चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के प्रथम दो अध्याय (रसायन & वाजीकरण) प्रक्षिप्त है.
क्यूं? कैसे ...🤔⁉️
नि'र्दोष' आयुर्वेद
Nir'Dosha' Ayurveda
भाग : 2 ( Part 2 )
Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.
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चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के प्रथम दो अध्याय प्रक्षिप्त है.
क्यूं कैसे ...🤔⁉️
1
मूलतः रसायन एवं वाजीकरण ये अन्य = पर तंत्र है, अन्य अधिकार है. और चरक स्वयं *पराधिकारेषु न विस्तरोक्तिः* इस प्रकार की वृत्ती से, काय चिकित्सा प्रधान संहिता लिख रहे है. ऐसी स्थिती मे कायचिकित्सा प्रधान ग्रंथ के चिकित्सा स्थान का आरंभ हि ... पराधिकार के विस्तृत वर्णन से करेगा, यह असंभव है.
2.
चरक संहिता के चिकित्सा स्थान मे, काय चिकित्सा छोडकर, अन्य अंगों के विषयों का वर्णन चिकित्सा स्थान 24 वे अध्याय से आगे प्राप्त होता है ... जैसे की विष चिकित्सा द्विव्रणीय चिकित्सा त्रिमर्मीय चिकित्सा योनि व्यापत् ... इनमें आपको दंष्ट्रा शल्य शालाक्य बाल इनके चिकित्साओंका संक्षेप मे उल्लेख प्राप्त है.
ऐसी स्थिती मे रसायन वाजीकरण इन अंतिम अंगोंका, पराधिकार के विषयों का अतिशय विस्तृत वर्णन, चार चार उप-अध्याय के समूह के रूप मे, चिकित्सा स्थान के आरंभ मे हि होना, अत्यंत विसंगत विलक्षण अप्रासंगिक अनार्ष प्रक्षिप्त है. यह किसी भी आयुर्वेद के विद्यार्थी को वैद्य को अनायास हि सहज हि समझ मे आना संभव है
3.
चक्रपाणि के अनुसार प्रथम आठ अध्याय यह चरक द्वारा लिखित है. इसका अर्थ होता है कि चरक चिकित्सा स्थान के नौवे और दसवे अध्याय , जिसमे अपस्मार और उन्माद का चिकित्सा वर्णन है, ये चरक द्वारा लिखित नही है!😇
किंतु यह उचित नही लगता और हो भी नहीं सकता.
अगर चरक, निदान स्थान के आठ अध्याय में, अंतिम दो अध्याय मे उन्माद अपस्मार का निदान लिखते है, तो उन्होंने उसकी चिकित्सा भी उसी क्रम से लिखी होना, सुसंगत है.
यदि हम रसायन और वाजीकरण के अध्याय को अनार्ष एवं प्रक्षिप्त मानेंगे , तो आज जो नौवे और दसवे क्रमांक के अध्याय है (चिकित्सा स्थान के) हि, वे अपने आप सातवे और आठवे क्रमांक के अध्याय हो जायेंगे और वे प्रथम 8 अध्याय में आने से, वे भी चरकोक्त चरक लिखित है , यह विधान भी सिद्ध होगा.
4.
चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के प्रथम अध्याय का ...
*यद्व्याधिनिर्घातकरं वक्ष्यते तच्चिकित्सिते*
यह श्लोक भी स्पष्ट रूप से यह द्योतित करता है , कि व्याधि निर्घात कर औषध का हि उल्लेख चिकित्सा स्थान मे होना उचित है, न कि रसायन वाजीकरण का!!!
5.
रसायन वाजीकरण अध्यायों की रचना यह चतुष्पादात्मक है. एक एक अध्याय मे चार उप-अध्याय अर्थात पाद है. इस प्रकार की रचना संपूर्ण चरक संहिता मे अन्यत्र कही पर भी नही है. इस कारण से भी इन चतुष्पादात्मक अध्यायों को प्रक्षिप्त मानना हि उचित है. सूत्रस्थान मे जो चतुष्करचना है वह एक एक अलग अध्याय है. एक ही अध्याय के चार पाद नही है
6.
चरक के इन 2 अध्यायों मे से रसायन का च्यवनप्राश छोडकर अन्य किसी भी रसायन योग का लोकव्यवहार में मे प्रचलन दिखाई नही देता है.
च्यवनप्राश यह भी कितना overrated & अवास्तव आक्षेपार्ह रसायन कल्प है, इसके लेख (मेरे द्वारा लिखित) सभी ने पढे हुए हि है. उन लेखों की लिंक नीचे दी हुई है
https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/yayaati-chyavana-arthavaada.html
https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/english-chyavanprasha-formulation.html
https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/blog-post_31.html
https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/blog-post_20.html
7.
वाजीकरण को देखा जाये तो एक भी योग आज के व्यवहार में प्रचलित नही है.
8.
रसायन के अध्याय के चौथे अंतिम पाद मे आयुर्वेद समुत्थानीय में फिरसे आयुर्वेदावतरण की बात घुसेड दी गई है ... और यहा पर इंद्र के पास, भरद्वाज न जाते हुए, एकदम दस ऋषी चले जाते है. जो की चरक सूत्र एक मे उल्लेखित तथा अन्य सभी संहिता मे उल्लेखित आयुर्वेद अवतरण की कथा से आत्यंतिक विसंगत है. इसलिये भी ये दोनो अध्याय अनार्ष है प्रक्षिप्त है .
9.
एक बार द्वितीय पाद में ग्राम्य आहार का उल्लेख एवं होने के बाद सविस्तर निदान चिकित्सा का वर्णन होने के बावजूद , फिरसे ग्राम्यो हि वासो मूलं अशस्तानां ... करके पुनरावृत्ती की है, वो भी एक ही अध्याय में, चाहे पाद बदल कर हि क्यू न गयी हो; अप्रासंगिक हि प्रतीत होती है.
10.
चरक शारीर एक मे *सताम् उपासनं सम्यक्* इस क्रम से तत्त्वस्मृति के उपाय बताये जाने पर या
चरक शारीर पांच मे मुमुक्षु उदयन बताये जाने पर,
आयुर्वेद समुत्थानीय पाद में आचार रसायन का उल्लेख, यह फिर से अप्रासंगिक हि है.
11.
उसके पश्चात के भी सारे सुभाषित की तरह आनेवाले श्लोक अप्रासंगिक और अति आदर्शवादी है, जो प्रॅक्टिकल नही है.
जो चरक धनैषणा को जीवन के मूल आधार के रूप मे चरक सूत्र अकरा में वर्णित करते है, वही चरक ...
धर्मार्थं नार्थकामार्थमायुर्वेदो महर्षिभिः
कुर्वते ये तु वृत्त्यर्थं चिकित्सापण्यविक्रयम्
नार्थार्थं नापि कामार्थमथ भूतदयां प्रति ।
ऐसे श्लोक रसायन अध्याय के अंतिम पाद में लिखेंगे...यह असंभव है.
12.
जो चरक संपूर्ण चरक संहिता मे कही पर भी अर्थवादात्मक अशक्यप्राय ऐसे औषध परिणाम का वर्णन नही करता है, वही चरक रसायन और वाजीकरण अध्याय में अत्यंत अशक्य कोटी के असंभव प्रकार के अर्थवादात्मक औषध परिणाम का वर्णन करता है, यह भी इन दो अध्यायों का प्रक्षिप्त या अनार्ष होने का प्रमाण है.
शतं नारीणां भुंक्ते 😇🙃
इस प्रकार का वर्णन चरक कर हि नही सकते!
जो चरक अर्श के अध्याय मे, अन्य लोगो द्वारा किये जाने वाले शस्त्रक्षाराग्नि कर्म की आलोचना करते है, निंदा करते है, वही चरक स्वयं वाजीकरण के अध्याय मे अशक्य असंभव ऐसे औषध परिणाम का वर्णन करेगा, यह हो हि नही सकता.
13.
वही बात च्यवनप्राश इत्यादि रसायन के फलश्रुती मे भी प्रतीत होती है. च्यवन का पुनर्युवा होना यह अर्थवादात्मक अशक्य बात है, जो चरक नही लिखेगा. यह च्यवनप्राश तथा दोनो रसायन वाजीकरण के अध्याय संपूर्णतः प्रक्षिप्त अनार्ष होने के कारण हि, च्यवनप्राश को अकल्पित विलक्षण अशास्त्रीय इस प्रकार के परिणाम/फलश्रुती लिखे गये.
14.
वही बात रसायन के फलश्रुती में *वाक्सिद्धिं प्रणतिं कांतिम्* इस रूप मे दिखाई देती है. ऐसे अर्थवादात्मक अशक्य परिणाम, रसायन के लिखना, यह भी चरक के लेखन शैली से विपरीत तथा अप्रामाणिक अप्रासंगिक व विसंगत है.
15.
सूत्र 30 में, अष्टांगों का जो विवरण है, उसके क्रम मे रसायन और वाजीकरण ये सबसे अंतिम है, किंतु यहां तो चिकित्सा स्थान के आरंभ मे हि रसायन और वाजीकरण का *संदर्भ विरहित एवं क्रमभंग* से विषम-विन्यस्त वर्णन है.
16.
इन दो अध्यायों के पहले इंद्रिय स्थान का वर्णन हुआ है. तो ऐसी स्थिती में सीधा रसायन वाजीकरण का उसके पश्चात् वर्णन यह अप्रासंगिक है.
इन सभी कारणों से रसायन और वाजीकरण, ये चतुष्पादात्मक (चार उप-अध्याय के समूह के) रूप मे आने वाले दो अध्याय विषम-विन्यस्त अनार्ष है और प्रक्षिप्त है.
अगर हम इन चार उपाध्याय समूह स्वरूप दो अध्यायों के सभी श्लोकों का सभी कल्पोंका परिशीलन करेंगे, तो इससे भी अधिक सविस्तर और विश्लेषण स्वरूप मे, किस प्रकार से ये दो अध्याय अनार्ष और प्रक्षिप्त है, अप्रामाणिक है , अशास्त्रीय है ... यह सिद्ध करना संभव है.
ऐसे इन श्लोकों पर / कल्पों पर, और एक सविस्तर लेख निकट भविष्य में प्रकाशित करेंगे.
यहां पर इस लेख को दिग्दर्शन मात्र समझके, एक एक श्लोक/कल्प का परीक्षण, अन्य सुज्ञ वैद्य विद्यार्थी आयुर्वेद के प्रेमी अपने बुद्धी से निश्चित हि कर पायेंगे और उन सभी को विश्वास होगा, वे सभी इस निश्चित निर्णय पर आ सकेंगे कि चरक चिकित्सा स्थान के प्रथम दो अध्याय अनार्ष अशास्त्रीय अप्रामाणिक व प्रक्षिप्त है.
17.
जैसे चरक निदान स्थान का आरंभ ज्वर निदान से होता है, वैसे हि चरक चिकित्सा स्थान का आरंभ भी ज्वर चिकित्सा से होना हि सुसंगत शास्त्रीय व आर्षप्रणीत है.
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डिस्क्लेमर : या उपक्रमात व्यक्त होणारी मतं, ही सर्वथैव योग्य अचूक बरोबर निर्दोष आहेत असे लिहिणाऱ्याचे म्हणणे नाही. हे लेख म्हणजे वैयक्तिक मत आकलन समजूत असल्यामुळे, याच्यामध्ये काही उणीवा कमतरता दोष असणे शक्य आहे, ही संभावना मान्य व स्वीकार करूनच, हे लेख लिहिले जात आहेत.
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