धातु भस्म निर्माण करना अर्थात भस्मजन्यकल्प का उपयोग करना, तुरंत हि बंद करना आवश्यक है.
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Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. म्हेत्रेआयुर्वेद. MhetreAyurveda
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लोहानां मारणं श्रेष्ठं
सर्वेषां रसभस्मना ।
मूलीभिः मध्यमं प्राहुः
कनिष्ठं गंधकादिभिः ॥
अरिलोहेन लोहस्य
मारणं दुर्गणप्रदम् ॥
अगर आप इस इस श्लोक को ठीक से समजते है, तो कृपया धातुभस्म निर्माण करना, तथा धातुभस्मजन्य कल्पों का उपयोग करना, तुरंत बंद कर देना चाहिए.
लोह अर्थात किसी भी धातु अर्थात मेटल का सर्वश्रेष्ठ भस्म, यह रसभस्म के उपयोग से हि बन सकता है. क्योंकि रसभस्म का प्रयोग करके अगर मारण भस्मीकरण करेंगे, तो तापमान के कारण, उष्णता के कारण, अग्नि के कारण, पारद तो उड जायेगा और नीचे बनने वाला रहनेवाला धातु का भस्म 100% मेडिसिन उसी धातु का होगा.
किंतु स्वयं रसभस्म यही एक असंभव अशक्य कल्पनारम्य कही सुनी जानेवाली वाग्वस्तुमात्र चीज है. विश्व मे रसभस्म का अस्तित्वही नही है. दुनिया मे रसभस्म कभी बना ही नही , आज भी कही पर भी बनता ही नही और नही आगे बनने की कोई आशा उम्मीद है.
रसभस्म हो ही नही सकता! इसी कारण से लोग रससिंदूर से काम चलाते है, किंतु भस्म की जो परीक्षा है, क्या वो रससिंदूर को लागू होती है? रेखा पूर्ण? वारितरत्व? निश्चन्द्र? नही!!! रसका ऐसा कोई भी बंध नही है, जिसे रसभस्म कहा जा सके, जो भस्म की सामान्य परीक्षा मे उत्तीर्ण हो सके, योग्य सिद्ध हो सके.
रसभस्म बनता ही नही, बन सकताही नही. इसी कारण से अनेक कल्पों में आपको शुद्धं सूतं यही लिखा मिलेगा आपको कही पर भी "मृतम् रसं / रसभस्म/ मारितं रसं/ मृतं सूतं" ऐसा उल्लेख नही मिलता.
पारद को शुद्ध करके प्रयोग करने का ही विधान है.
वह शुद्धी भी कही/कई लोग अष्ट संस्कार से नही करते है. केवल लसूण से काम चलाते है. अगर लसुन जैसे अत्यंत तीक्ष्ण वीर्य के द्रव्य से शुद्ध किया हुआ पारद अगर चंद्रकला या वसंत कुसुमाकर ऐसे मृदुकल्पो मे प्रयुक्त किया जाये, तो क्या वह उचित होगा?
पारद के मारण का / भस्मीकरण का, ना तो विधी और ना हि उपयोग, कही पर भी उल्लेखित है.
दूसरा अगर मूलीभिः याने वनस्पती द्रव्यों से मारण करेंगे , तो भस्म निर्माण करेंगे तो, कई पुट लगते है. कुछ रसकल्प बनाने वाले अनुभवी वैद्यो का कहना है कि 40 पचास पुट तो यूही लग जाते है. अगर 40 पचास पुट देंगे, तो हर बार उस वनस्पती द्रव्य की कितनी रक्षा, उस मूल औषधी द्रव्य मे , धातु के भस्म मे, मिलती चली जायेगी, तो औषधी का प्रमाण परसेंटेज उतनाही कम होता जायेगा. कॉन्सेन्ट्रेशन कम होगा , डायलूशन बढता जायेगा , अनावश्यक औषधी(?) द्रव्य उसमे जुडता चला जाएगा जो की अनपेक्षित और निरूपयोगी है, क्योंकि वनस्पती के अंशो की रक्षा या ऐश धातू भस्म का तो अंग भाग या स्वरूप है नही.
अभी तिसरा प्रकार... गंधक इत्यादी से मारण करना. ये तो स्वयं शास्त्रकार हि लिखते है , की यह कनिष्ठ है, तो क्या हम अपने अन्नदाता भगवान स्वरूप पेशंट को कनिष्ठ भस्मक देंगे? या कनिष्ठ भस्मोसे निर्मित रसकल्प देंगे? क्या ये आपकी नैतिकता को मान्य है?
अच्छा रसभस्म से अगर भस्म बनता तो व शायद कार्बोनेट या ऑक्साईड बनता, जो प्रायः उत्तम (या मध्यम) होता है.
वनस्पती से अगर भस्म बनता है, तो वो प्रायः ऑक्साईड होता है, किंतु उसमे मॅग्नेशियम आदि पदार्थ भी ॲश / वनस्पती की रक्षा के रूप मे संमिलित हो जाते है, जो की अवांछित है उस औषध मे याने औषध का 100% रहे बिना उसका परसेंट उस ॲश/रक्षा के कारण कम होता चला जाता है.
गंधकादि से निर्माण करते है, तो ऑक्साईड या कार्बोनेट निर्माण होने की बजाय, सल्फेट निर्माण होता है / सल्फाईड निर्माण होता है, जो की साक्षात विष द्रव्य है ...
और इस से भी बदतर अधम अगर कुछ है, तो वो है *अरि लोह से मारण*, जिसे स्वयं शास्त्रकार इस श्लोक मे दुर्गुणप्रद कहते है. याने वो तो संभवतः साक्षात विष निर्मिती हि है !!!
किंतु अगर आप शास्त्र के श्लोक देखेंगे , तो उसमे प्रायः गंधक हरताल मनःशिला टंकण क्षार इनके ही द्वारा भस्म निर्मिती का विधान होता है.
मूल श्लोक मे रसभस्म से निर्मित भस्म सर्वोत्तम लिखा गया है , वो तो दुष्कर है , अशक्य है , असंभव है, कल्पनारम्यता है.
रसभस्म निर्माण हि नही हो सकता है, नागार्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि, *सिद्धे रसे करिष्यामि निर्दारिद्र्यम् "इदं" जगत्* ... इदं this यह
रसशास्त्र तो सोना बनाने के लिए निर्माण हुआ था, किमयागिरी के लिए निर्माण हुआ था, लेकिन कुछ लोग धातुवाद को, देहवाद में भी, जोडने के लिये, उसको आयुर्वेद मे घुसेडने के लिए, खीचने के लिए, कुछ लोगो ने , इस प्राचीन श्लोक मे पाठांतर उत्पन्न किया और लिखा की सिद्धे रसे करिष्यामि निर्दारिद्र्य-"गदं" जगत्* ... गदं disease रोग लिखा, किंतु वस्तुस्थिती ये है की , "करिष्यामि" यह भविष्य काल है और आज तक भविष्यकाल ही बना हुआ है.
वर्तमान काल मे या भूत काल मे कभी भी रसभस्म बना ही नही. रस सिद्ध हुआ ही नही, इसलिये ना दारिद्र्य हटा , ना सोना निर्माण हुआ , ना रोग हटे ... ना निरामयता प्राप्त हुई!!!!
... तो रसभस्म यह एक आकाशपुष्प है, रसभस्म यह गगनारविंद है, रसभस्म यह हेत्वाभास हे , भ्रम है , भ्रांती है, कल्पना है, स्वप्न है, वाग्वस्तुमात्र है.
इस कारण से , रसभस्म से जो उत्तम भस्म बनने की बात लिखी है, वही स्वयं असंभव है , इसीलिए अगर शास्त्र के इस श्लोक को मानेंगे और उसकी प्रॅक्टिकल दुविधा दुरवस्था दुष्परिणाम देखेंगे ...
1.
रसभस्म तो असंभव है. रससिंदूर रसभस्म नही है. रससिंदूर भस्म की किसी भी परीक्षा मे खरा नही उतरता है और पारद का अन्य कोई भी ही बंध या कल्पना रस भस्म नही है और वो भस्म की परीक्षा मे निकषो मे उत्तीर्ण नही हो सकती.
2.
धातू भस्म की सारे निकष परीक्षा पूरी पास हो इतना अच्छा धातु भस्म बनाने के लिए मूली अर्थात वनस्पती द्रव्य के देने इतने पुट देने पडते है, जो आर्थिक दृष्ट्या बहुत दुष्कर unaffordable है और अगर ऐसे वनस्पती जन्यपुट दिये भी, तो वनस्पती की रक्षा ॲश ash उस मूल धातु भस्म मे मिलती बढती चढती चली जाती है, जिससे मुल धातु भस्म का परसेंट, कुल राशी मे घटता चला जाता है, हर एक पुटके बाद!
3.
गंधक इत्यादी से मारण करना, तो स्वयं शास्त्रकार श्लोक मे ही अधम हीन कनिष्ठ लिखते है, तो ऐसे अधम हीन कनिष्ठ धातु भस्म का प्रयोग करना , यह नैतिकदृष्ट्या अपराध है और पेशंट के साथ अन्याय है, जो पेशंट हमारे लिए अन्नदाता भगवान होता है
4.
और आज सभी जगह प्रायः जिस विधि से धातु भस्म बनता है, वो विधी तो गंधक हरताल मनःशिला टंकण क्षार ऐसे अरिलोहात्मक पद्धतीसे ही बनती है, जिसे स्वयंशास्त्रकारने हि दुर्गुणप्रद लिखा है ...
तो इस प्रकार से धातु भस्म निर्माण, उपरोक्त चारो प्रकारों से करेंगे, तो भी वह हानिकारक हि है, अनिष्ट है , आरोग्य नाशक है , अनैतिक है ...
इस कारण से अगर मूल श्लोक का ठीक से अध्ययन किया जाये और उसकी आज की स्थिति देखी जाये, तो धातुभस्म निर्माण करना बंद करना चाहिए तुरंत!!! और धातुभस्म से निर्माण होने वाले कल्प भी उपयोग मे लाना त्यागना चाहिए. यही, अन्नदाता भगवंत पेशंट के प्रति, हमारा नैतिक उत्तरदायित्व है.
तो भस्म निर्माण करना ही बंद कर देना चाहिए और भस्मजन्य रसकल्पोंका सर्वथा त्याग करना चाहिए !!!
अल्पमात्रोपयोगी स्यात्
अरुचे: न प्रसंग: स्यात् ।
क्षिप्रम् आरोग्यदायी स्यात्
*सप्तधा भाविता वटी* ।। ✅️ ✅️ ✅️
भूयश्चैषां बलाधानं कार्यं स्वरसभावनैः ।
सुभावितं ह्यल्पमपि द्रव्यं स्याद्बहुकर्मकृत् ॥
स्वरसैस्तुल्यवीर्यैर्वा तस्माद्द्रव्याणि भावयेत् ।
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