अनावश्यक = नॉन डेमॉन्स्ट्रेबल नॉन डिस्पेन्सिबल बाते निकाल देने पर क्या बचेगा ??
उसके बाद जो बचेगा, *वही दोषरहित अर्थात निर्दोष आयुर्वेद* होगा ... 🎯
कैसे ? ऐसे ...
आयुर्वेद का अधिकरण पुरुष✅️
पुरुष अर्थात पंचमहाभूत और आत्मा
इसमे से आत्मा नित्य है निर्विकार है तो उसकी चिकित्सा संभव और आवश्यक नही है
पंचमहाभूत ...
उसमे से आकाश नित्य है
जिसमे वृद्धीक्षय इंक्रिज डिक्रीज संभव नही है.
ना हि वह डेमॉन्स्ट्रेबल है ना हि डिस्पेन्सिबल है.
इसलिये उसका विचार हि अनावश्यक है.
महाभूत चार 4 हि है प्रॅक्टिकली
इन चार 4 महाभूतों से शरीर मे छ 6 धातू & दो 2 मल बनते है, जो शरीर की रचना और क्रिया चलाते है.
दोष नाम की कोई भी एन्टिटी / भाव पदार्थ अस्तित्व में होता हि नही है
किसी असमंजस के कारण आकाश और वायू महाभूत को वात दोष माना गया
अग्नी और जलमहाभूत को पित्तदोष माना गया / समजा गया
और जल और पृथ्वी महाभूत कफ दोष 'कहा' गया
वात पित्त कफ हे त्रिदोष तो तथाकथित सो काॅल्ड कन्सिडरेशन ॲझम्प्शन इस प्रकार से है
ये वस्तुस्थिती नही है
त्रिदोष यह एक भ्रामक कल्पना आहे वाग्वस्तुमात्र विषय है
वस्तुतः चार महाभूत हि होते है ... त्रिदोष होते हि नहीं है
जब पित्त मे अग्नी महाभूत बढता है, तो पचन का काम करता है और जब पित्त मे द्रव महाभूत बढता है तो वो पचन का काम नही करता है , क्लेदन का काम करता है रेचन का काम करता है ... तो क्यू एक पित्त दोष माने? ज्यादा अच्छा है कि अग्नी और जल महाभूत कहे.
अगर क्लेद पृथ्वी प्रधान हो जाता है और संघात होता है तो अश्मरी बनती है और अगर क्लेद द्रव प्रधान हो जाये और मूत्र से निकल जाये तो से प्रमेह कहते है ...
तो क्यों कफ कहना है ?
क्यू बहु द्रवश्लेष्म कहना है?
पृथ्वी कहो जल कहो आसान है
आकाश तो होता ही नही
इन चार महा भूतों के सद्भाव से या अभाव से आकाश होना न होना ऐसे माना जाता है
आप आकाश को घटा या बढा नही सकते है
उसी प्रकार से आत्मा काल दिशा यदि नित्य होने के कारण मे वृद्धीक्षय संभव नही
मेरे वैयक्तिक मत के अनुसार मन नाम का द्रव्य ही अस्तित्व मे नही है ... (जो भी है बुद्धी है, मन नही होता है) ... और अगर मन है भी , तो वो भी नित्य है और नित्य है तो , उसमें वृद्धी क्षय होता नही है
और जिसमे वृद्धिक्षय नही होता है , उसमे चिकित्सा क्या करेंगे ??
चिकित्सा का अर्थही घटाना बढाना संतर्पण अपतर्पण लंघन बृंहण भौमापम् और इतरत् ... अर्थात पृथ्वी जल और अग्नी वायु ऐसा है ... तो जो नित्य है, जैसे की आत्मा उसमे हायपो हाइपर डिक्रीज इन्क्रीज वृद्धि क्षय नही होता है, वही बात आत्मा के साथ आकाश दिशा और काल की भी है
इसलिये वे सभी चिकित्स्य अर्थ चिकित्सा के विषय ही नही है ... वही बात अगर मन नित्य है, तो मन की भी है. मन चिकित्स्य नही है क्यूं कि महाभूतो द्वारा वृद्धि क्षय होने के कक्षा मे न आनेवाला है ...
और सुश्रुत कहते है की चिकित्सा शास्त्र मे महाभूतों के परे किसी भी विषय की चिंता अर्थात विचार करने की आवश्यकता नही है
चरक भी कहता है सभी द्रव्य पांच भौतिक ही है और नित्य द्रव्य पांचभौतिक नही है
मै तो कहता हु मन होता ही नही है , जो कुछ बुद्धी है मन को मानना यह भी बुद्धी ही है सारी
अगर मन एक होता , तो आदमी को दो तीन या भिन्नविचार आते ही नही...
बुद्धी है . बुद्धी बहवः = बुद्धी अनेक है ... इसलिये अनेक विचार आते है
महाभुत चार होते है, *चारही* होते है
और उनसे शरीर मे एक भी दोष नही बनता है.
रस तो अस्तित्व में हि नही होता है.
इसलिये रक्त से लेके शुक्र तक छ 6 हि धातू बनते है ... जो दिखाई देते है डेमॉन्स्ट्रेबल या डिस्पेन्सेबल या दोनों है बल या डिस्पेन्सिबल नही है वो वस्तू चिकित्सकीय नही है
मै तो कहता हु कि वह वस्तू अस्तित्व मे ही नही है.
फिर उन्ही चार महा भूतो से दो मल बनते है , 3 नही
चार महाभूत हमारे शरीर मे अन्न के स्वरूप मे प्रवेश करते है , अन्न भौतिक है ... इसलिये उससे बनने वाले छ6 धातू और दो2 मल ये भी भौतिक है
स्वेद नाम का तिसरा मल नही होता है ऐसे भी देश काल और वंश है जहां स्वेद आता ही नही है
स्रोतच भी एक भ्रामक कल्पना है.
जिस स्रोतस का आप विद्ध लक्षण बताते हो याने जो एनटीटी/भावपदार्थ पीअर्स पेनिट्रेट करने योग्य है, उसको आप अगर लोकेट नही कर पाते हो , डेमॉन्स्ट्रेट नही कर पाते हो ... तो काहे का स्रोतस???
चरक ने स्रोत के लिए स्रोतसाम् ऐसा बहुवचन याने कम से कम तीन3 होने चाहिये और सुश्रुतने स्पष्ट रूप से श्रोत के लिए द्वे ऐसा शब्द प्रयोग किया है याने निश्चित रूप से दो2 होने चाहिये ...
तो आप किसी भी मनुष्य के शरीर मे दो पुरीष वह स्रोतस्, दो अन्नवह स्रोतस् दिखा दो.
हां, दोन मूत्रवह स्रोत आपको मिल जायेंगे... युरेटर के रूप मे ... किंतु वृक्क से मूत्र निर्माण होत है यही आयुर्वेद को पता नही है
वृक्क से तो मेद निर्माण होता है
यह भ्रामक कल्पना है इसकी कही पर भी किसी भी तरह से पुष्टी नही हो सकती ... वृक्कसे रक्त बनता है यह आयुर्वेद को पता हि नही है ...
तो ऐसे जो नही है, उसकी आपूर्ति करना एवं जो असत्य है, उसको निकाल देना ... यह भी शास्त्र परिष्कृति का प्रयोजन है
असद्वादिप्रयुक्तानां वाक्यानां प्रतिषेधनम् ।
स्ववाक्यसिद्धिरपि च क्रियते तन्त्रयुक्तितः ।।५।।
व्यक्ता नोक्तास्तु ये ह्यर्था लीना ये चाप्यनिर्मलाः ।
लेशोक्ता ये च केचित्स्युस्तेषां चापि प्रसाधनम् ।
ये उपर के चार पंक्तिया हमारे अभिनव संहिता निर्माण का विचारू रूप से दिग्दर्शन करने के लिए पर्याप्त है
Ayurveda's understanding of Hetu Lakshan and aushadha or Pinda and Brahmanda or Sharira and Sharira bahya Srishti is ... *is NOT on the basis of vaata pitta kapha* ... but, IT IS and SHOULD BE on the basis of ~Pancha~ 4 mahabhuta ... as Aakash is not to be considered.
Only mahabhuta based (not triDosha based) Ayurved concepts should be written and propagated in next generation
again only literary vagvastuMatra, non practical , academic descriptions and outdated concepts of tantrayukti and all that stuff which is called as Kalpana tachchhilya etc must not be considered at all
translation or discription off New Era diseases SHOULD BE AVOIDED...
better way how to interprete the data which is available in terms of image related reports and biochemistry related reports.
only those diseases should be written in Vyadhi sthana, of which nidhan diagnosis can be made ONLY ON the basis of Ayurvedic Roga Rogi Pariksha without taking any help of modern era Technological image reports or biochemistry reports
Roga/ conditions which need help assistant of Biochemistry or image related reports MUST NOT BE TRANSLATED...
but a strategy to interprete such available image reports and biochemistry reports should be suggested
For example,
while describing about diabetes ,
it should not be understood as prameha because it is mere translation
Prameha is the related to excretion of extra kleda through mutra via Basti
but diabetes is identification of kleda = sugar @ ~rasa~ rakta
no one believes in urine sugar estimation for diabetes nowadays
diabetes diagnosis and assessment is dependent on blood sugar or more specificly on HB a1c so undue intermingling confusing translation of New Era diseases and their identification with old era diseases should be avoided
better how to interpret blood sugar in terms of 6dhaatu 2Mala 4mahabhuta is more beneficial and which is the current Era ground level practice ...
which is carried out by young Vaidya who don't bother to know Samhita and Sanskrit and concepts ... they just try to understand the available report in terms of very primary fundamental initial Basic concepts and they treat it successfully.
new diseases or conditions which are not possible to diagnose on the basis of Sanhita , Rog & Rogi Pariksha, such New Era diseases and conditions are diagnosed or can be diagnosed ONLY ON the BASIS of New Era biochemistry histopathology or imaging technique such as cancer
correct objective digital assessment of hypo hyper or normal conditions of bodily elements is possible by biochemistry reports and image reports
only understanding of such Diagnostic reports it's to be proposed on the basis of 4mahabhuta 6dhaatu paribhasha ...
it is IMPOSSIBLE to include ALL the current Era diseases or conditions and lakshana
it is next to impossible to describe all the new era nidana aur bahirang Hetu (Ahara vihara vichara = diet lifestyle and attitude) whitch includes vast and non comprehendable variety of food items occupation movement traffic pollution hybridization pesticides Lifestyle work pressure stress and what not ...
as an initial effort this proposed new Samhita should be kept limited to Kaya chikitsa diseases only
it should not include any other anga or any other New Era surgical diseases
उक्तानि शक्यानि फलान्वितानि युगानुरूपाणि रसायनानि।
महानुशंसान्यपि चापराणि प्राप्त्यादिकष्टानि न कीर्तितानि॥
Vagbhata's 👆🏼 this policy or guidance must be followed while describing new yogas/aushadha or including old pre existing yogas/aushadha
वैसे देखा जाये तो संहितोक्त चिकित्सा स्थान आउटडेटेड = काल बाह्य है
क्यूकी उस समय कृ चिकित्सा स्थान के योग कल्प औषध ये, उस समय के लक्षण व हेतु स्कंध के लिये लिखे गये थे.
आज संहिता काल की तुलना मे आज का हेतु स्कंध और लक्षण स्कंध बहुतर मात्रा मे बदल चुका है
संहितोक्त कई हेतु और लक्षण आज मिलते हि नही है
नया हेतु स्कंध जो उपलब्ध हो गया है, उसके कार्य कारण भाव के अनुसार, तज्जन्य लक्षण स्कंध (new clinical presentations symptoms conditions diseases) भी बहोत नया है ... जिनका उल्लेख संहिता मे नही है
तो ऐसे स्थिती मे की संहिता के हेतु लक्षण आज मिलते नही है
और आज मिलने वाले हेतु लक्षण, संहिता मे लिखे हुए नही है
तो आज के हेतु स्कंध लक्षण स्कंध के लिये , आज की सुसंगती से युक्त , नये औषध स्कंध का निर्माण करना अपडेटेड युगानरूप संहिता का उद्देश प्रयोजन कर्तव्य होना ही चाहिये
मै एक उदाहरण देता हूं,
की हमे भगवान श्रीराम के प्रति बहोत भक्ती है , हमे आदरणीय राणा प्रताप छत्रपती शिवाजी महाराज के प्रति बहुत आदर है
श्रीराम जी उनके शत्रुओं के साथ राक्षसों के साथ धनुष्य और बाण के सहाय्यता से लढे थे
राणा प्रताप और शिवाजी महाराज ये ढाल तलवार लेकर उनके शत्रुओं के साथ लड़े थे
तो , हमे श्रीराम के प्रति , राणा प्रताप छत्रपती शिवाजी महाराज के प्रति भक्ती आदर है ...
इसलिये क्या हम आज भी, आज के हमारे शत्रुओं के साथ, धनुष्यबाण और ढाल तलवार से लढेंगे / लड पायेंगे / जीत पायेंगे ??? ... नही!!!
तो हमे आज के हमारे शत्रू के लिए, आज के काल से सुसंगत शस्त्र का हि सहाय्य लेना उचित होगा.
वैसे हि, आज के हेतु के लिए , आज के लक्षणों के लिए ... *आज का नया औषध स्कंध ... जो 500 कषाय है, या 50 महा कषाय या सुश्रुतोक्त 37 या वाग्भटोक्त 33 गण है, उनमे उल्लेखित द्रव्यों से, नये से निर्माण करना चाहिए*
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