Monday, 2 December 2024

स्रोतस् : एक खोज ... ढूंढते रह जाओगे!😇

स्रोतस् : एक खोज ... ढूंढते रह जाओगे!😇

✍🏼 वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक 

9422016871 

यह लेख आगे पढने से पहले, अगर उचित लगे और आवश्यक लगे, तो लेख के अंत मे दिया हुआ डिस्क्लेमर सर्वप्रथम पढे. सत्यं वच्मि !! ... ऋतं वच्मि !!


नाटक (play/drama) में रंगमंच पर नेपथ्य (background/ stage property) नामक एक प्रकार होता है.

प्रत्यक्ष में, "वस्तुतः वहांपर कुछ भी नही होता है", केवल वे नट नटी (रंगमंच पर उपस्थित पात्र) वही स्टेज पर एक गोल चक्कर लगाते है और कहते है ... "अरे वा, मुंबई आ गई ... देखो देखो कितनी बडी बडी इमारतें है ... गाडियां कितनी तेज चल रही है !!!" ... की देखने वालों ने "समझ"/"मान" लेना है की मुंबई आ गयी है, किंतु "प्रत्यक्ष मे वहां पर कुछ भी होता ही नही है"!!!


वैसे ही स्रोतस नाम की यह बात, ये केवल "मानने" की "समझने" की बात है, प्रत्यक्ष शरीर मे स्रोतस कही पर भी अस्तित्व मे नही है, प्राप्त नही है, उपलब्ध नही है, दिखाई नही देता


1.

स्रोतस् यह एक भ्रामक वाग्वस्तुमात्र कल्पना है. स्रोतस नाम का शारीर भाव वस्तुतः अस्तित्व मे होता हि नही है. 


2.

"स्रोतोविद्धं" तु प्रत्याख्यायोपचरेत्, 


स्रोतोगते (शल्ये) स्रोतसां स्वकर्मगुणहानिः;


सिराधमनी "स्रोतः" स्नायुप्रनष्टे (शल्ये) खण्डचक्रसंयुक्ते याने व्याधितमारोप्याशु विषमेऽध्वनि यायात् यत्र संरम्भो वेदना वा भवति तत्र शल्यं विजानीयात्;


"व्यधे तु स्रोतसां" मोहकम्पाध्मानवमिज्वराः। 

प्रलापशूलविण्मूत्ररोधा मरणमेव वा॥४७॥ 

स्रोतोविद्धम् अतो वैद्यः प्रत्याख्याय प्रसाधयेत्। 


ऐसे शल्य द्वारा "विद्ध" हुये स्रोतस के बारे में स्पष्ट उल्लेख संहिता में है


जिस स्रोतस का आप "विद्ध" लक्षण बताते हो, अर्थात जो एन्टीटी/भावपदार्थ वेध पीअर्स पेनिट्रेट करने योग्य है, उसको आप अगर "दिखा" नही पाते हो, "लोकेट" नही कर पाते हो , "डेमॉन्स्ट्रेट" नही कर पाते हो ... तो काहे का स्रोतस??? 🤷🙆🤔⁉️


3.

चरक ने स्रोतस् के लिए "स्रोतसाम्" ऐसा बहुवचन = कम से कम तीन (3) होने चाहिये और 


सुश्रुतने स्पष्ट रूप से स्रोतस के लिए "द्वे" ऐसा शब्द प्रयोग किया है = निश्चित रूप से दो (2) होने चाहिये ...


तो आप किसी भी मनुष्य के शरीर में, दो पुरीषवह स्रोतस्, दो अन्नवह स्रोतस् दिखा दो !!


हां, दो मूत्रवह स्रोत आपको मिल जायेंगे... युरेटर के रूप मे ... किंतु वृक्क से मूत्र निर्माण होता है, यही आयुर्वेद को पता नही है !!! 😇🙃🤦‍♀️🤷‍♂️


4.

 एकही मुखसे अंदर गया हुआ , "अन्न और पानी (दोनों भी!)" उसी "एक हि आमाशय मे हि" अगर जाता है , यह "प्रत्यक्ष" है तो , उदक वह स्रोतस् का स्वतंत्र अस्तित्व कहां पर दिखायेंगे?🤔⁉️


5.

मूल परीक्षण करके स्रोतस् का परीक्षण कैसे होता है?🤔⁉️ 

अगर मुंबई से पुणे आना है और मुंबई की स्थिति और पुणे की स्थिति ठीक है किंतु रास्ते मे 92km का एक्सप्रेस हायवे पॅक/जॅम है, तो मुंबई और पुणे इन महानगरो की स्थिती देखकर, दोनो के बीच के एक्सप्रेस हायवे पर कैसे प्रवास होगा ???


6.

जो सुश्रुत शल्य में भग्न की बात करता है, पिच्चित की बात करता है, उस सुश्रुत को अस्थिवह और मज्जावह स्रोतस् बताने की आवश्यकता नही लगी!🤔⁉️😇🙃


7.

अस्थिमज्जस्वेदवाहिषु स्रोतःसु सत्स्वप्यनधिकारः; कथं? तत्रास्थिवहानां सकलानामेव मेदो मूलं, मज्जवहानां च तेषां सकलान्येवास्थीनि सकलशरीरगतानि, न च सकलशरीरगतविद्धलक्षणं साध्यादिज्ञाननिश्चायकम्, एवं स्वेदवहानामपि केवलं मेदो मूलमिति पूर्वेणैव समानम्, अतः शल्यतन्त्रे तेषां मूलविद्धलक्षण अनधिकारः। 🤦🙆🤔⁉️


उस पर उसका👆🏼 टीकाकार कहता है कि अस्थिवह मज्जावह इन् स्रोतसों के मूल "सर्व शरीर व्यापी" है, इसलिये शल्य का अधिकार नही है ... क्यूंकी "संपूर्ण शरीर" को व्यापने वाला शल्य अस्तित्व मे हो नही सकता


किंतु वही सुश्रुत मांसवह स्रोतस् बताता है, जिसके मूल स्नायु और त्वचा "पूरे शरीर मे" व्याप्त है.😇🤣


8.

एक मनोवह स्रोतस् कुछ लोग बताते है, जो मन हमारा अधिकार हि नही है, उसका स्रोतस् बता के क्या करेंगे? 


अच्छा, चलो मनोवह स्रोतस् "है भी" तो , उसके मूल क्या है?? 🤔⁉️

किसी ने नही बताया. 

बाकी सभी स्रोतसों के दो दो मूल है. 


9.

अभी जो मन नित्य है, जिसमे वृद्धि क्षय असंभव है, जिसका पोषण नही होता है, ऐसे स्वयं चक्रपाणी बताता है, उसके लिए "परिणाम आपद्यमान" स्रोतस् की आवश्यकता क्या है? 😇 ...जिसमे "परिणमन हि संभव नही है", उस मन का स्रोतस हो ही नही सकता और मन को आने जाने के लिए मार्ग चाहिये तो सिराधमनी से चला जाये, स्रोत में ही घुसने की क्या आवश्यकता है! 


10.

"आने जाने के लिए" स्रोतस् चाहिये तो, ये सभी इंद्रियों में कैसे जाता है? क्या एकही स्रोतस् सभी इंद्रियों तक जाता है??? 


11.

अगर स्रोत का विद्धलक्षण बताया है, तो जिसका वेधन हो सकता है, ऐसे मूर्त शारीर भाव में से, कोई मेदोवहस्रोतस् उदकवह स्रोतस् रसवह मांसवह स्रोतस् प्रत्यक्ष दिखा तो दे👁👁 , की जिसमे से "सचमुच" ये भाव बह रहे है, वहन हो रहे है. ✅️🤔⁉️


12.

आज जहा डीएनए तक चीजे देखी जा सकती है, वहां इतने स्थूल स्रोत अगर "दिखाई नही" देते है, तो उनका सद्भाव "मानने" की आवश्यकता क्या है?


13.

अनिर्देश्यमतः परं तर्क्यमेव । तद्यथा- नव स्नायुशतानि, सप्त सिराशतानि, द्वे धमनीशते, चत्वारि पेशीशतानि, सप्तोत्तरं मर्मशतं, द्वे सन्धिशते, 

👆🏼

SROTAS not mentioned 


ऐसे जो निर्देश(demonstrate) नही कर सकते , केवल तर्क(assume) कर सकते है, अनुमानगम्य है अर्थात जो दिखा नही सकते, डेमोन्स्ट्रेट नही कर सकते ... ऐसे शारीर भावों के लिस्ट में सूची मे "स्रोतस का समावेश नही है" (चरक शारीर 7 शरीरसंख्या ). इसका अर्थ स्रोतस तर्क्य न होकर , प्रत्यक्ष है! अनुमानगम्य ना होकर इंद्रिय गम्य है ... इसलिये ये दिखाई देने चाहिये डेमॉन्स्ट्रेबल होने ही चाहिये


किंतु वस्तुस्थिती ऐसी है नही


14

धमनीनामिह मूलज्ञाने यद्यपि "साक्षात् प्रयोजनं नोक्तं"😇🙃, तथाऽपि मूलोपघाताद्वृक्षाणामिव धमनीनां महानुपघातो भवतीति ज्ञेयम्, अत एव सुश्रुते स्रोतोमूलविद्धलक्षणान्युक्तानि॥


चक्रपाणि के मतसे स्रोतसों के मूल ज्ञान का कुछ भी प्रयोजन नही है🙆🤦 तो फिर क्यूं बताये इतने विस्तार से???


15.

चक्रपाणीने चरक विमान स्थान अध्याय 5 स्रोतसां विमान इस एक ही अध्याय मे , जहा "स्रोतस" का वर्णन हो रहा है , वहा पर स्रोतस शब्द की जगह , एक दो नही, अपितु, "17 बार धमनी शब्द" का प्रयोग किया है (क्यूं किया ऐसे ?!) 🤔⁉️😇🙃 ... जो पढने वाले को कन्फ्युज कर देता है!


16.

अतिप्रवृत्तिः सङ्गो वा सिराणां ग्रन्थयोऽपि वा ।

विमार्गगमनं चापि स्रोतसां दुष्टिलक्षणम् ॥


स्रोतसों की दुष्टी से , सिरा में ग्रंथी (?) क्यो होती है, कैसे होती है?


और एक स्रोत से दुसरे स्रोत मे विमार्ग गमन कैसे होता है ... क्या ये स्रोतस या कोई भी अन्य आकाशीय भाव एक दूसरे से जुडा हुआ है????


17.

स्वधातुसमवर्णानि वृत्तस्थूलान्यणूनि च ।

स्रोतांसि दीर्घाण्याकृत्या प्रतानसदृशानि च


अगर आपको स्रोत का वर्ण पता है ... उसका आकार = शेप पता है तो, उसका दर्शन करवाईये डेमोन्स्ट्रेट करवाईये लोकेट करिये ... दिखाईये ना!!!


किंतु एक भी स्रोत कोई भी दिखा नही सकता


18.

तत्र केचिदाहुः- सिराधमनीस्रोतसामविभागः, सिराविकारा एव हि धमन्यः स्रोतांसि चेति । तत्तु न सम्यक्, अन्या एव हि धमन्यः स्रोतांसि च सिराभ्यः;


सुश्रुत संहिता शारीरस्थान अध्याय 9 के आरंभ मे,

ये उपरोक्त परिच्छेद आता है, जिसका आधार लेकर, लोग कहते है कि, चरक मे सिराधमनीस्रोतस् इनको एकही माना है ... लोगों का छोड दिजिए, शायद चक्रपाणि ने भी चरक संहिता ठीक से पढी नही हैं, क्यूं कि, चरक विमान 5 के तीसरे श्लोक की टीका के अंतिम वाक्य मे चक्रपाणि भी यही कहता है

👇🏼

"न च चरके", सुश्रुत इव, धमनीसिरास्रोतसां भेदो "विवक्षितः"॥ 😇🙃


किंतु चरकसंहिता के सूत्रस्थान के 29 अध्याय मे यह श्लोक आता है, जो सभी को पता है ... लेकिन चक्रपाणि को पता नही है, क्या करे?! 🤷🤦🙆

👇🏼

ध्मानाद्धमन्यः , स्रवणात् स्रोतांसि , सरणात्सिराः ॥✅️


19.

स्रोतांसि, सिराः, धमन्यः, रसायन्यः, रसवाहिन्यः, नाड्यः, पन्थानः, मार्गाः, शरीरच्छिद्राणि, संवृतासंवृतानि, स्थानानि, आशयाः, निकेताः च ... 

👆🏼

इति , "शरीरधात्ववकाशानां लक्ष्यालक्ष्याणां नामानि" भवन्ति ।


उपरोक्त परिच्छेद मे "स्रोतांसि" से लेकर "निकेता:" तक , ये सारे शरीर धातुओं में जो "अवकाश" है, उन्मे से कुछ "लक्ष्य" (डेमॉन्स्ट्रेबल / लोकेटेबल) और कुछ "अलक्ष्य" नाॅन लोकेटेबल धातु "अवकाश" है, "उनके" ये नाम है ... "चरक ने" ऐसा कही पर भी "नही कहा" है कि ये "स्रोतसों के पर्यायी नाम है".


जिसको अत्यंत प्राथमिक स्तर का सर्वसामान्य संस्कृत व्याकरण विभक्ती/कारक विशेषण विशेष्य का ज्ञान है, उसे भी ये पता चलेगा की, ये "शरीर धातू अवकाशों" के नाम है ; ऐसा उपरोक्त परिच्छेद का अर्थ होता है ... "ये स्रोतसो के (पर्यायी) नाम है" ऐसा इस परिच्छेद का "अर्थ हो ही नही सकता"!


मुंबई जयपुर भोपाल अहमदाबाद बेंगलुरु इति विविधानां राज्यानां राजधानीनगराणाम् नामानि भवन्ति 

👆🏼

ऐसा लिखेंगे तो ... इसका अर्थ यह नही होता है की, जयपुर भोपाल अहमदाबाद बेंगलुरु, ये "मुंबई शहर के पर्याय नाम" है !!!

अपितु, इसका अर्थ यही होता है की मुंबई से लेकर बेंगलुरु तक , ये विविध राज्यों के राजधानी नगरों के नाम ✅️ है.


उसी प्रकार से "स्रोतांसि" से लेकर "निकेताः" तक सारे शब्द शरीर धातू "अवकाशों" के नाम है, "न कि स्रोतसों के पर्याय नाम" है 🙂


किंतु फिर भी दिग्भ्रमित करने की दुष्टि से ही , संभवतः चक्रपाणीने , अपने टीकामे यह स्पष्ट रूप से कहा है कि, "ये स्रोतसों के पर्यायी नाम है"

👇🏼

स्रोतसां व्यवहारार्थं पर्यायानाह- स्रोतांसीत्यादि। 


और फिर से, यहा पर भी स्रोतस शब्द की जगह, धमनी शब्द का दो बार प्रयोग किया है, चक्रपाणी ने!

👇🏼

स्थानादिपर्यायान् केचिद्धमनीमूलस्य पर्यायानाचक्षते; अन्ये त्वेतानपि धमनीपर्यायानाहुः


लेकिन कुछ लोगों को चक्रपाणि तो, चरक से भी बढकर ग्रेट लगता है ... वास्तविकता मे ऐसा है नही!!!


20.

प्राणोदकान्नवाहानां दुष्टानां श्वासिकी क्रिया ।

कार्या तृष्णोपशमनी तथैवामप्रदोषिकी ॥


प्राणवह स्रोतस् को प्राणवह क्यूं कहा? 

उसको तो श्वासवह कहना चाहिये.


और उसके मूल, स्पष्ट रूप से ...

नासा मूलं फुफ्फुसौ च । यही होने चाहिये, जो वस्तुस्थिती है ... लेकिन आयुर्वेद को फुफ्फुस का काम ही पता नही है


21.

चरक सूत्र 27 मे अन्न को "प्राण" कहा है


वैसे तो प्राण एकादश है. 

किंतु जीवन चलने के लिए प्राण जो है, वो तीन है : अन्न, उदक और श्वास !

तो अगर अन्नवह & जलवह स्रोतस है, तो तीसरा "श्वासवह" स्रोतस होना चाहिये ... प्राणवह स्रोतस यह "अतिव्याप्ती दोष" है ... क्योंकि प्राण शब्द, श्वास उदक अन्न, इन तीनो को बोधित करता है !!!


22.

उदकवह की दुष्टी में तृष्णा की चिकित्सा करनी है. उदक का क्षय है तो तृष्णा चिकित्सा ठीक है. 


किंतु जब उदकवह स्रोतस मे जल वृद्धीजन्य लक्षण हो तो भी तृष्णा की चिकित्सा करना उचित नही होगा


23.

वही बात अन्न वह दुष्टीमें ... अगर अन्न अधिक हुआ अपाचित रहा, तो आम प्रदोष चिकित्सा ठीक है, 


किंतु अन्नक्षय हुवा, अन्न आपूर्ती नही हुई तो???


24.

विविधाशितपीतीये रसादीनां यदौषधम् ।

रसादिस्रोतसां कुर्यात्तद्यथास्वमुपक्रमम् ॥


अगर स्रोतस की दुष्टि मे भी, उन उन स्रोतसों के धातुओं के दुष्टि की ही चिकित्सा करनी है ... तो स्रोतसों का अध्याय या स्रोतसों का विमान = "विशेष ज्ञान"(?) देने वाला अध्याय लिखने का प्रयोजन ही क्या है???🤔⁉️


हायवे पर गड्ढा / pothole है, तो वह हायवे से जाने वाली गाडी का दोष कैसे हो सकता है ?🤔⁉️


और अगर गाडी के इंजन मे खराबी है, तो वह गाडी जिस हायवे से जा रही है, उस हायवे का दोष कैसे हो सकता है ?😇


और मान लो हायवे पर का गड्ढा/pothole भर दिया गया ठीक किया गया ... तो क्या गाडी का इंजिन अपने आप ही ठीक हो जायेगा ??? 🙃


या फिर गाडी के इंजन की खराबी ठीक कर दी गई इंजिन रिपेअर कर दिया ... तो क्या गाडी जिस परसे दौड रही है उस हायवे का गड्डा pothole भी अपने आप भर जायेगा ठीक हो जायेगा ??? 🙆🤦🤷


ऐसे तो हो नही सकता ... ये सामान्य से बात है.


इसी 👆🏼 कारण से रसादी धातुओं की दुष्टी की जो चिकित्सा है ... "वही" रसादी धातुओं के स्रोतस की भी चिकित्सा है ... ऐसा कहना यह "अत्यंत अशास्त्रीय" विधान है


25.

मूत्रविट्स्वेदवाहानां चिकित्सा मौत्रकृच्छ्रिकी ।

तथाऽतिसारिकी कार्या तथा ज्वरचिकित्सिकी ॥


इन तीनो मे भी फिरसे वही प्रश्न ... की मूत्रक्षय में मूत्र कृच्छ्र की चिकित्सा ठीक है... पुरीष वृद्धी में अतिसार के चिकित्सा ठीक है ... स्वेदक्षय में ज्वर चिकित्सा ठीक है ... लेकिन स्थिती उलटी हो जाये तो , अर्थात मूत्र वृद्धी हो , पुरीष क्षय हो , मलावरोध हो, अतिस्वेद हो तो, फिर वही चिकित्सा कैसे उपयोग मे आ सकती है???


26.

तेषां प्रकोपात् स्थानस्थाश्चैव मार्गगाश्च शरीरधातवः प्रकोपमापद्यन्ते, इतरेषां प्रकोपादितराणि च । 


👆🏼 इसमे कहते है की स्रोतस की दुष्टी से स्थानस्थ और मार्गग दोनो शरीर "धातु" प्रकुपित होते है, दुष्ट होते है, उसके आगे इतरों के प्रकोप से इतर प्रकुपित होते है, इसका क्या अर्थ है ??? भगवान को पता !!!


किंतु अगले ही वाक्य मे कहते है की, स्रोतसों से स्रोतस "हि" दूषित होते है और धातुओं से धातु "हि" दूषित होते है 

👇🏼

स्रोतांसि स्रोतांस्येव, धातवश्च धातूनेव प्रदूषयन्ति प्रदुष्टाः । 

अभी उपर कहा की स्रोतसों की दुष्टि से उनमे से बहने वाले "धातू" दूषित होते है ... अभी कह रहे है स्रोतसों से स्रोतस "हि" दूषित होते है और धातुओं से धातु "हि" दूषित होते है ... 


पढनेवाला बेचारा समझे तो क्या समझे???😇🤔⁉️


27.

यान्येव हि धातूनां प्रदोषविज्ञानानि तान्येव यथास्वं प्रदुष्टानां धातुस्रोतसाम्

👆🏼

अगर धातुदुष्टी के लक्षण हि स्रोतस दुष्टी के लक्षण है, तो फिर स्रोतसों का अध्याय हि क्यू अलग से बताया ??


28.

🙃😇🤔🌀

स्रोतस् यह तो अत्यंत भ्रामक कल्पनारम्य वाग्वस्तुमात्र आकाशपुष्प गगनारविंद आश्रयासिद्ध अस्तित्वहीन बिना सिर पैर की बात है


29.

"पुरीषवहे द्वे" ... क्या किसी ने दो पुरीषवह स्त्रोतस कभी देखे भी है ⁉️

किंवा 

*"अन्नवहानां स्रोतसां"* अर्थात बहुवचन अर्थात अन्नवह स्रोत कम से कम तीन(3) तो होने हि चाहिये , किंतु अन्नवह स्त्रोतः प्रत्यक्षतः एक हि है, ऐसा स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, किंतु इसे ये महास्रोतस् कहते है , जिसमे उपर अन्नवह & नीचे पुरीषवह स्त्रोतस् एक दूसरे से जुडा हुआ है ... फिर भी इन दोनों के मूल, महास्रोतस् से अलग कही दूसरी जगह पर है


अन्नवह स्रोतस का एक मूल तो वामपार्श्व है, ये तो किसी भी प्रत्यक्ष ज्ञान से सिद्ध होना असंभव है


30.

प्रदुष्टानां तु खल्वेषां रसादिवहस्रोतसां विज्ञानान्युक्तानि विविधाशितपीतीये; यान्येव हि धातूनां प्रदोषविज्ञानानि तान्येव यथास्वं प्रदुष्टानां धातुस्रोतसाम् ।


धातू की दृष्टी लक्षण और स्रोतस् का दृष्टी लक्षण एकसमान कैसे हो सकता है? क्यूंकी धातू और स्रोतस ये एक दूसरे से अलग अलग शारीर भाव है.

स्रोतच नाम के आकाशीय भाव मे से, धातू नाम का पार्थिव या जलीय या द्रवरूप भाव वहन करता है. अस्थ्यपि द्रवरूपमस्त्येव स्रोतोवाह्यमिति

👆🏼 चक्रपाणिने तो अस्थि भी द्रवरूप होता है, ऐसे लिखा है


हायवे(=स्रोतस) पर अगर गड्ढा /pothole है , तो वह हायवे से जाने वाली गाडी(=धातु) का दोष नहीं हो सकता है.


और उलटा, यदि गाडी(=धातु) के इंजिन मे अगर कोई दोष है , तो वो हायवे(=स्रोतस) का दोष नही हो सकता.


स्रोतस् यह एक मार्ग आहे 

उसमे से बहने वाला धातू यह एक अलग/भिन्न भाव है 


इस कारण से धातू और स्रोतस इन दोनों की दुष्टि एकसमान ही है, ऐसा लिखना ... यह अत्यंत अविश्वसनीय अशास्त्रीय है


31.


किंतु हमारे वैद्य और विद्यार्थीयों के बुद्धी में आयुर्वेद के विषय शास्त्र की बजाय, श्रद्धा भक्ती आरती भंडारा प्रसाद घंटा ये इस प्रकार का अशास्त्रीय अभिनवेश खचाखच भरा हुआ है


जामनगर की आरंभ के बॅचेस के एक पीजी, जब एचपी डिग्री हुआ करती थी, तबके हमारे एक दिवंगत गुरुवर्य आदरणीय सर, जो कभी पुणे के सर्वाधिक प्रसिद्ध आयुर्वेद कॉलेजों के प्रिन्सिपल भी थे, उन्होने कहा था कि ... आयुर्वेद के शास्त्रानुयायी विद्यार्थी निर्माण करने की बजाय, "अतिरेकी= आतंकवादी= उग्रवादी" बनाये जा रहे है


आज तो ऐसे 'अतिरेकी उग्रवादी" लोगों के इतने पंथ तैय्यार हो गये है, की पूछो मत ...


ये "उग्रवादी" लोक कुछ भी सुनने समझने की स्थिती/& क्षमता मे होते ही नही है!


सारासार बुद्धी, सदसद्विवेक बुद्धी की दृष्टी से, क्या सत्य है ... क्या मिथ्या है ... क्या भ्रामक है; ये समझने की उनकी इच्छा और क्षमता दोनो नही है.


आयुर्वेद यह, तत्कालीन ऋषियों ने उनकी सर्वोत्तम निरीक्षण शक्ती और उनकी उस समय की मर्यादा के अनुसार तर्क का उपयोग करके, लिखी हुई बाते है!

वे सभी बाते त्रिकाल सत्य नही हो सकती , उसमे युगानुरूप सुधारणा की आवश्यकता है , यह इन "उग्रवादीयों" को मान्य ही नही होता है 


यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ।

👆🏼

चरक संहिता के अंत मे यह एक "प्रक्षिप्त श्लोक" है, वही इनको त्रिकाल सत्य लगता है


32.

वातपित्तश्लेष्मणां पुनः सर्वशरीरचराणां सर्वाणि स्रोतांस्ययनभूतानि, तद्वदतीन्द्रियाणां पुनः "सत्त्वादीनां" *केवलं चेतनावच्छरीरम् अयनभूतम् अधिष्ठानभूतं च ।*

सत्वादीनां = सत्व & "आदि" अर्थात कौन कौन??

 🤔

सत्व को छोडकर, सत्वादीनाम् मे जो "आदि" है, उनके स्रोतस् कहा पर है?😇🤔⁉️


संपूर्ण शरीर "यही" यदि, अधिष्ठान & अयन दोनो भी हो, तो मनोवह स्रोतस अलग से कहा से दिखायेंगे कैसे दिखायेंगे??? 


अधिष्ठान & अयन ये अलग ही होते है 


पुणे मुंबई को जोडनेवाला हायवे यह अयन=मार्ग है.

पुणे & मुंबई ये दो अधिष्ठान है.

अयन & अधिष्ठान एक हो ही नही सकते

सत्त्वादीनां *केवलं चेतनावच्छरीरमयनभूतमधिष्ठानभूतं च ।

👆🏼

इस कारण से यह वाक्य ही गलत है

 

33.

मनोवह स्रोतस अस्तित्व में है भी , 

तो उसके मूल कौन से है? 

सभी स्रोतसो को दो मूल है


34.

मनोवह स्रोतसं कितने है? 


एक या दो या 3 या अनेक ???


क्यू की ... मन तो एक ही है , इसलिये उसके दो स्रोतस तो हो ही नही सकते


पर, सुश्रुत मे तो सभी भावों के दो दो है ऐसे बताया 


चरक तो स्रोतस् का उल्लेख बहुवचन मे करते है, "स्रोतांसि" "स्रोतसां" "भवन्ति" ... ऐसे ... तो कम से कम बहुवचन के लिए तीन(3) स्रोतस तो होने ही चाहिये


चरक इंद्रिय स्थान में भी, "मनोवहानां पूर्णत्वात् स्रोतसां" ऐसा लिखा है, अर्थात बहुवचन! बहुवचन मे उल्लेख है इसका अर्थ मनोवह स्रोतस, कम से कम तीन (3 or 3+) या उससे अधिक तो होने ही चाहिये


अगर मनोवह स्रोतस् तीन या उससे अधिक (3 or 3+) है, तो मन कितने होते है एक शरीर मे?? 😇


35.

सर्वे हि भावा पुरुषे नान्तरेण स्रोतांस्यभिनिर्वर्तन्ते, क्षयं वाऽप्यभिगच्छन्ति । 


स्रोतस के बिना किसी भी भाव का अभिनिर्वर्तन या क्षय नही होता है, ऐसे चरक कहते है .


किंतु, मन तो नित्य है, इस कारण से उसका अभिनिर्वर्तन या क्षय, यह दोनो भी असंभव है, इस कारण से मनोवह स्रोतस अस्तित्व मे हो ही नही सकता


36.

अनेक रोगों के संदर्भ में उनके निदान में स्रोतसों का उल्लेख है ...

किंतु प्रत्यक्ष उन्हीं रोगों के चिकित्सा के अध्याय मेन निदानोक्त स्रोतसों की निदानोक्त दुष्टी कैसे ठीक करनी है, इसलिये कौन से स्रोत के लिए कौन सा औषध या उपचार किया जाना चाहिए ... इसका कोई भी दिशानिर्देश उल्लेखित नही है!


अगर निदान मे स्रोतस का उल्लेख है, तो उनके रिपेअरिंग का चिकित्सोपचार का निर्देश चिकित्सा स्थान मे होना ही चाहिये था !!!


अगर चिकित्सा स्थान मे ऐसे उपचार देने ही नही थे, तो निदान स्थान मे स्रोतस की दुष्टि बताने का प्रयोजन कुछ भी नही रहता है.


👆🏼

इतने सविस्तर स्पष्टीकरण से और स्रोतस के इन 36 अवगुणों के निर्देशन से यह पता चलता है की ...

स्रोतस यह "जानने की" एन्टीटी न होकर केवल "मानने" की एन्टीटी है! 

अर्थात स्पष्ट शब्द मे ,

स्रोतस यह एक निरुपयोगी निष्प्रयोजन निरुद्देश अभ्युपगम कल्पनारम्य ऐसी अस्तित्वहीन entity है. 

Srotas is not a factual entity... 

but just an assumption consideration supposition imagination fantasy fad ... 

it is a non existent thing, just for sake of question and answer in theoretical exam, 

a subject of worthless debates and 

futile discussions in seminars webinars academic chitchating courses. 

Srotas has no role no importance no utility no applicability in real practice at all !!! 

Srotas is just for academic vocal entertainment!!!


आत्मा मन अग्नि दोष ... ऐसेही "स्रोतस्" यह एक अत्यंत लोकप्रिय तथा महत्त्वपूर्ण मानी जानेवाली "संकल्पना" आयुर्वेद शास्त्र मे है.

इस पर न जाने कितने सेमिनार व थिसिस हो चुके है और आगे भी होते रहेंगे ...

इस स्रोतस् "संकल्पना" पर म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda आनेवाले कुछ दिनो मे प्रस्तुत करेंगे ... "स्रोतस् : एक खोज ... ढूंढते रह जाओगे"!


इसके पूर्व भी ऐसी हि एक अन्य महत्त्वपूर्ण "संकल्पना" ... 

"ओज" इस पर भी म्हेत्रेआयुर्वेद MhetreAyurveda ने एक लेख प्रस्तुत किया था ... जिनको उत्सुकता कुतूहल जिज्ञासा है ,

वे ओज संकल्पना पर लिखे हुए 

"ओज : एक बोझ" इस लेख को 

नीचे दी हुई लिंक का उपयोग करके पढे

👇🏼

https://mhetreayurved.blogspot.com/2024/01/nirdosha-ayurveda-1-part-1.html


संकल्पना शब्द का अर्थ just an imagination अभ्युपगम assumption consideration supposition ... 

not a fact, not a reality ... 

वस्तुस्थिती नही 

वास्तविकता नही 

सत्य नही 

तथ्य नही


Disclaimer: यह लेख वैयक्तिक मत के रूप मे लिखा गया है. इस लेख मे उल्लेखित विषयों के बारे मे अन्य लोगों के मत इससे भिन्न हो सकते है. इस लेख मे लिखे गये मेरे मत, किसी भी अन्य व्यक्ती या संस्था पर बंधनकारक नही है तथा उन्होने मेरे ये मत मान्य करने हि चाहिये, ऐसा मेरा आग्रह नही है. उपरोक्त विषयों के बारे मे जो मेरी समझ, मेरा आकलन, मेरा ज्ञान है, उसके अनुसार उपरोक्त लेख मे विधान लिखे गये है. उन विषयों के बारे मे वस्तुस्थिती और अन्य लोगों के मत, मेरे मत से, मेरे आकलन से, मेरी समझ से, मेरे ज्ञान से अलग हो सकते है.


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