Wednesday, 24 January 2024

चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के प्रथम दो अध्याय (रसायन & वाजीकरण) प्रक्षिप्त है. क्यूं? कैसे ...🤔⁉️

चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के प्रथम दो अध्याय (रसायन & वाजीकरण) प्रक्षिप्त है.

क्यूं? कैसे ...🤔⁉️


नि'र्दोष' आयुर्वेद

Nir'Dosha' Ayurveda 

भाग : 2 ( Part 2 )


Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. एम् डी आयुर्वेद, एम् ए संस्कृत.

आयुर्वेद क्लिनिक्स @पुणे & नाशिक.

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चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के प्रथम दो अध्याय प्रक्षिप्त है.

क्यूं कैसे ...🤔⁉️

1

मूलतः रसायन एवं वाजीकरण ये अन्य = पर तंत्र है, अन्य अधिकार है. और चरक स्वयं *पराधिकारेषु न विस्तरोक्तिः* इस प्रकार की वृत्ती से, काय चिकित्सा प्रधान संहिता लिख रहे है. ऐसी स्थिती मे कायचिकित्सा प्रधान ग्रंथ के चिकित्सा स्थान का आरंभ हि ... पराधिकार के विस्तृत वर्णन से करेगा, यह असंभव है.

2.

चरक संहिता के चिकित्सा स्थान मे, काय चिकित्सा छोडकर, अन्य अंगों के विषयों का वर्णन चिकित्सा स्थान 24 वे अध्याय से आगे प्राप्त होता है ... जैसे की विष चिकित्सा द्विव्रणीय चिकित्सा त्रिमर्मीय चिकित्सा योनि व्यापत् ... इनमें आपको दंष्ट्रा शल्य शालाक्य बाल इनके चिकित्साओंका संक्षेप मे उल्लेख प्राप्त है.

ऐसी स्थिती मे रसायन वाजीकरण इन अंतिम अंगोंका, पराधिकार के विषयों का अतिशय विस्तृत वर्णन, चार चार उप-अध्याय के समूह के रूप मे, चिकित्सा स्थान के आरंभ मे हि होना, अत्यंत विसंगत विलक्षण अप्रासंगिक अनार्ष प्रक्षिप्त है. यह किसी भी आयुर्वेद के विद्यार्थी को वैद्य को अनायास हि सहज हि समझ मे आना संभव है

3.

चक्रपाणि के अनुसार प्रथम आठ अध्याय यह चरक द्वारा लिखित है. इसका अर्थ होता है कि चरक चिकित्सा स्थान के नौवे और दसवे अध्याय , जिसमे अपस्मार और उन्माद का चिकित्सा वर्णन है, ये चरक द्वारा लिखित नही है!😇

किंतु यह उचित नही लगता और हो भी नहीं सकता. 

अगर चरक, निदान स्थान के आठ अध्याय में, अंतिम दो अध्याय मे उन्माद अपस्मार का निदान लिखते है, तो उन्होंने उसकी चिकित्सा भी उसी क्रम से लिखी होना, सुसंगत है. 

यदि हम रसायन और वाजीकरण के अध्याय को अनार्ष एवं प्रक्षिप्त मानेंगे , तो आज जो नौवे और दसवे क्रमांक के अध्याय है (चिकित्सा स्थान के) हि, वे अपने आप सातवे और आठवे क्रमांक के अध्याय हो जायेंगे और वे प्रथम 8 अध्याय में आने से, वे भी चरकोक्त चरक लिखित है , यह विधान भी सिद्ध होगा.


4.

चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के प्रथम अध्याय का ...

*यद्व्याधिनिर्घातकरं वक्ष्यते तच्चिकित्सिते*

यह श्लोक भी स्पष्ट रूप से यह द्योतित करता है , कि व्याधि निर्घात कर औषध का हि उल्लेख चिकित्सा स्थान मे होना उचित है, न कि रसायन वाजीकरण का!!!


5.

रसायन वाजीकरण अध्यायों की रचना यह चतुष्पादात्मक है. एक एक अध्याय मे चार उप-अध्याय अर्थात पाद है. इस प्रकार की रचना संपूर्ण चरक संहिता मे अन्यत्र कही पर भी नही है. इस कारण से भी इन चतुष्पादात्मक अध्यायों को प्रक्षिप्त मानना हि उचित है. सूत्रस्थान मे जो चतुष्करचना है वह एक एक अलग अध्याय है. एक ही अध्याय के चार पाद नही है


6.

चरक के इन 2 अध्यायों मे से रसायन का च्यवनप्राश छोडकर अन्य किसी भी रसायन योग का लोकव्यवहार में मे प्रचलन दिखाई नही देता है.

च्यवनप्राश यह भी कितना overrated & अवास्तव आक्षेपार्ह रसायन कल्प है, इसके लेख (मेरे द्वारा लिखित) सभी ने पढे हुए हि है. उन लेखों की लिंक नीचे दी हुई है


https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/yayaati-chyavana-arthavaada.html


https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/english-chyavanprasha-formulation.html


https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/blog-post_31.html


https://mhetreayurved.blogspot.com/2023/11/blog-post_20.html



7.

वाजीकरण को देखा जाये तो एक भी योग आज के व्यवहार में प्रचलित नही है.


8.

रसायन के अध्याय के चौथे अंतिम पाद मे आयुर्वेद समुत्थानीय में फिरसे आयुर्वेदावतरण की बात घुसेड दी गई है ... और यहा पर इंद्र के पास, भरद्वाज न जाते हुए, एकदम दस ऋषी चले जाते है. जो की चरक सूत्र एक मे उल्लेखित तथा अन्य सभी संहिता मे उल्लेखित आयुर्वेद अवतरण की कथा से आत्यंतिक विसंगत है. इसलिये भी ये दोनो अध्याय अनार्ष है प्रक्षिप्त है .


9.

एक बार द्वितीय पाद में ग्राम्य आहार का उल्लेख एवं होने के बाद सविस्तर निदान चिकित्सा का वर्णन होने के बावजूद , फिरसे ग्राम्यो हि वासो मूलं अशस्तानां ... करके पुनरावृत्ती की है, वो भी एक ही अध्याय में, चाहे पाद बदल कर हि क्यू न गयी हो; अप्रासंगिक हि प्रतीत होती है.


10.

चरक शारीर एक मे *सताम् उपासनं सम्यक्* इस क्रम से तत्त्वस्मृति के उपाय बताये जाने पर या 

चरक शारीर पांच मे मुमुक्षु उदयन बताये जाने पर, 

आयुर्वेद समुत्थानीय पाद में आचार रसायन का उल्लेख, यह फिर से अप्रासंगिक हि है.


11.

उसके पश्चात के भी सारे सुभाषित की तरह आनेवाले श्लोक अप्रासंगिक और अति आदर्शवादी है, जो प्रॅक्टिकल नही है. 

जो चरक धनैषणा को जीवन के मूल आधार के रूप मे चरक सूत्र अकरा में वर्णित करते है, वही चरक ...

धर्मार्थं नार्थकामार्थमायुर्वेदो महर्षिभिः 

कुर्वते ये तु वृत्त्यर्थं चिकित्सापण्यविक्रयम् 

नार्थार्थं नापि कामार्थमथ भूतदयां प्रति ।

ऐसे श्लोक रसायन अध्याय के अंतिम पाद में लिखेंगे...यह असंभव है.

12.

जो चरक संपूर्ण चरक संहिता मे कही पर भी अर्थवादात्मक अशक्यप्राय ऐसे औषध परिणाम का वर्णन नही करता है, वही चरक रसायन और वाजीकरण अध्याय में अत्यंत अशक्य कोटी के असंभव प्रकार के अर्थवादात्मक औषध परिणाम का वर्णन करता है, यह भी इन दो अध्यायों का प्रक्षिप्त या अनार्ष होने का प्रमाण है.

शतं नारीणां भुंक्ते 😇🙃

इस प्रकार का वर्णन चरक कर हि नही सकते! 

जो चरक अर्श के अध्याय मे, अन्य लोगो द्वारा किये जाने वाले शस्त्रक्षाराग्नि कर्म की आलोचना करते है, निंदा करते है, वही चरक स्वयं वाजीकरण के अध्याय मे अशक्य असंभव ऐसे औषध परिणाम का वर्णन करेगा, यह हो हि नही सकता.


13.

वही बात च्यवनप्राश इत्यादि रसायन के फलश्रुती मे भी प्रतीत होती है. च्यवन का पुनर्युवा होना यह अर्थवादात्मक अशक्य बात है, जो चरक नही लिखेगा. यह च्यवनप्राश तथा दोनो रसायन वाजीकरण के अध्याय संपूर्णतः प्रक्षिप्त अनार्ष होने के कारण हि, च्यवनप्राश को अकल्पित विलक्षण अशास्त्रीय इस प्रकार के परिणाम/फलश्रुती लिखे गये.


14.

वही बात रसायन के फलश्रुती में *वाक्सिद्धिं प्रणतिं कांतिम्* इस रूप मे दिखाई देती है. ऐसे अर्थवादात्मक अशक्य परिणाम, रसायन के लिखना, यह भी चरक के लेखन शैली से विपरीत तथा अप्रामाणिक अप्रासंगिक व विसंगत है.

15.

सूत्र 30 में, अष्टांगों का जो विवरण है, उसके क्रम मे रसायन और वाजीकरण ये सबसे अंतिम है, किंतु यहां तो चिकित्सा स्थान के आरंभ मे हि रसायन और वाजीकरण का *संदर्भ विरहित एवं क्रमभंग* से विषम-विन्यस्त वर्णन है. 

16.

इन दो अध्यायों के पहले इंद्रिय स्थान का वर्णन हुआ है. तो ऐसी स्थिती में सीधा रसायन वाजीकरण का उसके पश्चात् वर्णन यह अप्रासंगिक है.

इन सभी कारणों से रसायन और वाजीकरण, ये चतुष्पादात्मक (चार उप-अध्याय के समूह के) रूप मे आने वाले दो अध्याय विषम-विन्यस्त अनार्ष है और प्रक्षिप्त है. 

अगर हम इन चार उपाध्याय समूह स्वरूप दो अध्यायों के सभी श्लोकों का सभी कल्पोंका परिशीलन करेंगे, तो इससे भी अधिक सविस्तर और विश्लेषण स्वरूप मे, किस प्रकार से ये दो अध्याय अनार्ष और प्रक्षिप्त है, अप्रामाणिक है , अशास्त्रीय है ... यह सिद्ध करना संभव है. 

ऐसे इन श्लोकों पर / कल्पों पर, और एक सविस्तर लेख निकट भविष्य में प्रकाशित करेंगे.

यहां पर इस लेख को दिग्दर्शन मात्र समझके, एक एक श्लोक/कल्प का परीक्षण,  अन्य सुज्ञ वैद्य विद्यार्थी आयुर्वेद के प्रेमी अपने बुद्धी से निश्चित हि कर पायेंगे और उन सभी को विश्वास होगा, वे सभी इस निश्चित निर्णय पर आ सकेंगे कि चरक चिकित्सा स्थान के प्रथम दो अध्याय अनार्ष अशास्त्रीय अप्रामाणिक व प्रक्षिप्त है. 

17.

जैसे चरक निदान स्थान का आरंभ ज्वर निदान से होता है, वैसे हि चरक चिकित्सा स्थान का आरंभ भी ज्वर चिकित्सा से होना हि सुसंगत शास्त्रीय व आर्षप्रणीत है.

🙏🏼

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Disclaimer/अस्वीकरण: लेखक यह नहीं दर्शाता है, कि इस गतिविधि में व्यक्त किए गए विचार हमेशा सही या अचूक होते हैं। चूँकि यह लेख एक व्यक्तिगत राय एवं समझ है, इसलिए संभव है कि इस लेख में कुछ कमियाँ, दोष एवं त्रुटियां हो सकती हैं। भाषा की दृष्टी से, इस लेखके अंत मे मराठी भाषा में लिखा हुआ/ लिखित डिस्क्लेमर ग्राह्य है

डिस्क्लेमर : या उपक्रमात व्यक्त होणारी मतं, ही सर्वथैव योग्य अचूक बरोबर निर्दोष आहेत असे लिहिणाऱ्याचे म्हणणे नाही. हे लेख म्हणजे वैयक्तिक मत आकलन समजूत असल्यामुळे, याच्यामध्ये काही उणीवा कमतरता दोष असणे शक्य आहे, ही संभावना मान्य व स्वीकार करूनच, हे लेख लिहिले जात आहेत.

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Friday, 12 January 2024

ओज : एक बोझ ... नि'र्दोष' आयुर्वेद Nir'Dosha' Ayurveda भाग : 1 एक ( Part 1 )

*ओज : एक बोझ*

नि'र्दोष' आयुर्वेद Nir'Dosha' Ayurveda ... भाग : 1 एक ( Part 1 )

Copyright कॉपीराइट ©वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे.

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✨🌟💫

Truth does not mind being questioned, 

but

Lie does not like being challenged.

तन्त्रान्तरे तु ओजःशब्देन रसोऽप्युच्यते,1️⃣ जीवशोणितमप्योजःशब्देनामनन्ति केचित्,2️⃣ ऊष्माणमप्योजःशब्देनापरे वदन्ति।।3️⃣

धातूनां तेजसि4️⃣ रसे तथा जीवितशोणिते। 

श्लेष्मणि प्राकृते5️⃣ वैद्यैरोजःशब्दः प्रकीर्तितः॥ 

बल : सुश्रुतोक्त 6️⃣

पर ओज, अपर ओज : टीकाकार मत 7️⃣


ओज एक ऐसी 'ऑब्जेक्टिव्ह एन्टिटी' है, कि जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण से अर्थात इंद्रिय गम्य ऐसे ...


1. रस , 

2. गंध, 

3. वर्ण 


...एवं च वस्तुनिष्ठ रूप में ऑब्जेक्टिव्ह पॅरामीटर के रूप में, 


4. इसका अंजली प्रमाण, यह भी शास्त्र मे लिखा हुआ है, 


इतना ही नही ... 


5. तो गर्भिणी अवस्था मे आठवे मास मे माता और गर्भस्थ शिशु इनमे अल्टरनेट काल मे स्थानांतरित होता है, ऐसे भी लिखा गया है 

... और तो और , 


6. ओज के क्षय के लक्षण, 

7. ओज के क्षय के हेतु, 

8. इस ओज के वृद्धि के लक्षण और 

9. ओजक्षय की चिकित्सा अर्थात ओजो वृद्धि के उपाय लिखे है. 


10. सुश्रुत ने तो और आगे जाकर, ओज (अर्थात बल के) क्षय के तीन उत्तरोत्तर गंभीर, हानिकारक सोपान बताये है : व्यापद विस्रंस क्षय , बताये है. 


11. फिर इस ओज को सोमात्मक अर्थात उसका महाभौतिक संघटन भी बताया है.


🌟🌟🌟

ऐसी स्थिति होने पर भी, इतना वस्तुनिष्ठ वर्णन ऑब्जेक्टिव्ह डिस्क्रिप्शन उपलब्ध होने के बाद भी ... 

*इस ओज की कोई भी प्रत्यक्ष गम्य परीक्षा / गणना / आयडेंटिफिकेशन, यह आज के अतिसूक्ष्म परीक्षण आकलन दर्शन के काल मे भी 'असंभव है'.*


जो मायक्रोग्राम mcg मे = एक मिलिग्राम के भी हजारवे भाग के गणना योग्य प्रमाण मे, traces amount में, जो शरीर मे उपस्थित है, ऐसे भी शारीरद्रव्यों का , शरीरस्थ भाव पदार्थों का, आयडेंटिफिकेशन , उनका गणन, उनकी वृद्धिक्षय के लक्षण ... और साक्षात उसी द्रव्य का कृतक आर्टिफिशल रूप मे निर्माण करके, उसका गणितीय मात्रा मे कॅल्क्युलेटेड डोस, शरीर मे प्रवेश कराने, पर उन लक्षणों को ठीक करना संभव है, जैसे की थायरॉईड इन्सुलिन विटामिन डी बी ट्वेल्व ...


तो ऐसी स्थिती मे, जो ओज ...

अर्धांजली अर्थात कम से कम 80ml, इतनी बडी मात्रा मे, शरीर मे उपस्थित है, 

जिसका पीत लोहित या घृत समान वर्ण है, 

जिसका लाजा के समान गंध है, 

जिसका मधु के समान रस है ... 

इतना सारा जिसके बारे में, वस्तुनिष्ठ ऑब्जेक्टिव्ह प्रत्यक्ष गम्य लिखा है ... 

वो हमे कभी भी आयडेंटिफाय नही होता है !!! 


और ना हि उसका कृतक रूप मे आर्टिफिशियल रूप मे केमिस्ट्री मे लॅब मे निर्माण भी संभव है.


लोहित पीत घृत समान वर्ण, मधु रस, लाजगंध 80ml मात्रा ... इतना सारा *प्रत्यक्ष गम्य वर्णन होने पर भी* ओज को जो आयडेंटिफाय नही कर सकते है, वे आयुर्वेद के लोग (= हम सभी) कहते है कि, जो अमूर्त अणु मन है , उस की भी हम चिकित्सा करते हैं 🙄😇🙃🤣😆


दूसरा ...

मधुमेह नाम का एक प्रमेह का प्रकार है, अंतिम है ... जिसमे, इस मधुमेह नाम के प्रकार में , शरीर से मूत्र के साथ , ओज का निष्कासन होता है. 👇🏼

तैः आवृतगतिः वायुः ओज आदाय गच्छति ।

यदा बस्तिं तदा कृच्छ्रो मधुमेहः प्रवर्तते

तो चलो ठीक है भाई , 

आपको शरीर के अंदर संचार्यमाण, सभी धातुओं मे संमीलित, ऐसे ओज का आयडेंटिफिकेशन संभव नही है ...


तो कम से कम, जो मूत्र के साथ, शरीर के बाहर उत्सर्जित हो रहा है, ऐसे मधुमेह के पेशंट के मूत्र में तो, वह ओज आयडेंटिफाय करो ...


अगर, 

आप मधुमेह की चिकित्सा करते हो , 

मधुमेह नाम का निदान लिखते हो, 

मधुमेह पर लेक्चर देते हो, 

मधुमेह पर सेमिनार वेबिनार आयोजित करते हो ... तो,

इतने सारे इससे संबंधित ; वक्ता शिक्षक प्रॅक्टिशनर्स जो भी है, इनमे से, किसी एक ने तो, कम से कम एक पेशंट के मूत्र मे भी तो, *ओज देखा हुआ होना चाहिये ना !?*


और अगर नही देखा है ... तो,

आप शास्त्र के प्रति प्रतारणा वंचना कर रहे हो ...


क्योंकि मूत्र मे ओज को देखे बिना हि,

मधुमेह निदान चिकित्सा लेक्चर सेमिनार होते जा रहे है.


मूत्र में ओज का होना, इसके अलावा, कोई भी अन्य लक्षण शास्त्र में, मधुमेह का उल्लेखित नहीं है,

इसी कारण से, मधुमेह के नाम पर जो भी पठण, लेखन, टीचिंग, निदान, चिकित्सा, सेमिनार, थिसिस, रिसर्च पेपर ये सब चलता है, 

तो ये सब दुर्व्यवहार, शास्त्र विरुद्ध और प्रत्यक्ष प्रमाण विरुद्ध, ऐसे *उभयथा असिद्ध* है ,

क्यूंकि, *'किस्सी ने भी' मूत्र में कभ्भी भी ओज को देखा हि नहीं है.*


तो क्या आपको ऐसे लगता नहीं कि,

उपरोक्त दो मुद्दों के अनुसार ... 

ओज यह एक वाग्वस्तुमात्र अनिर्देश्य तर्क्य कल्पनारम्य असिद्ध भ्रांतीमूलक भ्रामक assumed considered hypothetical fictional fantasy अस्तित्वहीन एंटिटी है???? 

*इसीलिए ओज का आयुर्वेद शास्त्र से निष्कासन कर देना चाहिए* ... 


और तो और, जिसका अर्धांजली प्रमाण बताया, लाजगंध मधुर रस लोहित पीत घृतमान वर्ण बताया , जिसके आपको इतने सारे डेरीवेटीव्ह्स मिलते है कि आश्चर्य लगना चाहिये कि जिस ओज को सोमात्मक कहा है ... उसी को उष्मा भी कहते है, जीवशोणित भी कहते है, धातुओं का तेज भी कहते है ... अरे , उष्मा तेज शोणित ये क्या सोमात्मक भाव पदार्थ है??? ये तो साक्षात अग्निप्रधान है , तो ये ओज = सोमात्मक कैसे हो सकते है??? धातुओं का तेज = धातु सार ऐसे समझा, तो भी ऊष्मा व जीवशोणित के ओजोरूप = सोमात्मक होने का समाधान / justification संभव नहीं है.


कुल मिलाकर 7 संदर्भ ऐसे है, जो अलग अलग एन्टिटिज बताते है , एक हि ओज के नाम पर!!!


एक प्रत्यक्ष गम्य शारीर भाव पदार्थ को इतना blurry hazy cloudy बनाने की आवश्यकता क्या है??


और इसके आगे जाकर, *यन्नाशे नियतं नाशो* ऐसा जिसका निश्चित स्वरूप है, जिसका ऐसे व्यतिरेक महत्त्व बताया गया है, तो वह कौन सी ऐसी वस्तु है कि, जिसके नाश से मृत्यू होती है ... इतनी महत्त्वपूर्ण वस्तु इतनी इफेक्टिव्ह वस्तु, जो जीवन और मृत्यू इनके बीच का भेद है फरक है अंतर है ... उसको ढूंढ नही पाते है ???


गर्भिणी अवस्था मे आठवे मास मे माता और गर्भस्थ शिशु इनमे अल्टरनेट काल मे स्थानांतरित होता है ... किंतु प्रत्यक्ष व्यवहार मे आठवे क्या... छठे सातवे इन मासों भी में जन्म लेने वाले शिशु निश्चित रूप से जीवित रहते हि है.


अगर शरीर भाव प्रत्यक्ष नही है, तो और क्या प्रत्यक्ष हो सकता है??? 


और यदि आज तक, इस ओजकी आयडेंटिटी सिद्ध निश्चित प्रस्थापित न होने से, आयुर्वेद के शिक्षण एवं चिकित्सकीय व्यवहार में कोई भी फरक नही पडता है, तो इसका सुनिश्चित अर्थ यह है की, इस ओज नामक वस्तु का कोई महत्त्व/ उपयोग/ आवश्यकता यथार्थ मे है हि नहीं. व्यवहार में अगर इस ओज का कोई उपयोग होता, तो उसकी आयडेंटिटी निश्चित करना व्यवहार के लिए अत्यावश्यक हो जाता ... लेकिन इतने सदियों से उसकी आयडेंटिटी के बिना हि, केवल कल्पनारम्य वाग्वस्तुमात्र चर्चा से हि, व्यवहार चल रहा है ... इसका सरल व स्पष्ट अर्थ यह है कि, यह ओज केवल आकाशपुष्प है गगनारविंद है स्वरूपासिद्ध है अस्तित्वहीन है


तो कुल मिलाकर, वो जो होता हि नही है, एक ढकोसला है, ये केवल चर्चा का सेमिनार का सिखाने का पढाने का लिखने का विषय है, ये वस्तुस्थिती मे अस्तित्व की चीज है हि नही... तो इसको हम खुले मनसे कब स्वीकार करेंगे??? कब तक फॉल्स नेरेटिव्ह हमे जो हमारे पूर्वजोंने पढाया उसको रटते रहेंगे? ... और आने वाले निरागस इनोसंट जिज्ञासू उत्सुक सक्षम युवा पिढी को भी, हम ऐसेही ये अस्तित्वहीन निरुपयोगी बाते रटाते पढाते मनाते रहेंगे???


क्या यह शास्त्र की प्रतारणा नहीं है? क्या ये स्वयं की प्रति वंचना नही है? क्या आने वाली पिढी की बुद्धी के प्रति दिग्भ्रांति नही है???


अच्छा चलो, आपने किसी पेशंट के हेतु लक्षण ओजक्षय के है ऐसा निदान कर भी लिया, तो क्या ऐसा नया तीर मार लिया?? दोगे क्या आप उसको?? उसको ओजोवर्धक अर्थात क्या दोगे? जीवनीय गण क्षीर मांसरस इत्यादि दोगे. अर्थात क्या दोगे, संतर्पण = जलमहाभूत पृथ्वी महाभूत = अग्नि वायु आकाश को कम करोगे , अपतर्पण को रोकोगे ... तो भौमापम् और इतरत् ... पृथ्वी जल और अग्नि वायु आकाश इनके परे आप गये हि कहां? ... तो ओज कहने का उपयोग हि क्या है , प्रयोजन क्या है , उद्देश्य क्या है , फल क्या है??? कुछ भी नही है !!!


वातवृद्धी कहो, बलक्षय कहो, कफक्षय कहो, अपतर्पण कहो, अग्नि वायु आकाश की वृद्धि कहो ... सारा कुल मिला के एक हि है ना???


अब और आगे देखिये ...

विष्णुसहस्रनाम मे विष्णू के हजार नाम है,

वैसे है ये ओज ... 


या फिर 

श्याम तेरे कितने नाम 


या फिर 

जैसे हमने गाना नीचे लिखा है कि, 

प्रेमी आशिक़ आवारा

पागल मजनू दीवाना

मुहोब्बत ने ये नाम हमको दिए हैं

तुम्हे जो पसंद हो अजी फर्माना ...


ऐसी हि स्थिती है इस ओज की


क्या है... धातु का तेज भी है , प्राकृत कफ भी है , बल भी है, जीवशोणित भी है ... 


अरे वा!! कुछ तो एक बताओ यार ... 


और इतना सारा बताने पर भी आपको दिखाने को नही आता है, डेमोन्स्ट्रेट करने को नही आता है ...


तो क्या फायदा ऐसे वाग्वस्तुमात्र मात्र चीजों के व्याख्यान का ???


निकाल दो यार , हटा दो ...

बच्चों की बुद्धि पर का बोझ कम हो जाएगा ... सिलॅबस के पॉइंट कम हो जायेंगे!!! 


ये ओज वगैरा सारी, हवा में कही हुई बाते, कही सुनी चीजे, कपोल कल्पित है ये सब ... 


इतने सारे अनिर्देश्य वाग्वस्तुमात्र कल्पनारम्य चीजों की आवश्यकता हि क्या है??? 


जो सदियों से हम ढो रहे है, उसको सर से उतारकर फेक दो !!! 


कोई आवश्यकता नही ओज को मानने की!!!


ना तो पढने की पढाने की लिखने की, ना तो वह निदान चिकित्सा का भाग है, और ना ही शास्त्र के किसी उपयोग का !!! 


सोचकर देखिये तो इस दिशा में, एक बार ...


हां, ऐसा हो सकता है कि, इस लेख की भाषा... आपकी भावना भक्ति को, आपके कोमल मन को, नाजूक हृदय को, आघात करे व्यथित करे, आप इमोशनली हर्ट हो जाये, आपकी श्रद्धा भंग हो जाये!!! यार, शास्त्र मे भक्ति श्रद्धा इन बातों का क्या उपयोग है ???


आईये, सत्य को स्वीकारते है ...

और असत्य को नाकारते है !!!


चलिये, ओज के बाद ... मन योग नाडी षट्क्रियाकाल आवरण स्रोतस मर्म रसशास्त्र; इन सभी को भी आयुर्वेद से निष्कासित करना है ...


आज ये पहले ओज को निष्कासित कर दो ... 

*ओज के बोझ* को भूमी पर पटक दो ... 

तो धीरे धीरे, *निर्दोष आयुर्वेद Nir'Dosha' Ayurveda* इस स्थिति तक पहुंचेंगे ...


अनिर्देश्य तर्क्य वाग्वस्तुमात्र अनुमेय

अभ्युपगम असिद्ध कालबाह्य असत् असत्य कल्पनारम्य अनुपयोगि ... जैसे कि,

स्रोतस् रसशास्त्र नाडीपरीक्षा आत्मा योग मन 

मर्म आवरण ओज ... ऐसे और भी बुद्धिप्रामाण्यविरहित विषय है, ऐसे सभी कश्मल अर्थात् दोषों को शास्त्र से निष्कासित करना आवश्यक है ... 

इन दोषों को = कमतरताओं को, ड्रॉबॅक्स को ...शास्त्र से निष्कासित करना आवश्यक है.

इस दृष्टी से, 'दोष' शब्द का 'भावार्थ/लौकिकार्थ' जानना चाहिये ...


और तो और, अगर 'दोष' शब्द का 'शास्त्रीय आयुर्वेदीय परिभाषा में = स्वसंज्ञा' अर्थ ले, तो भी आयुर्वेद में *दोष अर्थात वात पित्त कफ*, इनको भी निष्कासित करना चाहिए.

👆🏼 यह वाक्य अतीव अविश्वसनीय लगेगा कि, मैं ये क्या पढ रहा हूं?🤔😇🙄🙃 


अगर आयुर्वेद में पारिभाषिक दोष अर्थात वात पित्त कफ भी नही होंगे, तो आयुर्वेद कहा से रहेगा?


किंतु जैसे उपर कहा की, आयुर्वेद में आवरण स्रोतस मर्म ऐसे अनेक उपयोगी वाग्वस्तुमात्र दोष = ड्रॉबॅक्स कमतरता है, इस भावार्थ/लौकिकार्थ से भी...


और वैसेही पारिभाषिक अर्थ से, जिसे दोष कहा जाता है ... ये वात पित्त कफ, ये भी ऐसे ही अनिर्देश्य तर्क्य assumed अभ्युपगम कन्सिडरेशन कल्पनारम्य fictional फॅन्टसी भ्रांतीरूप वाग्वस्तुमात्र हि एन्टीटीज है. 


पारिभाषिक/स्वसंज्ञा (terminologically) एवं भावार्थ/लौकिकार्थ ... इन दोनो दृष्टियों से आयुर्वेद को निर्दोष = दोष रहित करना आवश्यक है.


यह इस काल की, समय की आवश्यकता (need of the time) है.


इसी भूमिका से, *नि'र्दोष' आयुर्वेद Nir'Dosha' Ayurveda'* नामक, अनेक लेखों की सिरीज प्रस्तुत करने जा रहे है. इसमे से यह पहला हि लेख आर्टिकल जिसका टायटल शीर्षक *ओज का बोझ* है, इसे प्रस्तुत किया है.


और एक दिन , वात पित्त कफ इन अनिर्देश्य वाग्वस्तुमात्र असिद्ध अस्तित्वहीन कल्पनारम्य धारणाओं को भी आयुर्वेदिक से निरस्त करेंगे ...


वेलकम टू निर्दोष आयुर्वेद Nir'Dosha' Ayurveda!!!

नि'र्दोष' आयुर्वेद में आपका स्वागत है !!!


आवश्यकता है, तो केवल साहस की, बुद्धीप्रामाण्यवाद से सत्य को देखने की , सारासार विचार की, धैर्य की, आक्रमकता की ... हां में हां मत मिलाईये ... सीधी बात, नो बकवास ... जस्ट सिंप्लिकेट इट, डू नॉट कॉम्प्लिकेट इट एनी मोअर प्लीज!!!


श्रीकृष्णाsर्पणमस्तु 🪷🙏🏼🪔


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सांगा ~मुकुंद~ *ओज* कुणी हो पाहिले ? 😬

सांगा मुकुंद कुणी हा पाहिला


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मधुमेहीच्या मूत्रात कुणालाही ओज दिसले नाही पण लोक मधुमेह ट्रीट करतात 


बालकातले ओज फिरताना कोणालाही दिसले नाही पण सहा महिन्याची बाळंही जगतात😬😬😬

अहो रुपम् अहो ध्वनी 😇🙃😆🤣 ज्या ओजाचा गंध वर्ण रस दिलाय ते इंद्रियगम्य असायला हवं पण ओज सापडत नाही 🤔❓😬


आणि जे मायक्रोग्राम मध्ये असतं त्या थायरॉईडच्या गोळ्या तयार होऊ शकतात 


पण जर तुमचं *ओज* डिटेक्टेबल नाही डिस्पेन्सेबल नाही तर

काय त्याच्यावर चर्चा करून काय उपयोग आहे? Purposeless futile


बोलाची कढी 

बोलाचाच भात 

🍚

जेवा पोटभर


केवढं मोठं ~ओज~ ओझं 

कितना बडा ~ओज~ बोझ

अर्धांजली म्हणजे सुमारे 80मिलि ओज कुठं आहे काय आहे ते सापडत नाही ...


आणि अमूर्त अणु मनाची चिकित्सा करतात म्हणे हे ...

🙆🏻‍♂️🤦🏻‍♂️


अतिशय असिद्ध अवास्तव कल्पना नुसत्या ...

पण ते

*ओझं / ओज* टाकून द्यायला कुण्णीही तयार नाही


✨🌟💫


Truth does not mind being

questioned, 


but

Lie does not like being

challenged.


तन्त्रान्तरे तु ओजःशब्देन रसोऽप्युच्यते,1️⃣ जीवशोणितमप्योजःशब्देनामनन्ति केचित्,2️⃣ ऊष्माणमप्योजःशब्देनापरे वदन्ति।।3️⃣


धातूनां तेजसि4️⃣ रसे तथा जीवितशोणिते। श्लेष्मणि प्राकृते5️⃣ वैद्यैरोजःशब्दः प्रकीर्तितः॥" इति। 


बल : सुश्रुतोक्त 6️⃣

पर ओज, अपर ओज : टीकाकार मत 7️⃣


एक काहीतरी नक्की सांगा की राव

🤔❓😇


ओज जर सोमात्मक आहे... तर ते उष्मा किंवा शोणित कसं काय असू शकेल⁉️🙃


श्याम तेरे कितने नाम


विष्णुसहस्रनाम


प्रेमी आशिक़ आवारा

पागल मजनू दीवाना

मुहोब्बत ने ये नाम हमको दिए हैं

तुम्हें जो पसंद हो अजी फरमाना

*निदाने माधवो नष्टः ... निदाने वाग्भटः श्रेष्ठः*

 *निदाने माधवो नष्टः ... निदाने वाग्भटः श्रेष्ठः*

लेखक : Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. म्हेत्रेआयुर्वेद. MhetreAyurveda

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शीर्षक में उल्लेखित पाद का पूर्ण श्लोक सभी को पता है, ज्ञात है ...

निदाने माधवः श्रेष्ठः

सूत्रस्थाने तु वाग्भटः

शारीरे सुश्रुतः श्रेष्ठः

चरकस्तु चिकित्सिते

किंतु इस श्लोक को हमने थोडा परिवर्तित कर दिया है.

 निदाने वाग्भटः श्रेष्ठः

 सूत्रस्थाने स एव हि

 शारीरे च चिकित्सायां

 सर्वस्थानेषु वाग्भटः

 

इस लेखमाला का यह पहला लेख है, जिसमे निदान मे माधव श्रेष्ठ नही है, यह प्रस्तुत करेंगे.

इस लेखमाला के अंतिम भाग में, वाग्भट केवल सूत्र स्थान में ही नही, अपितु वाग्भट हि सर्व स्थानो में श्रेष्ठ है, ऐसे प्रस्तुत करेंगे

लघुत्रयी में, माधव निदान अर्थात रोगविनिश्चय ग्रंथ का समावेश होता है, क्योंकि ऐसी एक मान्यता है, कि *निदान वर्णन मे माधवकर श्रेष्ठ है. किंतु यह एक रूढीजन्य भ्रम है*. इसमे तथ्य की बात नही है. यह सत्य नही है, कि निदान मे माधव श्रेष्ठ है. क्योंकि रोगविनिश्चय ग्रंथ में माधवकर ने 69 अध्याय लिखे, जिसमे से केवल तीन (3) अध्याय उसने स्वयं लिखे है. जो कि अम्लपित्त शीतपित्त और आमवात, ये हि है. बाकी सभी के सभी अध्याय तो, चरक सुश्रुत या अष्टांगहृदय से, जैसे के तैसे कॉपी करके उठाये है. तो केवल तीन रोगों के निदान लेखन पर, पूरे आयुर्वेद के निदान विषय का श्रेष्ठत्व माधव को अर्पित करना उचित नही है.


69 मे से, 3 अध्याय छोडकर, जो अध्याय उसने बृहत्त्रयी से लिये है, वे भी अधिकरण जानकर नही लिये है. जैसे कि ज्वर यह काय चिकित्सा अधिकार का रोग है, तो ज्वर का अध्याय चरक से या अष्टांगहृदय से लेना उचित होता.

चरक का निदान स्थान का ज्वर अध्याय "केवल गद्य होने के कारण" , माधवकरने अपने रोगविनिश्चय ग्रंथ मे ज्वर का अध्याय, चरक से न लेते हुए, प्रत्यक्षतः ज्वर यह का अध्याय सुश्रुत से लिया है, क्यूंकि वह पद्यमय अर्थात श्लोकबद्ध रचना है. अगर पद्य हि चाहिये, तो अष्टांगहृदय से ज्वर का अध्याय ले सकते थे.


वही स्थिती रक्तपित्त के अध्याय की भी है जो रोगविनिश्चय मे तिसरे क्रमांक पर आता है. रक्तपित्त भी वैसे काय चिकित्सा का अधिकार है, तो उसे चरक निदान से, या पद्य हि चाहिये तो, वाग्भट निदान से लेना चाहिये था. किंतु फिरसे वह सुश्रुत से हि लिया गया है ... और सुश्रुत तो शारीर का या शल्य का अधिकारी है, न कि काय चिकित्सा प्रधान ज्वर या रक्तपित्त जैसे रोगों का!


अर्श जो कि शल्य अधिकार का रोग है, जिसका वर्णन सुश्रुत से हि लेना चाहिये था, किंतु फिरसे सुश्रुत का अध्याय अर्श का "गद्यरूप मे होने के कारण", माधवकर ने रोगविनिश्चय मे अर्श का अध्याय वाग्भट से लिया हुआ है. ऐसे हि प्रायः अधिकार को छोड कर अध्यायों का स्वीकार या ग्रहण किया गया है.


जिसे रोगों के अधिकार के अनुसार अध्यायों का ग्रहण करना चाहिये, (न कि केवल पद्य/श्लोक बद्ध है, इसलिये ग्रहण करना है) यह तक पता नही, उस माधव को *निदाने श्रेष्ठः* कैसे कह सकते है?🤔❓️


अगर माधवकर ने स्वयं लिखे हुए, तीन रोगों के निदान का विचार करे, तो वे भी अशास्त्रीय हि है.


पहला आमवात ! 

इसकी साध्याऽसाध्यता देखिये. 

एकदोषानुगः साध्यो, द्विदोषो याप्य उच्यते |

सर्वदेहचरः शोथः स कृच्छ्रः सान्निपातिकः ||

तो इसमें एक दोषजन्य साध्य है. ये तो सुख साध्य के निकषों के अनुसार (क्रायटेरियानुसार) हमे ज्ञातही है, उसमे कुछ नया नही बताया है.


द्विदोषो याप्य उच्यते , ऐसा कहा है. इस का अर्थ होता है, कि दो दोषों से जनित आमवात "याप्य अर्थात असाध्य" होता है🙄 याप्य यह असाध्य का एक प्रकार है और दूसरा प्रकार जैसे कि सब जानते है, वह प्रत्याख्येय है.


और आश्चर्य की बात है, कि सान्निपातिक अर्थात त्रिदोषजन्य आमवात को कृच्छ्रसाध्य लिखा है अर्थात वह "साध्य है", क्योंकि साध्य के दो प्रकार है सुख साध्य और कृच्छ्रसाध्य.


तो ये सामान्य आयुर्वेदिक सिद्धांत के विरुद्ध है, कि एक दोष जन्य साध्य है, यह ठीक है ... किंतु त्रिदोषजन्य सन्निपातजन्य साध्य है, कृच्छ्र क्यू न हो, किंतु साध्य तो है!!! 


और द्विदोषजन्य, जो दोष की संख्या 2 है , अर्थात 3 से कम है, वह याप्य अर्थात असाध्य है!!! 😇🙃


दूसरा, अम्लपित्त निदान माधव ने लिखा !!!


जिसमे वस्तुतः रोग का वर्णन हि नहीं है. अगर आप अम्लपित्त का प्रथम श्लोक देखेंगे, तो जहा पर अम्लपित्त का लक्षण/definition इस श्लोक मे दिया है, वह पर्याप्त नहीं है. वह रोग की परिभाषा नही बताता है. ना हि उसमे दूष्य है , ना हि उसमे स्थान है , ना हि दोषों का प्रकोप है ... 

उसने लिखा है 

... विदग्धम् ।

पित्तं स्वहेतूपचितं पुरा यत् 

तद् अम्लपित्तं प्रवदन्ति सन्तः ॥

इसमे कही पर भी दोष दुष्ट होकर, प्रकुपित होकर, उनका प्रसर होकर, किसी स्थान में संश्रय करके, रोग की व्यक्ती करते है ... ऐसा संप्राप्ति का प्रवास नही दिखता है. अर्थात दोषदुष्टि, संचार, स्थान संश्रय और रोग की निर्वृत्ति यह नहीं दिखता. या तो आप सुश्रुतोक्त षट् क्रिया काल के अनुसार देखे या वाग्भटोक्त संप्राप्ति लक्षण के अनुसार देखे ... अम्लपित्त का माधव करने लिखा हुआ लक्षण/स्वरूप/definition इन दोनो निकषों को पूर्ण नही करता है.

इसमे शब्द आता है ... "उपचितम्".

इस "उपचित" शब्द मे दो भाग है ... उप और चित. चित का अर्थ होता है, चय जिसका "हो गया है" happened completed already.

... पास्टपार्टिसिपल ऑफ (past participle of) चय/चिञ्.

उप का अर्थ होता है, समीप नजीक नददीक करीब पास ... यांनी उप का अर्थ उस अंतिम स्थिती तक नही पहुंचा है , उसके "थोडा पहले" है. Runner Up.

जैसे कि, उपप्राचार्य, अर्थात प्राचार्य नहीं, प्राचार्य से थोडा कम!

उपराष्ट्रपती, अर्थात राष्ट्रपती नहीं, राष्ट्रपती से थोडा कम.

वैसे उपचित का अर्थ उस चय अवस्था से अभी कम है, पूर्वस्थिती में है. अभी जो विदग्धपित्त चय अवस्था से भी कम की स्थिती मे हो, वह प्रकोप प्रसर स्थानसंश्रय ऐसी अवस्थाओ को पार करके, रोग की निर्मिती/निर्वृत्ति/व्यक्ति, अम्लपित्त के रूप मे कब करेगा, कैसे करेगा ? 🤔⁉️ अर्थात उपचित अवस्था के पित्त को अगर अम्लपित्त कहना है, तो वो केवल एक किसी अन्य रोग का आरंभ है, स्वयं आविष्कृततम रोग है हि नही.


यही बात शीतपित्त के बारे मे भी है. शीतपित्त का भी प्रथम श्लोक प्रदुष्ट कफवात ये पित्त के साथ मिलकर अंतर्बाह्य विसर्पण प्रसरण करते है, इतना हि लिखा है. लेकिन किसी दूष्य का या विशिष्ट स्थान का उल्लेख नही हुआ है. इसकी कही पर साध्याऽसाध्यता भी नहीं दी है.

संभवतः अत्यंत विद्वान टीकाकार विजयरक्षित ने माधवकर के रोगविनिश्चय पर टीका लिखी, इस कारण से भी, रोगविनिश्चय को मान्यता मिली होगी.

अगर ठीक से देखा जाये, तो विजयरक्षित की व्युत्पन्न टीका, केवल प्रथम अध्यायमे हि सविस्तर रूप मे उपलब्ध है. बाकी के आगे के अध्यायों मे उतना सविस्तर, वैशिष्ट्यपूर्ण, वैविध्यपूर्ण या विशेष विवरण उपलब्ध नही होता है.


अगर प्रथम अध्याय की ही विशेषता लिखी जाये, तो प्रथम अध्याय का 90% (प्रतिशत) श्लोकग्रहण अष्टांग हृदय निदान स्थान प्रथम अध्याय सर्व रोग निदान से है, जो वाग्भट के श्लोक है ...

और आश्चर्य की बात यह है कि पूर्वरूप की टीकामे विजय रक्षित यह संभवतः भूल जाता है कि, वह टीका किस पर लिख रहा है!? माधवकर की प्रशंसा करने की जगह, वह पूर्वरूप का श्लोक ... प्राग्रूपं येन लक्ष्यते॥ उत्पित्सुरामयो ... यह जिसने मूल रूप मे लिखा है, उस श्रीमद् वाग्भटाचार्य को हि "परमकुशल" इस विशेषण शब्द से संबोधित करता है, न कि माधवकर को. इससे भी यही निश्चित रूप से प्रतीत होता है, कि विजय रक्षित भी, उस समय, अष्टांग हृदय के श्लोक पर हि टीका लिख रहा है, न कि माधवकर के रोगविनिश्चय पर!!!


"सोपद्रवारिष्ट" इस प्रकार का विशेषण रोगविनिश्चय की भूमिका मे लिखा हुआ है, कि मै रोगों का वर्णन उपद्रव और अरिष्ट के साथ लिखूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा माधवकर करता है, किंतु 69 मे से 10% रोगों के विवरण मे भी, उपद्रव या अरिष्टों या दोनों का वर्णन उपलब्ध नही होता है.


तो इस प्रकार से अगर... 

1.

स्वयं के लिखे हुए तीन रोगों के निदान में दोष है ...

2.

और बाकी 66 अध्याय भी, अगर अन्य ग्रंथ से अधिकार को देखे बिना, केवल पद्यात्मक या श्लोकात्मक विवरण उपलब्ध है, इस कारण से ग्रहण किये है, 

3.

प्रतिज्ञा करके भी उपद्रव या अरिष्ट इनका वर्णन सर्व अध्यायों में उपलब्ध नही है,


तो ऐसी स्थिती मे माधवकर को निदान विषय का श्रेष्ठत्व देना अनुचित है.


इस लेखमाला के अंतिम लेख मे *निदान मे वाग्भट हि कैसे श्रेष्ठ है*, अपितु केवल निदान स्थान हि नहीं बल्कि, निदान शारीर चिकित्सा तथा बाकी भी सभी स्थानों के विषय विवरण में, वाग्भट हि श्रेष्ठ है, इस प्रकार की सिद्धी की जायेगी.


इस लेखका उद्देश्य यह है, कि आयुर्वेद के विषयों का अध्ययन उचित रूप मे हो. योग्य संदर्भ का अध्ययन करने से हि शास्त्र का आकलन यशःप्रद हो सकता है. 


अन्यथा; ड्रग & डिसीज , परंपरागत नुस्खे टोटके फार्मुले पर चलने वाली, औषध बेचने का धंदा स्वरूप drug sale & trade bussiness type) चिकित्सा व्यवहार हि प्रचलित होती है.


या फिर आयुर्वेद के संहिताग्रंथों को छोडकर तथा आयुर्वेद की भैषज्य कल्पना से अत्यंत विसंगत रसकल्प को शरण जाने की अगतिकता असहाय्यता प्रायः सभी जगह दिखाई देती है.


लेखक: 

Copyright © वैद्य हृषीकेश बाळकृष्ण म्हेत्रे. म्हेत्रेआयुर्वेद. MhetreAyurveda

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_(Disclaimer/अस्वीकरण: लेखक यह नहीं दर्शाता है, कि इस गतिविधि में व्यक्त किए गए विचार हमेशा सही या अचूक होते हैं। चूँकि यह लेख एक व्यक्तिगत राय एवं समझ है, इसलिए संभव है कि इस लेख में कुछ कमियाँ, दोष एवं त्रुटियां हो सकती हैं। भाषा की दृष्टी से, इस लेखके अंत मे मराठी भाषा में लिखा हुआ/ लिखित डिस्क्लेमर ग्राह्य है)_

डिस्क्लेमर : या उपक्रमात व्यक्त होणारी मतं, ही सर्वथैव योग्य अचूक बरोबर निर्दोष आहेत असे लिहिणाऱ्याचे म्हणणे नाही. हे लेख म्हणजे वैयक्तिक मत आकलन समजूत असल्यामुळे, याच्यामध्ये काही उणीवा कमतरता दोष असणे शक्य आहे, ही संभावना मान्य व स्वीकार करूनच, हे लेख लिहिले जात आहेत.

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Wednesday, 3 January 2024

धातु भस्म निर्माण करना अर्थात भस्मजन्यकल्प का उपयोग करना, तुरंत हि बंद करना आवश्यक है.

धातु भस्म निर्माण करना अर्थात भस्मजन्यकल्प का उपयोग करना, तुरंत हि बंद करना आवश्यक है.



लेखक : 

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लोहानां मारणं श्रेष्ठं 

सर्वेषां रसभस्मना ।

मूलीभिः मध्यमं प्राहुः 

कनिष्ठं गंधकादिभिः ॥

अरिलोहेन लोहस्य

मारणं दुर्गणप्रदम् ॥


अगर आप इस इस श्लोक को ठीक से समजते है, तो कृपया धातुभस्म निर्माण करना, तथा धातुभस्मजन्य कल्पों का उपयोग करना, तुरंत बंद कर देना चाहिए.


लोह अर्थात किसी भी धातु अर्थात मेटल का सर्वश्रेष्ठ भस्म, यह रसभस्म के उपयोग से हि बन सकता है. क्योंकि रसभस्म का प्रयोग करके अगर मारण भस्मीकरण करेंगे, तो तापमान के कारण, उष्णता के कारण, अग्नि के कारण, पारद तो उड जायेगा और नीचे बनने वाला रहनेवाला धातु का भस्म 100% मेडिसिन उसी धातु का होगा. 


किंतु स्वयं रसभस्म यही एक असंभव अशक्य कल्पनारम्य कही सुनी जानेवाली वाग्वस्तुमात्र चीज है. विश्व मे रसभस्म का अस्तित्वही नही है. दुनिया मे रसभस्म कभी बना ही नही , आज भी कही पर भी बनता ही नही और नही आगे बनने की कोई आशा उम्मीद है.


रसभस्म हो ही नही सकता! इसी कारण से लोग रससिंदूर से काम चलाते है, किंतु भस्म की जो परीक्षा है, क्या वो रससिंदूर को लागू होती है? रेखा पूर्ण? वारितरत्व? निश्चन्द्र? नही!!! रसका ऐसा कोई भी बंध नही है, जिसे रसभस्म कहा जा सके, जो भस्म की सामान्य परीक्षा मे उत्तीर्ण हो सके, योग्य सिद्ध हो सके. 


रसभस्म बनता ही नही, बन सकताही नही. इसी कारण से अनेक कल्पों में आपको शुद्धं सूतं यही लिखा मिलेगा आपको कही पर भी "मृतम् रसं / रसभस्म/ मारितं रसं/ मृतं सूतं" ऐसा उल्लेख नही मिलता.


पारद को शुद्ध करके प्रयोग करने का ही विधान है.

वह शुद्धी भी कही/कई लोग अष्ट संस्कार से नही करते है. केवल लसूण से काम चलाते है. अगर लसुन जैसे अत्यंत तीक्ष्ण वीर्य के द्रव्य से शुद्ध किया हुआ पारद अगर चंद्रकला या वसंत कुसुमाकर ऐसे मृदुकल्पो मे प्रयुक्त किया जाये, तो क्या वह उचित होगा?


पारद के मारण का / भस्मीकरण का, ना तो विधी और ना हि उपयोग, कही पर भी उल्लेखित है.


दूसरा अगर मूलीभिः याने वनस्पती द्रव्यों से मारण करेंगे , तो भस्म निर्माण करेंगे तो, कई पुट लगते है. कुछ रसकल्प बनाने वाले अनुभवी वैद्यो का कहना है कि 40 पचास पुट तो यूही लग जाते है. अगर 40 पचास पुट देंगे, तो हर बार उस वनस्पती द्रव्य की कितनी रक्षा, उस मूल औषधी द्रव्य मे , धातु के भस्म मे, मिलती चली जायेगी, तो औषधी का प्रमाण परसेंटेज उतनाही कम होता जायेगा. कॉन्सेन्ट्रेशन कम होगा , डायलूशन बढता जायेगा , अनावश्यक औषधी(?) द्रव्य उसमे जुडता चला जाएगा जो की अनपेक्षित और निरूपयोगी है, क्योंकि वनस्पती के अंशो की रक्षा या ऐश धातू भस्म का तो अंग भाग या स्वरूप है नही.


अभी तिसरा प्रकार... गंधक इत्यादी से मारण करना. ये तो स्वयं शास्त्रकार हि लिखते है , की यह कनिष्ठ है, तो क्या हम अपने अन्नदाता भगवान स्वरूप पेशंट को कनिष्ठ भस्मक देंगे? या कनिष्ठ भस्मोसे निर्मित रसकल्प देंगे? क्या ये आपकी नैतिकता को मान्य है?


अच्छा रसभस्म से अगर भस्म बनता तो व शायद कार्बोनेट या ऑक्साईड बनता, जो प्रायः उत्तम (या मध्यम) होता है.

वनस्पती से अगर भस्म बनता है, तो वो प्रायः ऑक्साईड होता है, किंतु उसमे मॅग्नेशियम आदि पदार्थ भी ॲश / वनस्पती की रक्षा के रूप मे संमिलित हो जाते है, जो की अवांछित है उस औषध मे याने औषध का 100% रहे बिना उसका परसेंट उस ॲश/रक्षा के कारण कम होता चला जाता है.


गंधकादि से निर्माण करते है, तो ऑक्साईड या कार्बोनेट निर्माण होने की बजाय, सल्फेट निर्माण होता है / सल्फाईड निर्माण होता है, जो की साक्षात विष द्रव्य है ...


और इस से भी बदतर अधम अगर कुछ है, तो वो है *अरि लोह से मारण*, जिसे स्वयं शास्त्रकार इस श्लोक मे दुर्गुणप्रद कहते है. याने वो तो संभवतः साक्षात विष निर्मिती हि है !!!


किंतु अगर आप शास्त्र के श्लोक देखेंगे , तो उसमे प्रायः गंधक हरताल मनःशिला टंकण क्षार इनके ही द्वारा भस्म निर्मिती का विधान होता है.


मूल श्लोक मे रसभस्म से निर्मित भस्म सर्वोत्तम लिखा गया है , वो तो दुष्कर है , अशक्य है , असंभव है, कल्पनारम्यता है. 


रसभस्म निर्माण हि नही हो सकता है, नागार्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि, *सिद्धे रसे करिष्यामि निर्दारिद्र्यम् "इदं" जगत्* ... इदं this यह


रसशास्त्र तो सोना बनाने के लिए निर्माण हुआ था, किमयागिरी के लिए निर्माण हुआ था, लेकिन कुछ लोग धातुवाद को, देहवाद में भी, जोडने के लिये, उसको आयुर्वेद मे घुसेडने के लिए, खीचने के लिए, कुछ लोगो ने , इस प्राचीन श्लोक मे पाठांतर उत्पन्न किया और लिखा की सिद्धे रसे करिष्यामि निर्दारिद्र्य-"गदं" जगत्* ... गदं disease रोग लिखा, किंतु वस्तुस्थिती ये है की , "करिष्यामि" यह भविष्य काल है और आज तक भविष्यकाल ही बना हुआ है.

वर्तमान काल मे या भूत काल मे कभी भी रसभस्म बना ही नही. रस सिद्ध हुआ ही नही, इसलिये ना दारिद्र्य हटा , ना सोना निर्माण हुआ , ना रोग हटे ... ना निरामयता प्राप्त हुई!!!! 

... तो रसभस्म यह एक आकाशपुष्प है, रसभस्म यह गगनारविंद है, रसभस्म यह हेत्वाभास हे , भ्रम है , भ्रांती है, कल्पना है, स्वप्न है, वाग्वस्तुमात्र है.


इस कारण से , रसभस्म से जो उत्तम भस्म बनने की बात लिखी है, वही स्वयं असंभव है , इसीलिए अगर शास्त्र के इस श्लोक को मानेंगे और उसकी प्रॅक्टिकल दुविधा दुरवस्था दुष्परिणाम देखेंगे ...

1.

रसभस्म तो असंभव है. रससिंदूर रसभस्म नही है. रससिंदूर भस्म की किसी भी परीक्षा मे खरा नही उतरता है और पारद का अन्य कोई भी ही बंध या कल्पना रस भस्म नही है और वो भस्म की परीक्षा मे निकषो मे उत्तीर्ण नही हो सकती.

2.

धातू भस्म की सारे निकष परीक्षा पूरी पास हो इतना अच्छा धातु भस्म बनाने के लिए मूली अर्थात वनस्पती द्रव्य के देने इतने पुट देने पडते है, जो आर्थिक दृष्ट्या बहुत दुष्कर unaffordable है और अगर ऐसे वनस्पती जन्यपुट दिये भी, तो वनस्पती की रक्षा ॲश ash उस मूल धातु भस्म मे मिलती बढती चढती चली जाती है, जिससे मुल धातु भस्म का परसेंट, कुल राशी मे घटता चला जाता है, हर एक पुटके बाद!

3.

गंधक इत्यादी से मारण करना, तो स्वयं शास्त्रकार श्लोक मे ही अधम हीन कनिष्ठ लिखते है, तो ऐसे अधम हीन कनिष्ठ धातु भस्म का प्रयोग करना , यह नैतिकदृष्ट्या अपराध है और पेशंट के साथ अन्याय है, जो पेशंट हमारे लिए अन्नदाता भगवान होता है

4.

और आज सभी जगह प्रायः जिस विधि से धातु भस्म बनता है, वो विधी तो गंधक हरताल मनःशिला टंकण क्षार ऐसे अरिलोहात्मक पद्धतीसे ही बनती है, जिसे स्वयंशास्त्रकारने हि दुर्गुणप्रद लिखा है ...


तो इस प्रकार से धातु भस्म निर्माण, उपरोक्त चारो प्रकारों से करेंगे, तो भी वह हानिकारक हि है, अनिष्ट है , आरोग्य नाशक है , अनैतिक है ...

इस कारण से अगर मूल श्लोक का ठीक से अध्ययन किया जाये और उसकी आज की स्थिति देखी जाये, तो धातुभस्म निर्माण करना बंद करना चाहिए तुरंत!!! और धातुभस्म से निर्माण होने वाले कल्प भी उपयोग मे लाना त्यागना चाहिए. यही, अन्नदाता भगवंत पेशंट के प्रति, हमारा नैतिक उत्तरदायित्व है.

 तो भस्म निर्माण करना ही बंद कर देना चाहिए और भस्मजन्य रसकल्पोंका सर्वथा त्याग करना चाहिए !!!


अल्पमात्रोपयोगी स्यात्

अरुचे: न प्रसंग: स्यात् ।

क्षिप्रम् आरोग्यदायी स्यात्

*सप्तधा भाविता वटी* ।। ✅️ ✅️ ✅️


भूयश्चैषां बलाधानं कार्यं स्वरसभावनैः ।

सुभावितं ह्यल्पमपि द्रव्यं स्याद्बहुकर्मकृत् ॥

स्वरसैस्तुल्यवीर्यैर्वा तस्माद्द्रव्याणि भावयेत् ।

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ऑलिगो एस्थिनो स्पर्मिया oligo astheno spermia और द्रुत विलंबित गो सप्तधा बलाधान टॅबलेट

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वैद्य हृषीकेश म्हेत्रे

आयुर्वेद क्लिनिक्स @ पुणे & नाशिक 

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Disclaimer/अस्वीकरण: लेखक यह नहीं दर्शाता है, कि इस गतिविधि में व्यक्त किए गए विचार हमेशा सही या अचूक होते हैं। चूँकि यह लेख एक व्यक्तिगत राय एवं समझ है, इसलिए संभव है कि इस लेख में कुछ कमियाँ, दोष एवं त्रुटियां हो सकती हैं। भाषा की दृष्टी से, इस लेखके अंत मे मराठी भाषा में लिखा हुआ/ लिखित डिस्क्लेमर ग्राह्य है


डिस्क्लेमर : या उपक्रमात व्यक्त होणारी मतं, ही सर्वथैव योग्य अचूक बरोबर निर्दोष आहेत असे लिहिणाऱ्याचे म्हणणे नाही. हे लेख म्हणजे वैयक्तिक मत आकलन समजूत असल्यामुळे, याच्यामध्ये काही उणीवा कमतरता दोष असणे शक्य आहे, ही संभावना मान्य व स्वीकार करूनच, हे लेख लिहिले जात आहेत.


Disclaimer: The author does not represent that the views expressed in this activity are always correct or infallible. Since this article is a personal opinion and understanding, it is possible that there may be some shortcomings, errors and defects in this article.