्योगपंथें घरि आणियेलें । अंगेच मातें परब्रह्म केलें । प्रचंड तो बोधरवि उदेला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ २ ॥ चराचरीं व्यापकता जयाची । अखंड भेटी मजला तयाची । परं पदीं संगम पूर्ण झाला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ ३ ॥ जो सर्वदा गुप्त जनांत वागे । प्रसंन्न भक्ता निजबोध सांगे । सद्भक्तिभावांकरितां भुकेला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ ४ ॥ अनंत माझे अपराध कोटी । नाणी मनीं घालुनि सर्व पोटीं । प्रबोध करितां श्रम फार झाला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ ५ ॥ कांहीं मला सेवनही न झालें । तथापि तेणें मज उद्धरीलें । आता तरी अर्पिन प्राण त्याला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ ६ ॥ माझा अहंभाव वसे शरीरीं । तथापि तो सद्गुरु अंगिकारीं । नाहीं मनीं अल्प विकार ज्याला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ ७ ॥ आतां कसा हा उपकार फेडूं । हा देह ओवाळुनि दूर सांडूं । म्यां एकभावें प्रणिपात केला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ ८ ॥ जया वानितां वानितां वेदवाणी । म्हणे ' नेति नेतीति ' लाजे दुरुनी । नव्हे अंत ना पार ज्याच्या रुपाला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ ९ ॥ जो साधुचा अंकित जीव झाला । त्याचा असे भार निरंजनाला । नारायणाचा भ्रम दूर केला । विसरुं कसा मी गुरुपादुकांला ॥ १० ॥ ॥ इति गुरुपादुकाष्टक संपूर्ण ॥

Saturday, 8 October 2022

 : *सण कशासाठी ? ... ~कोजागिरी~ कोजागरी पौर्णिमा !* :


“हाय स्वीटी, अगं कोजागिरीची 'नाईट पार्टीये आमच्याकडे उद्या सोसायटीच्या टेरेसवर समोसे पावभाजी मिल्कशेक कोल्ड्रींक हं...


गणपती सुटले, दुर्गेला वेठीला धरून झालं, आता कोजागरी नुसती मजा करायला निमित्तं पाहिजेत.


जुनी मंडळी म्हणणार “अगं पोरींनो , कोजागिरीच्या रात्री लक्ष्मी रस्त्याने फिरत 'को जागर्ति कोण जागं आहे असं विचारते"


(अरे हो... 'को जागर्ति? ' म्हणून 'कोजागरी' बरं का, 'कोजागिरी' नव्हे... 

~कोजागिरी~ ❌

*कोजागरी* ✅

दादागिरी भाईगिरी गांधीगिरी वगैरे ठीक आहे हो...)


बेपर्वा सेलेब्रेशन्स व पौराणिक गोष्टी अशा या दोन टोकांमध्ये खरंच लॉजिकल बुद्धिला

पटेल असं काही शास्त्रीय कोजागरीत असेल?! ... 


आहे ✅

समाजाच्या आरोग्याची आयुर्वेदीय तत्त्वांशी सांगड घालून पूर्वजांनी धार्मिक सण रूढी सण स्थापल्यात!


कोजागरी पौर्णिमेला चांदण्या रात्री थंड दूध का प्यायचे

🤔❓


कोजागरी पौर्णिमा म्हणजे शरद् ऋतु म्हणजे ऑक्टोबर हीट ! दिवसा उकाडा, रात्री गारवा !


आधीच्या पावसाळ्यात कुंद दमट हवा , भूक नाही यांनी 'अम्ल विपाक' होऊन पित्त साठलेले असते. त्या साठलेल्या पित्ताचा शरदाच्या ऊन्हाच्या तडाख्याने 'प्रकोप' होतो, पित्त वाढते, रक्त बिघडते.


उष्णता-पित्त-रक्त यांचे विकार संभवतात. कावीळ, टायफॉईड, गोवर, तोंड - डोळे येणे, नागीण/धावरं/हर्पिस, कांजिण्या, नाक / संडासवाटे रक्त पडणे, अम्लपित्त, गळू, रॅश, जळजळ, मळमळ इ. रोग संभवतात. 


या वाढलेल्या पित्ताला म्हणजेच 'अग्नि' महाभूताला कमी करणेसाठी मधुर ( पृथ्वी जल महाभूत ) गोड, तिक्त(वायुआकाश)कडू, कषाय ( वायुपृथ्वी ) तुरट चवीचे पदार्थ उपयुक्त असतात. तसेच 'शीत' गुणाची आवश्यकता असते.


'विरेचन' या शोधन कर्म उपायानेही प्रकुपित (वाढलेले) पित्त 'बाहेर काढावे' व बिघडलेले रक्त 'रक्तमोक्षण' करून 'बाहेर काढावे' असा शास्त्रादेश आहे. म्हणूनच या

काळात 'शारदीय पंचकर्म उत्सव' म्हणून 'विरेचन व रक्तमोक्षण प्रकल्प' आयोजित केला जातो. याचा लाभ घेतल्यास उष्णता-पित्त-रक्त यांचे विकार 'कायमचे व मुळापासून नष्ट होतात 


पण संपूर्ण समाजापर्यन्त 'शरद ऋतुचर्या म्हणजे 'पित्तशामक उपाय' पोहोचावा कसा?! 

म्हणून मग 'कोजागरी' पौर्णिमा!! 


'चांदण्या रात्री थंड दूध प्यावे' ही रूढी !! शरदातील चांदणी रात्र व दूध हे दोन्हीही 'शीत' गुणाचे!! 


दूध मधुर म्हणजे गोड चवीचे!

मधुर रस म्हणजे पृथ्वी व जल महाभूत आजही आग विझवणेसाठी पाणी व वाळू हेच प्राथमिक साधन होय. म्हणून पित्त म्हणजे अग्निप्रशमनार्थ मधुररस !! 


दूधच का?? विरेचन हे पित्ताचे परमौषध होय. दूध हे रक्तप्रसादक आहे म्हणून कोजागरी च्या रात्री थंड गोड दूध प्यायचे ✅


समोसे, पावभाजी यांनी पित्त कमी होईल का वाढेल?


मिल्क शेक / फूटसॅलड हा एक 'विचित्र संयाग' होय. याला 'विरूद्धान्न' म्हणतात .


जे दोन पदार्थ स्वतंत्र एकेकटे चांगले असू शकतील पण एकत्र केले तर बऱ्याचदा ते शरीरात सात्म्य होतातच असे नाही. 


दूध, केळी, मीठ एकेकटे चांगले आहेत पण दूध + मीठ, दूध + केळे (कोणतेही फळ) हे ‘विरूद्धान्नसंयोग' होत. 


'मीठ आणि साखरेचं रूप जरी गोरं, एक होई गोड एक होई खारं ! दुधासंगं दोघांचाबी धर्म येगळा रं.' 'विरूद्धान्न' ही एक आरोग्यनाशक गंभीर बाब होय.


'कोल्ड्रींक' ?❓ शीतगुणाची गरज आहे पण कोल्ड्रींकची नक्कीच नाही. कोल्ड्रींकमध्ये दात (काढलेला) टाकून ठेवला तर ३-४ दिवसात विरघळतो !! विचार करा. 


बरे, ते स्पर्शाला शीत असलं तरी गुणकर्मानी शीत नसतं. शिवाय, कोल्ड्रींक चहा ही जीवनावश्यक पेये नव्हेत 


अन् दुसरी बाब म्हणजे कोल्डींकच्या एका बाटलीला दिलेल्या 20 रू. पैकी 5रू. भारतात आणि बाकी 15रू. अमेरिकेत जातात. किती दिवस देश विकायचा? 'कोल्ड ड्रिंक' प्यायचंच असेल तर

डाळिंबाचा रस, आवळा सरबत घ्यावे ही दोन आंबट असली तरी शीत व पित्तशामक होत. खास

'आंबटशौकिनांसाठी' हं!


काळया मनुका, मोरावळा (डाळिंबाच्या रसात पत्री खडीसाखर घालून

केलेला) हे आणखी पर्याय सोललेल्या उसाचे तुकडे (करवे), वाळा किंवा फिल्टर किंवा माठात टाकून ठेवणे हा सोपा स्वस्त मार्ग .


तिक्त (कडू) रस (चव) हाही पित्तशामक होय म्हणूनच गणपती : 21 पत्री, गौरी : २१ भाज्या, अनंत चतुर्दशी : १४ भाज्या, पितृपक्ष : विविध भाज्या अशी योजना असते. कारण या सर्व भाज्या प्राय तिक्तरसाच्या होत.

लेखक : © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे

एम डी आयुर्वेद एम ए संस्कृत आयुर्वेद क्लिनिक @ पुणे व नाशिक 9422016871 www.MhetreAyurveda.com

www.YouTube.com/MhetreAyurved/

'आवळीभोजन' हाही या काळातला प्रकार आवळा शीत (पित्तशामक) होय. त्यात लवण (खारट) वगळता ५ ही रस चवी आहेत. आज बाजारात आवळ्याचे अनेक तयार प्रकार मिळतात. त्यातही डाळिंबरस व पत्री खडीसाखर युक्त मोरावळा सर्वोत्तम! च्यवनप्राशचाही मुख्य घटक आवळाच.


घृत (तूप) हे पित्तशामक परमौषध ! 'आयु: घृतम्' असे वचन आहे . तुपाने कोलेस्टेरॉल नाही वाढत.

नाकात रोज तूप सोडा ४२ दिवस सलग! 42 दिवसानंतर केस, डोळे, कान, नाक, डोके, दात, स्मृति, एकाग्रता, मान, निद्रा या 'उत्तमांग' (खांद्याच्या वरील भाग) प्रदेशातील एकही समस्या शिल्लक

राहणार नाही.


'हंसोदक' = पाश्चरायझेशन ( उकळून गार करणे = क्वथितशीतलम्) असे पाणी पित्तशामक होय.

काल गार केलेले पाणी ( एक रात्र उलटल्यावर) आज वापरू नये. उकळताना तिक्त, मधुर, कषाय (आवळा, गुलाबपाकळी, मोगरा, नागरमोथा, वाळा, लाजा, अनंता इ. ) असे पदार्थ पाण्यात टाकणे अधिकच चांगले. शरदात दिवसा ऊन व रात्री थंड यांनी पावसाळ्यातले जलसाठे आपोआपच उकळून गार होतात! तेही 'अगस्ती' ताऱ्याचे उदयाने निर्विष

होतात. हेच हंसोदक होय. 'ह' म्हणजे सूर्य उष्ण. 'स' म्हणजे सोम शीत! लहान मुले नाही का 'हा

हा आहे' असं गरम बाबींना म्हणतात. इंग्रजीत हॉट म्हणजे उष्ण . योगशास्त्रात सीत्कारी हा शीतलता देतो.


...मग या कोजागरीला काय बेत? 

गुलाबपाकळ्या, मोगरीच्या कळ्या, वाळा घातलेलं

सुगंधी पाणी ; डाळिंबाचे दाणे टाकलेलं आवळा सरबत, धणे-जिरे- तुपाची फोडणी दिलेल्या

साळीच्या लाह्या, पत्री खडीसाखर घातलेलं गोड थंड दूध अन् जोडीला चंद्रचांदण्याची

शृंगारिक गाणी ... शारदसुंदर चंदेरी राती, स्वप्नांचा झुलत झुला ... थंड या हवेत ...

लेखक : © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे

एम डी आयुर्वेद एम ए संस्कृत आयुर्वेद क्लिनिक @ पुणे व नाशिक 9422016871 

 कोजागरी पौर्णिमा बद्दल युट्यूब व्हिडिओ

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https://youtu.be/yIB6Le5mOSA

 ज्यांना मोबाईल स्क्रीनला चिकटून न राहता नुसतं ऐकायचं आहे त्यांच्यासाठी

कोजागरी पौर्णिमा बद्दल ऑडिओ

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https://www.mixcloud.com/MhetreAyurved/mhetreayurved-kojagaree-paurnima-san-kashasathi-te-samajun-ghya-18-oct-2013/

ज्यांना कोजागरी बद्दलचा छोटासा लेख हवाय त्यांच्यासाठी pdf डाउनलोड करण्यासाठी लिंक

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Thursday, 16 January 2020

मकर संक्रांती : तिळगूळ घ्या ... बोला गोड ! आरोग्याला द्या ... संस्कारांची जोड !!

मकर संक्रांती :
तिळगूळ घ्या ... बोला गोड !
आरोग्याला द्या ... संस्कारांची जोड !!

थंडीची सुरूवात होऊन आता दीडएक महिना झालाय. आताशा थंडीचा 'गुलाबीपणा' जाऊन ती आता 'बोचरी' होत चाललीये. हातपायचेहरा इथली त्वचा आणि ओठ फुटलेत. झाडंसुद्धा पानगळतीने उघडीबोडकी दिसताहेत. हाच तो 'शिशिर ऋतु'.


आयुर्वेदानुसार माघ व फाल्गुन महिने हे शिशिर ऋतुचे होत तर ज्योति:शास्त्रानुसार सूर्य जेव्हा मकर व कुंभ राशीत असतो तेव्हा शिशिर ऋतु होय. शिशिर हा उत्तरायणाचा आरंभ होय. कारण या काळात मकर संक्रांत येते म्हणजे सूर्य मकरवृत्त ओलांडून दक्षिणेकडून पुनः उत्तरेकडे येऊ लागतो. दिवस मोठा होऊ लागतो. भारतापासून ( उत्तरगोलार्ध) अधिकाधिक दूर दक्षिणेकडे गेलेला सूर्य या ऋतूत पुनः जवळ यायला आरंभ होतो. पण तूर्त तरी सूर्य खूप दूर असलेने आपल्याकडे मात्र कडाक्याची थंडी असते. आणि म्हणूनच ती बोचरी ठरते. थोडक्यात वातावरण कमालीचे 'शीत व रूक्ष' असते. आणि म्हणूनच याचे दुष्परिणाम टाळणेसाठी बरोबर याच्या विरूद्ध म्हणजे 'उष्ण व स्निग्ध' गुणांची गरज असते. आणि त्याचसाठी आपल्या पूर्वजांनी या ऋतूत आयोजिला सण मकर संक्रांतीचा अर्थात् 'तिळगूळ घ्या , गोड बोला'

तिळगूळच का?

तर तीळ हे 'उष्ण व स्निग्ध' आहेत आणि गूळ हा 'स्निग्ध गुरू व मधुर' होय.

शीत व रूक्ष वातावरणात शरीरातील वातदोष वाढतो. म्हणजे वायु व आकाश महाभूतप्रधान घटक. त्यामुळे धातुंची म्हणजे शरीरघटकांची झीज संभवते. पृथ्वी व जल महाभूते घटतात. ती भरून काढणेसाठीच थंडीत भूक अधिक लागते.म्हणूनच वायु आकाश कमी होऊन पृथ्वी जल महाभूते वाढतील अशा पदार्थाचे सेवन इष्ट ठरते. शिवाय वातदोष शीत व लघु गुणांचा आहे ग्हणून त्याला नियंत्रित ठेवण्यासाठी उष्ण व गुरू गुणांची गरज असते. अशा प्रकारे उष्ण स्निग्ध गुरू मधुर पृथ्वी जल यांचा पुरवठा व्हावा म्हणूनच समाजातील सर्व आर्थिक थरांत सहज उपलब्ध होतील अशा पदार्थाची निवड करून त्यांची धार्मिक रूढींशी सांगड घातली गेली. ते दोन पदार्थ म्हणजेच तिळगूळ घ्या ....गोड बोला.


शिवाय जसे कफासाठी मध, पित्तासाठी घृत ( तूप ) , तसे वातासाठी तिलतैल हे परमौषध म्हणजे सर्वश्रेष्ठ उपाय होय.

गूळ हा उसापासून बनणारा पदार्थ म्हणून संक्रांतीच्या आदले दिवशी भोगीच्या भाजीत उसाचे तुकडे असतात.

अशा प्रकारे शिशिर ऋतूतील अत्यधिक शीतता व रूक्षता यांनी वातप्रकोप होऊन शरीरावर त्याचा दुष्परिणाम होऊ नये म्हणून वातनाशक अशा तिळ व गूळ यांचा सणरूढींत समावेश आहे.

सध्या काही सुगृहिणी (सुगरण हा अपभ्रंश होय ) स्त्रिया तिळगुळाच्या वङ्या किंवा लाडू करताना त्यांत खोबरे घालतात, तेही योग्यच होय कारण नारळ हाही मधुर गुरू स्निग्ध याअर्थी वातशामक होय.

पण सध्या सणांचे बाजारीकरण होत असताना शास्त्रीय परंपरांपेक्षा 'उरकून टाकू उपचार रूढी असा भाग अधिक आहे, म्हणूनच तिळ व गूळ यांच्या वड्या करण्याऐवजी 'सोय व सुटसुटीत' म्हणून काटेरी पांढरा हलवा वापरला जातो. त्यात गूळ नसून साखर वापरली जाते, जी सध्या तरी कारखान्यात तयार होणारी म्हणजे रसायनयुक्त असू शकते. त्यामुळे रूढीतला मूळ शास्त्रीय उद्देश हरवून जातो.

संक्रांतीचे वेळी तिळाचा वापर हा फक्त तिळगूळ किंवा भोगीच्या भाकरीपुरता नसून तो तिलतैलाचा अभ्यंग व तिळाचे उद्वर्तन उटणे याअर्थीही करायचाय. तोही फक्त २ दिवस नव्हे तर थंडी व रूक्षता जोवर वातावरणात आहे तोवर अर्थात् पुढचा सण येईपर्यन्त म्हणजे होळी जळाली थंडी पळाली इथपर्यन्त!

...कारण त्या त्या सणांच्या रूढी, या त्या दिवसापुरत्या नसून, ते त्या संपूर्णऋतूचे आरोग्यनियम होत.

तिळगुळाला फक्त शारीरिक आरोग्यापुरते महत्त्व आहे असे नसून कौटुम्बिक सामाजिक आरोग्यदृष्ट्याही महत्त्व आहे.

'तिळगूळ घ्या ... गोड बोला' हा एकमेकांस देण्याचा संदेश म्हणून तर पिढ्यानुपिढ्या चालत आला आहे. जशी शिशिरामध्ये वातावरणात थंडपणा व रूक्षता येते , तशी ती आता समाजमनातही शिरून मूळ धरू लागली आहे. एक संवेदनाशून्य थंडपणा की षंढपणा आणि 'मला काय त्याचं' असा अलिप्त कोरडेपणा दिसतोय. कुणी विचारवंत म्हणाले होते... 'Men build walls instead of bridges ; so they became Miserable' ... माणसं सेतू बांधायचे सोडून भिंती बांधतात आणि म्हणूनच जीवन केविलवाणे होते.


हे सण "साजरं" करण्याचं वेड भारतीय माणसात उत्सवप्रियतेमुळं आहे का? की परंपरापालनाचा पगडा म्हणून?

की आज खरंच सणांना काही अर्थ राहीलाय का ?

की Just time pass? ...fun fair......?

खरं सांगू, धर्म ही अफूची गोळी आहे. म्हणूनच आपल्या 'शहाण्यासुरत्या' पूर्वजांनी अज्ञानी जनतेला सणांची शास्त्रीयता उलगडून सांगण्यापेक्षा, शास्त्रीय आरोग्यनियमांचे पालन सणांद्वारे कसे होईल, ते पाहीले. उक्तीपेक्षा कृती श्रेष्ठ ! धार्मिक नियम म्हणून का होईना , पण आरोग्यनियम पाळले गेले सणांद्वारे. आपले पूर्वज खरंच थोर होते.

आपल्या प्रत्येक सणाला वास्तव शास्त्रीय अधिष्ठान आहे आणि म्हणूनच आज बुद्धिप्रामाण्यवाद, तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टीकोण, नास्तिकता, 'जुनं ते फेकून द्या', इन्स्टंट जमाना वगैरेंच्या धुरळ्यात सणांची शास्त्रीयता मांडणे योग्य ठरेल. धर्माशी आयुर्वेदाची आरोग्यशास्त्राची सांगड आहे. रूढी समजावून घ्या. त्या केवळ परंपरा नसून शास्त्रशुद्ध आरोग्यनियम होत.

आपले पूर्वज हे खरोखर शहाणे होते. "They were really BAAP"! त्यांना नावं ठेवणं सोपं आहे, पण नाव कमावणे खूप अवघड आहे.

आपल्या संस्कृतीने मनामनातला हा कोरडेपणा रूक्षता थंडपणा जावा म्हणूनच संक्रांतीची योजना केलीये की ज्यामुळे परस्परांबद्दल 'स्नेह' वाढून एकोपा राहील. मायेचा ओलावा (म्हणजेच 'स्नेहन' )  व आपुलकीची ऊब (म्हणजेच 'स्वेदन') हेच समाजाच्या आरोग्याचे मूलमंत्र होत. ज्या संस्कृतीने व्यक्तिच्या शारीरिक कौटुंबिक सामजिक आरोग्याची काळजी घेण्यासाठी स्नेहाचे गोडी तिळगुळाचे सुसंस्कृत सण योजिले, त्याच समाजाला मनगटावर पट्टे बांधण्याचे 'फ्रेंडशिप डे' अधिक आवडावेत हे आमच्या मानसिक गुलामगिरीचे फळ आहे. पाश्चात्यांचे अंधानुकरण न करता आपण आपल्या सण उत्सव रूढी' यांकडे कधी शास्त्रीय व विधायक डोळस वृत्तीने पाहणार आहोत काय ? आपल्या पिढीचे सोडा पण उमलत्या निरागस पिढीच्या हाती आपण कोणता सांस्कृतिक ठेवा सोपवणार आहोत ? विस्मृतीत चाललेल्या सात्त्विक परंपरा की विकृत उथळ चवचाल पाश्चात्य फॅड फॅशन ?

आशा आहे ...

तिळगूळ घेऊन बोलू गोड

आरोग्याला देऊ संस्कारांची जोड ...

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे
एम डी आयुर्वेद , एम ए संस्कृत
पुणे (प्रत्येक रविवारी) , नाशिक (मंगळ ते शुक्र)

आरोग्यसम्पन्न आनंदी आयुष्यासाठी आश्वासक आयुर्वेदीय उपचार

Tuesday, 1 October 2019

सण उत्सव रूढी कशासाठी? उपास ? की उपवास? कशासाठी ? Upas or upvas ? Fasting ... Whats the purpose

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे Vaidya Hrishikesh B. Mhetre
© www.MhetreAyurved.com, 9422016871

उपास ? की उपवास? कशासाठी ?
"एकादशी आणि दुप्पट खाशी"...
“आज माझं वरत (व्रत) आन् दिवसभर चरत”.
खिचडी, वेफर्स, तळण, गुडदाणी हे खायला मिळतं म्हणून उपास करणारे अनेक आहेत.
सुटी कशासाठी? तर काम करून थकलेल्या शरीराला विसावा मिळावा, पुन: ताजंतवानं होता यावं म्हणून
किंवा राहिलेली काम पूर्ण करता यावी म्हणून !
( अनुशेष भरून काढणे) !
तसेच उपास कशासाठी ... तर पचनसंस्थेला विश्रांती मिळावी किंवा शरीरात असलेल्या अनेक अपाचित  (न पचलेल्या) गोष्टींचे पचन पूर्ण करता यावे म्हणून . लंघनाने अनेक विकार बरे होऊ शकतात . उपास करणारे किती लोक हा उद्देश सफल होऊ देतात ? मुळात अनेकांना उपास / भूक सहन होत नाही. बाकीचे खिचडीसाठी ... ... ... तर उरलेले रूढी धार्मिक नियम म्हणून .


वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे Vaidya Hrishikesh B. Mhetre
© www.MhetreAyurved.com, 9422016871


खरंतर 'उपास' हा शब्द नव्हे . तो ‘उपाशन = उप अशन' हवा . म्हणजे मुख्य नेहमीचे जेवण सोडून काही उपपदार्थ खाणे . यालाच 'उप + आहार = उपाहार' म्हणावे .
म्हणून पूर्वी एस् . टी . स्टॅण्डवर 'उपाहारगृह' असायचे त्याचे बहुतेक सर्वत्र 'उपहारगृह' झाले . इंग्लीश स्पेलींग आम्ही कधीच चुकत नाही पण मराठी शब्द मात्र चुकूनही 'शुद्ध' लिहीत नाही . पहिलीपासून इंग्रजी ! व्वा!!
'उपाशन' चे 'उपोषण' झाले आणि 'उपास' बहुधा 'उपवास'चे अपभष्ट रूप होय .
उप = जवळ , वास = राहणे . देव संत सज्जन यांचा सहवास
म्हणजे उपवास . सत्संग!
श्रीचक्रपाणि (श्रीचरकसंहितेचे टीकाकार) म्हणतात ...
'उपावृतस्य/अपावृतस्य पापेभ्य:
सहवासो गुणैः हि यः
उपवासः स विज्ञेयः
न शरीरस्य शोषणम्'
अर्थात् पापांपासून दूर होऊन सदगुणांचा सहवास करणे म्हणजे उपवास होय . भुकेले राहून शरीराचे शोषण करणे हा उपवास नव्हे . धर्मशास्त्रात उपवासाचे वेळी दूध, तूप, मध, पाणी
यांनाच मान्यता आहे . फळे कंदमुळे नंतर घुसलेत. पचायला हलका, सत्त्वगुणपधान आहार हवा . दही, केळी, रताळी यांनी तमोगुणी सुस्तीच येणार .बरे आजचे 'उपासाचे पदार्थ ही
पळवाट,फसवणूक, सोय किंवा विनोद होय .

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे Vaidya Hrishikesh B. Mhetre
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आज आम्ही साबुदाणा, बटाटा, शेंगदाणे, वनस्पती तूप, मिरची, चहा या बाबी खिचडी, वेफर्स या स्वरूपात 'उपासाचे पदार्थ म्हणून खातो . पण हे सारे पदार्थ भारतीय नव्हेतच .ते ब्रिटीशांनी आणलेत. पूर्वी विहीरीत ब्रेडचा तुकडा टाकून धर्म बाटत असे ! आणि आज हे सारे पदार्थ आमच्या धार्मिक उपासाचा आहार!!! बरे हे सर्व पदार्थ इतके जड व पित्तकर आहेत की पुढे २ दिवस पचनसंस्थेची वाट लागते! अम्लपित्त होते! गॅसेस होतात! पण इथे पोटासाठी खातो कोण?! सारे काही ओठासाठी! जिभेचे चोजले!?
जगण्यासाठी खात नाही, खाण्यासाठी जगतो!? ...... पौरूषाकडून पशुत्वाकडे!?!?
साबुदाणा हा स्टार्च होय . कपडे स्टार्चने कसे 'कडक होतात तसे आतडयांचे होते. आतडयांना याचा 'रबरी लेप' बसतो . मग ते पचवेपर्यन्त दमतात आतडी . कशाची भूक लागणार?  साबुदाण्याचे पांढरे शुभ दाणे; दलदलीत उगवणारया कंदाच्या लगद्यापासून कसे तयार करतात ते सविस्तर सांगितले तर पुनखायची इच्छा होणार नाही. शिंगाडेही थोडे जडच . भगर वरई पित्तकर .

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे Vaidya Hrishikesh B. Mhetre
© www.MhetreAyurved.com, 9422016871

मग उपासाचे खरे पदार्थ कोणते ?? ज्यांनी पचनसंस्थेला खरंच विश्रांती मिळेल व उभारी येईल असे पचायला हलके आणि सात्त्विक पदार्थ.
उदा.१. लाह्या ... ... राजगिरा, ज्वारी किंवा सर्वोत्तम म्हणजे साळीच्या लाह्या . मक्याच पॉपकॉर्न किंवा तांदळाचे चिरमुरे नव्हे.
२. मूग, मसूर यांचे कढण.
३.भाजलेल्या तांदळाची पेज / मांड.
४. भिजवलेल्या काळ्या मनुका . बेदाणे नव्हे . डाळिंब, अंजीर, आवळा ही फळे .
५. गरम पाणी.
६. पडवळ, दोडका, दुधी भोपळा, मुळा
हे ...  हे ... हे काय उपासाचे पदार्थ आहेत का? का ? इंग्रजांनी आणलेले 'जीवनाला अनावश्यक व आरोग्यनाशक असे चहा साबुदाणा मिरची बटाटा शेंगदाणे वनस्पती तूप हे
सगळं उपासाला चालतं ! *मग साळीच्या लाह्या आणि उकडलेल्या फळभाज्या का नाही चालत?*
आता उपवासाचेच महिने आहेत . गटारी आमुशाला खाटखुट म्हणजे नॉन व्हेज खाल्लं की चातुर्मासात मांसाहार बंद . का बरं? श्रावणी, सोमवार, शनिवार, जन्माष्टमी, नागपंचमी, ऋषिपंचमी, हरतालिका, पितृपक्ष, नवरात्र ... इतके उपास का?

वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे Vaidya Hrishikesh B. Mhetre
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 कारण वर्षाऋतुतील कुंद दमट आर्द्र वातावरणात 'अग्नि पचनशक्ति' अतिशय क्षीण होतो . त्यावेळी आहार जितका कमी जाईल तेवढं बरं . म्हणजे अपचन व तज्जन्य आम, ज्वर, अतिसार उलट्या इ. विकार व्हायला नकोत. पावसाळा म्हणजे रोग होण्यास अनुकूल काळ . अग्नि मंद . पित्ताचा चय . वाताचा प्रकोप . बिघडलेले वातावरण दूषित जल . म्हणूनच अग्नि टिकवायचा सांभाळायचा . त्यासाठी ढीगभर व्रतं . उपास . खाऊ नका . हलकं खा . म्हणून पंचमीला लाह्या . आणि मांस पचायला खूप जड म्हणून बंद.
धर्माशी आयुर्वेदाची आरोग्यशास्त्राची सांगड आहे .
रूढी समजावून घ्या. त्या परंपरा नसून शास्त्रशुद्ध आरोग्यनियम होत.
आपले पूर्वज हे खरोखर शहाणे होते.
"They were really BAAP"
नावं ठेवणं सोपं आहे, नाव कमावणं खूप अवघड आहे.
.... ... ... मग उद्याच्या उपासाला ... छे छे उपाशनाला / उपवासाला काय खाणार ?
सा सा साबु ... अं अं ... सा सा साळीच्या लाह्या ... ... हं . त्याने उपवास 'मोडत' नाही ... ... "उपवास घडतो”... ... आणि देवाला काय सांगणार? ...
'अविरत ओठी यावे नाम ... ... ...
श्रीराम जय राम जय जय राम'
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