Friday, 12 April 2024

नवीन संहिता निर्माण का मार्गदर्शक सूत्र

 यथा स्यादुपयोगाय तथा तदुपदेक्ष्यते। 

यह वाग्भटका वाक्य नवीन संहिता निर्माण का मार्गदर्शक सूत्र होना चाहिए .


जो आयुर्वेद के अधिकरण के परे है, ऐसे विषयोंको इसमे संमिलित हि नही करना चाहिए ...

और तो और ऐसे विषयों को पढाना हि नही चाहिये


दर्शनशास्त्र और प्रमाण इनको पढाने की क्या आवश्यकता है ?

जो "युगानुरूप संदर्भ" के रूप मे , उस समय वाग्भट ने संहिता लिखी ... उसमे भी कहां सृष्टी / दर्शन / प्रमाण इनका वर्णन किया है ???


अकेला अष्टांगहृदय,  संपूर्ण रूप से आयुर्वेदिक चिकित्सा व्यवसाय यशस्वी पद्धती से करने के लिए सक्षम और पर्याप्त है. दक्षिण भारत में सदियों से अष्टांग हृदय आधारित ही चिकित्सा हो रही है.


और भी, वैसे सुश्रुत मे कहां पर आपको प्रमाण का वर्णन मिलता है ?

तो क्यूं पढते है हम बिना कारण उसको ?

अच्छा, सृष्टी शरीर ... सृष्टी क्यू पढानी है ??


उसमें हम क्या घटाने बढाने वाले है? उसमे क्या वृद्धी क्षय हो सकता है? जो महाभूत के उपर की सृष्टी का वर्णन होता है, उसका हम से लेना देना हि क्या है?


तो क्यों ऐसे व्यर्थ चीजों को पढाना है? और पुस्तक मे उनके प्रकरण बढाने है ??


ये जो पदार्थ विज्ञान नाम के विषय के रूप मे बच्चों के दिमाग का दही बनाया जाता है... अध्यापकों के लिए विनाकारण शिरःशूल निर्माण होता है ... ऐसे विषय को बंद हि कर देना चाहिए.


पूरे पदार्थ विज्ञान मे जो महाभूत गुण कर्म वर्णन है, वह अष्टांगहृदय के सूत्र 9 नववे अध्याय मे जितना आया है, उतना पर्याप्त है.


बिना कारण हि वो इंद्रियार्थ संनिकर्ष , अनुमान के प्रकार हेत्वाभास ... क्या पढाने की आवश्यकता है?

नैयायिकों का सांख्य का वैशेषिक का सृष्टी की तरफ देखने का नजरिया क्या है, इससे मुझे क्या लेना देना?? 


आयुर्वेद तो सृष्टी की तरफ पंचमहाभूतों की नजरो से देखता है और पंचमहाभूतों के परे आयुर्वेद का ना तो अधिकार है, ना हि क्षमता है और जितना महाभूतों की बारे मे जानना आवश्यक है, उतना चरक सुश्रुत वाग्भट के संहिताओं मे पर्याप्त रूप से लिखा हुआ है


तंत्र युक्ती उसकाल के ग्रंथरचना के शैली के संदर्भ मे लिखी हुई बाते है 

आपके विचार करने के विविध पद्धतियों को विविध तंत्रयुक्तियों का लेबलिंग नामकरण किया गया है 


आज टेबल एक्सेल शीट पाय चार्ट बार चार्ट फ्लो चार्ट पिक्चर डायग्रॅम फिगर यही नयी तंत्रयुक्तियां है.


ग्रंथ लिखने के लिये आज आपको दृष्टांत / निदर्शन इनकी क्या आवश्यकता है? जहां चित्र प्रिंट हो सकता है, वहां पर उपमा बताने वाले दृष्टांत नाम के तंत्रयुक्ति की आवश्यकता हि क्या है ??


उसी प्रकार से ग्रंथ लेखन शैली को बताने वाले ताच्छील्य कल्पना तंत्रदोष इन सारे अनावश्यक बातों को त्याग देना चाहिए.


चरक विमान आठ मे उल्लेखित तंत्र गुणों का विचार किया जाये तो व सारे तंत्र गुण आज के आयुर्वेद को लागूही नही होते है यशस्वी धीर पुरुष सेवितम यह वाक्य आयुर्वेद के संहिता या प्रॅक्टिस या तंत्र को नही अभी तो आज के मॉडर्न के पुस्तकं को प्रॅक्टिस को ही लागू होता है यह सूर्यप्रकाश जितनी सत्य बात है


वैसे भी पदार्थविज्ञान तंत्रयुक्ती इत्यादी बाते दुर्बोध है एक बार बी ए एम एस परीक्षा पास होने के बाद 99% लोक उसको भूल जाते है और अपने जीवन मे उसका कभी भी किसी भी प्रकार से उपयोग किये बिना हि उनका आगे का अध्यापन या प्रॅक्टिस ऐसा जो भी करिअर है , वो यशस्वी एवं निर्विघ्न रूप से चलता रहता है.

इसी से पता चलता है की तंत्रयुक्ती आदि बाते अनावश्यक है, क्योंकि उनके उपयोग के बिना भी व्यवहार सुचारू रूप से चलता है.


इसलिये अष्टांग हृदय मे ऐसी बातो का एक शब्द से भी उल्लेख नही है


आज जिस प्रकार से मॉडर्न का हायेस्ट लेव्हल का रेफरन्स बुक डेव्हिडसन हॅरीसन हर कुछ सालों के बाद  अपडेट होता रहता है, उसी प्रकार से सुबोध स्पष्ट गद्य में अगर लिखेंगे तो ... किसी भी तंत्रयुक्ति की आवश्यकता हि नही है ...

रीडिंग बिटवीन द लाईन्स संकेतार्थ गूढार्थ लीनार्थ लेशोक्त अनुक्त अव्यक्त तर्क्य ध्यानचक्षु ज्ञानचक्षु योगजसंनिकर्ष ऐसी अमानवीय बातों को रखना हि नही है.


किसी भी सामान्य स्टुडन्ट को वह वाक्य पढने के बाद उसकी आकलन क्षमता के अनुसार सुबोध सुगमरूप से विषय समझ मे आना चाहिए ऐसी संहिता लिखने की आज के काल की आवश्यकता है need of the hour 


हम अगर वही फिरसे अतिविस्तार गूढ ऐसा कुछ लिखने वाले है , तो पिष्टपेषण है ये !!!

ये तो पुराने संहिताओ से भी दुर्बोध दुर्गम और अस्वीकार्य हो जायेगा और निष्प्रयोजन होगा

Thursday, 11 April 2024

अनावश्यक तर्क्य अनिर्देश्य कल्पनारम्य वाग्वस्तुमात्र असिद्ध असत्य कालबाह्य दोषयुक्त बाते = नॉन डेमॉन्स्ट्रेबल नॉन डिस्पेन्सिबल बाते निकाल देने पर क्या बचेगा ?? उसके बाद जो बचेगा, *वही दोषरहित अर्थात *निर्दोष आयुर्वेद* बचेगा और वही सबको जचेगा✅

अनावश्यक = नॉन डेमॉन्स्ट्रेबल नॉन डिस्पेन्सिबल बाते निकाल देने पर क्या बचेगा ??


उसके बाद जो बचेगा, *वही दोषरहित अर्थात निर्दोष आयुर्वेद* होगा ... 🎯

कैसे ? ऐसे ...


आयुर्वेद का अधिकरण पुरुष✅️

पुरुष अर्थात पंचमहाभूत और आत्मा 

इसमे से आत्मा नित्य है निर्विकार है तो उसकी चिकित्सा संभव और आवश्यक नही है 


पंचमहाभूत ... 

उसमे से आकाश नित्य है 

जिसमे वृद्धीक्षय इंक्रिज डिक्रीज संभव नही है.

ना हि वह डेमॉन्स्ट्रेबल है ना हि डिस्पेन्सिबल है.

इसलिये उसका विचार हि अनावश्यक है.


महाभूत चार 4 हि है प्रॅक्टिकली 

इन चार 4 महाभूतों से शरीर मे छ 6 धातू & दो 2 मल बनते है, जो शरीर की रचना और क्रिया चलाते है.

दोष नाम की कोई भी एन्टिटी / भाव पदार्थ अस्तित्व में होता हि नही है 


किसी असमंजस के कारण आकाश और वायू महाभूत को वात दोष माना गया 


अग्नी और जलमहाभूत को पित्तदोष माना गया / समजा गया 


और जल और पृथ्वी महाभूत कफ दोष 'कहा' गया 


वात पित्त कफ हे त्रिदोष तो तथाकथित सो काॅल्ड कन्सिडरेशन ॲझम्प्शन इस प्रकार से है 

ये वस्तुस्थिती नही है 

त्रिदोष यह एक भ्रामक कल्पना आहे वाग्वस्तुमात्र विषय है 


वस्तुतः चार महाभूत हि होते है ... त्रिदोष होते हि नहीं है


जब पित्त मे अग्नी महाभूत बढता है, तो पचन का काम करता है और जब पित्त मे द्रव महाभूत बढता है तो वो पचन का काम नही करता है , क्लेदन का काम करता है रेचन का काम करता है ... तो क्यू एक पित्त दोष माने? ज्यादा अच्छा है कि अग्नी और जल महाभूत कहे.


अगर क्लेद पृथ्वी प्रधान हो जाता है और संघात होता है तो अश्मरी बनती है और अगर क्लेद द्रव प्रधान हो जाये और मूत्र से निकल जाये तो से प्रमेह कहते है ...

तो क्यों कफ कहना है ?

क्यू बहु द्रवश्लेष्म कहना है? 

पृथ्वी कहो जल कहो आसान है 


आकाश तो होता ही नही 

इन चार महा भूतों के सद्भाव से या अभाव से आकाश होना न होना ऐसे माना जाता है 


आप आकाश को घटा या बढा नही सकते है 


उसी प्रकार से आत्मा काल दिशा यदि नित्य होने के कारण मे वृद्धीक्षय संभव नही


मेरे वैयक्तिक मत के अनुसार मन नाम का द्रव्य ही अस्तित्व मे नही है ... (जो भी है बुद्धी है, मन नही होता है) ... और अगर मन है भी , तो वो भी नित्य है और नित्य है तो , उसमें वृद्धी क्षय होता नही है 


और जिसमे वृद्धिक्षय नही होता है , उसमे चिकित्सा क्या करेंगे ??


चिकित्सा का अर्थही घटाना बढाना संतर्पण अपतर्पण लंघन बृंहण भौमापम् और इतरत् ... अर्थात पृथ्वी जल और अग्नी वायु ऐसा है ... तो जो नित्य है, जैसे की आत्मा उसमे हायपो हाइपर डिक्रीज इन्क्रीज वृद्धि क्षय नही होता है, वही बात आत्मा के साथ आकाश दिशा और काल की भी है 

इसलिये वे सभी चिकित्स्य अर्थ चिकित्सा के विषय ही नही है ... वही बात अगर मन नित्य है, तो मन की भी है. मन चिकित्स्य नही है क्यूं कि महाभूतो द्वारा वृद्धि क्षय होने के कक्षा मे न आनेवाला है ...


और सुश्रुत कहते है की चिकित्सा शास्त्र मे महाभूतों के परे किसी भी विषय की चिंता अर्थात विचार करने की आवश्यकता नही है 


चरक भी कहता है सभी द्रव्य पांच भौतिक ही है और नित्य द्रव्य पांचभौतिक नही है


मै तो कहता हु मन होता ही नही है , जो कुछ बुद्धी है मन को मानना यह भी बुद्धी ही है सारी 

अगर मन एक होता , तो आदमी को दो तीन या भिन्नविचार आते ही नही... 


बुद्धी है . बुद्धी बहवः = बुद्धी अनेक है ... इसलिये अनेक विचार आते है 


महाभुत चार होते है, *चारही* होते है 

और उनसे शरीर मे एक भी दोष नही बनता है.

रस तो अस्तित्व में हि नही होता है.

इसलिये रक्त से लेके शुक्र तक छ 6 हि धातू बनते है ... जो दिखाई देते है डेमॉन्स्ट्रेबल या डिस्पेन्सेबल या दोनों है बल या डिस्पेन्सिबल नही है वो वस्तू चिकित्सकीय नही है 


मै तो कहता हु कि वह वस्तू अस्तित्व मे ही नही है.


फिर उन्ही चार महा भूतो से दो मल बनते है , 3 नही


चार महाभूत हमारे शरीर मे अन्न के स्वरूप मे प्रवेश करते है , अन्न भौतिक है ... इसलिये उससे बनने वाले छ6 धातू और दो2 मल ये भी भौतिक है 


स्वेद नाम का तिसरा मल नही होता है ऐसे भी देश काल और वंश है जहां स्वेद आता ही नही है 


स्रोतच भी एक भ्रामक कल्पना है.

जिस स्रोतस का आप विद्ध लक्षण बताते हो याने जो एनटीटी/भावपदार्थ पीअर्स पेनिट्रेट करने योग्य है, उसको आप अगर लोकेट नही कर पाते हो , डेमॉन्स्ट्रेट नही कर पाते हो ... तो काहे का स्रोतस???


चरक ने स्रोत के लिए स्रोतसाम् ऐसा बहुवचन याने कम से कम तीन3 होने चाहिये और सुश्रुतने स्पष्ट रूप से श्रोत के लिए द्वे ऐसा शब्द प्रयोग किया है याने निश्चित रूप से दो2 होने चाहिये ...

तो आप किसी भी मनुष्य के शरीर मे दो पुरीष वह स्रोतस्, दो अन्नवह स्रोतस् दिखा दो. 


हां, दोन मूत्रवह स्रोत आपको मिल जायेंगे... युरेटर के रूप मे ... किंतु वृक्क से मूत्र निर्माण होत है यही आयुर्वेद को पता नही है 

वृक्क से तो मेद निर्माण होता है 

यह भ्रामक कल्पना है इसकी कही पर भी किसी भी तरह से पुष्टी नही हो सकती ... वृक्कसे रक्त बनता है यह आयुर्वेद को पता हि नही है ...


तो ऐसे जो नही है, उसकी आपूर्ति करना एवं जो असत्य है, उसको निकाल देना ... यह भी शास्त्र परिष्कृति का प्रयोजन है 


असद्वादिप्रयुक्तानां वाक्यानां प्रतिषेधनम् । 

स्ववाक्यसिद्धिरपि च क्रियते तन्त्रयुक्तितः ।।५।। 

व्यक्ता नोक्तास्तु ये ह्यर्था लीना ये चाप्यनिर्मलाः । 

लेशोक्ता ये च केचित्स्युस्तेषां चापि प्रसाधनम् ।


ये उपर के चार पंक्तिया हमारे अभिनव संहिता निर्माण का विचारू रूप से दिग्दर्शन करने के लिए पर्याप्त है


Ayurveda's understanding of Hetu Lakshan and aushadha or Pinda and Brahmanda or Sharira and Sharira bahya Srishti is ... *is NOT on the basis of vaata pitta kapha* ... but, IT IS and SHOULD BE on the basis of ~Pancha~ 4 mahabhuta ... as Aakash is not to be considered. 


Only mahabhuta based (not triDosha based) Ayurved concepts should be written and propagated in next generation 


again only literary vagvastuMatra, non practical , academic descriptions and outdated concepts of tantrayukti and all that stuff which is called as Kalpana tachchhilya etc must not be considered at all 


translation or discription off New Era diseases SHOULD BE AVOIDED...


better way how to interprete the data which is available in terms of image related reports and biochemistry related reports.


only those diseases should be written in Vyadhi sthana, of which nidhan diagnosis can be made ONLY ON the basis of Ayurvedic Roga Rogi Pariksha without taking any help of modern era Technological image reports or biochemistry reports 


Roga/ conditions which need help assistant of Biochemistry or image related reports MUST NOT BE TRANSLATED...

but a strategy to interprete such available image reports and biochemistry reports should be suggested 


For example,

while describing about diabetes ,

it should not be understood as prameha because it is mere translation 


Prameha is the related to excretion of extra kleda through mutra via Basti 


but diabetes is identification of kleda = sugar @ ~rasa~ rakta 


no one believes in urine sugar estimation for diabetes nowadays 


diabetes diagnosis and assessment is dependent on blood sugar or more specificly on HB a1c so undue intermingling confusing translation of New Era diseases and their identification with old era diseases should be avoided


 better how to interpret blood sugar in terms of 6dhaatu 2Mala 4mahabhuta is more beneficial and which is the current Era ground level practice ...

which is carried out by young Vaidya who don't bother to know Samhita and Sanskrit and concepts ... they just try to understand the available report in terms of very primary fundamental initial Basic concepts and they treat it successfully.


 new diseases or conditions which are not possible to diagnose on the basis of Sanhita , Rog & Rogi Pariksha, such New Era diseases and conditions are diagnosed or can be diagnosed ONLY ON the BASIS of New Era biochemistry histopathology or imaging technique such as cancer 


correct objective digital assessment of hypo hyper or normal conditions of bodily elements is possible by biochemistry reports and image reports


 only understanding of such Diagnostic reports it's to be proposed on the basis of 4mahabhuta 6dhaatu paribhasha ...


 it is IMPOSSIBLE to include ALL the current Era diseases or conditions and lakshana 


it is next to impossible to describe all the new era nidana aur bahirang Hetu (Ahara vihara vichara = diet lifestyle and attitude) whitch includes vast and non comprehendable variety of food items occupation movement traffic pollution hybridization pesticides Lifestyle work pressure stress and what not ...


as an initial effort this proposed new Samhita should be kept limited to Kaya chikitsa diseases only 


it should not include any other anga or any other New Era surgical diseases


उक्तानि शक्यानि फलान्वितानि युगानुरूपाणि रसायनानि। 

महानुशंसान्यपि चापराणि प्राप्त्यादिकष्टानि न कीर्तितानि॥

Vagbhata's 👆🏼 this policy or guidance must be followed while describing new yogas/aushadha or including old pre existing yogas/aushadha


वैसे देखा जाये तो संहितोक्त चिकित्सा स्थान आउटडेटेड = काल बाह्य है 

क्यूकी उस समय कृ चिकित्सा स्थान के योग कल्प औषध ये, उस समय के लक्षण व हेतु स्कंध के लिये लिखे गये थे. 


आज संहिता काल की तुलना मे आज का हेतु स्कंध और लक्षण स्कंध बहुतर मात्रा मे बदल चुका है 


संहितोक्त कई हेतु और लक्षण आज मिलते हि नही है 


नया हेतु स्कंध जो उपलब्ध हो गया है, उसके कार्य कारण भाव के अनुसार, तज्जन्य लक्षण स्कंध (new clinical presentations symptoms conditions diseases) भी बहोत नया है ... जिनका उल्लेख संहिता मे नही है 


तो ऐसे स्थिती मे की संहिता के हेतु लक्षण आज मिलते नही है 

और आज मिलने वाले हेतु लक्षण, संहिता मे लिखे हुए नही है 


तो आज के हेतु स्कंध लक्षण स्कंध के लिये , आज की सुसंगती से युक्त , नये औषध स्कंध का निर्माण करना अपडेटेड युगानरूप संहिता का उद्देश प्रयोजन कर्तव्य होना ही चाहिये 


मै एक उदाहरण देता हूं,

की हमे भगवान श्रीराम के प्रति बहोत भक्ती है , हमे आदरणीय राणा प्रताप छत्रपती शिवाजी महाराज के प्रति बहुत आदर है 


श्रीराम जी उनके शत्रुओं के साथ राक्षसों के साथ धनुष्य और बाण के सहाय्यता से लढे थे 


राणा प्रताप और शिवाजी महाराज ये ढाल तलवार लेकर उनके शत्रुओं के साथ लड़े थे 


तो , हमे श्रीराम के प्रति , राणा प्रताप छत्रपती शिवाजी महाराज के प्रति भक्ती आदर है ...


इसलिये क्या हम आज भी, आज के हमारे शत्रुओं के साथ, धनुष्यबाण और ढाल तलवार से लढेंगे / लड पायेंगे / जीत पायेंगे ??? ... नही!!!


तो हमे आज के हमारे शत्रू के लिए, आज के काल से सुसंगत शस्त्र का हि सहाय्य लेना उचित होगा.


वैसे हि, आज के हेतु के लिए , आज के लक्षणों के लिए ... *आज का नया औषध स्कंध ... जो 500 कषाय है, या 50 महा कषाय या सुश्रुतोक्त 37 या वाग्भटोक्त 33 गण है, उनमे उल्लेखित द्रव्यों से, नये से निर्माण करना चाहिए*

युगानरूप नवीन संहिता लेखन संकल्प और उसकी भूमिका तथा प्रतिपाद्य विषय एवं विषय विन्यास

 युगानरूप नवीन संहिता लेखन संकल्प और उसकी भूमिका तथा प्रतिपाद्य विषय एवं विषय विन्यास


प्रतिपाद्य विषय क्या है ?


संहिता ... अद्यतन संहिता ... अपडेटेड & अप टू डेट संहिता ... कंटेम्पररी संहिता ! ✅️


तो इसका विषय विज्ञान , प्राचीन काल की तरह ... सूत्र निदान शरीर चिकित्सा कल्प सिद्धी उत्तर ... ऐसे न होते हुयो; वस्तुतः यह *व्याधि प्रतिकार* का शास्त्र होने के कारण , इसका विषय विज्ञान *चिकित्सा बीज चतुष्टय या चिकित्सा बीज पंचक*, जो सुश्रुत सूत्र स्थान 1 मे उल्लेखित है उसके अनुसार होना उपयोगी सुसंगत और सुबोध है .


ये चिकित्सा बीज चतुष्टय या पंचक क्या है? 


ये है ... पुरुष व्याधी औषध क्रिया & काल 


एवमेतत् पुरुषो व्याधिरौषधं क्रियाकाल इति चतुष्टयं समासेन व्याख्यातम् । 


तत्र पुरुषग्रहणात् तत्सम्भवद्रव्यसमूहो भूतादिरुक्तस्तदङ्गप्रत्यङ्गविकल्पाश्च त्वङ्मांसास्थिसिरास्नायुप्रभृतयः, 


व्याधिग्रहणाद्वातपित्तकफशोणितसन्निपातवैषम्यनिमित्ताः सर्व एव व्याधयो व्याख्याताः, 


औषधग्रहणाद्द्रव्यरसगुणवीर्यविपाकानामादेशः, 


क्रियाग्रहणात् स्नेहादीनि च्छेद्यादीनि च कर्माणि व्याख्यातानि, 


कालग्रहणात् सर्वक्रियाकालानामादेशः ।।


विषय विन्यास 


सूत्रस्थान अनावश्यक हि है 


सूत्रस्थान मे ऐसे विषय का संकलन है, 

जो की स्टुडन्ट के लिए एकदम से आवश्यक नही है 

और सूत्रस्थान मे सभी अधिकरण के विषयों का निष्प्रयोजन एकत्रीकरण हो जाता है.

ऐसे संक्षिप्त या सांकेतिक तथा अप्रासंगिक परिचय से, शास्त्र का आकलन सुगम नही होता है.


सूत्र स्थान के विषय , उस उस स्थान मे , उस उस अधिकरण मे ही शोभा देंगे ...


जैसे की ...


दिनचर्या का वर्णन सुश्रुतने चिकित्सा स्थान में किया. 


ऋतुचर्या का वर्णन उसने आधा अधूरा तो सूत्र में किया किंतु विस्तृत वर्णन उत्तर तंत्र मे हुआ 


वेग धारण इसका वर्णन सुश्रुत ने उदावर्त प्रतिषेध के रूप मे चिकित्सा स्थान में किया , तो वही उचित है


क्यूकी स्वस्थ वृत्त की बाते या तो 

अन आगत आबाध प्रतिषेध है या 

रोग अनुत्पादन है ...

या जैसे हेमाद्री कहता है, वैसे ये ... बहिरंग हेतु अर्थात निदान स्थान का विषय है 


आगे द्रवद्रव्य विज्ञान और अन्नस्वरूप विज्ञान ये आहार के अध्याय या तो चिकित्सा स्थान मे या औषध स्थान मे होना चाहिए या सीधा संकल्पित निघंटु में होना चाहिये 


निद्रा और मैथुन का विषय यह दिनचर्या के अध्याय में हि उचित है , जैसे सुश्रुत ने किया 


महाभूतों का परिचय देने वाला तथा द्रव्य गुण वीर्य विभाग प्रभाव इनका परिचय देने वाला अध्याय तो शारीर मे होना चाहिये, क्योंकि वो शरीर रचना/क्रिया से या सृष्टी के महाभौतिक आकलन से संबंधित है 


रस का अध्याय भी भेषज, चिकित्सा या निदान मे होना चाहिए 


आगे 11, 12 अध्याय में दोष धातुमलविज्ञान और दोषों के पाच प्रकार , रोग मार्ग इत्यादी निदान स्थान का हि विषय है ...

या प्राकृत दोष धातू मल विज्ञान शारीर/पुरुष स्थान का विषय है 


और अध्याय 13 से आगे पूरा का पूरा विषय चिकित्सा का है... इसमे दोषोपक्रमणीय, द्विविध उपक्रमणीय, 


फिर गणोंका अध्याय = निघंटु


और सोलवे अध्याय से आगे पंचकर्म शल्यशालाक्य इनके उपक्रम तो चिकित्सा या क्रियास्थान का विषय है


इस दृष्टी से सूत्र स्थान तो स्वतंत्र अस्तित्व के पात्र हि नही है


इसलिये आद्य स्थान = पुरुष स्थान अर्थात शरीर रचना और शरीर क्रिया का स्थान ... जो की आज एमबीबीएस के फील्ड मे ॲनाटाॅमी और फिजिओलॉजी के रूप में प्रथम वर्ष मे पढाया जाता है, वही नैसर्गिक भी है और वही सुश्रुत का शास्त्रज्ञान का निर्देश भी है 


*पुरुष स्थान* अर्थात शरीर का प्राकृत स्वरूप = रचना और क्रिया के रूप मे ज्ञात होने के बाद ...


उसका बिगडना उसकी विकृती अर्थात *व्याधीस्थान* जिसे हमने रोगस्थान कहा है 


इसमे रोगी परीक्षा, रोगी परीक्षा , रुग्ण संवेद्य / वैद्य संवेद्य लक्षण के साथ हि *साधनसंवेद्य लक्षण* ... जिसमे हिमॅटोलॉजी बायोकेमिस्ट्री हिस्टोपॅथोलॉजी इमेजिंग टेक्निक्स एमआरआय सोनोग्राफी पेट स्कॅन एक्स-रे बहुत सारे प्रकार की स्कोपी ये सारी बाते आनी चाहिये 


परीक्षणों के बाद व्याधीयों का नैदानिक वर्णन होना चाहिये 


व्याधि = निदान स्थान के बाद निसर्गतः / स्वाभाविक रूप से, औषध = भेषज स्थान आना चाहिये 


क्रम परिवर्तित कर देते है, तो व्याधी स्थान के बाद, क्रिया स्थान अर्थात चिकित्सा स्थान आयेगा, उसके पश्चात औषध भेषज स्थान आयेगा


और जो भी बाते बची है वो काल स्थान... इसमे तत्कालीन/ सर्वकालिक/ समकालीन/ कंटेम्पररी/ हिस्टोरिकल/ फ्युचरिस्टिक ... काल संबंधी बाते 


या परिशिष्ट के रूप मे इस काल स्थान मे बाकी सारे विषय का विज्ञान हो सकता है 


विमान स्थान फिरसे एक व्यर्थ स्थान है, वहा के आठ अध्याय मे उल्लेखित विषय यत्र तत्र उपरोक्त स्थानो मे निश्चित रूप से संमिलित किये जा सकते है


वही स्थिती कल्प+सिद्धी स्थान की है ये दोनो स्थान औषध या क्रिया इस स्थान मे समाविष्ट हो सकते है


इंद्रिय स्थान की भी आवश्यकता नही है 

वह साध्यासाध्य उपद्रव अरिष्ट की बात है, व्याधी के नैदानिक वर्णन के अंत मे या परीक्षण विधी के प्रकरण मे आना योग्य है 


उत्तर-तंत्र की भी आवश्यकता नही है, क्योंकि उसमे काय चिकित्सा मे *न आने वाली* व्याधियों के बारेमे आप एक साथ लिखने वाले है, तो अगर यह संहिता आरंभिक स्वरूप में *काय चिकित्सा को ही मर्यादित करके लिखने का उद्देश निश्चित करती है*, तो उत्तर तंत्र का सद्भाव बनता हि नही है


भूमिका और संकल्प


🪷🙏🏼💫🪔✨

✍🏼📖

अनिर्देश्यं च तर्क्यं च वाग्वस्तुं वाऽनुमेयं वा

कालबाह्यम् असिद्धं यत् अभ्युपगमम् यत् असत् 

अधिकरणवर्ज्यं यत् असत्यं वाऽनुपयोगि च

स्रोतांसि च रसं नाडीम् आत्मयोगमनांसि च 

मर्मम् आवरणम् ओजं यच्च्यान्यत् बुद्धिरुज्झितम्

इदृशं कश्मलं सर्वं शोधनीयं हि शास्त्रतः

हेतवोऽभिनवा दृष्टा लक्षणानि नवानि च 

तस्माद् औषधस्कंधोऽपि कर्तव्योऽद्यतनस्तथा

सुबोधा सरला सिद्धा ह्यायुर्वेदस्य संहिता

युगानुरूपसंदर्भा "क्रियते" नूतनाऽधुना

शक्यते चेत् जीवनेऽस्मिन् पुनर्जन्मनि ह्यन्यथा

मदर्थे यद्यशक्यं स्यात् भवत्वन्योऽपि वा युवा


अनिर्देश्य तर्क्य वाग्वस्तुमात्र अनुमेय

अभ्युपगम असिद्ध कालबाह्य असत्

अधिकरणबाह्य असत्यं अनुपयोगि ... जैसे कि,

स्रोतस् रसशास्त्र नाडीपरीक्षा आत्मा योग मन 

मर्म आवरण ओज, ऐसे और भी बुद्धिप्रामाण्यविरहित विषय है, ऐसे सभी कश्मल अर्थात् दोषों को शास्त्र से निष्कासित करना आवश्यक है.

नया हेतु स्कंध सभी ओर दिखाई दे रहा है , तद् अनुसार कार्यकारणभावजन्य नवीन लक्षण स्कंध भी दिखाई दे रहे है, इसलिये उनके अनुसार तद्विपरीत

औषधस्कंध भी अद्यतन अर्थात अपडेटेड करना आवश्यक है.

सुबोध सरल सिद्ध (proof evidence) ऐसी आयुर्वेद संहिता , युगानुरूपसंदर्भ के अनुसार, अब नए से , निर्माण करना आवश्यक है.


अगर यह नवीन संहिता निर्माण का सत्कार्य इस जीवन में संभव हो सका, तो ठीक है ... न हो सका तो, अगले जन्म मे हि सही ... संपूर्ण हो हि सकेगा.


और मेरे इस वैयक्तिक शुभ संकल्प के अनुसार , अगर मेरी उतनी क्षमता या मेरा अपना जीवन , आयुर्वेद की युगानुरूप नवीन संहिता निर्माण के लिये, पर्याप्त नही है; तो युगानरूप नवीन संहिता का निर्माण किसी अन्य सक्षम युवक के द्वारा, भविष्य में अवश्य होगा हि, यह मेरा दृढ विश्वास है


उपरोक्त श्लोक वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे द्वारा स्वयं रचित है और उन श्लोकों मे तथा उसके हिंदी एवं इंग्लिश भाषांतर मे व्यक्त किये गये मत, यह मेरे अपने वैयक्तिक है.


Non demonstrable , imaginary, just for the sake of discussion or mention, inferrable, considered assumed, unproved, outdated, non existing, out of Ayurveda scope, false, useless subjects ... like Aatma, manas srotas, marma, rasashaastra, naadee pareekshaa, yoga, aavarana, ojas etc ... and many other such irrational fictitious subjects should be discarded out of Ayurveda Shaastra.


New HetuSkandha, hence obviously New LakshanaSkandha should be included and accordingly *new aushdhaskandha* must be created.


A new ... Easily understandable, simple (uncomplicated = non goodha) straight (nothing left / hidden to be read so called "between the lines") proven ... samhitaa of Ayurveda which as per the current times , contemporary... is to be created newly, this is need of the hour.


*for me , personally, if this happens to be impossible, due lack of my capacity, in this life ... then may be it will be possible in next birth , if it exists ... & if not at all possible for me ... then some other capable youth will, for sure, create a new Samhitaa forAyurveda*


The shlokas written above are composed by the Hrishikesh Mhetre himself originally.

The statements exhibited in these shlokas are personal opinion only.


*ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञाम्*


*जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्नः।*


उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा


कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥

👆🏼

भवभूति


*मर्त्यैरसर्वविदुरैर्विहिते क्व नाम ग्रन्थेऽस्ति दोषविरहः सुचिरन्तनेऽपि||*

👆🏼

विजयरक्षित


Copyright ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे.

एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.

MhetreAyurveda 

आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक.

9422016871


www.YouTube.com/MhetreAyurved/


www.MhetreAyurveda.com