मुस्तावचाग्निद्विनिशाद्वितिक्ता
भल्लातपाठात्रिफलाविषाख्याः।
कुष्ठं त्रुटिं हैमवती च योनि ...
स्तन्यामयघ्ना मलपाचनाश्च॥
विशेष रूप से कफ प्रधान या शीतगुणजन्य स्निग्ध गुरु गुणजन्य क्लेद प्रधान पृथ्वी जल प्रधान स्त्री विशिष्ट विकारोमे उपयोगी अत्यंत वीर्यवान कल्प!
इस कल्प मे भी वचाहरिद्रादि गण के तीन मुख्य कंद द्रव्यों का समावेश है, वचा हरिद्रा व मुस्ता. तथापि यह कल्प/गण संतुलित नहीं है, यह एकांतिक योग या गण है. वचाहरिद्रादि में शुंठी हरिद्रा अभया ऐसे वीर्यवान उष्ण रुक्ष औषधों के साथ हि पृष्णिपर्णी इंद्रयव यष्टी इनका भी समावेश है, किंतु इस मुस्तादि गण में, इस प्रकार से संतुलन नही है, यह एकांतिक उष्ण तीक्ष्ण रूक्ष तिक्त कटु इस प्रकार का कल्प है, इस कारण से यह सर्वथा कफवैपरित्य मे कार्य करता है. रस वीर्य विपाक इनकी सुसंगती के परे जाकर इन द्रव्यों का या इस गण का *जो गामित्व है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्यूंकी इसी प्रकार के रस वीर्य विपाक होने पर भी अन्य किसी गण मे स्पष्ट रूप से *योनिस्तन्यामयघ्ना* इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त नही होता है, यद्यपि स्तन्यामयघ्ना या शब्द वचाहरिद्रादि में है, योनि दोषहर इस प्रकार का वर्णन न्यग्रोधादि रोध्रादि में उपलब्ध है, किंतु योनि व स्तन्य इन दोनों का उल्लेख मात्र इसी गण मे होता है, इस कारण से यह गण स्त्री विशिष्ट विकृतियों के लिए समर्पित है! किंतु, ऊन विकृतियो मे भी, जो विकृतियां कफ प्रधान गुरु स्निग्ध शीत गुण प्रधान क्लेद प्रधान पृथ्वी जल प्रधान इस प्रकार की है , ऐसे विकारो मे , लक्षणों/अवस्थाओं मे मुस्तादी गण या मुस्तादि गण के द्रव्यों का उपयोग अवस्थानुरूप लाभदायक होता है.
उष्ण गुण होने के कारण यह गण कुछ वात जन्य अवस्था में भी उपयोगी होता है, किंतु उसके साथ अपतर्पण या धातुक्षय या प्रक्षोभ ना हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है.
इसमे से पाठा और मुस्ता स्तन्यशोधन महाकषाय में भी उल्लेखित है, चरक में, पाठा का उल्लेख पुष्यानुग चूर्ण में भी है. किंतु मुस्तादि गण यह पुष्यानुग चूर्ण की तरह एकांतिक स्तंभन नही है. आगे जब रोध्रादिगण और न्यग्रोधादि गणके संबंध मे लिखेंगे, तब पुनश्च इन की समानता का अध्ययन करेंगे.
तथा पाठा का उल्लेख ग्रंथ्यार्तव मे भी आया है, तो ग्रंथि यह भी अवस्था कफ प्रधान और पृथ्वी जल प्रधान ही होती है.
विशेष रूप से इसमे त्रुटी अर्थात सूक्ष्म एला का उल्लेख है, तो जो विस्रगंधात्मक या विस्रगंध प्रधान अवस्थायें, योनि आर्तव इन स्थानो मे होती है, इसमे सूक्ष्म एला यह उपयोगी होती है. एलादि चूर्ण यह भी इसी प्रकार से कार्यकारी होता है. क्लेद द प्रधान दुर्गंध युक्त विस्रगंध युक्त कंडु प्रधान अवस्था में यह लाभदायक परिणाम देता है.
कफ प्रधान जलवत स्राव में त्रिफला कार्यकारी होती है.
पाण्डुरेऽसृग्दरे पिबेत् जलेनाऽऽमलकीबीजं
... इति चरक!
कफ प्रधान घन स्त्यान कंडु प्रधान स्राव युक्त अवस्था में वचा हरिद्रा भल्लातक इनका उपयोग होता है.
संरंभ प्रक्षोभ दाह आरकता कंडु विस्रगंध पीतवर्णता रजःप्रवृत्ती के पहले और बाद में ऐसे स्राव होना, इनमें मुस्ता का उपयोग अधिक होता है.
किंतु इतनी अंशांश कल्पना के बजाय, संपूर्ण मुस्तादि गण का प्रयोग किया जाये, तो प्राय सभी कफ प्रधान कफवात प्रधान कफपित्त प्रधान अवस्थामे , स्त्री विशिष्ट विकृति मे मुस्तादि गण अपेक्षित परिणाम अल्पकाल मे देता है.
इसका वैशिष्ट्य यह है कि दो मेन्सेस तक सतत अगर इस गण का सेवन अपानकाल मे किया जाये , तो योनि गत पुनरावर्तक/रिकरिंग कंप्लेंट्स पूर्णतः बंद हो जाती है.
इसका निर्माण करते समय अतिविषा और हैमवती अर्थात श्वेतवचा इनका समावेश म्हेत्रेआयुर्वेद / MhetreAyurveda नहीं करते है, क्यूंकि अतिविषा अत्यंत काॅस्टली है और हैमवती अर्थात श्वेतवचा संदिग्ध और दुर्लभ है.
साथ हि भल्लातक का अंतर्भाव केवल मूल चूर्ण मे करते है, क्वाथ निर्मिती के समय/ भावना देते समय बलाधान के समय भल्लातक का समावेश नही करते है.
चित्रक की भी उपलब्धी उतनी मात्रा मे हर समय नही होती है.
इन कारणो से अतिविषा की जगह मुस्ता द्विगुण मात्रा मे जैसे हम वचाहरिद्रादि गण मे करते है, उसी प्रकार से हैमवती की जगह वचा का प्रमाण द्विगुण करते है.
तेषु तु अलाभतः। युञ्ज्यात्तद्विधमन्यच्च,
द्रव्यं जह्याद् अयौगिकम्॥
वैसे तो वचाहरिद्रादि गण से हि जैसे स्तन्य दोष नाश यह परिणाम प्राप्त होता है, ऐसेही योनि विकृतियो मे भी उपशम प्राप्त होता है ... तथापि अत्यंत कफ प्रधान क्लेद प्रधान स्थिती मे मुस्तादि गण अधिक कार्यकारी होता है. पेशंट मे अगर संरंभ प्रक्षोभ दाह ऐसे लक्षण ना हो तो वचाहरिद्रादि की तुलना मे मुस्तादि हि अधिक उपकारक है
प्रोलॅक्टिन Prolactin अत्यधिक मात्रा मे बढना, ऐसी स्थिती मे भी मुस्तादि दो मेंसेस तक सतत देने के बाद रिपोर्ट किया जाये तो वह नॉर्मल तक आ जाता है
वृषण व स्तन यह शुक्र के मूलस्थान हे सुश्रुत संहिता मे, तो स्त्री मे शुक्र रूप बीज या बीज रूप शुक्र धातु का विचार करेंगे तो, वृषण व स्तन की जगह योनी और स्तन का विचार होना चाहिये , इस कारण से आज का ओव्हम फर्टिलिटी पीसीओएस ए एम एच, एल एच, एफ एस एच, पी आर एल, प्रोजेस्टेरॉन, इस्ट्रोजेन ... ऐसे हार्मोन से संबंधित विकृतियों में / असंतुलन में , दो से छ (2 to 6) मेंसेस तक मुस्तादि गण का अपान और व्यानोदान (भोजनपूर्व और भोजन पश्चात) दोनों औषधी कालो मे निरंतर प्रयोग करने से, इनके रिपोर्ट भी नॉर्मल आ जाते है और इसमे ओबेसिटी जैसे अन्य कोई साइड इफेक्ट भी नही होते है
*ओव्ह्युलेशन स्टडी = फॉलिक्युलर स्टडी इस मे यदि रप्चर डीले हो रहा है तो , रप्चर होने के लिए मुस्तादि 7धा बलाधान टॅबलेट अपान + व्यानोदान = भोजनपूर्व + भोजनोतर देंगे, तो दूसरे ही दिन रप्चर हो गया है ऐसा अनुभव प्रायः सभी स्त्री पेशंट मे आता है*
मलपाचन यह स्त्री विशिष्ट स्थिती मे तथा सार्वदेहिक स्थिती मे भी लागू होता है.
मल का एक अर्थ दुष्ट विकृत शोधनार्ह दोष ऐसा भी होता है
तो जहां जहां पर इस प्रकार के दोषों का पाचन होकर उनका स्रोतःस्थित लीनत्व नष्ट करना अभिप्रेत है, ऐसे सभी अवस्था मे , चाहे वह स्त्री विशिष्ट अवयव मे हो या सर्व देह में या किसी अन्य अवयव में हो, वहां पर मुस्तादि गण अपने उष्ण तीक्ष्ण रूक्ष अग्नि वायु प्रधान सामर्थ्य से कार्यकारी होता है
कफज शोथ, पीनस, संधिशोथ, कर्णस्राव, शिरोगौरव, शीतपित्त, स्तन ग्रंथि, विद्रधि, भगंदर, टॉन्सिल्स, वृषण शोथ, PCOS, Fibroids, cyst, सकफ कास, कफज अवरोधज श्वास, नाॅन हीलिंग रिकरिंग वूंड ऐसे कफ प्रधान क्लेद प्रधान पृथ्वी जल प्रधान संचयजन्य उत्सेध accumulation अवरोधजन्य अवस्था मे कार्यकारी होता है. कुछ स्थितियों मे इसका लेप भी उपयोगी होता है
सुश्रुतसंहिता मे मुस्तादि गण का फलश्रुती मे *श्लेष्मनिषूदन* ऐसा स्पष्ट शब्द है, इसका अर्थ है कि, मुस्तादि गण की दोषानुसार कार्यकारिता यह कफ प्रधान स्थितियों में अधिक है, तथा च कफपित्त प्रधान कफवात प्रधान अवस्था मे यह उपयोगी होता है
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